नैनीताल। देश-दुनिया के सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र नैनीताल की खूबसूरत झील इस दौरान अपने इतिहास के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। एक दौर में बारहों महीने पानी से लबालब भरे रहने वाली नैनी झील अब पर्याप्त पानी के लाले पड़ गए हैं। इस साल की बरसात बीतने को है, पर नैनी झील अभी तक पूरी तरह पानी से भरी नहीं है।
झील में मानक के मुताबिक पानी नहीं होने के चलते इस बार झील के निकास गेटों को खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ी। नैनी झील का बेहद महत्त्वपूर्ण जल संग्रहण समझे जाने वाली बरसाती झील सूखाताल इस साल सूखी ही रही। नैनीताल में रहे-बचे करीब डेढ़ दर्जन प्राकृतिक जलस्रोतों में भी अबकी बरसात में अपेक्षित मात्रा में पानी नजर नहीं आया।
नैनीताल की झील बाहरी हिमालय में मेन बाउंड्री थ्रस्ट के करीब स्थित प्रकृति की एक दुर्लभ रचना है। चारों ओर सात पर्वत शृंखलाओं से घिरे नैनीताल की भू-आकृति कटोरानुमा है। इन पहाड़ियों के बीच समुद्र की सतह से 1938 मीटर ऊँचाई पर भव्य नैनी झील स्थित है।
एक दौर में इस झील की लम्बाई करीब 1433 मीटर और चौड़ाई करीब 465 मीटर, गहराई 28.3 मीटर तथा झील की परिधि 3621 मीटर थी। तालाब की सतह का क्षेत्रफल 487.639 मीटर था। झील का क्षेत्रफल 120.5 एकड़ था। तालाब के पानी का रंग नीला-हरा था। पानी एकदम साफ-सुथरा पीने योग्य था। झील से लगी पहाड़ियों में स्थित सदाबहार झरने तालाब को हमेशा पानी से भरा रखते थे।
नैनीताल के खोजकर्ता के रूप में विख्यात पीटर बैरन उर्फ पिलग्रिम ने 1844 में प्रकाशित अपनी पुस्तक -'नोट्स ऑफ वांडरिंग्स इन द हिमाला' में लिखा है कि नैनीताल के- 'अयारपाटा पहाड़ी में समुद्र सतह से सात हजार फीट ऊँचाई पर पानी के झरने हैं। जाँच से पता चला है कि यह पानी लंदन के लिये भी पर्याप्त है।'
नैनीताल पट्टी छःखाता के अन्तर्गत आता है। छःखाता का भावार्थ है- 60 झीलों वाला क्षेत्र। अंग्रेजी राज में लिखे गए गजेटियरों में नैनीताल को ‘साठ झीलों वाला जिला’ कहा गया है। इनमें से बहुत-सी झीलें कालान्तर में गाद जमने से भर गईं। कुछ झीलें तो हाल के वर्षों में ही अस्तित्व विहीन हुई हैं। अब कुछ मायने रखने वाली झीलों में नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल, सातताल और खुर्पाताल आदि बची हैं।
नैनी झील नैनीताल का प्राण है। झील ही यहाँ के लोगों को रोजी-रोटी, भोजन-पानी, पहचान और आत्मसम्मान देती है। तालाब की सेहत और खूबसूरती से नैनीताल की खूबसूरती है। पर्यटन है, रोजगार है। सालाना अरबों का कारोबार है। इस झील से नैनीताल नगर ही नहीं बल्कि आसपास के इलाकों के लोगों को भी पीने का पानी और रोजगार मिलता है।
नैनीताल का वजूद झील पर ही टिका है। नैनीताल की हरेक साँस तालाब के बूते चलती है। यहाँ के जीवन का सम्पूर्ण ताना-बाना झील के इर्द-गिर्द ही घूमता है। सभी सरकारी योजनाएँ इसी झील की बुनियाद पर बनती हैं। पर आज यही झील तकरीबन लावारिस है।
नैनीताल को भू-गर्भिक नजरिए से बेहद नाजुक नगर माना जाता है। नैनीताल के भू-गर्भिक और पारिस्थितिकीय मिजाज में स्थायित्व कभी नहीं रहा। नैनीताल की पहाड़ियाँ यहाँ मानवीय हस्तक्षेप से पहले भी प्राकृतिक तौर पर रुठती रही हैं। रोजा (शाहजहाँपुर) के शराब कारोबारी पीटर बैरन की पहल पर 1842 में नैनीताल में बसावट शुरू हुई।
