इतिहास के झरोखों में बीकानेर के तालाब


जैसा कि प्रायः होता है कि हर संस्कृति के किसी विशिष्ट कालखण्ड में एक हवा होती है जिसकी वजह से उसकी सांस्कृतिक सौरभ दूर-दूर तक फैलती रहती है। हम कह सकते हैं कि सदियों पुरानी हमारी संस्कृति की महक में जल की सुवासित महक भी शामिल थी। शायद इसी कारण आज से 500 से अधिक वर्षों पुराने शहर की स्थापना के समय से लम्बे समय तक ताल-संस्कृति की उस महक ने ही बीकानेर की जनता को अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति का एहसास करवाया होगा। प्रकृति ने मनुष्य को कई उपहार दिये हैं। प्रकृति-प्रदत्त उपहारों को ही सभ्यता के विकासक्रम में प्राकृतिक संसाधन कहा गया है। ये संसाधन दो प्रकार के हैं- नवीकरणीय और गैर नवीकरणीय। वन, चरागाह, वन्यजीवन, जलीय जीवन नवीनीकरण संसाधनों के अन्तर्गत आते हैं, जबकि मृदा, भूमि, खनिज, गैस, पेट्रोल आदि गैर नवीकरणीय संसाधनों के अन्तर्गत आते हैं।

सभी प्राकृतिक संसाधन जीवन के लिये परमावश्यक हैं, अतः इनके उपयोग में मनुष्य को विवेक संयम और सावधानी की जरूरत है। तेजी से बदलते जा रहे समय में संसाधनों के उपयोग की दर में इजाफा हुआ है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अगर हमने इनके उपयोग में लापरवाही बरती तो सभ्यता को दुर्दिनों का सामना करना पड़ेगा।

जीवन के लिये आवश्यक घटकों में जल का स्थान सर्वोपरि है। जल नवीकरणीय संसाधन है अर्थात वह कभी समाप्त नहीं होने वाले संसाधनों में है क्योंकि प्राकृतिक क्रिया के फलस्वरूप इसका पुनररुत्पादन होता रहता है। सामान्यतः दुरुपयोग की क्रिया द्वारा हम प्राकृतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं जिससे संसाधन को भारी क्षति पहुँचती है। जल सम्बन्धी आँकड़ों की दुनिया में जाएँ, तो हमारे सामने विस्मयकारी तथ्य प्रकट होंगे, यथा-

1. समस्त पृथ्वी पर व्याप्त जल का केवल 2.7 प्रतिशत ही अलवण जल है, जो खेती, पीने और अन्य कार्यों के लिये उपादेय है।
2. पृथ्वी के कुल जल का मात्र 0.00001 प्रतिशत ही झरनों और नदियों में बहता है, जिसका अनुपात 10,000 बालटियों में से केवल एक बालटी पानी के बराबर है।
3. करीब 150 मीटर की गहराई तक मिलने वाला भूजल कुल जल का 0.625 प्रतिशत है।
4. ऊँचे पर्वतों पर बर्फ के रूप में जमा जल, जो उस रूप में कार्योंपयोगी नहीं है, लगभग 2.15 प्रतिशत है।

आँकड़ों से निकलकर अतीत की दुनिया में जाएँ, तो पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने सभ्यता के विकासक्रम में इस तथ्य को कभी विस्मृत नहीं किया कि जल ही जीवन है। पुराने समय में राजाओं, महाराजाओं, सेठ-साहूकारों एवं ऋषि-मनीषियों ने स्थान-स्थान पर तालाब, कुएँ आदि खुदवाए ताकि जल जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित हो। उन्होंने न केवल इसके सदुपयोग के वास्ते ही सोचा वरन जल संरक्षण की संस्कृति का विस्तार भी किया।

जल को संचित करने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना सभ्यता और संस्कृति का। जल हमारे जीवन का दुर्लभ घटक है। दुनिया के इतिहास से गुजरने पर मालूम होगा कि प्रायः सभी सभ्यताओं के विकास और विनाश के क्रम में जल की उपस्थिति अवश्य ही रही है। हम कह सकते हैं कि जल का सम्बन्ध जीवन के साथ सृष्टि के आरम्भकाल से ही जुड़ा है। राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में देखें तो पता चलता है कि मरुस्थल के कारण जल का अभाव यहाँ सदैव संकट का ही विषय रहा है और इसके संकटमोचन के वास्ते प्रयासों का सिलसिला स्कन्दपुराण में आये अगस्त्य ऋषि के आख्यान से शुरू होता है।

आख्यानानुसार एक बार अगस्त्य ऋषि ने इस प्रदेश में पानी की कमी को पूरा करने हेतु ईश्वर की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा- क्योंकि यहाँ मरुस्थल है, अतः यहाँ पानी का वास सम्भव नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। आकाश में एक वृहद मेघ की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि यह मेघ तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा और यहाँ पर जल की वृष्टि करेगा। इस आख्यान के आधार पर हम कह सकते हैं कि सम्भवतः अगस्त्य ऋषि ही मरुभूमि के पहले जल संवाहक थे। पुराणों में आये आख्यान बताते हैं कि सम्भवतः अजमेर का पुष्करराज मरुभूमि का पहला तालाब बना।

कालान्तर में जल की महत्ता और उपादेयता ने समाज को इसके प्रति सचेष्ट किया होगा। फलस्वरूप संस्कृति के विभिन्न कालखण्डों में जल संसाधन के संरक्षण व सदुपयोग के निमित्त नानाविध जतन होने लगे। समाज के विभिन्न समुदाय परस्पर इस बात पर मतैक्य थे कि ताल-संस्कृति का प्रसार एवं संरक्षण हमारी आधारभूत जरूरतों में से एक है। पुराणों में ही नौ प्रकार के तालाब (यथा बिन्दुसरोवर, मानसरोवर, पुष्कराराज आदि) व नौ वनों का उल्लेख मिलता है जो दर्शाता है कि पुराणकालीन संस्कृति के लोग तालाब या व्यापक दृष्टि के आलोक में कह लें कि पारिस्थितिकीय सन्तुलन के प्रति कितने कृतज्ञ थे। उस जमाने में तालाब बनाने वाला यदि सामान्य गृहस्थ हो या देश का अधिपति अथवा कोई सन्यासी, समाज उसके प्रति नतमस्तक रहता था यानी तालाब बनवाना भी कला एवं राजनीति की भाँति अमरत्वलब्धि का मार्ग था।

रामायण एवं महाभारत काल व बाद में मौर्य तथा गुप्तवंश के शासकों आदि के काल में भारतवर्ष में असंख्य तालाबों का निर्माण हुआ। भारतीय इतिहास के पाँचवीं शती से पन्द्रहवीं शती के कालखण्ड से गुजरने पर पता चलता है कि उत्तर से दक्षिण व पूरब से पश्चिम तक तालाब बनाने का कार्य किस गति और उत्साह से चला। इस कालखण्ड में राजाओं द्वारा जनहित में किये जाने वाले कार्यों में तालाब- निर्माण सर्वोपरि था। इस उपक्रम के पीछे बहुजनहिताय की भावना ही कार्य कर रही थी।

राजस्थान में पानी की कमी का वृत्तान्त धार्मिक आख्यानों के साथ-साथ पुराने लोकाख्यानों में भी उपलब्ध है। राजस्थानी के सुप्रसिद्ध लोककाव्य ढोला मारू रा दूहा में मारवाड़ निन्दा प्रकरण के अन्तर्गत मालवणी अपने पिता को सम्बोधित करते हुए कहती है-

बाबा न देइस मारूवां, वर कुँआरी रहेसि।
हाथि कचोळऊ सिर घड़उ, सीचति य मरेसि।


हे पिता। मुझे मरु देश राजस्थान में मत ब्याहना, चाहे कुँआरी रह जाऊँ। वहाँ हाथों में कटोरा (जिससे घड़े में पानी भरा जाता है) और सिर पर घड़ा, इस प्रकार पानी ढोते-ढोते मर जाऊँगी। यह काव्यांश बतलाता है कि पानी की घोर कमी और इसकी पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम राजस्थान की जनता की दारुण नियति थी। यहाँ नायिका उससे वंचित रहने के लिये कुँवारी ही मरने को तैयार है, पर उसे राजस्थान जैसे जल की कमी वाले क्षेत्र में जीवन व्यतीत करना स्वीकार्य नहीं। वस्तुतः यह तथ्य भी है कि हमारे यहाँ पानी बहुत गहरे में पाया जाता है।

इसी काव्य में एक स्थान पर यही नायिका पुनः अपने पिता से कहती है:

पहिरण ओढ़ण कंबला साठे पुरिसे नीर।

राजस्थान में जल की बूँद महज एक जल की बूँद नहीं वरन उसका महत्त्व किसी रजत बूँद से कम नहीं था। पारिस्थितिकीय तंत्र के प्रति भारतीय संस्कृति का व्यवहार एवं दृष्टि सदैव ही मित्रवत रही है। हमने प्रकृति को लम्बे नाखून वाली डायन नहीं माना वरन उसे और उसके विभिन्न उपादानों को सदैव ही निजी महत्त्व की दृष्टि से देखा। वेदों, पुराणों और हमारे अन्यान्य प्राचीन ग्रन्थों सहित लोकाख्यानों में आये तत्सम्बन्धी वृत्तान्त इसके साक्षी हैं। हमारे व्यवहार में त्यागे जिसके आगे का मूल सूत्र ही काम करता आ रहा है। और यही कारण है कि हम आज तक अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के साथ कायम हैं।अर्थात यहाँ के लोगों के पास पहनने-ओढ़ने के लिये कम्बल होते हैं और पानी यहाँ साठ पुरस यानी करीब 300 से 400 फुट गहरे मिलता है। इसलिये यहाँ जल अन्य प्रदेशों की तुलना में जीवन का अधिक दुर्लभ संसाधन है। शायद इसी कारण थार के मरुस्थल के गाँवों के नाम से साथ सर जुड़ा है जो वहाँ किसी-न-किसी तालाब या अन्य जलस्रोत की उपस्थिति का परिचायक है।

इसे ही स्पष्ट करते हुए राजस्थान के ख्यातनाम इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने लिखा है कि इस भूभाग पर जहाँ भी पानी जमा होने का स्थान था, आरम्भ में वहाँ पर बस्तियाँ बस गईं। शायद इसी कारण गाँवों के आगे सर जुड़ा हुआ मिलता है। कालान्तर में तालाब के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव आया। फलस्वरूप उनके निजी स्वरूप व महत्ता को आघात लगा, लेकिन बावजूद इसके ताल-संस्कृति समाज में बरकरार रही और अपने होने वाले लाभों से समाज को पोषित करती रही।

जैसा कि प्रायः होता है कि हर संस्कृति के किसी विशिष्ट कालखण्ड में एक हवा होती है जिसकी वजह से उसकी सांस्कृतिक सौरभ दूर-दूर तक फैलती रहती है। हम कह सकते हैं कि सदियों पुरानी हमारी संस्कृति की महक में जल की सुवासित महक भी शामिल थी। शायद इसी कारण आज से 500 से अधिक वर्षों पुराने शहर की स्थापना के समय से लम्बे समय तक ताल-संस्कृति की उस महक ने ही बीकानेर की जनता को अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति का एहसास करवाया होगा।

धार्मिक आख्यान, लोकाख्यान और अनेकानेक अन्य प्रकार के गल्प और उनमें घटी घटनाएँ महज इत्तिफाक नहीं थीं। इसलिये स्थापना के करीब 400 वर्षों तक तालाब निर्माण एवं तालाब संस्कृति का बोलबाला रहा। इस संस्कृति ने जहाँ एक ओर पारिस्थितिकी को सन्तुलित किया। वहीं दूसरी ओर सामाजिक सद्भाव को भी गति दी।

फलस्वरूप रियासतकालीन बीकानेर में एक जून, 1943 से फ्री वाटर सप्लाई व्यवस्था आरम्भ होने से पूर्व जलसंकट के तथ्य इतिहास के पन्नों में ढूँढने पर भी नहीं मिलते, क्योंकि लगभग सभी समाजों के उच्च से उच्च एवं निम्न से निम्न वर्गों ने सामाजिक दृष्टिकोण का अवलम्ब लेकर स्वयं सहायता समूह की विधि की तर्ज पर अपने-अपने तालाब, तलाई का निर्माण कर रखा था। इनकी देख-भाल भी वे स्वयं ही करते थे। तालाब व उसकी आगोर (पायतन) के प्रति समाज का वरिष्ठतम और लघुतम आदमी एक इकाई की भाँति श्रमदान करके उसे संरक्षण प्रदान करता था इसी कारण उस तालाब-तलाई की संस्कृति को महत्त्व प्राप्त था।

राजस्थान में जल की बूँद महज एक जल की बूँद नहीं वरन उसका महत्त्व किसी रजत बूँद से कम नहीं था। पारिस्थितिकीय तंत्र के प्रति भारतीय संस्कृति का व्यवहार एवं दृष्टि सदैव ही मित्रवत रही है। हमने प्रकृति को लम्बे नाखून वाली डायन नहीं माना वरन उसे और उसके विभिन्न उपादानों को सदैव ही निजी महत्त्व की दृष्टि से देखा। वेदों, पुराणों और हमारे अन्यान्य प्राचीन ग्रन्थों सहित लोकाख्यानों में आये तत्सम्बन्धी वृत्तान्त इसके साक्षी हैं। हमारे व्यवहार में त्यागे जिसके आगे का मूल सूत्र ही काम करता आ रहा है। और यही कारण है कि हम आज तक अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के साथ कायम हैं।

रियासतकालीन बीकानेर और आज के बीकानेर में भारी परिवर्तन स्पष्ट है। यह परिवर्तन भौगोलिक सीमाओं के विस्तार से ज्यादा जीवनशैली, जीवन व्यवहार एवं जीवन-दृष्टि के मामले में बहुत ज्यादा प्रभावी रहा है। बीकानेर नगर में तालाब के प्रति प्रेम अन्य शहरों की तुलना में अधिक रहा। इसका एक कारण तो पानी का अभाव ही था। दूसरे, यहाँ के लोग शान्त प्रकृति के एवं प्रकृति प्रेमी अधिक रहे। भले ही वे जल-मित्र, वृक्ष मित्र, पृथ्वी-सम्मेलन, ग्रीन-हाउस इफेक्ट, जल बिरादरी, स्वजलधारा जैसे पदों को नहीं समझते हों, लेकिन उनके जीवन-व्यवहार और दृष्टि में सदैव पर्यावरण एवं उससे जुड़े सभी उपादानों के प्रति संवेदनात्मक दृष्टिकोण और कृतज्ञता कायम रही है।

उनकी दैनन्दिन क्रियाओं के क्रम में आसानी से इस दृष्टि और व्यवहार को देखा जा सकता है। जैसे अन्दरूनी शहर के श्री नत्थू महाराज जीवन्त पर्यन्त 24 में से 6 घंटे नष्ट होते जा रहे संसोलाव तालाब को बचाने, उसे सजाने-सँवारने में लगाते थे। वे आगोर पर हो रहे कब्जों के लिये संघर्षरत थे। तालाब की सफाई के लिये कुछ-न-कुछ करना, पायतन पर वृक्षों की रक्षा, जीव-जानवरों की देखभाल, विशेषकर मोर-मोरनियों से संवाद आदि को उनके दैनिक व्यवहार में देखा जा सकता था।

कहा जा सकता है कि अतीत के बीकानेर में तालाब-प्रेम अपने चरम पर था कालान्तर में प्रकृति के प्रति प्रेम में इस कमी ने समाज को संकट की राह पर ही आगे बढ़ाया है।

बीकानेर के इतिहास के पन्नों को टटोला जाये, तो ज्ञात होगा कि तालाब नगर-स्थापना के समय व इससे पूर्व भी यहाँ की संस्कृति के अंग रहे हैं। आधिकारकि तथ्यों की न्यून उपलब्धता और प्रामाणिक इतिहास के ज्ञात तथ्यात्मक विवरणों से यह कहना मुश्किल है कि बीकानेर में बना पहला तालाब कौन सा है? फिर भी जो तथ्य सामने आये हैं, उनके आधार पर संसोलाव तालाब बीकानेर का सबसे पुराना तालाब ठहरता है। इसका निर्माण समय सं. 1572 है जो कि वहाँ पर लगे शिलालेख पर पढ़ा जा सकता है। और सबसे नया तालाब कुखसागर (गिंदोलाई) था, जो सन 1937 में बना। यह भी कहना मुश्किल है कि बीकानेर में कितने तालाब व तलाइयाँ थे। इस सम्बन्ध में व्यापक ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक उल्लेखों का अभाव ही है।

लगभग हर व्यक्ति इनके महत्त्व व अस्तित्तव के प्रति सजग, सतर्क था, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों की सच्चाई यही है। बाद में पत्रिका के श्री हेम शर्मा ने फिर कुछ मेहनत की और यह संख्या दस से बढ़ाकर चालीस कर दी, लेकिन अब व्यापक खोजबीन के आधार पर उनहत्तर ताल-तलाइयों को तो इसी पुस्तक में अंकित तालाब मानचित्र में देखा जा सकता है। शायद इतने ही नगर-विकास की भेंट चढ़ चुके हैं। अतः यह कहना निश्चय ही संगत जान पड़ता है कि एक समय बीकानेर में ताल-तलाइयों की संख्या का आँकड़ा सौ को पार करता था।इस अनुसन्धान कार्य से पहले राजस्थान पत्रिका ने बीकानेर के तालाब शीर्षक से एक कालम शुरू किया था, जिसे श्री हेम शर्मा ने लिखा। उन्होंने पत्रिका के लिये कार्य आज से करीब 24 वर्ष पूर्व किया था और उस कालम में तालाब व तलाई को एक इकाई मानते हुए बीकानेर में 40 तालाब कायम किये। लेकिन शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि एक समय निश्चित ही बीकानेर में 100 से ज्यादा ताल-तलाइयाँ रहे होंगे क्योंकि 69 ताल-तलाइयों को आज भी गिना जा सकता है, जिन्हें इस शहर के नामी-गिरामी-वरिष्ठ नागरिकगण ने देख रखा है।

