दिल्ली में 1857 के गदर का हाल बताते हुए मिर्जा गालिब अपनी एक चिट्ठी में दरियागंज का जिक्र 'दरिया किनारे बसा नया मुहल्ला' के रूप में करते हैं। पढ़ कर आश्चर्य होता है कि दरियागंज क्या सचमुच कभी यमुना नदी के किनारे रहा होगा? अभी तो इससे यमुना की दूरी दो-ढाई किलोमीटर से कम नहीं होगी। नदियों की धारा पलटना भूगोल में एक स्वाभाविक घटना मानी जाती है, लिहाजा डेढ़ सौ सालों में घटित इस आश्चर्य को हम अनदेखा भी कर सकते हैं। लेकिन राजधानी के तेजी से बदलते भूगोल के साथ इस तरह के कई आश्चर्य जुड़े हैं, जिनकी वजह कोई प्राकृतिक घटना नहीं बल्कि मानवीय गतिविधियां हैं। जैसे रायसीना हिल्स का किसी पहाड़ी से नाता अब बिल्कुल समझ में नहीं आता। लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य ने खुद को सल्तनत-ए-मुगलिया का कहीं बेहतर वारिस साबित करने की कोशिश में रायसीना नाम की पहाड़ी को समतल करके वहां वाइसराय हाउस की स्थापना की, जिसे हम आज राष्ट्रपति भवन के नाम से जानते हैं।
दिल्ली इस तरह के बदलावों की महज एक छोटी सी बानगी है। इधर के दशकों में मानवीय और प्राकृतिक गतिविधियां देश-दुनिया का खाका इतनी तेजी से बदलने लगी हैं कि एक शास्त्र के रूप में भूगोल के लिए अपना वजूद बचाना मुश्किल हो गया है। नक्शों में दर्ज नदी, पहाड़, जंगल, रेगिस्तान जैसी भौगोलिक संरचनाएं देखते-देखते कुछ और ही चीजों में बदलती जा रही हैं। आम तौर पर इनका असर दिल बैठाने वाला होता है। मुंबई शहर में कोई नदी भी बहती है, इसका कोई जिक्र मुंबईवासियों की आम बातचीत में 2005 से पहले शायद ही कभी सुनने को मिला हो। लेकिन जुलाई 2005 की असाधारण बारिश और बाढ़ ने अचानक मीठी नदी को बहस में ला दिया। पता चला कि शहर के कई इलाके ऐन इस नदी के पेटे में ही खड़े हैं।
दुनिया के पैमाने पर हो रहे भौगोलिक बदलावों की स्थिति और भी विकट है। अपने परिवेश को नजदीक से देखने के लिए हमें दुनिया के भूगोल में आ रहे बदलावों को भी नजर में रखना चाहिए। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील अराल सागर के बारे में इस हफ्ते आई खबर इक्कीसवीं सदी में नक्शानवीसी की बेचारगी की तरफ इशारा करती है। तस्वीरों में रेत में धंसे जहाजों के इर्दगिर्द दूर-दूर तक ऊंट यानी रेगिस्तान के जहाज चरते नजर आ रहे हैं। 1940 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ की सरकार ने मध्य एशिया के मैदानों में कपास उगाने के लिए नदियों की धारा रोक कर नहरें निकालने का सिलसिला शुरू किया था।
1960 के दशक तक प्रकृति अपने स्वाभाविक चक्र के तहत किसी तरह अराल सागर को हो रहे इस नुकसान की भरपाई करती रही। लेकिन फिर यह चक्र टूट गया और दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील सिकुड़ने लगी। उपग्रहों द्वारा लिए गए चित्रों की तुलना करने से पता चलता है कि पिछले चार दशकों में इसका जल क्षेत्र सिकुड़ कर मात्र 10 प्रतिशत रह गया है। बाकी 90 प्रतिशत इलाकों में बची है दूर-दूर तक पसरी हुई नमकीन रेत, जहां इक्का-दुक्का कंटीली झाडि़यां उगती हैं और सऊदी अरब के रेगिस्तानों की तरह अंधड़ चला करते हैं।
इससे मिलती-जुलती एक दुर्घटना हमारे यहां यमुना नदी के साथ भी हो सकती है, जिसका 95 प्रतिशत पानी हरियाणा के खेत सींचने के लिए निकाल लेने का फैसला 1950 के दशक में ही ले लिया गया था। अभी इसका नतीजा गर्मियों में गुड़गांव और दिल्ली से लेकर आगरा तक भयंकर पेयजल संकट के रूप में देखने को मिलता है, लेकिन 2021 तक, जब एनसीआर 10 करोड़ के आसपास की घनी बसावट वाली जगह बन चुका होगा, नोएडा से आगरा तक छोटे-छोटे शहरों की कतार खड़ी होगी और दिल्ली-मुंबई फ्रेट कॉरिडोर के इर्द-गिर्द औद्योगिक इलाके विकसित हो रहे होंगे, तब यमुना नदी का नाले में बदलना भी किसी पर्यावरण दुर्घटना जैसा ही नजर आएगा।