एक वीरान जंगल को संसार के सबसे बेहतरीन व्यवस्थित और आदर्श नगर के रूप में विकसित करने के जज्बे से लबरेज चन्द लोगों की पहल पर 1845 में यहाँ म्युनिसिपल कमेटी (अब नगरपालिका) बन गई। म्युनिसिपल कमेटी ने जरूरत के मुताबिक अलग-अलग वक्त पर एक आदर्श नगर के लिये जरूरी तमाम उपविधियाँ बनाईं और उनका खुद भी पालन किया और कड़ाई के साथ दूसरे बाशिन्दों से कराया भी।
1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजों के लिये नैनीताल को एक महत्त्वपूर्ण हिल स्टेशन बना दिया। नतीजतन 1962 में नैनीताल 'नॉर्थ वेस्ट प्रॉविंसेज एंड अवध' की गर्मियों की राजधानी बन गया।
अंग्रेज बिना जरूरी संसाधनों के नैनीताल में आदर्श नगरीय अधिसंरचनात्मक में जुटे ही थे कि बसावट शुरू होने के पन्द्रह साल बाद 1867 में मल्लीताल के पॉपुलर स्टेट में भू-स्खलन हो गया। गोया इस भू-स्खलन से जन-धन की बहुत ज्यादा हानि तो नहीं हुई। पर नैनीताल ने अंग्रेजों को अपनी क्षण भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र की इत्तला जरूर दे दी। अंग्रेजों ने प्रकृति की इस चेतावनी को गम्भीरता से महसूस किया। नैनीताल की हिफाजत के लिये कई विशेषज्ञ कमेटियाँ बनी। संरक्षण और विकास की वैज्ञानिक विधियाँ अपनाई गईं।
संरक्षणात्मक उपायों के साथ प्रकृति के दोहन पर जोर दिया गया। नैनीताल की आहलादित कर देने वाली शुद्ध हवा, प्राकृतिक वातावरण की शुद्धता और मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य ने अंग्रेजों को मोहा। बच्चों के पोषण और विकास के लिये नैनीताल के स्वच्छ और शुद्ध वातावरण के चलते 1858 में यहाँ अमेरिकन ईसाई मिशनरी के स्कूल खुलने लगे।
अनेक संरक्षणात्मक उपायों के बावजूद 18 सितम्बर 1880 को शेर-का-डांडा पहाड़ी में हुए विनाशकारी भू-स्खलन ने अंग्रेजों को भीतर तक हिला कर रख दिया। इस भू-स्खलन में 108 भारतीय और 43 यूरोपियन समेत 151 लोग दब कर मर गए। भू-स्खलन ने देवी का मन्दिर, विक्टोरिया होटल और इसके आसपास के कई मकान, असेम्बली रूम समेत तालाब के एक हिस्सा लील लिया।
नैनीताल को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के सुझाव देने के लिये कई वैज्ञानिक और इंजीनियरों की कमेटियाँ बनीं। सबकी राय बनी कि नैनीताल को बचाए और बनाए रखने के लिये प्रकृति के साथ अनुकूलन करते हुए नाला तंत्र विकसित किया जाना जरूरी है। लिहाजा एक नायाब नाला तंत्र बनाया गया। समूचे नैनीताल को छोटे-बड़े प्राइवेट और सार्वजनिक नालों से बाँध दिया गया।
ब्रिटिश हुक्मरानों ने नैनीताल की कमजोर पहाड़ियों और तालाब की हिफाजत के लिहाज से नैनीताल के नालातंत्र को पाँच हिस्सों में बाँटा। बड़ा नाला सिस्टम, शेर-का-डांडा नाला सिस्टम, अयारपाटा नाला सिस्टम, छावनी परिषद नाला सिस्टम और तालाब से बाहर गिरने वाला नाला सिस्टम बनाए गए। 1880 से 1928 के बीच शेर-का-डांडा नाला सिस्टम के तहत 22 बड़े और 111 छोटे ब्रांच नाले बने। बड़ा नाला सिस्टम में 11 बड़े और 71 छोटे नाले बनाए गए। अयारपाटा नाला सिस्टम में 9 बड़े और 5 ब्रांच नाले बने।