इस पुस्तक में इनकी सूची एवं परिचयात्मक विवरण भी दिया गया है। काल के क्रूर हाथों ने शायद इतनी ही और तलाइयों को नष्ट कर दिया। उदाहरण के लिये सावा बही खजानदेसर नं. 3, वि.सं. 1824, आषाढ़ बदी 13 को राजश्री बीकानेर ने चरण सागर व गजरूपदेसर पर घाट बनाने का एक आदेश दिया है, के आदेश का एक उल्लेख मिलता है। पर ये दोनों तालाब वर्तमान में चिन्हित नहीं किये जा सके।

बुजुर्ग बताते हैं कि अमुक-अमुक स्थान, जहाँ पर आज फलां महोल्ला या मकान आदि हैं वहाँ किसी समय में ताल या तलाई हुआ करते थे। अपने कालम में श्री हेम शर्मा ने ताल और तलाई को एक ही मान लिया था। असल में ऐसा उन्होंने अनुमान के आधार पर ही किया होगा। लेकिन गहराई में जाएँ तो पता चलेगा कि ताल और तलाई में अन्तर है। इसे निम्न बिन्दुओं से और अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है :

1. तालाब आकार में बड़े होते हैं जबकि तलाई छोटी।
2. अधिकांशतः तालाब आयताकार हैं, जबकि अधिकांश तलाई वृत्ताकार।
3. तालाब का तला पक्का होता जबकि तलाई का कच्चा। पर कालान्तर में पक्के तल वाली तलाई भी बनी हुई देखी जा सकती है।
4. तालाब का ढलान सदैव गऊ घाट की तरफ ही होता है एवं खड्डे बीच में छोटे होते हैं, क्योंकि गऊ घाट पर पशुओं के पानी पीने के कारण वह मनुष्य के पीने के लायक नहीं रहता है, इसलिये बीच में खाड छोटी होती है। संसोलाव, हर्षोलाव, सागर देवीकुण्ड, कल्याणसागर आदि नगर के विभिन्न तालाबों पर इसे देखा जा सकता है, जबकि तलाई का ढलान उसके केन्द्र में रहता है। वृत्ताकार होने के कारण पानी के सूखने की प्रक्रिया में पहले किनारे का पानी सूखना आरम्भ होता है, अतः केन्द्र में जहाँ पानी जमा रहता है, उसके स्वतः ही स्वच्छ होने की प्रक्रिया होती रहती है। स्वतः स्वच्छ होने की इस प्राकृतिक प्रक्रिया को घड़े में पानी भरने की प्रक्रिया में देखा जा सकता है।
5. प्रायः तालाबों के घाट बाँधे हुए होते हैं, जबकि तलाइयों के घाट नहीं बाँधे जाते थे, पर कालान्तर पर घाट बाँधे हुए भी देखे जा सकते थे।
6. तालाब पर घाटों की संख्या अधिक होती है जबकि तलाइयों पर अपेक्षाकृत कम।

बीकानेर राज्य के इतिहास से गुजरने पर मालूम होता है कि राजा सरदार सिंह के समय, वि. सं. 1924 में हुई खानाशुमारी के अनुसार बीकानेर में कुल चार तालाब व पन्द्रह कुएँ थे।

देश-दर्पण में आई इस विवरण तालिका में तालाबों एवं कुओं के नाम नहीं दिये हैं। केवल संख्यात्मक आँकड़ा ही दिया गया है।

इसी क्रम में सन 1874 में लिखित 1932 में प्रकाशित Captain P.W. Powllet के बीकानेर गजेटियर में Tanks of Bikaner के अन्तर्गत जस्सोलाई, खरनाडा, गोगाजी की तलाई, फरसोलाई को शहर के अन्दर व शहर के बाहर सूरसागर, बख्तसागर, संसोलाव, हर्षोलाव, मूँधड़ों का तालाब, मोदियों का तालाब का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यति श्री उदयचन्द मथेरण (वि.सं. 1963) की लिखी बीकानेर गजल में आये तडागकूप वर्णन में भी नगर के छह प्रमुख तालाब-तलाइयों में सूरसागर, गोगाजी की तलाई, सवालखी तलाई, घड़सीसर, संसोलाव, हर्षोलाव का वर्णन देखने को मिल सकता है। मुंशी सोहन लाल विरचित तवारीख राजश्री बीकानेर में भी कैप्टन पी.डब्ल्यू. पावलेट द्वारा गिनाए तालाबों को ही पुनः उद्धृत किया गया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि रियासतकालीन बीकानेर में इस सम्बन्ध में जो शोध कार्य हुआ वह अनुमान के आधार पर किया गया, क्योंकि कार्य करने वालों का स्थानीय संस्कृति से सीधा सम्पर्क नहीं था। बीकानेर क्षेत्र की ठीक प्रकार से जानकारी न होने के कारण वे बहुत कम संख्या में तल-तलाई कायम कर पाये। दूसरे, ताल-तलाई सम्बन्धी गणना कार्य मौखिक सूचनाओं के आधार पर सम्पन्न किया होना जान पड़ता है क्योंकि नगर के आम-नागरिक को आज भी अगर ताल-तलाई के बारे में पूछें तो कम-से-कम दस से पन्द्रह तक के नाम हर कोई आसानी से गिना सकता है।

अतः स्वाभाविक ही था कि लगभग हर व्यक्ति इनके महत्त्व व अस्तित्तव के प्रति सजग, सतर्क था, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों की सच्चाई यही है। बाद में पत्रिका के श्री हेम शर्मा ने फिर कुछ मेहनत की और यह संख्या दस से बढ़ाकर चालीस कर दी, लेकिन अब व्यापक खोजबीन के आधार पर उनहत्तर ताल-तलाइयों को तो इसी पुस्तक में अंकित तालाब मानचित्र में देखा जा सकता है। शायद इतने ही नगर-विकास की भेंट चढ़ चुके हैं।

अतः यह कहना निश्चय ही संगत जान पड़ता है कि एक समय बीकानेर में ताल-तलाइयों की संख्या का आँकड़ा सौ को पार करता था। अनुसन्धान के दौरान मैंने जिन उनहत्तर ताल-तलाइयों को चिन्हित किया है, उनमें से अधिकांश नष्ट हो चुके हैं, लेकिन उनके भग्नावशेष मौके पर देखे जा सकते हैं। इसके अलावा जो तालाब आज भी कायम हैं, उनमें हर्षोलाव, संसोलाव, देवीकुण्ड, कल्याणसर, गिरोलाई आदि प्रमुख हैं जिनके मूल स्वरूप को अभी तक क्षति नहीं पहुँची है।

हर्षोलाव और गिरोलाई को छोड़कर किसी भी ताल-तलाई की सही देखभाल न होने के कारण एवं आगोर के नष्ट होने की वजह से वे नष्ट होने के कगार पर हैं। आश्चर्य की बात है कि जब समाज आज की तरह अधिक उन्नत अवस्था में नहीं था तब तालाबों की संख्या का आँकड़ा सैकड़ा पार था और आज यह शून्य के अधिक करीब आ रहा है। हो सकता है अगले दशक में हम अपने बच्चों को स्वीमिंग पूल दिखलाते हुए बताएँ कि हमारे जमाने में इससे भी बड़े-बड़े तालाब हुआ करते थे।

लगभग हर व्यक्ति इनके महत्त्व व अस्तित्तव के प्रति सजग, सतर्क था, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों की सच्चाई यही है। बाद में पत्रिका के श्री हेम शर्मा ने फिर कुछ मेहनत की और यह संख्या दस से बढ़ाकर चालीस कर दी, लेकिन अब व्यापक खोजबीन के आधार पर उनहत्तर ताल-तलाइयों को तो इसी पुस्तक में अंकित तालाब मानचित्र में देखा जा सकता है। शायद इतने ही नगर-विकास की भेंट चढ़ चुके हैं। अतः यह कहना निश्चय ही संगत जान पड़ता है कि एक समय बीकानेर में ताल-तलाइयों की संख्या का आँकड़ा सौ को पार करता था।हमारे शहर का हर तालाब अपने आगोश में अपने जन्म से लेकर आज तक की अपनी व्यथा-कथा को समेटे है। जब हम उसकी व्यथा-कथा के प्रदेश में प्रवेश करेंगे तो हम अपने स्वर्णिम संस्कृति के इतिहास में दबे उन पन्नों से भी गुजरेंगे जिनमें हम अतीत की छवि का ठीक-ठीक अवलोकन कर पाएँगे।

हमने ताल-तलाई का जो वर्गीकरण किया है वह उनके तकनीकी अन्तर के साथ-साथ प्रचलित स्वरूप के आधार पर है। इस क्रम में बीकानेर के पन्द्रह तालाबों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1. संसोलाव


बीकानेर के पश्चिमी क्षेत्र मे नत्थूसर दरवाजे के बाहर वि.सं 1572 में इस तालाब के एक तट सोनधरन तट का निर्माण सासोजी ने करवाया। इससे पूर्व तालाब का निर्माण सालोजी राठी के पौत्र सामोजी ने करवाया था। इसका नाम सहस्त्रलाव था। जो कालान्तर में संसोलाव बन गया। इसकी आगोर 348 बीघा है। यह पक्का बना तालाब बीकानेर के सभी तालाबों में कलात्मक एवं रमणीक है। इसके बीचोंबीच एक अति सुन्दर कलात्मक छतरी बनी है और आसपास बनी सतियों की छतरियों एवं देवालयों ने इसके स्वरूप को और अधिक सौन्दर्य से निखार दिया है। एक गऊ एवं एक पणयार घाट के साथ इसमें कुल दस घाट हैं।

वि.सं. 1915 में सेठ लीलाधर मोहता ने 35 फुट लम्बा घाट जो सम्भवतः आज नारायण-बलि घाट के नाम से जाना जाता है, का नवनिर्माण करवाया। सती की छतरियों के पास स्थित शिलालेख पर इसके विवरण को देखा जा सकता है। इसी क्रम में कमठाणा बही नं. 15, फोलियो 22 बी वि.सं. 1855 में एक उल्लेख आता है, जिसके अनुसार रुपए चार सौ की लागत से रसोड़ा (रसोई), भण्डार गृह एवं कमरा बनवाया गया, जिसका खर्च राजश्री बीकानेर ने उठाया।

कहते हैं साठ के दशक तक आसपास की आबादी इसी के पानी पर आश्रित थी। अकाल राहत के तहत हुई खुदाई के कार्य में छर्रा निकल जाने की वजह से अब तालाब में पानी अधिक समय तक नहीं ठहरता। इसकी आगोर पर अतिक्रमण का दौर अनवरत जारी है। एक अनुमान के मुताबिक इसकी आगोर पर अब तक 200 से अधिक मकान, कार्यालय आदि बन चुके हैं।

तालाब परिसर में श्रीयंत्रनुमा एक बावड़ी भी है जो 22 सीढ़ियाँ लिये 22 फुट गहरी है। बावड़ी के ऊपर ही पाँच छतरियाँ बनी हैं जिनमें दो संगमरमर की हैं। उनमें रासलीला के चित्र अंकित हैं। इसकी आगोर भूमि के बारे में मतैक्य नहीं है। कुछ लोग कहते हैं 5,78,531.25 वर्ग गज जमीन थी, तो कुछ अन्य के मुताबिक 11 लाख वर्गगज जमीन इसकी आगोर हेतु छोड़ी हुई है, जिसका राजकोष में राजस्व भी जमा करवाया हुआ है।इस तालाब को बीकानेर में पर्यटन स्थल के रूप में अब भी बतौर शानदार पिकनिक स्पॉट विकसित किया जा सकता है। कहते हैं कभी श्रावण माह के चारों सोमवार समेत चौथ व भाद्रपद के सोमवार एवं गेमना पीर का लौटता मेला इसी तालाब पर सम्पन्न होता था। तालाब व मन्दिर सहित सारे क्षेत्र की देख-भाल हेतु एक प्रन्यास है, जिसमें मोहता जाति के लोग शामिल हैं, लेकिन ट्रस्ट तालाब के प्रति उदासीनता बरत रहा है। इसके रख-रखाव एवं प्रबन्धन की कोई सुचारु व्यवस्था नहीं है जबकि इतिहास के पन्नों में यही तालाब अपनी विशेषताओं के कारण सुविख्यात रहा है। यह तालाब बीस से पचीस फुट गहरा था जो पन्द्रह फुट रह गया है।

समय-समय पर श्री नत्थू महाराज ने आन्दोलन, भूख हड़ताल, धरने आदि करके इसके वर्तमान स्वरूप को बचाए रखा है जो इस कहावत का प्रतिकार है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, लेकिन कहते हैं अगर जीवट हो तो कम-से-कम आँख तो अवश्य ही फोड़ सकता है।

2. हर्षोलाव तालाब


बीकानेर के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर आज भी अपने निज स्वरूप को लिये हुए कायम है हर्ष जाति का यह सुन्दर तालाब हर्षोलाव। शिलालेखानुसार वि.सं. 1688 की अश्विन पूर्णिमा भृगुवार (शुक्रवार) को हर्ष माधव के दिवंगत होने पर उनके धर्मज्ञ पुत्रों राजचन्द्र, कल्याण, चतुर्भुज द्वारा धन व्यय कर माधवसागर (हर्षोलाव) बनवाने का उल्लेख मिलता है। यह शहर का एकमात्र तालाब है जिसकी खुदाई निरन्तर होती रही है क्योंकि रेत का जमाव इस क्षेत्र में अधिक रहता है। हर्षों का जातीय प्रन्यास भी तालाब को लेकर सक्रिय है। इसलिये यह आज भी अपने मूल स्वरूप में कायम है।

इस विशाल झीलनुमा तालाब का क्षेत्रफल 400 गुना 225 फीट है तथा इसकी गहराई 28 फीट है। इसका तला सूथा मिट्टी का है। तालाब व मन्दिर परिसर कुल 36.50 बीघा 4 बिस्वा जमीन पर स्थित है। तालाब से थोड़ी दूर ही हर्ष जाति के श्मशान हैं। तालाब के आगोर परिसर में ही सती मन्दिर, भैरव मन्दिर, हरिराम मन्दिर सहित 11 नाडे हैं। साथ है एक कसौटी पत्थर (सोने के परख में काम आने वाला पत्थर) की अनेकरूपा प्रतिमा लगा मन्दिर भी है। इतना ही नहीं, इस तालाब पर ऋषिकार्यों की भी सर्वोत्तम व्यवस्था है, मसलन चाहे श्रावणी कर्म हो या यज्ञ अथवा श्राद्ध-तर्पण, इन सब आध्यात्मिक आयोजनों के लिये तालाब के घाटों एवं उसके बाहर आगोर परिसर में व्यवस्था की हुई है।

372 वर्ष पुराने इस तालाब का स्वरूप कुछ हद तक सिन्ध के साधुवाला तालाब से मिलता-जुलता है। इसके पीछे लोकमान्यता है कि शायद हर्ष जाति के लोग रोड़ीशक्खर (तत्कालीन सिन्ध प्रान्त, जो अब पाकिस्तान में है) से 16वीं सदी में आये। अतः यह उसी का प्रभावांश है।

तालाब में कुल आठ घाट हैं, इनमें दो मालियेनुमा (अहातेनुमा) बनाए गए हैं। इन पर छत भी बनी हुई है ताकि ऋषिकर्म के समय धूप या वर्षा विघ्न न बने व तालाब में रहते हुए आध्यात्मिक अनुष्ठान निर्विघ्न सम्पन्न किया जा सके। महिलाओं के स्नान हेतु एक जनाना घाट की व्यवस्था भी है जिसे जाली घाट के नाम से जाना जाता रहा है, जहाँ महिलाएँ निःसंकोच होकर स्वच्छन्दतापूर्वक जल-कलोल का आनन्द ले सकती हैं।

विकास के क्रम में यहाँ प्रशासन के सहयोग से एक जम्पिंग स्टैंड भी बना हुआ है। एक समय में जब बीकानेर में तैराकी संघ नहीं था और आज की भाँति स्वींमिंग पूल नहीं थे तो प्रतियोगियों के लिये श्री शंकरलाल, माणकलाल हर्ष ने वर्षों तक तैराकी प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाई, जिससे स्थानीय तैराकों को आगामी प्रदर्शन हेतु सहायता मिली। इस तालाब के उत्थान में श्री शंकरलाल, श्री माणक हर्ष की भूमिका प्रमुख रही है क्योंकि आपकी जुगलजोड़ी सन 1957 से यहाँ निरन्तर सक्रिय होकर विकास के कार्य एवं पर्यावरण सन्तुलन कार्यों हेतु तत्पर है।

अभी हाल ही में आगोर परिसर में एक भव्य यज्ञशाला पं. घनश्याम आचार्य की प्रेरणा से बनाई गई है, जिसमें सभी प्रकार के वैदिक, याज्ञिक कर्म-अनुष्ठान आदि सम्पन्न किये जा सकते हैं। कह सकते हैं कि तालाब व सुरक्षित आगोर के मामले में आज बीकानेर में यही एकमात्र सुरक्षित तालाब है, शेष सभी काल के गाल में या तो समा चुके हैं या समाते जा रहे हैं। हर्ष जाति की सक्रियता ने इसे आज भी अपने मूल स्वरूप में कायम रखा हुआ है जो अन्य समाजों एवं नगर के लिये वरेण्य एवं प्रेरणास्पद है।