एक विषय के रूप में भूगोल की यह खासियत मानी जाती रही है कि इसमें दी जाने वाली सूचनाएं या तो कभी नहीं बदलतीं, या बहुत धीरे-धीरे बदलती हैं। इतिहास की तरह इस विषय के साथ व्याख्या संबंधी विवाद भी नहीं जुड़े होते, लिहाजा छात्रों के बीच आम तौर पर इसे निरापद और बोरिंग विषय माना जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिदृश्य अचानक बदल गया है। भूगोल की किताबों में दर्ज सूचनाएं तेजी से बदलने लगी हैं और उनमें शायद ही कोई ऐसी हों, जिन पर कोई न कोई विवाद न खड़ा हुआ हो।
गो-गो गल्फ स्ट्रीम
गंगा नदी गंगोत्री से निकल कर बंगाल की खाड़ी में समा जाती है- चौथी-पांचवीं क्लास में दी जाने वाली यह एक पंक्ति की जानकारी नवीं-दसवीं तक बाकायदा एक अलग चैप्टर की मांग करने लगती है। गंगा की मौजूदा यात्रा में भौगोलिक दृष्टि से अब गंगोत्री की कोई खास जगह नहीं रह गई है क्योंकि इस नदी का उद्गम स्थल गंगोत्री से करीब सत्रह किलोमीटर उत्तर जा चुका है। गंगा के पानी को लेकर टकराव सिर्फ बांग्लादेश और भारत तक ही सीमित नहीं है, यूपी और दिल्ली के बीच भी यह काफी तीखा रूप लेता जा रहा है। अगले पचास सालों में गंगा एक सदानीरा नदी बनी रहेगी या महज एक बरसाती नाला बनकर रह जाएगी, यह गंगा से जुड़े शास्त्रीय विवाद का अगला चरण है, जिसके बारे में ठंडे दिमाग से सोचने का समय शायद अब से बीस या तीस साल बाद आएगा। ब्रिटेन के सेकंडरी स्कूलों में बच्चों को इस आशंका पर बहस करने लायक समझा जाता है कि गर्म समुद्री धारा गल्फ स्ट्रीम अगर ग्लोबल वॉर्मिन्ग के कारण विलुप्त हो गई तो ब्रिटेन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। लेकिन गंगा के विलोप से जुड़े खतरों और इसके कारणों पर बात करना भारत में पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं के लिए भी कुछ ज्यादा ही संवेदनशील समझा जाता है।
मीठी नदी और अराल डीजर्ट
दिल्ली इस तरह के बदलावों की महज एक छोटी सी बानगी है। इधर के दशकों में मानवीय और प्राकृतिक गतिविधियां देश-दुनिया का खाका इतनी तेजी से बदलने लगी हैं कि एक शास्त्र के रूप में भूगोल के लिए अपना वजूद बचाना मुश्किल हो गया है। नक्शों में दर्ज नदी, पहाड़, जंगल, रेगिस्तान जैसी भौगोलिक संरचनाएं देखते-देखते कुछ और ही चीजों में बदलती जा रही हैं। आम तौर पर इनका असर दिल बैठाने वाला होता है। मुंबई शहर में कोई नदी भी बहती है, इसका कोई जिक्र मुंबईवासियों की आम बातचीत में 2005 से पहले शायद ही कभी सुनने को मिला हो। लेकिन जुलाई 2005 की असाधारण बारिश और बाढ़ ने अचानक मीठी नदी को बहस में ला दिया। पता चला कि शहर के कई इलाके ऐन इस नदी के पेटे में ही खड़े हैं।
दुनिया के पैमाने पर हो रहे भौगोलिक बदलावों की स्थिति और भी विकट है। अपने परिवेश को नजदीक से देखने के लिए हमें दुनिया के भूगोल में आ रहे बदलावों को भी नजर में रखना चाहिए। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील अराल सागर के बारे में इस हफ्ते आई खबर इक्कीसवीं सदी में नक्शानवीसी की बेचारगी की तरफ इशारा करती है। तस्वीरों में रेत में धंसे जहाजों के इर्दगिर्द दूर-दूर तक ऊंट यानी रेगिस्तान के जहाज चरते नजर आ रहे हैं। 1940 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ की सरकार ने मध्य एशिया के मैदानों में कपास उगाने के लिए नदियों की धारा रोक कर नहरें निकालने का सिलसिला शुरू किया था।