छावनी परिषद नाला सिस्टम में 10 बड़े और 11 ब्रांच नाले बने। जबकि तालाब से बाहर गिरने वाले नाला सिस्टम में 31 बड़े और 4 छोटे नाले बने। कुल मिलाकर 69 बड़े और 234 छोटे ब्रांच नाले बनाए गए। इन नालों की लम्बाई करीब डेढ़ लाख फीट से ज्यादा थी।
निजी भवन मालिकों को अपने आवासीय परिसर के पानी के निकास के लिये नाले बनाने और इन नालों को पास के सार्वजनिक नालों से जोड़ना जरूरी बना दिया गया। इन नालों को नैनीताल की खून की नसें समझा जाता था। इसी संवेदनशीलता से नालों की हिफाजत की जाती थी।
अंग्रेज भूविज्ञानी जे.बी. ओडेन के एक रिपोर्ट में 1942 तक नैनीताल में सरकारी एवं निजी परिसरों में स्थित बड़े तथा ब्रांच नालों की कुल लम्बाई 90 मील यानि करीब 145 किलोमीटर बताई गई है। उन्होंने नैनीताल के इस नायाब और विशाल नालातंत्र को विश्व का एक रिकॉर्ड करार दिया है।
17 अगस्त 1898 को तालाब की जड़ से लगे बलिया नाले में ब्रेबरी के पास भू-स्खलन हो गया। इस हादसे में 27 लोग मारे गए। ब्रेबरी में स्थित शराब बनाने की फैक्टरी समेत आसपास के कई घर जमींदोज हो गए। ब्रेबरी के ताजा भू-स्खलन ने अंग्रेज हुक्मरानों को नैनीताल की सुरक्षा के बारे में नए सिरे से विचार करने पर मजबूर कर दिया। फिर विशेषज्ञ कमेटियाँ बनीं। सर्वे हुए। तय पाया गया कि नैनीताल को जिन्दा रखने की एक ही रामबाण दवा है- मजबूत और व्यवस्थित नालातंत्र। लिहाजा नैनीताल के नाला सिस्टम को और अधिक चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत महसूस की गई।
नैनीताल की पहाड़ियों, तालाब और नालातंत्र को व्यवस्थित और सुरक्षित रखने के लिये 6 सितम्बर 1927 को 'हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी' बनाई गई। कुमाऊँ के कमिश्नर को अध्यक्ष और लोक निर्माण विभाग के अधिशासी अभियंता को हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी का पदेन सचिव नियुक्त किया गया।
भू-गर्भ विज्ञान विभाग के भू-वैज्ञानिक समेत सिंचाई, स्वास्थ्य और दूसरे महकमों के आला अफसरों को इस कमेटी का सदस्य बनाया गया। नैनीताल के तालाब, पहाड़ियों और नालातंत्र के हिफाजत के लिये उपाय सुझाना और उन उपायों को जमीनी बनाने की जिम्मेदारी हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी की थी। हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी के सुझाव पर लोक निर्माण विभाग को वर्षा का वार्षिक औसत का रजिस्टर, तालाब के रख-रखाव और डिस्चार्ज का लेखा-जोखा, पहाड़ियों के सुरक्षा कार्यों का रिकार्ड, रजिस्टर और नगर के विभिन्न हिस्सों में बने आब्जर्वेशन पीलरों का रिकॉर्ड और पूरा ब्यौरा रखना होता था।
इंजीनियरों के लिये नालों, पहाड़ियों और आब्जर्वेशन पीलरों के मुआयने तय थे। मुआयने के बाद उन्हें तयशुदा फार्मों में अपनी रिपोर्ट देनी होती थी, जो कि हर साल बाकायदा छापी जाती थी। यह सब उनकी जिम्मेदारियों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। इसके लिये उन्हें किसी आग्रह या आदेश की दरकार नहीं थी।
उस दौर में वर्षा का पल-पल का रिकॉर्ड रखा जाता था। झील के जलस्तर का साप्ताहिक ग्राफ तैयार किया जाता था। कब, किस दिन और किस वक्त कितनी वर्षा हुई, इसमें से कितना पानी झील में गया और कितना बर्बाद हुआ, इसका भी रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था थी। नियमित रूप से तालाब की लम्बाई, चौड़ाई और गहराई नापी जाती थी।