इतना ही नहीं, इस तालाब पर एक समय में 6-7 मेले लगा करते थे। इनमें भाद्रपद शुक्ला 10, 11, माघ कृष्णा 10, 11, श्रावण पूर्णिमा को श्रावणीकर्म (यह आज भी होता है) एवं भाद्रपद शुक्ला ऋषिपंचमी आदि सम्मन्न होते थे। श्री माणक हर्ष बताते हैं कि आगोर परिसर में एक बागोलाई नाम की तलाई भी हुआ करती थी जो कालान्तर में नहीं रही। साथ ही, मेलों-मगरियों के विशेष अवसरों पर तथा अन्य दिनों में हर्ष जाति के श्री मंगलचन्द हर्ष, श्री दाऊजी हर्ष, श्री चम्पालाल हर्ष आदि आगोर एवं तालाब परिसर की चौकसी किया करते थे ताकि कोई इसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचा सके। यह तालाब प्रबन्धन की सक्रियता, प्रशासन के सहयोग व तालाब को सर्वश्रेष्ठ बनाए रखने की जातीय सजगता का जीता-जागता नमूना है।

3. फूलनाथ का तालाब


आज का फूलनाथ सागर बीते कल में रघुनाथ सागर के नाम से जाना जाता था। यह तालाब वि. सं. 1777, मार्गशीर्ष शुक्ला 10 सोमवार, तदनुसार 28 नवम्बर, सन 1720 को बीकानेर के प्रतिष्ठित मूँधड़ा परिवार की ओर से श्री गोपालजी के पौत्र रघुनाथ की पुण्य स्मृति में बनवाया गया। इसी कारण उस समय से यह रघुनाथसागर नाम से जाना जाता रहा है क्योंकि मूँधड़ा जाति ने इसका निर्माण करवाया, अतः इसे मूँधड़ों का तालाब भी कहा जाता था। बीकानेर में तालाब-तट साधु-सन्तों की तपोभूमि रहे हैं। अतः फूलनाथ जी नाम के एक लोक सन्त ने यहाँ आकर बरसों तपस्या की। कहते हैं उनके पास अन्नपूर्णा सिद्धि थी, अतः कालान्तर में यह फूलनाथ का तालाब नाम से प्रसिद्ध हुआ।

तालाब परिसर में श्रीयंत्रनुमा एक बावड़ी भी है जो 22 सीढ़ियाँ लिये 22 फुट गहरी है। बावड़ी के ऊपर ही पाँच छतरियाँ बनी हैं जिनमें दो संगमरमर की हैं। उनमें रासलीला के चित्र अंकित हैं। इसकी आगोर भूमि के बारे में मतैक्य नहीं है। कुछ लोग कहते हैं 5,78,531.25 वर्ग गज जमीन थी, तो कुछ अन्य के मुताबिक 11 लाख वर्गगज जमीन इसकी आगोर हेतु छोड़ी हुई है, जिसका राजकोष में राजस्व भी जमा करवाया हुआ है। इसकी गहराई 15 से 20 फुट के लगभग बताते हैं। आगोर अब करीब-करीब अतिक्रमण एवं खनन की भेंट चढ़ चुकी है।

इसकी आगोर मुडिया कांकर की बनी है। करमीसर सहित आसपास की आबादी के लिये पूर्व में यही एकमात्र पेयजल स्रोत था।

तालाब की आगोर में चारों तरफ कॉलोनियों के बस जाने व अनधिकृत कब्जे होने से तालाब वर्षों से भरा नहीं है। तालाब में बना विशाल गऊ घाट बताता है कि एक समय में यहाँ एक साथ सैकड़ों पशु पानी पीया करते थे। तालाब परिसर में मन्दिर के पास हाकूजी (सेठ श्री रामलाल बागड़ी) द्वारा निर्मित एक अतिसुन्दर विश्रामशाला भी है, जहाँ किसी जमाने में गोठें हुआ करती थीं। गऊ घाट पर से दूसरी तरफ जाने के लिये पुल क्षत-विक्षत अवस्था में आज भी देखा जा सकता है। दो वर्ष पूर्व यहाँ लोक-संस्कृति उन्नयनार्थ संस्थान परम्परा ने 11 हजार व श्री सूरजनारायण व्यास ने जन सहयोग से 65 हजार रुपए लगवाकर श्रीयंत्रनुमा बावड़ी को तल तक साफ करवाया था। बावड़ी का मूल सौन्दर्य उजागर करने में श्री व्यास एवं परम्परा का पूर्ण सहयोग रहा। हालांकि इस तालाब का एक ट्रस्ट भी बना हुआ है, लेकिन वह इसके प्रबन्धन में किसी भी प्रकार की रुचि नहीं दिखा रहा है। तालाब के चारों ओर बने दो गऊ घाट, दो पणयार घाट मिट्टी में दब गए हैं। अपने लुंज-पुंज सौन्दर्य के साथ आज भी इसे देखा जा सकता है।

4. घड़सीसर


करीब 116 वर्ष पूर्व संवत 1944-45 में सेठ श्री रामलाल बागड़ी ने पुत्रकामना से एक महात्माजी के कहने पर इस तालाब का निर्माण करवाया। यह तालाब बीकानेर के तालाबों में अग्रणी माना जाता है। इसके बारे में प्रसिद्ध था कि जिसने घड़सीसर को तैर कर पार कर लिया, उसे पक्का तैराक मान लिया जाता था।

तालाब के पास तालाब-निर्माण से पूर्व रहने वाले पूर्व डीएसपी श्री मांगीलाल स्वामी के अनुसार पहले यहाँ नाडा यानी एक छोटा किन्तु गहरा गड्ढा था, जिसमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता था और आस-पास के पशु-पक्षी आदि उसका उपयोग करते थे। उनके अनुसार सेठ रामलाल बागड़ी के पुत्र नहीं था। वे बच्छ-बारस (वत्स द्वादशी) के दिन गऊ माता को पिण्ड देने आये तो पिण्ड देने के बाद पास बने चबूतरे पर महात्मा के चरणों में जाकर बैठ गए और उन्हें अपना दुख बताया। महात्माजी ने सेठ से कहा कि तुम नाडिए की जगह एक विशाल तालाब खुदवा दो और गाय की सेवा करो, तुम्हें गोपाल मिलेगा। श्री स्वामी बताते हैं कि सेठ ने दूसरे दिन ही तालाब का निर्माण-कार्य शुरू करवा दिया।

जमीन पथरीली थी, अतः ढेर-सारा पत्थर खुदाई में निकला जो बाद में इसकी चिनाई में काम आया। करीब 25 फुट गहरा यह तालाब पाँच घाट (जिनमें दो जनाना-घाट शामिल हैं) दो नेष्टा लिये आज भी बहुत अच्छी हालात में हैं। केवल आगोर नष्ट हो गई है। कहते हैं जब तालाब-निर्माण का कार्य चल रहा था तो स्वयं महाराजा गंगा सिंह यहाँ आये और उन्होंने एक किनारे ऊँचे स्थान पर छतरी बनाने का सुझाव सेठजी को दिया। फलस्वरूप आज उस स्थान पर एक कलात्मक छतरी को देखा जा सकता है, जिसे घड़सीसर टेकरी के नाम से जाना जाता है। संवत 1956 में तालाब पहली बार पानी से भरा व संवत 1974 में अन्तिम बार।

तालाब की आगोर में चारों तरफ कॉलोनियों के बस जाने व अनधिकृत कब्जे होने से तालाब वर्षों से भरा नहीं है। तालाब में बना विशाल गऊ घाट बताता है कि एक समय में यहाँ एक साथ सैकड़ों पशु पानी पीया करते थे। तालाब परिसर में मन्दिर के पास हाकूजी (सेठ श्री रामलाल बागड़ी) द्वारा निर्मित एक अतिसुन्दर विश्रामशाला भी है, जहाँ किसी जमाने में गोठें हुआ करती थीं। गऊ घाट पर से दूसरी तरफ जाने के लिये पुल क्षत-विक्षत अवस्था में आज भी देखा जा सकता है। आगोर के बारे में अधिकृत जानकारी का अभाव है। सावाबही खजानदेसर नं. 3, वि.सं. 1824/1767 में आये उल्लेखानुसार रुपए 25 घड़सीसर री भाछ नाम से राज्य द्वारा कर भी लिया जाता था।

5. नृसिंह सागर


बीकानेर के तालाबों में सर्वाधिक बड़ी आगोर वाला तालाब ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी, संवत 1953 में रायबहादुर कस्तूरचन्दर विश्वेश्वरदास डागा ने परोपकार एवं सार्वजनिक हितार्थ निर्मित करवाया। कालान्तर में भगवान नृसिंह का मन्दिर भी तट पर बना। उसके बाद से तालाब का नाम नृसिंह सागर प्रचलन में आया। 20 फुट गहरे इस तालाब की लम्बाई और चौड़ाई चार हजार वर्गगज बताते हैं। इसकी आगोर 958 बीघा 15 बिस्वा थी, जो अब अधिकांशतः अतिक्रमणकारियों के कब्जे में है। तालाब के उत्तर-दक्षिण में गऊ घाट सहित पूर्व पश्चिम में दो-दो पणयार घाट बने हैं। साथ ही, तालाब के चारों ओर अन्दर उतरने व नहाने आदि के वास्ते तीन-तीन सीढ़ियाँ भी बनी हैं जिन्हें घाट के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। हालांकि इसका ट्रस्ट है, लेकिन पारिवारिक मतभेदों की राजनीति में फँसकर उदासीन है।

6. ब्रह्मसागर


न्यू गजनेर रोड स्थित करीब सौ साल पुराने इस तालाब का निर्माण किसने करवाया, कब करवाया, इस बारे में आधिकारिक जानकारी का अभाव है। विभिन्न घाटों के निर्माण का उल्लेख शिलालेखों से अवश्य ही प्राप्त किया जा सकता है। शिलालेख लगे तट का निर्माण वि.सं. 1953 चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को श्री हरिकृष्ण एवं श्री माणकचंद ने जनहितार्थ करवाया। इसका एक घाट दरबार की ओर से व एक घाट सेठ की ओर से बनवाया गया।

आज, जो जस्सूसर गेट के बाहर वाला मुख्य मार्ग है, वह पूर्व में गजनेर रोड के नाम से प्रसिद्ध था। बाद में लालगढ़ पैलेस से आने वाली गजनेर रोड को बनाया गया, अतः इसे नई गजनेर रोड कहा जाता है जो आजकल कोठारी मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के आगे से जाती है। श्री रामरतन डागा की ओर से भी कुछ भाग बनाया गया है। रामरतन डागा नगर की पुरानी प्रचलित कहानियों का वही दानवीर सेठ है जिसके हुण्डी ठीकरी पर सिकरती (भुगतान होती) थी।

अभिलेखों के अनुसार तालाब सहित प्रन्यास की चहारदीवारी के भीतर आने वाली परिसम्पत्ति में खसरा सं. 232 दादादी 4 बीघा 19 बिस्वा, खसरा सं. 9 तादादी 9 बीघा 2 बिस्वा शामिल है। तालाब में कुल नौ घाट हैं। यह तालाब 15 से 20 फुट गहरा है। इसकी आगोर 14 बीघा 2 बिस्वा है। तालाब-निर्माण को लेकर कई किंवदन्तियाँ प्रचलन में हैं। कुछ के अनुसार यह तालाब दादूपंथी सन्त की देन है तो कुछ इसे रजिया महाराज द्वारा जनसहयोग से तैयार किये तालाब के रूप में देखते हैं। लेकिन घाटों के निर्माण में विभिन्न लोगों के सहयोग को देखते हुए कहा जा सकता है कि तालाब जनसहयोग से ही निर्मित हुआ होगा और रजिया महाराज की इसकी देख-भाल व सार-सम्भाल में कोई विशेष भूमिका रही है, अतः उनका नाम भी इसके साथ जोड़ दिया गया है।

पर्यटन की दृष्टि से यह तालाब भी बीकानेर के श्रेष्ठ तालाबों में अग्रणी है। अपनी अनूठी स्थापत्य कला, पानी के बीच में बने शिवमन्दिर और रानियों के नहाने के वास्ते बने जल महल आदि के साथ यह सुन्दर पिकनिक स्पॉट भी है। इसकी आगोर में हुए अतिक्रमण एवं खनन ने इसके सौन्दर्य को क्षति पहुँचाई है। एक समय इसी तालाब से गाँव के लगभग 1000 पशु अपनी प्यास बुझाया करते थे। ऐसा नहीं है कि इसके सौन्दर्य की अभिवृद्धि हेतु यत्न नहीं हुए, शिव मन्दिर में जाने के लिये पूर्व में नाव में सवार होकर ही जाया जा सकता था, लेकिन अब एक पुल बना दिया गया है।यह तो कई बुजुर्ग आज भी कहते हैं रजिन्दर (रजिया महाराज) के समय कोई भी आदमी इसकी आगोर की तरफ आँख नहीं उठा सकता था, लेकिन आज जागरूकता के अभाव में इसकी आगोर पर कब्जे हो गए हैं। ट्रस्ट की सक्रियता से जब इस तथ्य से प्रशासन को अवगत करवाया गया तो तत्कालीन मंत्री डॉ. बी.डी. कल्ला के सहयोग से 40 बीघा जमीन पर चहारदीवारी की गई। तालाब परिसर में ही मार्कण्डेश्वर महादेव का मन्दिर भी है, जिसमें आज भी बहुत सारे दर्शनार्थी दर्शन हेतु जाते हैं। हालांकि आज भी यह अपने पुराने किन्तु क्षत-विक्षत यौवन के साथ कायम है फिर भी आगोर के नष्ट हो जाने का आस्तित्विक संकट आ गया है। बहुत कम धन में इसे पुनः जल संधारक जलाशय के रूप में विकसित किया जा सकता है।

7. देवीकुण्डसागर


इस तालाब का निर्माण राजा रायसिंह के समय में हुआ। लोक किंवदन्ती के अनुसार देवीकुण्डसागर की खुदाई में देवी प्रतिमा निकली थी। इसी कारण इसका नाम कालान्तर में देवीकुण्डसागर विख्यात हुआ है। गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि यह देवी प्रतिमा सागर के डूंगरेश्वर महादेव के मन्दिर में आज भी देखी जा सकती है।

सावाबही वि.सं. 1885 में राज्य द्वारा इसकी मरम्मत पर 1600 रुपए खर्च करने का दस्तावेज भी देखने में आता है। प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं सागर-विकास के पर्याय रहे श्री पी. सुन्दर के पास सागर-विकास से जुड़ी दस्तावेजों की वृहद फाइल के हवाले से मालूम होता है कि सागर के दोनों तालाबों (देवीकुण्ड व कल्याणसागर) की आगोर 538.5 बीघा थी लेकिन अतिक्रमण एवं खनन के चलते और उनके खिलाफ हुए आन्दोलनों के क्रम में जिला कलक्टर, बीकानेर के आदेश एफ/ 12-3(3) राजस्व (75) दि. 29/07/75 के अनुसार अब यह 382 बीघा 2 बिस्वा रह गई है। बाकी कब्जों व खनन की भेंट चढ़ चुकी है। बुजुर्ग यह भी बताते हैं कि इन तालाबों पर कभी 7-8 मेले लगा करते थे। आज ये लगभग उठ गए हैं। कौंसिल हुकम री बही नं. 32 वि.सं. 1936/1879 में आये उल्लेख से पता चलता है कि उस समय राजपरिवार की महिलाएँ विशेष अवसरों पर कल्याण सागर पर वर्ष में एक बार अवश्य आती थीं।

पर्यटन की दृष्टि से यह तालाब भी बीकानेर के श्रेष्ठ तालाबों में अग्रणी है। अपनी अनूठी स्थापत्य कला, पानी के बीच में बने शिवमन्दिर और रानियों के नहाने के वास्ते बने जल महल आदि के साथ यह सुन्दर पिकनिक स्पॉट भी है। इसकी आगोर में हुए अतिक्रमण एवं खनन ने इसके सौन्दर्य को क्षति पहुँचाई है। एक समय इसी तालाब से गाँव के लगभग 1000 पशु अपनी प्यास बुझाया करते थे। ऐसा नहीं है कि इसके सौन्दर्य की अभिवृद्धि हेतु यत्न नहीं हुए, शिव मन्दिर में जाने के लिये पूर्व में नाव में सवार होकर ही जाया जा सकता था, लेकिन अब एक पुल बना दिया गया है।

करीब एक दशक पहले तत्कालीन जिलाधीश ने काफी धन खर्चकर इसे अपने पुराने वैभव में लाने का यत्न किया, लेकिन प्रयत्नों की निरन्तरता के अभाव एवं सामाजिक असहयोग के चलते यह कार्य बीच में ही अटक गया। अब इसकी भी दुर्गति हो रही है। तालाब की मिट्टी से कच्ची ईंटें बनाकर ले जाई जा रही हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।

रानियों के नहाने के लिये बने जलमहल का स्थापत्य सौन्दर्य तो देखते ही बनता है। बीकानेर के तालाबों में यह अपनी तरह के जनाना-घाट का उत्कृष्टतम रूप है। शानदार महीन जालियाँ, पत्थर की फर्श और घुमावदार शैली में बना यह जलमहल पर्यटकों के औत्सुक्य एवं आकर्षण का विशेष केन्द्र भी है। इस तालाब में जलमहल के ऊपर बने मन्दिर की तालाब वाली दीवार पर एक पत्थर का जलभराव मापक भी लगा है। दर्शकों के लिये लगा यह पत्थर आज भी वहाँ देखा जा सकता है।