1960 के दशक तक प्रकृति अपने स्वाभाविक चक्र के तहत किसी तरह अराल सागर को हो रहे इस नुकसान की भरपाई करती रही। लेकिन फिर यह चक्र टूट गया और दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील सिकुड़ने लगी। उपग्रहों द्वारा लिए गए चित्रों की तुलना करने से पता चलता है कि पिछले चार दशकों में इसका जल क्षेत्र सिकुड़ कर मात्र 10 प्रतिशत रह गया है। बाकी 90 प्रतिशत इलाकों में बची है दूर-दूर तक पसरी हुई नमकीन रेत, जहां इक्का-दुक्का कंटीली झाडि़यां उगती हैं और सऊदी अरब के रेगिस्तानों की तरह अंधड़ चला करते हैं।
यम की बेटी यमुना
इससे मिलती-जुलती एक दुर्घटना हमारे यहां यमुना नदी के साथ भी हो सकती है, जिसका 95 प्रतिशत पानी हरियाणा के खेत सींचने के लिए निकाल लेने का फैसला 1950 के दशक में ही ले लिया गया था। अभी इसका नतीजा गर्मियों में गुड़गांव और दिल्ली से लेकर आगरा तक भयंकर पेयजल संकट के रूप में देखने को मिलता है, लेकिन 2021 तक, जब एनसीआर 10 करोड़ के आसपास की घनी बसावट वाली जगह बन चुका होगा, नोएडा से आगरा तक छोटे-छोटे शहरों की कतार खड़ी होगी और दिल्ली-मुंबई फ्रेट कॉरिडोर के इर्द-गिर्द औद्योगिक इलाके विकसित हो रहे होंगे, तब यमुना नदी का नाले में बदलना भी किसी पर्यावरण दुर्घटना जैसा ही नजर आएगा।
एक विषय के रूप में भूगोल की यह खासियत मानी जाती रही है कि इसमें दी जाने वाली सूचनाएं या तो कभी नहीं बदलतीं, या बहुत धीरे-धीरे बदलती हैं। इतिहास की तरह इस विषय के साथ व्याख्या संबंधी विवाद भी नहीं जुड़े होते, लिहाजा छात्रों के बीच आम तौर पर इसे निरापद और बोरिंग विषय माना जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिदृश्य अचानक बदल गया है। भूगोल की किताबों में दर्ज सूचनाएं तेजी से बदलने लगी हैं और उनमें शायद ही कोई ऐसी हों, जिन पर कोई न कोई विवाद न खड़ा हुआ हो।
गो-गो गल्फ स्ट्रीम
गंगा नदी गंगोत्री से निकल कर बंगाल की खाड़ी में समा जाती है- चौथी-पांचवीं क्लास में दी जाने वाली यह एक पंक्ति की जानकारी नवीं-दसवीं तक बाकायदा एक अलग चैप्टर की मांग करने लगती है। गंगा की मौजूदा यात्रा में भौगोलिक दृष्टि से अब गंगोत्री की कोई खास जगह नहीं रह गई है क्योंकि इस नदी का उद्गम स्थल गंगोत्री से करीब सत्रह किलोमीटर उत्तर जा चुका है। गंगा के पानी को लेकर टकराव सिर्फ बांग्लादेश और भारत तक ही सीमित नहीं है, यूपी और दिल्ली के बीच भी यह काफी तीखा रूप लेता जा रहा है। अगले पचास सालों में गंगा एक सदानीरा नदी बनी रहेगी या महज एक बरसाती नाला बनकर रह जाएगी, यह गंगा से जुड़े शास्त्रीय विवाद का अगला चरण है, जिसके बारे में ठंडे दिमाग से सोचने का समय शायद अब से बीस या तीस साल बाद आएगा। ब्रिटेन के सेकंडरी स्कूलों में बच्चों को इस आशंका पर बहस करने लायक समझा जाता है कि गर्म समुद्री धारा गल्फ स्ट्रीम अगर ग्लोबल वॉर्मिन्ग के कारण विलुप्त हो गई तो ब्रिटेन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। लेकिन गंगा के विलोप से जुड़े खतरों और इसके कारणों पर बात करना भारत में पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं के लिए भी कुछ ज्यादा ही संवेदनशील समझा जाता है।
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