झील के जलस्तर को बनाए रखने के लिये स्पष्ट नियम बने थे। प्रत्येक वर्ष के जुलाई महीने के आखिरी दिनों में झील का जलस्तर 8.5 फीट, 15 अगस्त तक 9.5 फीट और अगस्त के अन्त तक 10 फीट रखे जाने की व्यवस्था थी। अगर अगस्त के महीने में वर्षा न हो तो उस स्थिति में झील का जलस्तर 11 फीट रखा जा सकता था।
सितम्बर महीने की पन्द्रह तारीख को तालाब का जलस्तर 11 फीट और सितम्बर के आखिर में झील के जलस्तर को 12 फीट तक बरकरार रखते हुए निकासी गेट बन्द कर दिये जाते थे। जाड़े के दिनों में झील से जितना पानी लिया जाता था, प्राकृतिक जलस्रोतों द्वारा उससे कहीं अधिक पानी झील में पहुँच जाता था। तब यहाँ मौजूद प्राकृतिक जलस्रोत झील के जल स्तर को सदैव कायम रखते थे। उस दौरान झील के जल संग्रहण क्षेत्र के सभी प्राकृतिक जलस्रोतों का भी रिकार्ड रखे जाने की पुख्ता व्यवस्था थी।
इस साल एक जनवरी से 22 सितम्बर तक यहाँ तकरीबन 82 इंच वर्षा हो चुकी है। अब बरसात का मौसम तकरीबन खत्म होने को है। लेकिन अभी तक झील का जलस्तर 10 फीट का आँकड़ा पार नहीं कर पाया है। नैनीताल में वर्षा का सालाना औसत करीब 110 से 125 इंच रहा है।
नैनीताल नगर का सारा दारोमदार नैनी झील पर टिके होने के बावजूद पिछले करीब 18 सालों से झील की सालाना नाप-जोख तक नहीं हो पाई है। नगर की व्यवस्थाओं के लिये जिम्मेदार किसी भी सरकारी महकमें के पास नगर के प्राकृतिक जलस्रोतों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
अलग उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी की पिछले साल सिर्फ एक रस्मी बैठक हुई है। दूसरी ओर तालाब की हिफाजत की आड़ में करोड़ों रुपए की तमाम योजनाएँ चल रहीं हैं। हकीकत यह है कि कोई भी सरकारी महकमा तालाब की ओर झाँकने तक को तैयार नहीं है।
1947 में भारत आजाद हो गया। करीब तीन दशकों बाद तक आजाद भारत के जनप्रतिनिधियों और अफसरानों ने नगर की व्यवस्थाओं के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया। 1970 के दशक में उत्तर प्रदेश में नगर निकायों को भंग कर दिया गया। नगरपालिकाएँ प्रशासनिक नियंत्रण में चली गईं।
करीब एक दशक तक नगरपालिका प्रशासनिक नियंत्रण में रही। इसी दौर में शिक्षा, पानी और बिजली जैसे महकमें पालिका के हाथ से निकल गए। पालिका की खुद के नियम-कायदों से दुश्मनी शुरू हो गई। सियासी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। दुर्भाग्य से नैनीताल के पेड़, पहाड़, नाले और तालाब को वोट देने का हक हासिल नहीं था। लिहाजा इनकी उपेक्षा होनी तय थी। सो हुई।
सियासी वजहों के चलते सबसे पहले खुद सरकार ने नगर के सबसे महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील बड़े नाले (नाला न.26) के ऊपर लिंटर डालकर 'तिब्बती मार्केट' बनवा दी। फिर हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी के ही इंजीनियरों ने अपने प्लाटों का रकबा बढ़ाने के लिये नालों का गला घोट कर उनकी चौड़ाई घटाने की जुर्रत की। अनदेखी के चलते कई नालों का वजूद ही खत्म हो गया। जो बचे अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए। हाल के वर्षों में तो नाले मानो अर्थहीन हो गए।
नालों के पास एक ही काम बचा नगर के कूड़े-करकट और मिट्टी-मलबे को तालाब के उदर तक पहुँचना। या बड़े नालों के जरिए जल संस्थान के पानी के मोटे सप्लाई पाइपों और छोटी नालियों का काम है- बरसाती पानी के बजाय जल संस्थान के सर्विस नलों के जाल को ढोना।