8. शिवबाड़ी तालाब


बीकानेर के तत्कालीन शासक डूँगरसिंह ने अपने पिता लालसिंह की याद में जिस तालाब व शिवमन्दिर का निर्माण करवाया, आज वे ही शिवबाड़ी का लालेश्वर महादेव मन्दिर व शिवबाड़ी तालाब के रूप में प्रसिद्ध हैं। यह तालाब कब बना, इस सम्बन्ध में आधिकारिक जानकारी नहीं है। अभिलेखों में इसकी आगोर 4 बीघा एक बिस्वा अंकित मिलती है। इसकी आगोर अभिलेख में अंकित आगोर से निश्चय ही बड़ी रही होगी, लेकिन क्रूर काल के हाथों ने उसे भी अपने निज रूप से विकृत कर दिया है। बजरी क्षेत्र होने के कारण जगह-जगह बजरी खुदाई होते आज भी देखी जा सकती है। किसी जमाने में यहाँ श्रावण माह के चार सोमवार सहित 7,8 तिथि को भी मेले लगते थे, जो अब नहीं लगते। इसकी देखभाल हेतु शिवबाड़ी महंत अधिकृत हैं। वर्तमान में शिवबाड़ी मठ के महंत संवित सोमगिरिजी महाराज हैं, जिन्होंने अपने कार्यकाल में इस मन्दिर व उद्यान परिसर का बहुत विकास किया है लेकिन तालाब अभी तक उपेक्षित ही है।

आजकल आगोर नष्ट होने से पानी तो इसमें भरता नहीं, सो बच्चों के लिये खेल के मैदान के रूप में काम आ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक मठ के अधिष्ठाता द्वारा जितना धन मठ के सौन्दर्य व स्वरूप को सजाने-सँवारने में अब तक खर्च किया गया है उसका 10 प्रतिशत भी तालाब व आगोर पर खर्च नहीं हुआ। अधिकांशतः कब्जे हो गए हैं, कॉलोनियाँ बस गई हैं। महंतजी से इसके इतिहास के बारे में पूछने पर उन्होंने एक अन्य सन्दर्भ व्यक्ति से सम्पर्क करने को कहा मगर उनसे भी किसी भी प्रकार को कोई अधिकृत जानकारी नहीं मिली।

9. सूरसागर


आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि जिस नगर में 100 से ज्यादा ताल-तलाइयाँ रही, वहाँ के शासन ने उनमें से दस तलाइयों का निर्माण भी अपनी ओर से नहीं करवाया है। बीकानेर नगर में यहाँ के राजा द्वारा निर्मित ताल-तलाइयों की संख्या बहुत कम है। यह काम सेठ-साहूकारों सहित समाज के आपसी तालमेल से ज्यादा हुआ। हाँ, राज का सहयोग जरूर इस बाबत समय-समय पर मिलता रहा। राज ने जिन तालाबों का निर्माण करवाया उनमें सर्वप्रमुख है- सूरसागर। इसका पुराना नाम ताजुक-ए-सागर भी है।

1821 में खुदाई के बाद जोधपुर के आक्रमण के समय इसे पाट दिया गया था। ताकि आक्रमणकारियों को पानी न मिले। बाद में पुनः सुधार कर इसे मूल स्वरूप में लाया गया। इसकी आगोर के बारे में राज्यादेश था कि टेकरी से पूर्वोत्तर दिशा मे जितनी चाहें उतनी भूमि आचार्य जाति के लोग तालाब की आगोर हेतु ले सकते हैं। कहते हैं किसी जमाने में आज की तरह चारों ओर आबादी के बजाय यह क्षेत्र सघन वन एवं वन्य प्राणियों की स्वच्छन्द विचरण स्थली रहा है। तालाब एवं आगोर परिसर में एक शिवमन्दिर भी है।नगर के जूनागढ़ के सामने बने इस विशाल ताल को सागर की उपमा दिया जाना निश्चय ही सही जान पड़ता है। बीकानेर में पहली बार बर्फ का निर्माण इसी के पानी से हुआ। इतना ही नहीं, इसके पानी का उपयोग भुजिया व मिसरी बनाने में भी किया जाता था। सन 1614 में तत्कालीन शासक सूरसिंह ने इस तालाब का निर्माण करवाया। यह नगर का एकमात्र ऐसा तालाब भी है जिसमें एक हाथी घाट भी बना है, क्योंकि राजा के हाथी भी यहाँ पानी पीया करते थे। अतः विशेष रूप से उनके लिये अलग घाट भी इस पर निर्मित देखा जा सकता है। इसका आकार 586 गुना 396 वर्गफीट है। इसकी गहराई 15 फुट मानी जाती रही है। कौन्सिल हुकम री बही नं. 8 वि.सं. 1932 में उल्लेख मिलता है कि तत्कालीन राजा डूंगरसिंह जी ने इसकी मरम्मत और सीढ़ियों का पुनर्निर्माण भी करवाया था। सूरसागर की भाछ भी राज्य द्वार वसूली जाती थी।

कहते हैं कि इसका तला विशेष प्रकार से बना था जिसमें सोडियम कार्बोनेट डाला गया था ताकि तालाब के तल में बने विशेष छिद्रों से पानी स्वच्छ रहे। बीकानेर के इतिहास का स्वर्णिम समय सन 1910 से 1938 तक में इस तालाब का सर्वाधिक विकास हुआ। महाराजा गंगासिंह द्वारा इसके लिये बहुत धन खर्च किया गया। इसके अलावा भी इससे पूर्व व बाद में रियासत की ओर से इस हेतु बहुत धन खर्च किया गया। अपनी बनावट में स्थानीय स्थापत्य का सौन्दर्य संजोए इस तालाब में 21 सीढ़ियाँ सामने से उतने हेतु बनी थी, जो अब दिखाई नहीं देती। 1895 के बन्दोबस्त में इसकी आगोर 24 बीघा 10 बिस्वा बताई हुई है।

इस तालाब के निर्माण के पीछे ऐतिहासिक सच व किंवदन्ती का मिलजुला कथारूप कुछ इस तरह से है कि सूरसिंह के समय टीकाई पुरोहित को राजा कि खिलाफत करने का दंड दिया गया। इसके विरोध में जागीरदारों ने आवाज उठाई, जिसका दरबार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। कहते हैं उन्होंने इसके विरोध स्वरूप मोजऊ दंगली पर चिता बनाकर आत्मदाह कर लिया। इस घटना के कुछ समय पश्चात सूरसिंह को कोढ़ जैसी भयंकर बीमारी का सामना करना पड़ा अन्ततः इलाज से परेशान एवं आत्मग्लानि के भाव से भर जाने पर प्रायश्चित हेतु पण्डितों व ज्योतिषियों के कहने पर उन्होंने आत्मदाह के स्थान पर 21 हाथ गहरा तालाब खुदवाया जो उनकी मृत्यु के बाद सूरसागर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तालाब में पानी आने की लगभग वही वैज्ञानिक विधि थी जो करीब-करीब स्थानीय तालाबों में देखी जा सकती है।

बीते कल में अपनी स्थापत्य कला, कलात्मक रेलिंग, एक सुन्दर तट व घाटों के लिये सूरसागर निश्चय ही सूर यानी सूर्य के समान देदीप्यामान था।

अगर नगर की प्रमुख समस्याओं की एक सूची बनाई जाये, तो उसमें इसका नाम भी शामिल है। विभिन्न राजनेताओं ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपने हितों को संवर्धित किया है, सूरसागर अपने वर्तमान पर प्रसन्न नहीं है। जब-तब इसके निदान हेतु करोड़ों रुपए खर्च किये जा चुके हैं, पर बीते वर्षों में स्थानीय विधायक डॉ. बी.डी. कल्ला ने इस सम्बन्ध में एडीबीपी परियोजना में इस बाबत आई राशि को बढ़वाकर इसके समाधान की राहों को आसान बनाया है, लेकिन तकनीकी पक्षों की अवहेलना के चलते यह प्रयास कितना कारगर होगा इसका फैसला भविष्य के हाथों में है।

10. बागड़ियों का तालाब


गोगा दरवाजे के बाहर छींपों के मोहल्ले में स्थित बागड़ियों का तालाब अपने तीन सौ वर्षों के इतिहास के साथ आज भी कायम है। 16 सीढ़ियाँ बताती हैं कि तालाब की गहराई 15 से 20 फुट रही होगी। सभी घाट पणयार घाटनुमा शैली में निर्मित हैं। यह बागड़ी जाति के पूर्वजों की देन है इसलिये जातीय नाम से ही विख्यात है। तालाब के पास बनी बगीची में देवलियों की प्रतिमाओं पर संवत 1233 व 1589 का उल्लेख है, किन्तु तालाब निर्माण सम्बन्धी किसी भी आधिकारिक जानकारी का अभाव है। आगोर पर बसी आबादी को देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि किसी जमाने में यह भूमि इस तालाब की आगोर रही होगी। तालाब परिसर में बगीची के अलावा दो कुण्ड एवं गिरी सम्प्रदाय का एक धूणा है। इतिहास में इस तालाब के तार जोधपुर राजघराने एवं गिरि सम्प्रदाय की गद्दी से जुड़ते हैं इसीलिये जोधपुर गद्दी के अधीन गिरि सम्प्रदाय का महंत ही इसका अधिष्ठाता मुकर्रर होता है।

कहते हैं अन्य तालाबों की भाँति कभी इसका आगोर परिसर अति सुन्दर हर-भरा एवं रमणीक रहा था। पक्षियों की चहचहाहट तो इसकी खास पहचान थी। आसपास की आबादी के लिये उस समय यही एकमात्र पेयजल का स्रोत था।

11. हिंगलाज तालाब


महाराजा सूरसिंह के समय संवत 1670 में यह तालाब एक नाडे के रूप में था। नाडे के क्रमिक विकासस्वरूप पहले यह छोटी तलाई और कालान्तर में बड़ा और पक्के तल वाला तालाब बना। यह तालाब आचार्य जाति के श्मशान के पास ही चौखूँटी पर स्थित है। अतः आचार्य जाति के मृतक के दाहसंस्कार के बाद स्नान आदि क्रियाओं में इसका प्रयोग होता था। तालाब एवं इसकी आगोर पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं। इसकी आगोर 32 बीघा 4 बिस्वा रही थी।

इसके निर्माण को लेकर एक लोक किंवदन्ती है कि वेणीदास एवं हिंगलाज आचार्य एक बार तीर्थाटन को निकले। संवत 1670 में ये यात्राक्रम में बीकानेर आये। यहाँ पर जैसलमेर के राजा रावल हरराज की बेटी गंगाबाई ब्याही हुई थी, अतः उसने इनकी मेहमाननवाजी की। इस बीच हिंगलाज जी बीमार पड़ गए और उनकी जीवनलीलाल समाप्त हो गई। उन्हीं की पुण्य स्मृति में एक नाडा बनाया गया था जो कालान्तर में विकासक्रम में हिंगलाज तालाब बना और इसके पास बना आचार्य जाति का श्मशान। पुराने नक्शे में इसकी आगोर 21,225 वर्ग गज एव लम्बाई और चौड़ाई 12 गुणा 64 वर्गगज चिन्हित है। श्री वल्लभदत्त आचार्य के पास उपलब्ध अभिलेखानुसार तालाब के नक्शे में आगोर की 32 बीघा 4 बिस्वा जमीन दिखाई गई है। कुछ बुजुर्ग कहते हैं कि इस जमीन का ताम्रपत्र था, जिसमें इसकी आगोर गढ़ तक बताई हुई थी। बाद में पट्टा जारी हुआ। लेकिन अब यह आगोर अतिक्रमणकारियों की चपेट में आकर नष्ट हो चुकी है। बचे अवशेषों को भी बड़ी मुश्किल से पहचाना जा सकता है।

12. रघुनाथसागर


आचार्य जाति के बीकानेर में तीन ताल-तलाइयाँ हैं जो क्रमशः धरणीधर, महानन्द, रघुनाथ सागर के नाम से जानी जाती हैं। रघुनाथसागर राव बीका की टेकरी के पिछवाड़े में राजा गजसिंह के समय बना था। यह तालाब सम्भवतः रघुनाथजी की पुण्य स्मृति में उनके पुत्रों जगन्नाथ जी एवं वृजलालजी ने खुदवाया या बनवाया होगा। अतः कालान्तर में प्रचलित नाम रघुनाथसागर प्रचलन में आया। यह 15 फीट गहरे एवं 1 गऊ घाट सहित तीन घाटों के साथ क्षत-विक्षत अवस्था में है। 15 बीघा जमीन इसकी आगोर हेतु बची हुई है। तालाब प्रबन्धन ने ही अधिकृत तौर पर प्रन्यास की ओर से आगोर में खनन हेतु खाने ठेके पर दी हुई हैं।

किसी जमाने में इस तालाब का पानी शहर के लोगों की प्यास बुझाता था। आज इसका तला स्वयं पानी के लिये पाइप लाइन पर निर्भर होकर तरस रहा है। कहते हैं एक जमाने में भिश्तियों की लाइन लगी रहती थी, लेकिन अब तो यह एक मनुष्य के खोज के लिये भी तरस रहा है यानी इसकी देख-भाल ढंग से नहीं हो रही है। इस तालाब का उल्लेख बीकानेर गजेटियर, ले.पी. डब्ल्यू. पॉवलेट (1874) के अलावा मुंशी सोहनलाल की तवारीख में भी है।कहते हैं 1821 में खुदाई के बाद जोधपुर के आक्रमण के समय इसे पाट दिया गया था। ताकि आक्रमणकारियों को पानी न मिले। बाद में पुनः सुधार कर इसे मूल स्वरूप में लाया गया। इसकी आगोर के बारे में राज्यादेश था कि टेकरी से पूर्वोत्तर दिशा मे जितनी चाहें उतनी भूमि आचार्य जाति के लोग तालाब की आगोर हेतु ले सकते हैं। कहते हैं किसी जमाने में आज की तरह चारों ओर आबादी के बजाय यह क्षेत्र सघन वन एवं वन्य प्राणियों की स्वच्छन्द विचरण स्थली रहा है। तालाब एवं आगोर परिसर में एक शिवमन्दिर भी है। कालान्तर में जनता के पीने हेतु पानी के एक पुराने नल और मनोरंजन हेतु उद्यान का निर्माण हुआ है।

आचार्य जाति ने इस तालाब व इसकी आगोर के लिये पूर्व में बहुत संघर्ष भी किया। तालाब के लिये संघर्ष के दरमियान ही आचार्य जाति के पूर्वजों ने महाराजा गजसिंह को एक प्रार्थना-पत्र भी दिया, जो इस प्रकार है-

स्वस्ति राजराजेश्वर
महाराजाधिराज शिरोमणि महाराजगजसिंह महाराज कुमार राजसिंह वचनात.....। जी महरबानीकर अचारज जगन्नाथ, वृजलाल नु तलाब री धरती बक्शी छै।सु रघुनाथ सागर करासी। रामसिंह री छतरी रै पाछे रास्तो बैवे छैतिके सू उगुणों होसी, संवत 1821 मिती भादवा कृष्ण 11मुकाम पाय तख्त बीकानेर हुक्म मोहता राव बख्तावर सिंह।


13. मोदियों का तालाब


दो घाट वाला सम्भवतः बीकानेर का इकलौता तालाब मोदियों के तालाब के नाम से जाना जाता है। इनमें एक गऊ एवं एक पणयार घाट ही बने थे। यह तालाब मोदी जाति के धरमसिंह पुत्र सुलतानमल ने वि.सं. 2010 में बनाया। वर्तमान में भंवर मोदी उनके वंशज के रूप में इसके इकलौते मालिक हैं। हम्मालों की बारी के बाहर मोदियों की बगेची के तट पर बना यह तालाब अपनी 27 बीघा आगोर के साथ दुरवस्था में है। आगोर का पट्टा आसोज माह, संवत 1873 में बीकानेर रियासत की ओर से जारी किया गया है।

किसी जमाने में इस तालाब का पानी शहर के लोगों की प्यास बुझाता था। आज इसका तला स्वयं पानी के लिये पाइप लाइन पर निर्भर होकर तरस रहा है। कहते हैं एक जमाने में भिश्तियों की लाइन लगी रहती थी, लेकिन अब तो यह एक मनुष्य के खोज के लिये भी तरस रहा है यानी इसकी देख-भाल ढंग से नहीं हो रही है। इस तालाब का उल्लेख बीकानेर गजेटियर, ले.पी. डब्ल्यू. पॉवलेट (1874) के अलावा मुंशी सोहनलाल की तवारीख में भी है।

14. अर्जुनसागर


शिलालेखानुसार अरजनदास मोदी पुत्र सालमचन्द मोदी ने वि. सं. 1925 से 1950 के मध्य हम्मालों की बारी के बाहर इस पेयजल स्रोत का निर्माण करवाया, अतः उन्हीं के नाम से इसका वर्तमान नाम प्रचलन में आया। नाडीनुमा तालाब में सभी घाट पक्के हैं। यह तालाब पेयजल के लिये केवल मोदी समाज ही नहीं, वरन सर्वजाति के लिये प्रयुक्त होता था। लेकिन बहुत पुराने समय में केवल मोदियों के लिये छूट थी तथा इस पर एक ही परिवार का अधिकार था। अभिलेख बताते हैं कि अरजनदास ने तालाब बनाने के पेटे 8 हजार वर्गगज जमीन खरीदी। इसमें चार हजार वर्गगज खादेदारी की थी। कहा जाता है कि इसकी गहराई करीब 35-40 फुट रही है। कहते हैं किसी जमाने में गंगाशहर से लोग यहाँ पानी भरने आते थे। वर्तमान में मोदी जाति का प्रन्यास इसका प्रबन्धन कर रहा है। आज भी विशिष्ट अवसरों पर मोदी जाति के लोग यहाँ एकत्र होते हैं। इसी के अग्रभाग में मोदियों की बगीची के साथ भगवान शिव एवं सत्यनारायण के मन्दिर भी हैं। मोदियों के समाज में मृतक-संस्कार के बाद आज भी लोग यहाँ आकर स्नान आदि करते हैं। अब तो तालाब के अवशेष भग्नावस्था में शेष हैं। कहते हैं 1950 तक यह समाज की सेवा में था अब यह सेवानिवृत्त जीवन जी रहा है।

