अपने नाती के मुंह में ग्रास डालते हुए मैं वही गाना गाती हूं जो बरसों पहले उसकी मां के लिए गाती थी- 'आ जा चिड़या आ जा री / चुग-चुग दाना खा जा री / आती हूं मैं आती हूं / फुदक-फुदक कर आती हूं / चुग-चुग दाना खाती हूं / झट ऊपर उड़ जाती हूं।' पर एक भी चिड़िया नहीं आती। लेकिन तब तो आंगन भर जाता था। एक ग्रास बच्चे के मुंह में डालती और एक के नन्हे-नन्हे टुकड़े कर के आंगन में छितरा देती। बड़ों के नाश्ते और दोपहर के खाने में भी उनका हिस्सा होता ही था। पंत की चिड़ियों की तरह 'टी वी टी टुट टुट' की चहक से आंगन गूंजने लगता।
यह पक्षी बच्चों के खेल में भी भागीदार रहते थे। बचपन में स्कूल से आकर मैं और भैया सारी दोपहर छत पर बिताते। एक टोकरे में रस्सी बांध कर, उसमें एक डंडी अटकाते और उसे उलटा कर के रख देते। अंदर गेहूं के दाने बिखेर देते। रस्सी का एक छोर पकड़ कर दूर बैठ जाते। चिड़ियों का झुंड आता तो रस्सी खींच देते। ज्यादातर तो उड़ जातीं। बस एक हाथ में आती। कटोरियों में रखी कभी लाल और कभी नीली स्याही में कपड़ा भिगो कर हम उसके पंख रंग देते। अपनी मुट्ठी में उसकी तेज धड़कन और नर्म स्पर्श महसूस करके, वापस आकाश में उड़ा देते। जब-जब हमारी रंगी चिड़िया आती तो अनोखा जुड़ाव लगता।
घरों के दरवाजे-खिड़कियां खुली रहतीं। इन पखेरुओं की बेरोकटोक आवाजाही बनी रहती। दीवार पर टंगे शीशे को ढक कर रखना पड़ता। कभी भूल जाते तो अपना अक्स देखकर पक्षी उत्तेजित हो जाते। दूसरी चिड़िया समझकर उसे भगाने के लिए चोंच मार-मार कर घायल हो जाते। शीशे पर निशान तो पड़ ही जाते, उनकी तीखी आवाजें कभी-कभी परेशान कर जातीं।
जब घरों में पंखे लगे तो इन पक्षियों के टकराने का खतरा बना रहता। गर्मी में पंखा बंद करना भी मुश्किल होता। एक बार पेलमेट पर बनाए घोंसले में चिड़िया ने अंडे दिए। बच्चे निकले तो मां-बाप दोनों सारा दिन चोंच में कुछ-कुछ भरकर लाते और बच्चों के गले में उतार देते। उन के आने और जाने पर बच्चों की चीं-चीं पंचम स्वर तक पहुंच जाती। चिड़िया एक बार दाना लाने में जितना समय लगाती, चिड़ा उतने में चार बार खिला जाता। घर में इस परिवार के आदर्श समर्पित भाव का किस्सा बार-बार सुना-सुनाया जाता। फिर एक दिन ऐसे बेतहाशा आने-जाने वाला चिड़ा पंखे की चपेट में आ गया।
धड़ कहीं गिरा, सिर कहीं। खून के कतरे पलंग और दीवारों पर छिटक गए। मेरे दोनों बच्चे रोने लगे। मैंने कांपते हाथों से रूमाल से उसका सिर उठाकर धड़ पर जमा दिया। उम्मीद थी कि ताजा कटा शरीर जुड़ जाएगा। पर नहीं, वह तो अपने बच्चों और मीत के लिए कुर्बान हो चुका था। दो तीन दिन तक चिड़िया उदास सी, भारी पंखों से उड़कर बच्चों को खाना देने आती। फिर एक नया चिड़ा साथ आने लगा। पर वह दरवाजे पर ही बैठा रहता चिड़िया के इंतजार में।
चिड़िया बच्चों को दाना देकर आती तो इकट्ठे उड़ जाते। यह क्रम तब तक चला जब तक कि बच्चे उड़ना नहीं सीख गए। उन्हें खुले आकाश में उड़ान भरना सिखाकर वह जोड़ा नया घर बसाने निकल पड़ा। कौन कहता है कि ये पक्षी सोच नहीं पाते। अपने भविष्य की योजना नहीं बना पाते। नया जीवन शुरू करने से पहले अपने दायित्व को पूरा करना, और साथी का इतने धैर्य से प्रतीक्षा करना आपसी रिश्तों को निभाने की मिसाल बन गया।
चिड़िया बच्चों को दाना देकर आती तो इकट्ठे उड़ जाते। यह क्रम तब तक चला जब तक कि बच्चे उड़ना नहीं सीख गए। उन्हें खुले आकाश में उड़ान भरना सिखाकर वह जोड़ा नया घर बसाने निकल पड़ा। कौन कहता है कि ये पक्षी सोच नहीं पाते। अपने भविष्य की योजना नहीं बना पाते। नया जीवन शुरू करने से पहले अपने दायित्व को पूरा करना, और साथी का इतने धैर्य से प्रतीक्षा करना आपसी रिश्तों को निभाने की मिसाल बन गया।
आजकल ए.सी. और कूलर के लिए या सुरक्षा के नाम पर घरों को बंद किला बना दिया गया है। कौवों, चीलों, मैनों और सांपों से बचने के लिए ये नन्हे जीव पेड़ छोड़ कर घरों के रोशनदान, अलमारियां, पेलमेट आदि पर आशियाना बना लेते हैं। अब तो वे लुप्तप्राय जीवों में शामिल कर लिए गए हैं। इसके लिए मोबाइल टावर की तरंगों, कीड़ों को मारने के लिए इस्तेमाल में आने वाली विषैली दवाओं को जिम्मेवार ठहराया गया है। चिड़िया गुजरे जमाने की कथा-कहानियों का हिस्सा बन गई हैं। बच्चों को बहलाने वाली चुग-चुग दाना खाने वाली क्या अब कभी उत्तर नहीं देगी- 'आती हूं मैं आती हूं, फुदक-फुदक कर आती हूं?'Path Alias
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