1986 में नैनीताल को 'बृहत्तर नैनीताल' बनाने के घोषित लक्ष्य के साथ बृहत्तर नैनीताल विकास प्राधिकरण (अब झील विकास प्राधिकरण) आ गया। प्राधिकरण ने रही-बची कसर पूरी कर दी। विकास प्राधिकरण के वजूद में आने के बाद यहाँ भवन निर्माण कार्यों में एकाएक जबरदस्त तेजी आ गई। नैनीताल में 1901 में मकानों की संख्या 520 थी। 1980-81 में 2243 मकान थे। 1990-91 में इनकी संख्या 2543 हो गई। 2001 तक मकानों की तादाद 3950 हो गई। 2012 तक मकानों की संख्या 6800 का आँकड़ा पार कर गई। नैनीताल की बसावट 1842 से 1900 तक करीब साठ सालों के दौरान यहाँ कुल जमा 520 मकान बने। 1900 से 1990 तक नब्बे सालों में 2023 मकान बने। 1990 से 2001 तक 1417 और 2001 से 2012 तक सिर्फ बारह सालों के दौरान यहाँ 2950 बन गए। एक स्वतंत्र सर्वे के मुताबिक नैनीताल में मकानों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। नैनीताल में विभिन्न प्रकार की विकासात्मक गतिविधियों की कीमत अन्ततोगत्वा झील को ही चुकानी पड़ती है।
नैनीताल नगर समेत आलूखेत और कृष्णापुर आदि इलाके पीने के पानी के लिये झील पर निर्भर हैं। नैनीताल में आबादी बढ़ने के साथ ही उसी अनुपात में पीने के पानी की माँग भी बढ़ती चली जा रही है। वर्तमान में नैनीताल नगर में 5848 घरेलू और 897 गैर घरेलू कुल मिलाकर 6745 जल संयोजन हैं।
यहाँ गर्मियों के दिनों में हर रोज 19 से 22 एमएलडी और जाड़ों में 14 एमएलडी पानी की खपत होती है। पानी की सम्पूर्ण आपूर्ति झील पर निर्भर है। उत्तराखण्ड का जल संस्थान झील का पानी बेचकर सालाना करोड़ों रुपए कमा रहा है। पर झील को सेहतमंद और दीर्घायु रखने के प्रति जल संस्थान समेत सभी जिम्मेदार सरकारी महकमें लापरवाह बने हुए हैं।
1901 में नैनीताल की आबादी 7609 थी। 2001 में 38559 हो गई। 2011 की जनगणना में यहाँ की आबादी में 41377 आँकी गई और 9329 परिवार बताए गए हैं। जाहिर है कि पिछले दो दशकों के दौरान नैनीताल की आबादी बढ़ी है। मकान, दुकान, होटल और गेस्ट हाउस बढ़े। पर्यटक बढ़े। कारोबार बढ़ा। आमदनी बढ़ी। आमतौर पर ज्यादातर घरों में दोपहिया और चौपहिया वाहन हो गए। नगर का कोई भी मार्ग वाहनों की बेरोकटोक आवाजाही से निरापद नहीं रहा। दोपहिया और चौपहिया गाड़ियों की भरमार से पैदल चल पाना भी दूभर हो गया है।
नगर के सभी सड़क-रास्ते सार्वजनिक पार्किंग में बदल गए हैं। नगर की सभी बाजारें, सड़क, रास्ते, फ्लैट्स, पार्क, सार्वजनिक स्थल, नाले गन्दगी और अतिक्रमण की जबरदस्त चपेट में हैं। नगर की हरेक सड़क और गलियों में आवारा कुत्ते और दूसरे जानवरों ने अड्डा जमा लिया है। नगर का कोई भी इलाका वैध और अवैध निर्माण से अछूता नहीं है।
2003 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की पहल पर भारत सरकार ने नैनीताल की झील के संरक्षण एवं प्रबन्ध के लिये करीब 48 करोड़ रुपए की राष्ट्रीय झील संरक्षण परियोजना मंजूर की थी। इस योजना के तहत करीब पाँच करोड़ रुपए की लागत से झील में एयरेशन के अलावा और कोई काम नहीं हुआ।