15. कल्याणसागर


बीकानेर शहर की पूर्व दिशा में स्थित कल्याणसागर देवीकुण्डसागर से पहले का बना हुआ तालाब है। वि.सं. 1630 में रियासत के राजा कल्याणसिंह का देहान्त हुआ। उन्हीं की स्मृति में इस तालाब का नाम कल्याणसागर रखा गया। इसके तट पर बीकानेर रजाघराने की श्मशान भूमि है, जहाँ पर आझ भी राजपरिवार के दिवंगत व्यक्तियों की स्मृति में छतरियाँ बनाई जाती हैं। आज से 30-35 वर्ष पूर्व जब सागर गाँव में पाइप लाइन नहीं थी तब, कहते हैं इस इलाके का यह एकमात्र पेयजल स्रोत था, जिसमें गाँव एवं आसपास की लगभग पूरी आबादी एवं पशु-पक्षी आदि भी प्यास बुझाया करते थे।

बुजुर्ग बताते हैं कि इसकी खुदाई में भैरूंजी की प्रतिमा निकली जो आज भी इसके तट पर सागरिया भैरूं के नाम से प्रसिद्ध है एवं पूजी जाती है। इसमें सात बेरियाँ भी थीं, जिनमें से दो को तो आज भी देखा जा सकता है। 80 गुणा 80 पाँवड़ा यह तालाब आज दुरवस्था में है। आगोर पर अतिक्रमण हो गए हैं। इसकी आगोर के किनारे बना महिन्द्रा शोरूम का रासायनिक गन्दगी से भरा पानी इसके पानी की शुद्धता को तो नष्ट करता ही है, साथ ही आगोर के लिये भी हानिप्रद है। जगह-जगह खनन भी हो रहा है।

गाँव के बुजुर्ग श्री रामदत्त पुरोहित को बीकानेर राज्य का इतिहास लगभग स्मृति में है। वे बताते हैं कि यह तालाब राजा रायसिंह ने खुदवाया, साथ ही सं. 1600 में जब गुरूनानक इधर से यात्रा करते हुए निकले तो कुछ समय बीकानेर में रुके। यह उनकी दूसरी उदासी के अन्तर्गत भी उल्लिखित बताया जाता है। उस समय उन्होंने नगर से सात मील दूर भूमि की ओर इशारा करते हुए निर्देश दिया कि यह भूमि पवित्र है, अतः इस स्थान पर सरोवर बनाया जाये। इतिहास में इस तथ्य को लेकर विभिन्न विद्वानों में मतैक्य का अभाव है। कहते हैं कालान्तर में राजा रायसिंह ने अपने पिता की स्मृति में यह तालाब खुदवाया एवं राजपरिवार की अन्तिम यात्रास्थली भी यहीं मुकर्रर की। यहाँ मौके पर जाकर देखने से पता चलता है कि किसी समय में यह अत्यन्त समृद्ध भू-भाग रहा होगा और इसकी रमणीयता देखते ही बनती होगी। यह लोकेशन आज नगर में आने वाले फिल्म निर्देशकों की सूची में सर्वोपरि रहती है।

पन्द्रह तालाबों के बाद अब क्रमशः तलाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. धरणीधर तलाई


आचार्य जाति के इतिहास के सन्दर्भ में प्रकाशित पुस्तक के अनुसार आचार्य श्री भारमल के वंशज श्री वेणीदास के पौत्र शिवराम जी पुत्र श्री धरणीधर ने वि.सं. 1776 की मार्गशीर्ष कृष्णा 12, शुक्रवार को इस तालाब की प्रतिष्ठा की। बुजुर्ग बताते हैं कि इस तालाब में कुल चार घाट थे, जिनमें एक गऊ घाट भी था। उनके अनुसार 25 से 30 फुट गहरा तालाब लगभग 300 गुणा 600 फीट आकार के आयतन को अपने अस्तित्व में समेटे था। तालाब की अधिकृत आगोर साढ़े सात बीघा थी जिसमें अब अवैध खनन एवं अतिक्रमण हो रहे हैं। तालाब की भूमि वर्तमान में मन्दिर परिसर के विस्तार कार्यक्रम के तहत पाट दी गई है। तालाब के कुछेक ध्वंसावशेष बचे हैं। इसके तल पर एक बड़ा आँगन यज्ञादि कर्म, प्रवचन आदि के लिये बना दिया गया है। कहते हैं तालाब में खुदाई के दौरान छर्रा निकल आया जिससे पानी अधिक समय तक नहीं ठहरता, अतः इसे पाटकर आध्यात्मिक आयोजनों के निमित्त एक विशाल पक्के आँगन का स्वरूप दे दिया गया। यह तालाब अपने जीवनकाल में सर्वजाति के लिये सर्वसुलभ पेयजल स्रोत के रूप में लम्बे समय तक काम आता रहा है। कालान्तर में प्रसिद्ध समाजसेवी सरपंच श्री रामकिशन आचार्य एवं उनके साथियों के अभूतपूर्व प्रयासों से गुजरे जमाने की धरणीधर तलाई आज एक विराट सांस्कृतिक परिसर के रूप में उभरकर आई है। इस परिसर में एक हेरिटेज प्याऊ, एक तालाब, खेल मैदान, एक सांस्कृतिक साभागार, संस्कृत पाठशाला और वृद्धजन भ्रमण पथ के अनेक जनोपयोगी एवं कल्याणकारी कार्य चल रहे हैं। इस परिसर में एक नए तालाब का निर्माण अन्य समाज और जातियों के लिये एक आदर्श उपस्थित करता है। सम्भवतः कुख सागर के बाद यह नगर का नवीनतम नवनिर्मित तालाब है।

2. चूनगरान तलाई


चूने की पकाई करने वाले लोगों ने, जो बीकानेर के बसने के बाद यहाँ विभिन्न धन्धे बदलते हुए आये, पानी की समस्या से निजात पाने हेतु चूनगरान तालाब बनवाया। क्योंकि इन मुस्लिम परिवारों ने चौखूँटी की तरफ ही चूना पकाने की भट्ठियाँ लगा रखी थीं, अतः उन्हें इस काम में पानी के अभाव से बड़ी परेशानी के मद्देनजर उन्होंने अपनी दैनिक समस्या के समाधान के लिये यह तालाब बनाया। उनके लिये पेयजल का यही कालान्तर में एकमात्र स्रोत रहा। इसके निर्माण, आगोर एवं इससे जुड़ी अन्य जानकारियों के सम्बन्ध में आधिकारिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। सम्भवतः यह बीकानेर का एकमात्र तालाब था जिसके घाट नहीं बँधे थे। कहते हैं इसकी आगोर 100 गुणा 100 वर्गगज की रही है। डागोलाई एवं कसाइयों की तलाई के पास ही यह स्थित रहा है। पेयजल स्रोत के अलावा इसे तट पर ताजिये भी ठंडे होते थे। कालान्तर में इस जाति अपने पेशे को छोड़ दिया और तालाब की भी उपेक्षा शुरू हो गई। अब इसकी आगोर पर कमल कॉलोनी, कर्बला कॉलोनी बस चुकी हैं। आज चूनगरान जाति के लोगों में अधिकांश को इसकी जानकारी तक नहीं है।

3. कुखसागर


यह सम्भवतः बीकानेर का सबसे बाद में बना यानी नवीनतम तालाब है। इसका इतिहास हरिजन जाति से जुड़ा है क्योंकि पूर्व में छुआछुत की समस्या थी। अतः उसी के मद्देनजर हरिजन जाति के वे लोग, जो किसी जमाने में शहर में जस्सोलाई के पास रहा करते थे, उठकर बाहर की तरफ गए। उन्होंने रानीसर व रोशनीघर के बीच इसका कच्चा निर्माण किया। क्योंकि इसका पानी अन्य ताल-तलाइयों की अपेक्षा गन्दा रहता था, अतः यह छोटी जस्सोलाई के रूप में प्रख्यात हुआ। इसे गन्दोलाई के नाम से भी जाना जाता है। इसे मेघवाल तलाई भी कहते थे। अब इसका अस्तित्व नहीं रहा है। इसकी आगोर पूर्णतया नष्ट हो चुकी है। उसके स्थान पर एक खेल का मैदान अम्बेडकर स्टेडियम बना दिया गया है। किसी जमाने में हरिजनों के लिये अपने इलाके का यह एकमात्र पेयजल स्रोत रहा है। बुजुर्गों के अनुसार तीन तरफ से इसकी आगोर करीब 100 बीघा थी। बच्चे नहाने के वास्ते ऊपर से कूदा करते थे, इसीलिये इसका नाम कूखसागर भी पड़ा। हरिजन समाज का यह तालाब कच्चा था। प्रामाणिक दस्तावेजों के अभाव में इसके बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ भी कहना या लिखना सम्भव नहीं है।

4. नाथसागर


नाथ साधकों की कर्मस्थली रहा नाथसागर तालाब बेणीसर बारी के बाहर महाराजा गजसिंह के समय में फतेहचन्द शिवनारायण आदि ने खुदवाया। कालान्तर में इसे पक्का बनाया गया। तालाब का निर्माण किस सन में हुआ, इसका उल्लेख किसी भी आधिकारिक स्रोत से उपलब्ध नहीं है। शहर का यह एकमात्र ऐसा तालाब है जहाँ पशुओं के पीने का घाट नहीं बना। बताया जाता है कि स्नान भी यहाँ पूरी तरह वर्जित था। छोटा पणयार घाट बना है जिससे पानी लिया जा सकता है। पशु घाट न होने के पीछे कारण यह था कि इसका प्रयोग यहाँ के साधक केवल पूजा-अर्चना एवं अनुष्ठानों में ही करते थे। श्यामोजी के वंशजों द्वारा निर्मित इस तालाब के तट पर नगर के बसने से पूर्व के मन्दिर बने हुए हैं, जिनकी महाराजा गजसिंह द्वारा मरम्मत करवाये जाने का उल्ले भी मिलता है। तोरणद्वार पर 11वीं सदी से 16वीं सदी की देवलियाँ यहाँ लगी देखी जा सकती हैं। अभिलेखानुसार इसकी आगोर 55 हजार 836 वर्ग गज 13 आना है। तालाब के तट पर कसौटी पत्थर की मूर्ति का बना कसौटीनाथ शिवमन्दिर कबीर 30 फुट ऊपर तीसरी मंजिल पर स्थित है। कहते हैं इस मन्दिर के गर्भगृह में कालिका मन्दिर व गुफाएँ हैं जिनके रास्ते अज्ञात हैं। अपने स्थापत्य में मन्दिर किसी किले से कम नहीं है। इसके प्रबन्धन हेतु ट्रस्ट भी बना है जिसमें मूँधड़ा जाति के सेवग शामिल हैं। इसके तालाब, मन्दिर, कुओं आदि की आगोर अलग-अलग दी हुई है जिसके पीछे किस्सा यह है कि सन 1750 में यहाँ के राजा को दरबार के गुप्त खजाने के बारे में पता नहीं था। इधर राज्य की माली हालत भी बहुत खराब चल रही थी। अतः तत्कालीन राजा ने नाथसागर पर साधक दीनोजी सेवग गिदानी की सहायता से दरबार के गुप्त खजाने का पता लगाया। इसी की एवज में आगोर हेतु जमीन रियासत की ओर से दी गई। अब इसकी आगोर पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। किसी जमाने में जो हरा-भरा क्षेत्र था वह अब घनी आबादी में परिणत हो गया है और तलाई कूड़े-करकट व गन्दगी के ढेर से करीब-करीब पाटी जा चुकी है।

5. हंसावत सेवगों की तलाई


जिस समय तक स्वयं सहायता समूह जैसा पद प्रचलन में नहीं आया था, उस समय उसी की तर्ज पर निर्मित हुई है हंसावत सेवगों की तलाई। इसकी खुदाई वि.सं. 1887 आसोज कृष्णा छठ गोगा दरवाजे के बाहर सेवगों की साल के निकट शुरू हुई। तलाई व आगोर के लिये जमीन बख्शीश में दी गई। सेफोजी ने खुदाई की शुरुआत की। इसकी आगोर 56 हजार वर्गगज थी। कालान्तर में यह उसी जाति व उपजाति के नाम से जानी जाति रही है। अभिलेखानुसार सेफोजी ने सं. 1988 में तालाब की बँधाई की। शेरे बीकानेर मारजा गंगादास के समय तीन तरफ पक्के घाट बनाए गए, साथ ही तला भी पक्का किया गया। इसी के पास में सदे सेवग, बच्छे सेवग की तलाई भी स्थित है। अभिलेखानुसार अगूणे पासे खुली जमीन थी। दिखणादे पासे दादेजी रो देवरो था। उत्तरादे पासे सेवग बच्छे री तलाई थी। ढाई ताल गहरा यह समकोणीय तालाब सात बाँस लम्बा-चौड़ा था यानी लगभग 84 गुणा 84 वर्गगज की साइज में था। आसपास की आबादी का पेयजल स्रोत यही था। सन 1955 तक आबादी इसी के पानी पर आश्रित थी। तालाब में नहाना-धोना मना था। आगोर पर अब अतिक्रमण हो गए हैं, हालांकि ट्रस्ट बना हुआ है। खेलनी सप्तमी के अलावा समुदाय के लोग इस सामाजिक सम्पदा की ओर कभी मुँह तक नहीं करते हैं। इसी के तट पर शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासभा का भवन, बगीची, महादेव मन्दिर व खींवज माता का मन्दिर भी है।

6. भाटोलाई


नत्थूसर दरवाजे के बाहर भाटों की बस्ती के पहले बनी तलाई भाटोलाई कहलाती थी। इसका एक नाम पुष्करणी तडाग भी था। यह तलाई महाराजा सरदारसिंह के समय में वि.सं. 1920 में माहेश्वरी दम्माणी गणेशदास के पुत्रों ठाकरदास, नरसिंहदास, भगवानदास, गोविन्ददास आदि ने निर्मित करवाई। इसकी आगोर 2 बीघा 8 बिस्वा है। किसी जमाने में यह भी अपने आसपास बसी आबादी के लिये पेयजल का स्रोत रही है। कहते हैं इसमें एक गऊ घाट सहित तीन पणयार घाट थे।

पक्के तल वाली इस तलाई के चारों ओर झरोखेनुमा कठघरे इसलिये लगवाए गए थे कि इसमें कोई पशु आदि घुसे नहीं। इस इलाके के निवासियों की प्यास बुझाने के अलावा विभिन्न मेले-मगरिए में जाने वाले यात्रियों की भी प्यास बुझाने के साथ ही, यह उनकी विश्रामस्थली भी रही है। कोलायत, गजनेर का गेमनापीर व कोडमदेसर भैरूंजी का मेला आदि के मेलार्थी यहाँ कुछ समय विश्राम करके फिर आगे बढ़ते थे। इसके तट के एक किनारे पर एक बगीची है जिसमें बावड़ी व कुण्ड हैं।

श्रावणी कर्म के अलावा श्रावण की तीज, गुरू पूर्णिमा, श्रावण के प्रत्येक सोमवार के मेले-मगरिए लगते थे। आगोर पर अतिक्रमण हो चुके हैं। हालांकि दम्माणी समाज का ट्रस्ट बना हुआ है जो बगीची के प्रबन्धन में दखल रखता है। क्योंकि आगोर नष्ट हो गई और बारिश के दिनों में पानी पूरा भरता नहीं था, साथ ही आसपास के गऊ पालक समेत सभी इसे कचरा स्थान मानकर इसके ईर्द-गिर्द कचरा डाल देते थे, अतः कालान्तर में यह गन्दगी के बड़े अम्बारखाने में तब्दील हो गई थी। बाद में मोहल्ले के लिये नासूर साबित होने लगी तो मोहल्ला विकास समिति ने प्रशासन के सहयोग से इस पर बाबा रामदेव पार्क बना दिया जो आज भी वहाँ देखा जा सकता है।

7. कानोलाई तलाई


नानगाणी ओझा समाज के पूर्वज कानोजी ने अपनी पुत्री की स्मृति में कानोलाई का निर्माण वि.सं. 1841 में करवाया, जो कालान्तर में अपभ्रंश होत-होते कन्दोलाई के रूप में प्रचलित हुआ। करीब 175 वर्ष तक आसपास की आबादी के लिये पेयजल स्रोत रही यही तलाई करीब 15 फीट गहरी, 14 सीढ़ियाँ लिये थी। इसमें दो गऊ घाट, दो पणयार घाट व एक स्नान घाट बने थे।

अब तो यह पूरी तरह पाटी जा चुकी है। नानगाणी ओझा प्रन्यास आज भी इस परिसर की देखभाल एवं विकास हेतु सन्नद्ध है। इसी परिसर में महाराजा गजेन्द्र सिंह ने गजेश्वर महादेव की स्थापना की थी जो आज भी कायम है। यहाँ वैशाख शुक्ला द्वादशी को वार्षिकोत्सव मनाया जाता है। इस इलाके के नौसिखिए तैराकों के लिये यह एक प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में भी काम आई। आगोर नष्ट होने की वजह से इसका अस्तित्व समाप्तप्राय है।

8. ठिंगाल भैरूं की तलाई


बीकानेर से करमीसर जाने वाले रास्ते पर आज जो खंगाल भैरूं मन्दिर है, असल में वह अपभ्रंश होते-होते ही ठींगाल से खंगाल बना है। इसका वास्तविक नाम है- ठिंगाल भैरूं। उसी के ठीक सामने बनी माली समाज की तलाई का नाम है- ठिंगाल भैरूं की तलाई। कहते हैं जोधपुर के मंडोर में रहने वाले ठिंगालिया माली जाति के कई भोपाओं के परिवार बीकानेर नगर बस जाने पर वहाँ से पलायन कर यहाँ आये थे। उनके काफिले में एक भैरूं प्रतिमा भी थी। क्योंकि यह स्थान रियासतकालीन बीकानेर का कांकड़ था, अतः यहाँ तक आते-आते वे थक गए, अतः यहीं पर काफिले के मुखिया ने ठिंगाल भैरूं की मूर्ति की स्थापना कर दी। क्योंकि वे सभी परिवार यहाँ रहते थे और उनकी दैनन्दिन आवश्यकताओं में जल संकट प्रमुख था, अतः उन्होंने तालाब का निर्माण किया।

विकास के क्रम में पहले पक्की चहारदीवारी करवाई गई। साथ ही एक गऊ घाट एवं एक पणयार घाट भी बनाए गए। इतिहास में इसके तार राजघराने से भी जुड़े हैं। आज भी राजपरिवार की स्त्रियाँ गर्भवती होने पर ठीकरी की रस्म अदा करने के लिये यहाँ आती हैं। ठींगालिया माली जाति के परिवार आज भी इसके इर्द-गिर्द इलाके में बसे हैं। 25 वर्गगज की इस तलाई की गहराई दो बाँस थी। तालाब की पायतन 250 बीघा बताई जाती है। इसकी आगोर पर अतिक्रमण हो चुके हैं। इसके भी अब केवल चिन्हमात्र ही देखे जा सकते हैं। आपसी सामाजिक फूट का लाभ उठाकर बीकानेर का भूमफिया अपने सिट्टे सेंक रहा है।

9. पीर तलाई


अपनी यात्रा के दौरान रूहानी पीर बहाऊल हक जकरिया साहब ने जहाँ ठहर कर इबादत की, उस स्थान पर शहर की उस्ता कौम के लोग उनकी सेवा शुश्रूषा के लिये नियमित आया करते थे, अतः इस स्थान को पीर तलाई कहा गया है। क्योंकि यह उस्ता जाति की है, अतः कालान्तर में इसका उस्तों की तलाई नाम प्रचलन में आया। यह हर्षोलाव व मानजी की तलाई के बीच में आज भी नष्ट प्राय अवस्था में देखी जा सकती है।

कहते हैं रियासतकालीन बीकानेर के राजा रायसिंह ने उस्ता जाति के लोगों को सन 1574-1612 के मध्य अकबर के दरबार से यहाँ बुलाया था, क्योंकि स्थापत्य एवं भवन-निर्माण में उन दिनों इस जाति का बोलबाला था। अतः इसी क्रम में इन्हें नगर में बसने के वास्ते जमीन, पानी हेतु तलाई मय आगोर प्रदान की गई।

1910-1911 के दस साला बन्दोबस्त में खसरा सं. 96/96 पर अंकित इस तलाई को गुलाम मोहम्द वल्द बद्र जी की सम्पति बताते हुए इसकी आगोर 16 बीघा बताई गई है। इसके आगोर परिसर में उस्तों की बगीची भी है। करीब 350 वर्ष पुरानी इस तलाई का तला पक्का था। इसकी गहराई 15 फीट थी। कहते हैं इसमें साँप की बांबी निकल गई थी। इसके कारण जल ज्यादा नहीं ठहरता था। अब यह बहुत ही असुरक्षित, दुरवस्था में है कि जिसे देखकर यह कहा ही नहीं जा सकता कि यह किसी जमाने में शहर की अच्छी तलाइयों की श्रेणी में थी।

10. दर्जियों की तलाई


शहर का दक्षिण-पश्चिमी भाग तलाइयों का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कम-से-कम 15-20 ताल-तलाई आज भी देखे व गिनाए जा सकते हैं। दर्जियों की तलाई उनमें से एक है। 1895 के मिसल बन्दोबस्त में खसरा सं. 99 के खाता सं. 38/38 पर अंकित इस तलाई को ठाकरसी वल्द चान्द व मुरली वगैरह की सम्पत्ति दर्शाया गया है। इसकी आगोर हेतु कुल सवा सात बीघा जमीन है जिसमें 5 बीघा 3 बिस्वा तलाई के वास्ते एवं 1 बीघा 12 बिस्वा बगीची के वास्ते दर्ज है। इलाके के बुजुर्गों के कथनानुसार करीब चार सौ वर्ष पूर्व बनी यह तलाई आगोर के अभाव में नष्ट हो चुकी है। लेकिन इसकी बनावट को आज भी तल सहित मौके पर देखा जा सकता है।

कहते हैं इसकी आगोर की जमीन तत्कालीन महाराजा बीकानेर ने बख्शीश के तौर पर दी थी। इसके तट पर सतियों के शिलालेख हैं जिन पर 1505 वि.सं. तथा वि.सं. 1515 में सती होने के उल्लेख उत्कीर्ण किये हुए हैं। इन्हीं के आधार पर यह माना जाता रहा है कि सम्भवतः यह तलाई इनसे पूर्व बनी होगी। दर्जी जाति के सामूहिक अनुष्ठान से निर्मित यह नमूना अब अपनी बदहाली पर रो रहा है और इसकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं है।

11. विश्वकर्मा सागर


एक जमाने में तलाइयों में अपनी कारीगरी व बनावट के लिय विख्यात रहा विश्वकर्मासागर, जिसे सुथारों की तलाई के नाम से ज्यादा जाना जाता है, आज बद-से-बदतर अवस्था में अन्तिम साँसें गिन रहा है। बीकानेर की तलाइयों के स्थापत्य का अध्ययन किया जाये तो उसमें इसकी जोड़ की तलाई ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी, लेकिन अब यह अकूड़ी में परिणत हो रही है। इसके निर्माण की कथा के सूत्र रियासतकालीन बीकानेर के विजय भवन निर्माण एवं जातीय अस्मिता के अतीत की स्थिति से जुड़े हैं। क्योंकि वि.सं. 1925 से पहले सुथारों की स्त्रियाँ अन्य जाति की तलाई से पानी लाती तो उन्हें ताने सुनने पड़ते थे, अतः जब रियासत के विजय भवन का निर्माण कार्य चला तो उस समय के इंजीनियरों में सुथार चलवें होते थे। उनमें भी लूणजी, प्रथूजी, बालूजी व उदजी उस समय के श्रेष्ठ चलवों के रूप में विजय भवन निर्माण में अपनी सेवाएं दे रहे थे।

इसी कार्य के दौरान उन्होंने राजश्री बीकानेर को अपनी जल समस्या सम्बन्धी आप बीती सुनाई। तब तत्कालीन शासक ने मनचाही आगोर भूमि देते हुए उनके तालाब निर्माण सम्बन्धी प्रस्ताव को स्वीकारा। फिर क्या था। जातीय अस्मिता के प्रभाव के चलते सुथार जाति के लोगों ने शारीरिक एवं आर्थिक सहयोग के मिले-जुले यज्ञ से इसे उत्कृष्ट कलाकारी के नमूने के रूप में प्रस्तुत किया। 1925 में वि. सं. में आरम्भ हुआ कार्य वि.सं. 1933 तक चला। आर्थिक तंगी के चलते काम में रुकावटें भी आईं।

कालान्तर में रावत सुथार ने अपनी ओर से दो घाट व पिछवाड़े की दीवार सं. 1988 की आसोज शुक्ला 13 को पूरी करवाई, जिसका शिलालेख उक्त घाट की दीवार पर आज भी मौके पर देखा जा सकता है। यह सम्भवतः बीकानेर की एकमात्र बन्द तलाई भी है जहाँ खिड़कियाँ बन्द होने की स्थिति में आदमी या जानवर पानी नहीं पी सकता था। कहते हैं चारों तरफ पक्की दीवारों की बनी इस तलाई के ऊपरी भाग पर कभी उत्कृष्ट कारीगरी युक्त पत्थर की रेलिंग भी हुआ करती थी। आगोर की सुरक्षा हेतु ईश्वरदास को नौकरी दी हुई थी, जो रात के समय लालटेन लेकर आगोर पर पहरा देता था।

दो पणयार घाट लिये यह तलाई उस जमाने में सामूहिक गोठों के लिये सर्वप्रिय स्थल के रूप में भी लोक-विख्यात थी। अब इसकी आगोर पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। अतिक्रमण व खनन के खग्रास ने इसके सौन्दर्य को कम कर दिया है। थोड़ी सी धनराशि खर्च करके आज भी इसका पुनरुत्थान किया जा सकता है। लेकिन सामाजिक निष्क्रियता के चलते यह दिन-ब-दिन अपने मूल वैभव से श्रीहीन होती जा रही है। लोक-कहावत – कैरी गाय, कूण बाँटो देवै वाली स्थिति का व्यवहार इसके साथ हो रहा है।

12. महानन्दसागर


वि.सं. 1767, चैत्र कृष्णा 2 को शिवरामजी के पुत्र महानन्दजी ने जिस तलाई का निर्माण इस इलाके के प्रमुख पेयजल स्रोत के रूप में करवाया, वह महानन्द तलाई या मानजी की तलाई के नाम से जानी गई। आगोर के नष्ट हो जाने के बाद भी आज अपने मूल स्वरूप को लिये महानन्द तलाई के बारे में कहा जाता है कि इसका आकार 8 हजार वर्ग गज है तथा इसकी आगोर खसरा सं. 37 में 17 बीघा अंकित है। इसकी गहराई 18-20 फीट बताई जाती है। पानी के आगमन का एक प्राकृतिक किन्तु पूर्णता वैज्ञानिक रास्ता इस तलाई में आज भी देखा जा सकता है। सुरंगनुमा आगोर का पानी करीब 50 से 60 फीट लम्बी प्राकृतिक नाली से बहकर एक कुण्ड में एकत्र होता है। कुण्ड में पूरा भरने के बाद उसकी ऊपरी सतह का स्वच्छ-निर्मल जल तलाई के आगार में जाता है। कहते हैं इस तलाई का पानी इतना साफ व स्वच्छ रहता था कि ऊपर से फेंका गया एक रुपए का सिक्का तल पर आसानी से देखा जा सकता था। इस पर भी पणयार घाट, गऊ घाट सहति कुल तीन घाट बने हैं। बुजुर्ग यह भी बताते हैं कि इसका पानी वैष्णव बन्धुओं के वास्ते जो चर्मजल का उपयोग नहीं करते थे, विशेष उपयोगी था। इसमें पानी एक बार भरने पर साल-भर भरा रहता था। बुजुर्ग बताते हैं कि अन्दरूनी शहर के लगभग सभी लोग पानी के लिये इसी तलाई पर आश्रित थे, क्योंकि कुओं पर जल की कीमत देनी पड़ती थी। कोठे कभी-कभी सेठ लोग छुड़वाया करते थे, अतः तलाइयाँ ही पानी का साधन थी जहाँ से आम आदमी बेरोकटोक पानी पी और ले जा सकता था। लेकिन आज यह भी अपने दुर्दिनों में है। सौन्दर्य की धनी यह क्षत-विक्षत तलाई अब लगभग समाप्त होने के कगार पर है।

13. कसाइयों की तलाई


कसाइयों की तलाई व्यासों की बगीची व चूनगरान तालाब के उत्तर में चौखूँटी के निकट गजनेर सड़क के दक्षिण में स्थिति है। कभी कसाई समाज के व्यवसायियों की माँग पर उन्हें तत्कालीन नगर शासक ने उनकी पेयजल सम्बन्धी समस्या के निदान हेतु भूमि आवंटित की थी। इसका निर्माण किसने, कब करवाया, इसके बारे में आधिकारिक जानकारी का अभाव है। इसके आगोर की लम्बाई और चौड़ाई 12,500 वर्गगज तथा गहराई लगभग 25 फुट बताई जाती है। इस तलाई के रख-रखाव हेतु जाति के लोगों ने एक पृथक कर का भी प्रावधान, जिसे ये लाग कहकर पुकारते थे, कर रखा था। यहाँ एक फकीर भी मुकर्रर था जो इसकी आगोर की देखभाल करता था। अब इसकी सम्पत्ति कसाइयों की मस्जिद के प्रन्यास के अन्तर्गत है। आगोर नष्ट हो चुकी है। अस्तित्व के चिन्ह मात्र देखे जा सकते हैं।

14. रंगोलाई


करीब 150 वर्ष पूर्व रंगा जाति के लोगों ने गजनेर सड़क के दक्षिण में रंगोलाई तलाई का निर्माण किया था। तलाई के बारे में आधिकारिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सं. 1951 का एक शिलालेख इसके तट पर बने राजेश्वर महादेव के मन्दिर परिसर में लगा है जिसके मुताबिक मन्दिर की प्रतिष्ठा संवत 1951 में रामलाल रंगा के पुत्र ने की। इस मन्दिर के अलावा यहाँ एक ओर छोटा मन्दिर भी है। पक्के तल की तलाई की आगोर साहिराम के पुत्रों ने सरैनथानियान के रूप में छुड़वाई। इसकी आगोर 13 बीघा बताई जाती है। इसे लेकर भी अन्तिम निर्णय की स्थिति नहीं है। वर्तमान में इसकी हालत बहुत ही दयनीय है। हालांकि स्थानीय नगर विधायक डॉ. बी.डी. कल्ला ने अपने मंत्रित्वकाल में इसकी आगोर की चहारदीवारी करवा दी है, लेकिन उससे पूर्व अधिकांश आगोर पर लोगों ने कब्जे कर मकान बना लिये हैं। अब केवल बची-खुची आगोर ही चहारदीवारी में है। तलाई तो मात्र चिन्ह रूप ही देखी जा सकती है। डॉ. कल्ला ने इस बगीची परिसर में लाखों रुपए लगाकर विशाल एवं भव्य सामुदायिक भवन तो बनवा दिया, पर तलाई उपेक्षित ही रही।

15. नवलपुरी


यह तलाई एक दशनामी महात्मा की माँग पर तत्कालीन शासक द्वारा जनहितार्थ निर्मित है। इसके निर्माण के पीछे एक दिलचस्प कथा यह है कि तत्कालीन नगर शासक सुजानसिंह की नवलपुरीजी में अगाध श्रद्धा थी। एक बार उनकी पीठ में एक घाव हो गया। लाख उपचार करने पर भी उन्हें आराम नहीं मिला तो उन्होंने अपनी आप बीती नवलपुरीजी को सुनाई। कहते हैं सन्त जी ने उनकी व्यथा सुनकर अपनी अभिमंत्रित भस्मी लगाने को कहा और कुछ ही दिनों में महाराज पूर्ण स्वस्थ हो गए। तब राजश्री बीकानेर सुजानसिंह ने उनसे श्रद्धावश निवेदन किया कि आप मेरे लायक कोई आदेश दिजिए। इस पर सन्त जी ने इस तलाई के निर्माण का प्रस्ताव रखा। उसी आदेश की पालना में ई. सन 1727 में 13 फरवरी को इसकी मेंड़ राजश्री बीकानेर ने निर्मित करवाई। साथ ही, साढ़े सोलह बीघा जमीन इसकी आगोर हेतु छोड़ी। यह आगाह भी किया कि कोई इसकी आगोर की जमीन पर कब्जा करेगा तो राजश्री बीकानेर का गुनहगार होगा। कालान्तर में वि.सं. 1783 में नवलपुरीजी ने इसके तट पर बने मन्दिर परिसर में फाल्गुन शुक्ला तीज, सोमवार को भगवान बैजनाथ जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा भी की। कहते हैं कभी यह 20 फुट की गहराई लिये थी, लेकिन अब मौके पर मुश्किल से 5-6 फीट की गहराई देखी जा सकती है। आसपास की आबादी ने इसे अपने गन्दे अपशिष्ट पानी की निकासी हेतु कचरे के ढेर व गन्दे गड्ढे के रूप में इस्तेमाल किया व कर रहे हैं इसके घाट का निर्माण महन्त इन्द्रपुरी ने व दूसरे का निर्माण 1912 में महन्त एकनाथपुरी ने वि.सं. 1912 में करवाया। वर्तमान में इसके चारों तरफ घनी आबादी बस गई है और चारों तरफ की गन्दगी इसी के आगोर में एकत्र होती है। जैन स्कूल के पीछे स्थित इस तलाई का हाल भी बेजा बेहाल है और होता जा रहा है। वर्तमान में पुरी सम्प्रदाय के एक प्रज्ञाचक्षु महन्त, जो विजयपुरी के शिष्य हेमपुरी हैं, वहाँ निवास करते हुए मन्दिर परिसर की सार-सम्भाल कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी अफसोस है कि अब इसकी सुध-बुध लेने वाला कोई नहीं रहा है।