2008-09 में जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत पहली किश्त के रूप में नैनीताल के लिये 4368 लाख रुपए मंजूर हुए। इधर झील को केन्द्र में रखकर एशियन बैंक की आर्थिक मदद से नैनीताल नगर की पेयजल आपूर्ति व्यवस्था के पुनर्गठन के लिये करीब 71 करोड़ रुपए खर्चे जा रहे हैं। इस योजना का काम फिलहाल चल रहा है।
नैनीताल की झील का ज्यादातर जल संग्रहण क्षेत्र कंक्रीट के जंगल से पट गया है। पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान यहाँ हुए हजारों वैध और अवैध भवन बन जाने से बरसात का पानी सोख कर झील को पानी देने के लिये अब यहाँ समतल जमीन नहीं बची है।
नैनीताल नगर में करीब एक सौ किलोमीटर लम्बी सड़कें हैं। इनमें से वाहन चालित सड़कों के रूप में मान्य सड़कों की लम्बाई करीब 18 किलोमीटर है। बाकी सड़कें पैदल या अश्व मार्ग हैं। पहले मुख्य सड़क, मालरोड और बाजार क्षेत्र को छोड़कर नगर की बाकी सभी सड़कें/रास्ते कच्चे थे, ये बरसात में पानी सोखने का काम करते थे। अब नगर के सभी सड़क/रास्ते पक्के हो गए हैं। यही नहीं आजाद भारत के योजनाकारों ने खेल के मैदान और ठंडी सड़क के एक हिस्से को भी टाइलों से पाट दिया है।
झील की तलहटी में बेहिसाब मिट्टी-मलबा और कूड़ा-करकट भर जाने से तालाब के भीतर मौजूद प्राकृतिक जल स्रोत बन्द हो गए हैं। एक दौर में यहाँ सैकड़ों प्राकृतिक जलस्रोत थे, पर अब ज्यादातर पानी के स्रोत सूख गए हैं।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल के आदेश पर 23 मई, 1994 को उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष ब्रजेन्द्र सहाय की अध्यक्षता में गठित उच्च स्तरीय जाँच समिति की रिपोर्ट के अनुसार 1950 से पहले नैनीताल में 230 प्राकृतिक जलस्रोत थे। 1994 में इनकी तादाद घटकर तीस रह गई थी। पिछले बीस सालों में प्राकृतिक जलस्रोतों की संख्या और घट गई है। नैनी झील के जल संग्रहण क्षेत्र में अब बमुश्किल डेढ़ दर्जन प्राकृतिक जलस्रोत जिन्दा हैं, इनमें से ज्यादातर जलस्रोतों में बरसात के मौसम में ही पानी टपकता नजर आता है।
झील का महत्त्वपूर्ण जल संग्रहण माने जाने वाले सूखाताल क्षेत्र में भी कंक्रीट का जंगल उग गया है। नैनीताल में खाली जमीन के नाम पर जंगलात की निगरानी वाला वन क्षेत्र और तेज ढालदार कुछ जमीनें बची हैं, जो कि बरसात का पानी सोख पाने में असमर्थ हैं। नतीजतन बरसात का पानी जमीन में समाने के बजाय तेज रफ्तार से नालों के जरिए तालाब में पहुँचता है, इसके साथ बहकर आया मिट्टी-मलबा और कूड़ा-करकट झील की तल में समा जाता है, झील के भर जाने की सूरत में अतिरिक्त पानी की निकासी कर दी जाती है।
मिट्टी-मलबा, कूड़ा-करटक भर जाने से पैदा हुए प्रदूषण के साथ जल स्तर में आई जबरदस्त गिरावट समेत अनेक समस्याओं से जूझ रही नैनी झील के किनारों को अब झील के रखवालों ने ही मिट्टी, पत्थर और सीमेंट से पाटना शुरू कर दिया है। नैनीताल और आसपास के इलाकों को रोजी-रोटी, पानी और पहचान देने वाली झील अब खुद यतीम हो गई हैं। अबकी जाड़ों के दिनों में नैनीताल के तालाब में रिकॉर्ड गिरावट आ गई थी। तालाब का जलस्तर मानक से तकरीबन बारह फीट नीचे चला गया था।