16. राजरंगों की तलाई


नत्थूसर दरवाजे के बाहर भैरूं कुटिया जाने वाले कच्चे रास्ते में श्री मारुति व्यायाम मन्दिर के पास व पूर्व चेतोलाई से पूर्व राजरंगों की बगीची में स्थित इस तलाई के इतिहास के तार बीकानेर राजघराने से जुड़े हैं। कहते हैं तत्कालीन शासक रत्नसिंह के एक अरसे तक सन्तान नहीं हुई। वे इसे लेकर बड़े दुखी थे। तब दरबार में कार्यरत श्री महासिंह रंगा ने उन्हें तालाब खुदवाने को कहा। इस पर उन्होंने यहाँ तलाई खुदवाई एवं अपने नाम से रत्नेश्वर महादेव मन्दिर भी निर्मित करवाया। संयोग से राजा को शीघ्र ही पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई। इसका पट्टा महाराजा की ओर से रंगा के पौत्र के नाम से 1888 वि.सं. में जारी किया गया। इस तलाई में एक पणयार, एक गऊ घाट समेत दो अन्य घाट भी बने हैं। यहाँ नहाना वर्जित था। यह भी केवल पेयजल स्रोत के प्रयोजन से है। करेला भा (श्री गिरधरलाल रंगा), जो कि ट्रस्ट के सक्रिय सदस्य हैं, के अनुसार इसका पट्टा डूंगरशाही सिक्कों से बना है इसकी आगोर छह सौ गज बताई जा रही है जिस पर अधिकांश कब्जे हो गए हैं। तलाई बदहाल अवस्था में है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई 60 गुणा 60 फुट बताते हैं। कहते हैं इसकी गहराई करीब 40 फुट थी, जो अब केवल 5-7 फुट ही मुश्किल से बची है। पिछले छह-सात दशकों से इसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अभी बगीची परिसर में नगर विधायक डॉ. बी.डी. कल्ला ने सामुदायिक हाल का निर्माण अवश्य कराया है, लेकिन तलाई की तरफ न तो ट्रस्ट सक्रिय है और न प्रशासन।

17. गिरोलाई


आगोर सहित अगर कोई तलाई आज भी अपने मूल स्वरूप में कायम है तो वह है गिरोलाई। यह भादाणी जाति की सम्पदा है, अतः इस बगीची एवं तलाई को भादाणियों की बगीची एवं तलाई के नाम से अधिक जाना जाता है। नगर की पुरानी स्थापत्य कला का जीता-जागता नमूना होने के साथ-साथ यह सुन्दर एवं रमणीक स्थल भी है। इसके तीन तरफ बने पक्के घाट आज भी देखे जा सकते हैं। 289 वर्ष पुराना इतिहास लिये इस तलाई के निर्माण में करीब 100-125 वर्ष लगे। कहते हैं इसकी खुदाई वि.सं. 1771 में आरम्भ हुई और यह पूर्णरूप से अपने शानदार स्वरूप में बनकर तैयार हुई वि.सं. 1817 में। यह भी केवल पेयजल स्रोत था। यहाँ नहाने वालों को तलाई से पानी लेकर आगोर परिसर में बने स्नानागारों में नहाना पड़ता था। इसकी आगोर आज भी पूर्णतया सुरक्षित है। कहते हैं करीब 240 बीघा खातेदारी जमीन का ताम्रपत्र भादाणी जाति के भादोजी को तत्कालीन शासक ने दिया था। इसकी आगोर के निचले हिस्से पर काशिये वाली तलाई स्थित है। इसमें श्रावण के सोमवार व गुरू पूर्णिमा को मेला लगता था, साथ ही भादाणियों की गवर यहाँ पानी पीने आती थी। इसके पास बने शिवमन्दिर की स्थापना सं. 1826 में हुई बताते हैं। इसकी ऊपरी सतह पर शानदार रेलिंग हुआ करती थी। इसके चिन्ह अब भी देखे जा सकते हैं। आगोर जहाँ समाप्त होती है वहाँ के पाये तक पूरी तरह सुरक्षित है। लेकिन बात वही है कि अब इसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। वैसे ट्रस्ट ने नगर विधायक डॉ. बी.डी. कल्ला के विधायक कोटे से यहाँ की चहारदीवारी सहित एक सामुदायिक भवन का निर्माण जनहित करवाया है। इसके परिसर में एक छोटा उद्यान भी है, जो अब जर्जर अवस्था में है। इतने सुन्दर एवं रमणीक स्थान की उपेक्षा हमारे प्रकृति के प्रति आये व्यवहार में परिवर्तन की पुष्टि करती है।

18. खरनाडा तलाई


नगर के पुराने केन्द्रीय कारागृह के बाईं तरफ स्थित ब्राह्मण सोनी समाज की जन्म व मरण से जुड़ी परम्पराओं की साक्षी रही है- खरनाडा तलाई। इसके निर्माण व निर्माता को लेकर आधिकारिक सूचना का अभाव है। कमठाणा बहियों के अनुसार सन 1811 में नगर सुरक्षा के उद्देश्य से फसील (परकोटा) का निर्माण हुआ उससे पहले यह स्थित थी। तत्कालीन शासक ने इस फसील में दो बड़े छेद इसकी आगोर का पानी आने के वास्ते रखवाए जो कालान्तर में खरनाडा बारी के नाम से जाने गए। सुनने में शायद विश्वास न हो कि उस जमाने में ताल-तलाई का महत्त्व कितना था, इसका अन्दाज इससे लगाया जा सकता है कि इस हेतु 27,000 वर्गगज जमीन छोड़ी गई है। बुजुर्ग कहते हैं खरनाडा तलाई बीकानेर नगर बसने के समय ही निर्मित हुई होगी। इसके परिसर में बने मन्दिर व लगे शिलालेखों पर क्रमशः 1620, 1883, 1885 वि.सं. अंकित आज भी देखे जा सकते हैं, जो बुजुर्गों के अनुमान का आधार भी हैं। इसकी चहारदीवारी 1885 वि.सं. में बनी। कच्चे तल की इस तलाई के कुल सात घाट थे जिनमें एक पणयार घाट व एक गऊ घाट भी था। कहते हैं उस जमाने में यह शहर के एक प्रमुख पेयजल स्रोत के रूप में गिनी जाती थी। इसके किनारे स्वर्णकार समाज ने एक अद्भुत एवं रहस्यमयी छतरी भी बनाई हुई है जिससे आले में रखा दीया कभी बुझता नहीं है। इस कलात्मक छतरी की बनावट में ही कोई ऐसी तकनीक काम में ली गई है, जिसके चलते यहाँ रोशन दीपक तेज आँधी-तूफान में भी नहीं बुझता। कभी इस तलाई पर तेला, गणगौर, शरद पूर्णिमा एवं शिवरात्रि समेत कुल 4-5 मेले लगते थे। मेलों का आयोजन व व्यवस्थापन सदैव स्वर्णकार समाज ने किया। यहाँ का पानी सर्वजाति के लोग पीते हैं। ब्राह्मण स्वर्णकार समाज के लोग दाह संस्कार के बाद यहीं आकर स्नान करते हैं, अतः इसे सोनारों का खरनाडा भी कहा जाता है। अभी गिरी सम्प्रदाय व ब्राह्मण सुनार – दोनों के बीच इसके मालिकाना हक–हकूक को लेकर मुकदमा भी चल रहा है। निचली अदालत का निर्णय सुनार जाति के पक्ष में गया है, पर ऊपरी अदालतों में मामला अब भी विचाराधीन है। इसकी आगोर लगभग नष्ट हो चुकी है। वर्तमान में यह बड़ी बुरी हालत में है।

19. जतोलाई


नगर की अधिकांश ताल-तलाइयों का निर्माण किसी प्रियजन की पुण्य स्मृति में अथवा जातीय स्मृति को चिरस्थायी बनाए रखने के उद्देश्य से किया गया। जतोलाई भी उसी शृंखला की एक तलाई है। आध्यात्मिक प्रेरणा से श्री वृद्धिचन्द व्यास ने इसका निर्माण समाज के लिये वि.सं. 1961 में शुरू किया व वि.सिं. 1963 की ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को यह तलाई बनकर तैयार हुई। अतः कालान्तर में जतोलाई के नाम से जानी गई। इसका एक अन्य नाम बिरधोलाई भी है। नौ कोणीय बनी यह तलाई पक्की है। इसके घाट पत्थरों के बने हैं। तीन पणयार घाट सहित कुल 15 फीट गहरी तलाई अब केवल 4-5 फुट ही रह गई है। शेष मिट्टी से अट चुकी है। प्रसिद्ध कवि आलोचक, नाटककार श्री नन्दकिशोर आचार्य जो कि स्वयं एक बहुत अच्छे तैराक रहे हैं, के अनुसार यह उस समय के नौसिखिया तैराकों का अघोषित लेकिन सर्वसुलभ प्रशिक्षण केन्द्र था। तालाबों में तैरने से पहले तैराकी सम्बन्धी ज्ञान वरिष्ठ नागरिकों के संरक्षण में पुराने शहर के बहुत से लोगों ने यहीं प्राप्त किया है क्योंकि इस पर बच्चों की संख्या अधिक रहती थी, अतः इसे बच्चों के तालाब की संज्ञा दी जाती रही। इसकी आगोर के बारे में आधिकारिक जानकारी नहीं है लेकिन बुजुर्ग बताते हैं कि करीब 40 बीघा जमीन इसकी आगोर के रूप में मुकर्रर है। इसके घाट पर कपड़े धोना वर्जित था। आधुनिक स्थापत्य की शैली में बनी यह तलाई आज भी, हालांकि मट्टी से भरती जा रही है, पर अपने खोये यौवन की गाथा कहने में सक्षम है।

20. हरोलाई


नगर की अनेकानेक ताल-तलाइयों की शृंखला में हरोलाई भी है जिसके निर्माण व निर्माता को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कहते हैं यह पहले एक कच्चे तल वाला तालाब था। जिसके घाट बँधे थे, लेकिन कालान्तर में जनसहयोग से इसकी खुदाई करके जीर्णोद्धार करवाया गया। बुजुर्ग बताते हैं कि इसकी खुदाई में हनुमान जी की एक मूर्ति निकली थी जो इसके तट पर बने मन्दिर में आज भी स्थापित है। इसी कारण इसका नाम हरोलाई पड़ा। टोपसिया नाई समाज के लोग इस पर अपना अधिकार जताते हैं। इसकी आगोर का भी कोई आधिकारिक साक्ष्य नहीं है। क्योंकि आगोर बजरी की है अतः यह खनन वालों, अतिक्रमण करने वालों की भेंट चढ़ चुकी है। पिछले काफी लम्बे समय से इसका प्रयोग नहीं हो रहा है। वर्तमान में इसके भी केवल अवशेष मात्र ही देखे जा सकते हैं। इसके घाट आदि मिट्टी में दब चुके हैं।

21. सवालखी तलाई


यह भी नगर के अन्य ताल-तलाइयों की भाँति एक जातीय तलाई है जो छींपा समाज को तत्कालीन शासक ने इनाम के रूप में दी थी। सोहनलाल पूनमचन्द खत्री छींपा के पूर्वजों को रियासत के किसी कार्य के बदले सवा लख मुद्राएँ दी जानी थीं लेकिन उन्होंने इसके बजाय जमीन चाही, तो इन सवा लाख मुद्राओं की एवज में यह जमीन उन्हें तत्कालीन नगर शासक की ओर से मिली। अतः इसका प्रचलित नाम सवालखी प्रकाश में आया। इसके पट्टे में 250 बीघा आगोर दिखाई गई है। रियासत की ओर से इसका पट्टा भी जारी हुआ है। चूँकि आगोर बजरी की थी, अतः खनन की भेंट चुकी है। आसपास कच्ची बस्ती इस तरह से बसी है कि मौके पर इसे पहचानना अब लगभग नामुकिन है। मोहल्लेवासी बताते हैं कि किसी जमाने में पेयजल का स्रोत रही यह तलाई कालान्तर में छींपा जाति के पुश्तैनी कर्म रंगाई या छपाई के कपड़े धोने के काम में भी लम्बे समय तक आई। आज के पशु चिकित्सालय के पास बागड़ियों की बगीची के पास स्थित यह तलाई अब अपने अस्तित्व को खो चुकी है। बहुत से वहाँ रहने वालों को स्वयं भी नहीं मालूम कि किसी जमाने में यहाँ कोई तलाई हुआ करती थी।

22. किशनाणी व्यासों की तलाई


अपने मूल वैभव से हीन होती जा रही तलाइयों में किशनाणी व्यासों की तलाई भी है जो आज भी सुजानदेसर के रास्ते में हर्षोलाव तालाब के पास की एक गली के ऊपरी मुहाने पर स्थित है। यह तलाई किसने व कब बनाई, इसके बारे में अधिकृत जानकारी का अभाव है। साथ ही, इसकी आगोर आज भी अधिकांशतः बरकरार है। लेकिन अतिक्रमण की आक्रामक प्रवृत्ति ने इसके रूप को विद्रूप करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। भोमियाजी की स्मृति में 172 वर्ष पूर्व इस तलाई का जीर्णोद्धार हुआ तथा इसके नए पक्के घाट भी बने। वि.सं. 1997 में इसके नए घाट बने, जिनके निर्माण में स्व. छगनलाल व्यास, हरिकिशन, शिवप्रताप के अलावा किसन व्यास का अवदान भी प्रशंसनीय रहा। इसके अलावा इनकी प्रेरणा से अन्य जाति के लोगों ने भी इसके घाट आदि पर धन खर्च किया है। कहते हैं सं. 2000 में अतिरिक्त पानी निकासी के लिये नेष्टा भी बनाया गया जो क्षत-विक्षत अवस्था में आज भी देखा जा सकता है। 135 वर्गगज आकार की यह तलाई 35 फीट गहरी थी जो मिट्टी भरते जाने से अब केवल 8-10 फीट ही मुश्किल से रह गई है। यह भी केवल पेयजल स्रोत के रूप में अधिक काम आती रही है। किशनाणी व्यासो की उदासीनता के चलते इसका भविष्य कठिन है।

23. गोपतलाई


इसे बावड़ीनुमा शक्ल में जोधपुर-बीकानेर के परम्परागत जलस्रोतों के निर्माण की मिश्रित शैली का नमूना रूप में नत्थूसर दरवाजे के बाहर मूँधड़ा बगीची के पीछे आज भी देखा जा सकता है। इसकी बगल में गंगोलाव (नाइयों की तलाई) भी है जिसके क्षत-विक्षत अवशेष ही शेष हैं। असल में यह किसी जमाने में बावड़ी ही रही होगी, लेकिन कालान्तर में विकास की प्रक्रिया के चलते इसके स्वरूप में स्थापत्य का सौन्दर्य उत्कीर्णित होता गया होगा जो आज भी अक्षत रूप में मौके पर देखा जा सकता है। इसका निर्माण मूँधड़ा बगीची वाले मूँधड़ा परिवार के ही श्री मदनगोपाल मूँधड़ा ने करवाया। वे जोधपुर शैली की बावड़ी बनाना चाहते थे लेकिन कारीगर उनके उद्देश्य को साकार रूप नहीं दे पाये। अतः इसका केन्द्र गोल है और उसके इर्द-गिर्द आयताकार आँगन, जिसके मुहाने पर पत्थर की रेलिंग भी लगी देखी जा सकती है। इसकी आगोर के बारे में अधिकृत जानकारी का अभाव है। अपने मूल स्वरूप में कायम यह तलाई और इसका पानी वैष्णव सम्प्रदाय के अनेक उत्सवों में काम आता रहा है। वैष्णव झाँकियों के लिये कई कृत्रिम सौन्दर्यात्मक स्थल गढ़े भी गए हैं। इसकी गहराई 30 फुट से ज्यादा और इसका आकर 100 फुट गुणा 125 फुट बताया गया है, लेकिन मौके पर यह माप नहीं है। इसके अतीत के बारे में अधिकृत जानकारी का अभाव है।

24. बिन्नाणियों की तलाई


करीब 265 वर्ष पुराने अतीत का इतिहास समेटे है जस्सूसर गेट के बाहर एमएम ग्राउंड की तरफ जाने वाली सड़क के दाएँ स्थित बिन्नाणियों की तलाई। इसके पास ही बिन्नाणियों की बगीची है जो राजा डूंगरसिंह के समय बनी बताते हैं। बगीची की स्थापना 1906 मिती माघ कृष्णा पंचमी को हुई। कहते हैं यह तलाई इससे 100 से 150 वर्ष पूर्व बनी हुई है। 50 गुणा 50 का आकार लिये यह तलाई करीब 20 से 25 फुट गहरी थी, जो मिट्टी व कचरे के ढेर में बदलते-बदलते अब मात्र 10 फुट से कम गहरी रह गई है। दो गऊ घाट सहित एक अन्य घाट को लिये इस तलाई में कुल चार घाट हैं। बगीची परिसर में कुण्ड व बावड़ी भी बने हैं। बगीची में करीब तालाब जितनी पुरानी एक शिला भी रखी है जो कुल मिश्रित धातु की बनी बताते हैं। बगीची परिसर में वयोवृद्ध एवं वरिष्ठ नागरिक आज भी दर्शनार्थ आते हैं व उस शिला का उपयोग बदस्तूर जारी है। इसके सम्बन्ध में खास तथ्य यह है कि यह शिवलिंगनुमा शक्ल में गढ़ी हुई है। इसकी आगोर के बारे में आधिकारिक जानकारी नहीं है। यह बिन्नाणी समाज की सार्वजनिक सम्पत्ति है। इसका प्रबन्धन भी प्रन्यास के माध्यम से हो रहा है, लेकिन ट्रस्टी इसके विकास को लेकर उत्साहित नहीं हैं। हालांकि यह चहारदीवारी में कैद है। तथापि ऊपर से देखने पर तलाई नहीं, कचरे का आगार ही दिखाई देता है।

25. बख्तसागर


जो ताल-तलाइयाँ या तो अपना अस्तित्व खो चुकी हैं या फिर जिनका अस्तित्व केवल चिन्ह मात्र ही रहा है, उनमें से एक है बख्तसागर। पुरानी केन्द्रीय जेल के दक्षिण में खरनाडा तलाई के पास के इलाके में कभी सम्पन्न रही तलाई बीकानेर राज्य की तलाइयों में भी प्रमुख रही है। कहते हैं रियासतकाल में बख्तावरसिंह मोहता हुए हैं। सम्भवतः उन्हीं की पुण्य स्मृति में इसे बनाया होगा। रियासतकाल में महोता ट्रस्ट ही इसकी देखभाल करता रहा है, लेकिन इस सम्बन्ध में व आगोर आदि के बारे में किसी तरह की प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। आसपास के बुजुर्ग इसकी मौखिक साक्षी तो प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इसके बारे में अधिक जानकारी का अभाव है। इस तलाई के मध्य में एक छतरी भी है जो अब लगभग अन्दर जा चुकी है। समाज की अनदेखी के चलते यह भी बदहाल हुए जा रही है।

26. छींपोलाई


रांकावत भवन के पीछे जस्सूसर दरवाजे के बाहर स्थित तलाई को छींपोलाई के नाम से जाना जाता है। सं. 1910-11 के दो साल के बन्दोबस्त के अनुसार खसरा सं. 25/26 के खाता सं. 244/358 पर नारायण वल्द माणक कौम छींपा के नाम से दर्ज है। इसकी आगोर साढ़े चार बीखा तीन बिस्वा अंकित की गई है। शहर के बुजुर्गों ने उसके अस्तित्व की हामी तो भरी है लेकिन इस बाबत कोई अन्य जानकारी उनके पास नहीं है। एक अन्य छींपोलाई, जो सम्भवतः गोगागेट इलाके में ही कभी अस्तित्व में रही होगी, का उल्लेख इसी बन्दोबस्त में खसरा सं. 218 के खाता सं. 116/117 पर गोधू वल्द लालू के नाम से मिलता है, जिसमें इसकी आगोर 13 बीघा बताई गई है।

27. बोहरोलाई


नवलपुरी तलाई व मठ का ऊपरी भाग, जो जैन स्कूल के दाएँ भाग पर स्थित है कभी बोहरोलाई तलाई के नाम से जाना जाता था। क्योंकि ताल-तलाइयाँ अधिकांशतः जातीय हैं अतः इसके नाम से ही प्रकट होता है कि यह बोहरा जाति के पूर्वजों ने बनाई होगी। पुराने अभिलेखों से तो मालूम चलता है कि इस नगर में बोहरा जाति के पास अथाह चल-अचल सम्पत्तियाँ थी। किसी जमाने में संसोलाव मन्दिर परिसर क्षेत्र भी उन्हीं का था, जो कालान्तर मोहता जाति के पास आया। 1910-11 के बन्दोबस्त में खसरा सं. 176 के खाता सं. 113/113 पर गोविन्दलाल वल्द रामधन के नाम से दर्ज इस तलाई की आगोर बताई गई है। इस तलाई की जमीन व आगोर पर घनी आबादी बस चुकी है। और अधिकांश बाशिन्दों को पता भी नहीं कि किसी जमाने में यहाँ बोहरोलाई तलाई हुआ करती थी।

28. फरसोलाई


नत्थूसर गेट के अन्दर स्थित यह तलाई भी पुरानी बताई जाती है। इसे लेकर व्यास व सेवग जाति में विवाद भी है। व्यासों का कहना है कि उनके पूर्वज फरसारामजी ने इसे बनाया था जबकि इसके किनारे बने मन्दिर के शिलालेख में सेवग जाति का उल्लेख है। 1910-11 के बन्दोबस्त में खसरा सं. 93 के खाता संख्या 148/149 में इसे गैर मकबूजा करार दिया गया है। लेकिन शिवराज जी छंगाणी और श्री बाबूलल व्यास, जो मोहल्ले के वरिष्ठ नागरिक हैं, के अनुसार इसके तट पर लगे शिलालेख, जो अब भूमि में दब चुका है, पर श्री फरसरामजी व्यास का नामोल्लेख था। अतः इससे यही कहा जा सकता है कि यह मूलतः व्यासों की तलाई ही थी। बीकनेर गजट सहित मुंशी सोहनलाल कृत तवारीख राजश्री बीकानेर (1888 ए.डी) में अन्दरूनी शहर की तला-तलाइयों में इसे प्रमुख माना गया है।

29. नाइयों की तलाई


इसे गंगोलाव भी कहा जाता है। यह गोपतलाई के पीछे स्थित है। पूर्णतया खनन की भेंट चढ़ चुकी इस तलाई के तल का कुछ हिस्सा ही मौके पर प्रमाणस्वरूप बचा है जो बतलाता है कि किसी समय यहाँ एक शानदार तलाई हुआ करती थी। इसके मुहाने पर हनुमानजी का मन्दिर भी बना है। मारू समाज के लोग यहाँ पूजा- अर्चना हेतु आते हैं पर तलाई के संरक्षण को लेकर उनमें कोई सक्रियता नहीं है। 1910-11 के बन्दोबस्त में खसरा सं. 90 के खाता सं. 57/57 पर रामधन वल्द रतनों के नाम से यह अंकित है तथा इसकी आगोर बताई गई है।

30. मिर्जामलजी की तलाई


मारवाड़ी व्यापारी पुस्तक में आये वर्णनानुसार मिर्जामलजी चूरू के पोद्दार घराने के बहुत बड़े व्यापारी थे। वे जब यहाँ आकर बसे तो उनके परिवार को राज द्वारा विशेष रियायतें दी गई। इस परिवार ने समय-समय पर राजपरिवार की सहायता भी की है जिसका उल्लेख पुस्तक में वर्णित है। इस तलाई का निर्माण माणकचन्द वल्द मिर्जामल ने करवाया था। इसकी आगोर 10 बीघा जमीन पर थी।

वि.सं. 2000 की ढालबाछ के साथ-साथ 2015 से 2021 तक की ढालबाछ में भी इसका उल्लेख मिलता है। आज जहाँ अग्रवाल भवन बना है वह इसी की जमीन पर है या कहते हैं भवन का कुछ हिस्सा इसी की जमीन पर है। ऐसा जान पड़ता है उनकी पुण्यस्मृति में अथवा उनके द्वारा सार्वजनिक हितार्थ इसका निर्माण कराया होगा। अतः कालान्तर में मिर्जामलजी की तलाई के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसका एक नाम मिर्जोलाई तलाई भी है जो अभिलेखीय सन्दर्भों से प्राप्त किया जा सकता है। यह अब अस्तित्व में नहीं है।

31. गबोलाई


जस्सूसर दरवाजे के बाहर वैद्य मघाराम कॉलोनी के मुहाने पर, आज जहाँ एक उद्यान विकसित किया जा चुका है, किसी जमाने में गबोलाई तलाई हुआ करती थी। डागों की बगीची के सामने यह तलाई कब व किसने बनाई, इस सन्दर्भ में आधिकारिक जानकारी का अभाव है। किन्तु पिछले 38 वर्षों से यहाँ रह रहे श्री कृष्ण बिस्सा बुद्धड़ महाराज के अनुसार रायबहादुर डागों के परिवार में गबजी डागा हुए थे, जिनकी पुण्यस्मृति में एक छतरी बनी हुई आज भी डागों की बगीची में देखी जा सकती है। सम्भवतः उन्हीं के नाम पर यह तलाई बनाई गई होगी या इसका नामकरण हुआ जान पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक एवं वर्तमान उद्यान के आकार को देखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि इसका आकार 110 गुणा 150 (फुट) के लगभग रहा होगा। श्री बिस्सा के अनुसार दो गऊ घाट सहित कुल छह घाटों वाली इस तलाई में अन्तिम बार पानी करीब 50 वर्ष पूर्व भरा था। इस सम्बन्ध में अन्य सूचनाओं का कोई आधिकारिक स्रोत उपलब्ध नहीं है।

32. राधोलाई


किसी जमाने में शहर की राजनीति की रणनीति तय करने का केन्द्र हुआ करती थी वर्तमान की वह ऊन कोटड़ी, जो अब हरनारायण महाराज (श्री हरिनारायण व्यास) की कोटड़ी के नाम से विख्यात है। यहीं राधोलाई हुआ करती थी। राधोलाई के बारे में बुजुर्गों का कहना है कि यह जमीन पहले डागों की थी, बाद में मूँधड़ों के पास आई और वर्तमान में श्री हरनारायण महाराज की कोटड़ी के रूप में प्रसिद्ध है। हालांकि अभिलेखों में इसके कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन अन्दरूनी शहर के 70 पार के बुजुर्ग अपने बचपन व किशोरावस्था में इसमें जल कलोल का आनन्द उठा चुके हैं।

33. सूरजनाथ तलाई


हंसावत सेवगों की तलाई के पास ही निर्मित है सूरजनाथ तलाई. इसे सूरजमल सेवग ने बनवाया था, अतः सूरजनाथ तलाई नाम प्रचलन में आया। इसका उल्लेख ढालबाछ वि.सं. 1989 के पेज सं. 161 पर काश्त नं. 252 पर देखा जा सकता है। श्री कृष्णचन्दर शर्मा के पास इसके अभिलेखीय सन्दर्भ उपलब्ध हैं। इसकी आगोर एवं बनावट सम्बन्धी अन्य जानकारी का अभाव है।

34. सदे सेवग की तलाई


यह जमीन लोक अध्येता श्री कृष्णचन्द्र शर्मा के पूर्वज श्री सदासुख सेवग को राजश्री बीकानेर की ओर से बख्शीश में दी गई थी, जिसका पट्टा आज भी श्री शर्मा के पास सुरक्षित है, जिसमें वि. सं. 1892 की कार्तिक शुक्ला 13 का उल्लेख है। श्री शर्मा के अनुसार मोजा किश्मीदेसर में सात से ज्यादा तलाइयाँ थीं। जिनके खसरा सं. 48, 49, 52, 53, 54, 120, 123, 126, 173 हैं। इसमें एक अन्य तलाई गरोलाई का उल्लेख भी है। इनके नक्शे राज्य अभिलेखागार में उपलब्ध 1893 की मसाबी में देखे जा सकते हैं।

35. जस्सोलाई तलाई


अन्दरूनी शहर के ठीक मध्य में करीब 27702 वर्गगज जमीन का क्षेत्रफल लिये थी कीकाणी व्यासों की जस्सोलाई तलाई। इसका अभिलेखीय सन्दर्भ वि.सं. 1916-17 की पट्टा बहियों में बही सं. 65 के पृष्ठ सं. 48-49 पर दर्ज है। इसके मुहाने पर एक शिलालेख आज भी लगा है, जिसमें वि. सं. 1887 की पौष शुक्ला तृतीया का उल्लेख है। पूर्व में 27702 आना गज जमीन में से कुछ जमीन इसके प्रन्यास ने फतेहचन्द बालिका विद्यालय हेतु बेच दी। किसी जमाने में यह शहर की श्रेष्ठतम तलाइयों में एक थी। इसके बीच में एक छतरी भी थी और कुल पाँच घाट थे जिनमें पणयर घाट और एक गऊ घाट भी शामिल थे। पणयार घाट जनेश्वरजी के मन्दिर की तरफ था एवं गऊ घाट फतेहचन्द बालिका विद्यालय की तरफ था। ये सारे-के-सारे आज जमीन में दफन हो चुके हैं। खुदाई में इनके अवशेष जस-के-तस बरामद किये जा सकते हैं। इसकी आगोर सूरदासानी बगीची से होते हुए कोठारियों की बगीची तक थी। वहाँ से इसमें पानी आने के वास्ते नाले भी बने थे। जिनके चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं। यह तलाई पहले वाली फसील (परकोटा) के अन्दर थी और इसकी आगोर फसील के बाहर थी। आज का पुष्करणा स्टेडियम करीब 50 वर्ष पूर्व इसकी आगोर ही था। बाद में कीकाणी व्यासों ने खेल के मैदान हेतु जमीन दे दी। क्योंकि आगोर नष्ट होती जा रही थी और उस वजह से तालाब में पानी आना बन्द हो गया था, अतः आसपास की आबादी ने इसे शौच का स्थान बना दिय था। बुजुर्ग बताते हैं कि पुष्करणा स्कूल की नींव जस्सोलाई के पत्थरों से ही भरी गई थी। अब 14,000 वर्गगज जमीन पर कीकाणी व्यासों के रजिस्टर्ड ट्रस्ट ने सक्रियता दिखलाते हए नगर परिषद के साथ मिलकर इसके चारों ओर परकोटा बना दिया है। इसमें एक वृद्धजन भ्रमण पथ भी बनाया गया है और इसे शहर के मध्य एक रमणीक उद्यान के रूप में विकसित करने की योजना कीकाणी व्यासों के प्रन्यास सचिव श्री जयन्तीनारायण व्यास के पास है। श्री व्यास के पास इस तालाब सम्बन्धी अभिलेखीय सन्दर्भों की एक विस्तृत पंजिका भी है। इस तालाब में एक बांबी भी थी जिसका प्रतिक पाइया आज भी वहाँ रोपा हुआ है। इस पर सर्प की छवियाँ बनी हैं। जिससे पुष्टि होती है कि तालाबों में बांबी भी निकला करती थी।

इन तलाइयों के अलावा भी नगर में बहुत सी तलाइयाँ थीं जिनमें भक्तोलाई, हाकोलाई, छोगे की तलाई, चेतोलाई, करमीसर तलाई, कृपाल भैरूं की तलाई, निशान वाली तलाई, गरोलाई, भरोलाई, काशियेवाली तलाई, होण्डोलाई, धोबी तलाई, लालणियों की तलाई, बागोलाई प्रमुख हैं।

सीताराम भवन के पास भगत जाति का कब्रिस्तान है, इसी के आसपास हुआ करती थी भक्तोलाई। हाकोलाई बागड़ी जाति की थी जो अब कायम नहीं रही। ऐसी सम्भावना है जिन हाकूजी बागड़ी ने घड़सीसर खुदवाया था, गोगा दरवाजे के पास शायद उन्होंने इसका निर्माण या जिर्णोद्धार करवाया होगा, अतः कालान्तर में हाकोलाई नाम प्रचलन में आया। इसी क्रम में घड़सीसर के रास्ते में नन्दघरजी की साल के पास तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व कायम थी छोगे री तलाई, जो अब पूर्णतया लुप्त हो चुकी है। चेतोलाई श्री मारुति व्यायाम मन्दिर से आगे जाने पर नारसिंह हनुमान जी के मन्दिर के ठीक सामने स्थित श्मशान में बनी थी, जो अब अस्तित्व में नहीं है। ठिंगाल भैरूं से करमीसर में नीचे उतरते ही एक खाडोलिया था जिसे कुछ लोग तलाई मानते थे और कुछ नहीं, लेकिन अब वह भी अस्तित्व में नहीं है। मुक्ताप्रसाद कॉलोनी व लालगढ़ के रास्ते में कृपाल भैरूं के मन्दिर के पास तलाई थी, लेकिन इसे तलाई कहे जाने पर मतैक्य नहीं है। इसे खाड भी बताया गया है। ये ही तथ्य क्रमशः नाल स्थित निशान वाली तलाई सहित बागोलाई के बारे में भी हैं। गरोलाई, भरोलाई क्रमशः गोगागेट के बाहर बोहरोलाई तलाई के पहले भाग में कायम थी। अब पूर्णतया नष्ट हो चुकी है। केवल नाम ही शेष हैं, वह भी सत्तर पार के बुजुर्गों के मन में, जो इनमें नहाने का आनन्द अपने मन में संजोए हैं। काशियेवाली तलाई गिरोलाई के ठीक नीचे जैन कॉलेज वाली सड़क के पास क्षत-विक्षत हालत में आज भी देखी जा सकती है। यह पिंजारा समाज की सम्पत्ति है। गिरोलाई के ही ठीक पीछे दूसरे कोने में होण्डोलाई है, जो हम्मालों की सम्पत्ति कही जाती है। बागोलाई हर्षोलाव परिसर में ही हुआ करती थी, लेकिन अब इसके चिन्ह तक मौजूद नहीं हैं। रानी बाजार में आज भी धोबीतलाई एक प्रसिद्ध स्थल है, लेकिन अपने जमाने की प्रसिद्ध धोबीतलाई की उचित जगह कौन सी है, यह बताने में अक्षम ही रहे हैं। लेकिन यह प्रसिद्ध नाम आज भी कायम है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि यह नगर अपने अतीत में निश्चय ही ताल-तलाइयों की नगरी ही थी। सौ से अधिक तालाबों की सम्भावना कहीं भी ध्वस्त होती जान नहीं पड़ती क्योंकि 69 ताल-तलाइयों के नामों की जानकरी तो इसी परियोजना कार्य में शामिल है। इसके अलावा भी समय के अभाव के चलते हो सकता है मैं बहुत सी जानकारियों तक पहुँच नहीं पाया हूँ। अपने तीन माह से भी कम समय की कार्यावधि में मैंने अधिक-से-अधिक तथ्यात्मक जानकारी जुटाने की भरसक कोशिश की है लेकिन सामाजिक सविनय असहयोग के चलते हो सकता है मैं कुछ और गहरे जाने से वंचित रह गया हूँ जैसा कि कहा जाता है हर काम अन्तिम नहीं होता। यह तथ्य इस परियोजना पर भी लागू है। सम्भावनाओं के अनन्त द्वारा खुले हैं और खुले रहने भी चाहिए ताकि सृजन की अनन्त सम्भावनाएँ भी बनी रहें।

 

जल और समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्र.सं.

अध्याय

1

जल और समाज

2

सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास

3

पुरोवाक्

4

इतिहास के झरोखों में बीकानेर के तालाब

5

आगोर से आगार तक

6

आकार का व्याकरण

7

सृष्टा के उपकरण

8

सरोवर के प्रहरी

9

सांस्कृतिक अस्मिता के सारथी

10

जायज है जलाशय

11

बीकानेर के प्रमुख ताल-तलैया

 



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