जलस्तर घट जाने के चलते तालाब के किनारों में मिट्टी-मलबे के बदनुमा डेल्टा पसरे नजर आने लगे। जाड़ों के मौसम में झील के जलस्तर में इस कदर गिरावट इससे पहले कभी नहीं देखी गई। मई-जून के महीनों में पर्यटक सीजन के चलते पानी की खपत बढ़ जाने और गर्मी के चलते आमतौर पर झील का जलस्तर शून्य से नीचे चला जाता था। पर भीषण गर्मियों के दिनों में भी नैनी झील जल के स्तर में इस साल के बराबर गिरावट कभी नहीं आई। जानकार लोगों की राय में झील के जलस्तर में आ रही इस गिरावट का कारण रिसाव भी हो सकता है।
अनियंत्रित पर्यटन, अनियोजित विकास एवं जनसंख्या वृद्धि से नैनीताल में जल, वायु, ध्वनि एवं दृश्य प्रदूषण बढ़ा है। अपशिष्ट निपटान की समस्या पैदा हुई है। जिससे यहाँ के भौतिक पर्यावरण को क्षति पहुँच रही है।
निर्माण कार्यों से निकली मिट्टी-मलबा, गन्दगी एवं अपशिष्ट के नैनी झील में जाने से न केवल झील की गहराई लगातार घटती जा रही है, बल्कि झील का पानी भी प्रदूषित हो रहा है। फलतः झील के पानी में पेट की बीमारी फैलाने वाले अनेक बैक्टीरिया पनप रहे हैं। पानी की पारदर्शिता घट गई है। प्रदूषण के चलते जाड़ों के मौसम में झील में बेहिसाब मछलियों का मरना अब आम बात हो गई है।
नैनीताल की झील की कुदरती बनावट में ही इसकी असल खूबसूरती छिपी है। दुर्भाग्य से झील के रखरखाव के लिये जिम्मेदार सरकारी महकमें ही इसकी प्राकृतिक शोभा को बदरंग करने पर आमादा हैं। मजेदार बात यह कि यह क्षरण एशियन विकास बैंक की माली मदद से धरोहरों के संरक्षण के नाम पर हो रहा है। उत्तराखण्ड के पर्यटन महकमें की हेरिटेज भवनों के संरक्षण की एक ऐसी ही योजना नैनी झील के क्षरण की सबब बन गई है।
उत्तराखण्ड के पर्यटन विभाग ने हेरिटेज भवनों को सहेजने के लिये योजना बनाई है। इस योजना के लिये एशियन विकास बैंक से बेहिसाब आर्थिक मदद ली जा रही है। योजना में नैनीताल को भी शामिल किया गया है। योजना के तहत 'कल्चर हेरिटेज एंड अर्बन प्लेस मेकिंग इन नैनीताल' नाम से नैनीताल नगर में विभिन्न कामों के लिये तकरीबन अट्ठाइस करोड़ रुपए मंजूर हुए हैं। इन कामों का ठेका दिल्ली की 'सिम्पलेक्स' नाम की कम्पनी को दिया गया है।
धरोहरों को संरक्षित करने के नाम पर चल रही इस योजना के तहत इन दिनों नैनीताल की मालरोड में तालाब के किनारे स्थित दुर्गा साह नगरपालिका पुस्तकालय के जीर्णोद्धार का काम चल रहा है। ब्रिटिशकाल में बने बेहद हल्के पुस्तकालय शेड को संरक्षित करने के बहाने तालाब के एक बड़े हिस्से में पत्थरों की चौड़ी दीवार देकर उस हिस्से को मिट्टी-मलबे से पाटने का काम चल रहा है। झील के भीतर इस बेतुके एवं कुरूप निर्माण से झील की प्राकृतिक सुन्दरता खतरे में है। निहायत गैर जरूरी और नासमझी भरे इस निर्माण से झील का भौगोलिक क्षेत्रफल और जल संग्रहण क्षमता दोनों का कम होना तय है।
दुर्गा साह नगरपालिका पुस्तकालय का यह शेड करीब एक सौ साल पहले बना था। शुरुआत में यह वाईडब्ल्यूसीए का बोट हाउस था। 1937 में नगरपालिका ने इस शेड को पुस्तकालय के लिये अधिगृहीत कर लिया। यह शेड तालाब के किनारे पत्थर के पिलरों के ऊपर टिका है। इसकी पर्दा दीवारें हल्के टिन से बनाई गई हैं। इस शेड के मूल ढाँचे के रहते तालाब के भौगोलिक क्षेत्रफल और जल संग्रहण क्षमता पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ रहा था। इस शेड के नीचे बराबर पानी रहा करता था। पर अब एयर कंडीशन कमरों में बैठे योजनाकारों को इस शेड को संरक्षित करने के वास्ते तालाब के भीतर बदनुमा दीवार लगाने के अलावा और कोई तकनीक नहीं सूझ रही है।
वहीं दूसरी ओर नैनीताल की झील की देख-रख और रखरखाव के लिये सीधे तौर पर जिम्मेदार लोक निर्माण विभाग ने तल्लीताल क्षेत्र में झील के भीतर एक पक्का कैचपिट बना दिया है। इससे न केवल तालाब का अन्दरूनी क्षेत्रफल कम हुआ है, बल्कि जल संग्रहण क्षमता भी घट गई है। लोनिवि के अधिशासी अभियंता एस. के. गर्ग के मुताबिक यह कैचपिट झील में मलबा जाने से रोकने के लिये बनाया गया है।
हकीकत यह है कि कैचपिट झील के मानक जलस्तर से करीब सात फीट नीचे तालाब में बनाया गया। जबकि तालाब का अधिकतम जलस्तर बारह फीट तक रखे जाने की व्यवस्था है। जैसे ही तालाब में पानी का स्तर बढ़ा, तालाब में 'मलबा जाने से रोकने' के नाम पर बने कैचपिट ने खुद ही जल समाधि ले ली है।
गौरतलब बात यह है कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने जिले की सभी झीलों के तीस मीटर के दायरे में निर्माण कामों पर पाबन्दी लगाने के आदेश दिये हैं।
अनेक प्राकृतिक चुनौतियों का सामना करते हुए अंग्रेजों ने नैनीताल को एक ऐसा स्वास्थ्यप्रद और आदर्श हिल स्टेशन का दर्जा दिलाया, उस दौर में जिसकी तुलना अमेरिका के कुछ चुनिन्दा विकसित नगरों से की जाती थी। यहाँ की नगरपालिका को 'लोकल गवर्मेन्ट' कहा जाता था। उसके पास नगर की व्यवस्थाओं के लिये एक आदर्श उपविधियाँ थीं।
नगरपालिका अपनी उपविधियों और पालिका अधिनियम का पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ पालन करते हुए नगरवासियों के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, साफ-सफाई, सड़क, रास्तों, नालों, पार्क, खेल, मनोरंजन, सिनेमाघर और एक बेहतरीन पुस्तकालय समेत सामाजिक जीवन के प्रत्येक छोटी-बड़ी जरूरतों का प्रबन्धन करती थी। लेकिन अब नगरपालिका का अपने बायलॉज के साथ मानो 'बैर' सा हो गया है। पालिका ने नगर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से हाथ खड़े कर लिये हैं।
नैनीताल की भार-वहन क्षमता की किसी को परवाह नहीं है। नैनीताल के तालाब के संवर्धन को लेकर सियासी इच्छाशक्ति शून्य हो गई है। नैनीताल के तालाब का सार्वभौमिक संसाधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। सैलानियों के वैभवशाली जीवनशैली से झील के दर्द को ढँकने की नाकाम कोशिशें की जा रही हैं।
घोर उपेक्षा के चलते नतीजतन देशी-विदेशी सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र और नैनीताल की प्राण संजीवनी नैनी झील सूखने के कगार पर पहुँच चुकी है। नैनी झील की मौजूदा दुर्दशा के लिये आखिर जिम्मेदार कौन है, यह तय कर पाना फिलहाल टेड़ी खीर है। प्राकृतिक जल संसाधनों की लूट-खसोट पर केन्द्रित उत्तराखण्ड के जाने-माने जनकवि स्व. गिरीश तिवारी 'गिर्दा' की यह रचना नैनी झील के दर्द को बखूबी बयाँ करती है:-
अजी वाह क्या बात तुम्हारी
तुम तो पानी के व्यापारी
सारा पानी चूस रहे हो
नदी समंदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर कंकड़ पत्थर कूट रहे हो
उफ तुम्हारी ये खुदगर्जी चलेगी कब तक ये मनमर्जी
जिस दिन डोलेगी ये धरती
सिर से निकलेगी सब मस्ती
दिल्ली देहरादून में बैठे योजनाकारी तब क्या होगा
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा?
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