जल संसाधन की समस्यायें
बाढ़ एवं जल जमाव :
बाढ़ :
‘‘Flood is a discharge which exceeds the natural channel capacity of a river and then spills on to the adjacent flood plain’’
नदियों की बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है। बाढ़ से जनपद में चंबल, यमुना, क्वारी, सेंगर, अहनैया, पुरहा आदि नदियों के किनारों की भूमि डूब जाती है। कछारी क्षेत्र की फसलें नष्ट हो जाती हैं एवं यातायात अवरुद्ध हो जाता है। धन-जन की हानि होने से जनपद की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
सामान्यत: लगभग पाँच या दस वर्ष तक के अंतराल से जनपद की नदियों में बाढ़ आने का इतिहास है। सन 1996 की बाढ़ इतनी भयानक थी कि कानपुर से ग्वालियर राष्ट्रीय राजमार्ग बंद करना पड़ा था। चंबल नदी पर बने ‘बरई पुल’ एवं यमुना नदी पर बने इटावा पुल पर यातायात बंद कर दिया गया था। जनपद के लगभग सभी छोटे-छोटे पुल टूट गये थे। छोटे पुलों की निर्माण सामग्री तीव्र बहाव में बह गयी थी। इस वर्ष प्रभावित गाँवों की संख्या 154 थी। बहुत से गाँवों के संपर्क मार्ग जल में डूब जाने के कारण अनेक समस्यायें उत्पन्न हो गयीं। सरकार ने नौका आदि का प्रबंध किया, जो पर्याप्त नहीं था। बाढ़ से घिरे लोगों को 40000 हजार रुपये की खाद्य सामग्री डाली गयी। इस बाढ़ में 8 लोगों की मौत हो गयी। अनेक जानवर पानी के तेज बहाव के साथ बह गये। नदियों की तलहटी में बसे गाँवों के अंदर पानी भर गया जिसमें सैकड़ों घर पानी से डूब गये। कछारों में पानी भर जाने से फसल नष्ट हो गयी। बाद में बाढ़ पीड़ितों को भोजन वस्त्र एवं आवास व्यवस्था हेतु जिलाधीश इटावा द्वारा लगभग 11 लाख रुपये वितरित किये गये, जो पर्याप्त नहीं थे। जिलाधीश कार्यालय इटावा के एक अनुमान के अनुसार लगभग 20 लाख रुपये की खरीफ की फसलें नष्ट हो गयीं। 12 लाख रुपये के मकानों की एवं लगभग 50 हजार रुपये की पशुधन की हानि हुई। लगभग 5 लाख रुपयों के पुलों एवं सड़कों की क्षति हुई।
शोधकर्ता चंबलघाटी में स्थित पालीघार ग्राम का निवासी है। जिस वर्ष बाढ़ आती है, जल गाँव के चारों ओर भर जाता है। संपर्क मार्ग जल से डूब जाता है। गाँव का अन्य गाँवों से संपर्क टूट जाता है नदी का पानी घरों में भर जाता है। लोगों को पशु धन के रूप में काफी क्षति उठानी पड़ती है। खादर क्षेत्र की फसलें नष्ट हो जाती हैं। प्रभावित लोगों को सरकार द्वारा मात्र 500 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक की राहत राशि प्रदान की जाती है। जो उस स्थिति में पर्याप्त नहीं होती है।
इस प्रकार जनपद में बाढ़ की पुनरावृत्ति तीव्र गति से होती है और उसमें फसलों, मकानों, सड़क, पुलों और पशुधन की लाखों रुपयों की क्षति होती है। जनपद की यह समस्या बहुत प्राचीन एवं ऐतिहासिक है।
बाढ़ सर्वथा अत्यधिक वर्षा से ही नहीं आती। बल्कि यह बहाव की मात्रा से प्रभावित होती है। बहाव की मात्रा नदी की घाटी, आकृति और आकार, नदी संगम प्रतिरूप ढाल प्रवणांक और सतही चट्टानों पर निर्भर करती है। किसी स्थान का बाढ़ों से छुटकारा पाने के लिये वहाँ की वर्षा की मात्रा और उसके विसर्जन के बीच पूर्ण संतुलन होना चाहिए। जैसे कि निम्न पंक्तियों में स्पष्ट है – “Immunity from floods at any place dimands a perfect balance between the amount of precipitation and its disposal in quickest possible time.”
बाढ़ के उपर्युक्त विवरण के विश्लेषण से स्पष्ट है कि संभाग में बाढ़ के लिये निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं।
(1) अधिक वर्षा :
जनपद में बाढ़ के लिये सर्वाधिक उत्तरदायी कारक स्थानीय तथा समीपवर्ती उच्च प्रदेशों में अधिक वर्षा का होना है। इस जनपद में वर्षा की प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ कम समय में अधिक वर्षा होती है। अधिकांश वर्षा जून से लेकर सितंबर तक होती है। इसमें भी कभी-कभी ऋतु की अधिकांश वर्षा 2 या 3 दिनों में ही हो जाती है। कम समय में अधिक वर्षा हो जाने पर संपूर्ण जल का निकास शीघ्रता से नहीं हो पाता। परिणाम स्वरूप बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। स्थानीय वर्षा के अतिरिक्त समीपवर्ती उच्च क्षेत्रों में अधिक वर्षा होने पर बाढ़ आ जाती है क्योंकि जनपद की चंबल, यमुना नदियाँ उच्च भूमि से आकर बहती है। इस क्षेत्र में भी अधिक वर्षा होती है तो इन नदियों में भी जल की मात्रा बढ़ जाती है और जल निचले मैदानी भागों में आकर फैल जाता है।
(2) धरातल :
यह सत्य है कि समस्त बाढ़ें अत्यधिक वर्षा का परिणाम है इसलिये इस आधारभूत कारक को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। परंतु वस्तु स्थिति यह है कि धरातल वह कारक है कि जो बाढ़ की मात्रा को निर्धारित करता है। उदाहरण के लिये चेरापूँजी एवं पश्चिमी घाट पर अत्यधिक वर्षा होने के कारण वहाँ का जल निकास शीघ्रता से नहीं हो पाता। दूसरी ओर उत्तर के मैदान में जहाँ ढाल बहुत मंद है थोड़ी सी वर्षा में ही बाढ़ आ जाती है।
इस दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट है कि जनपद इटावा का आधा भाग विशेष रूप से दक्षिणी भाग में भयंकर बाढ़ें आती हैं। जिसका एक कारण यह भी है कि इस भाग की नदियाँ एवं उनकी सहायक नदियाँ जनपद के बाहर से अपने जल ग्रहण क्षेत्र का बड़ी मात्रा में जल लाती हैं।
(3) नदी संगम प्रतिरूप :
दो या दो से अधिक नदियों का संगम प्रतिरूप भी बाढ़ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। जब एक नदी दूसरी नदी से समकोण पर मिलती है और उसका ढाल मंद है तो मुख्य नदी बाढ़ की समयावधि में कमजोर नदी के प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है। परिणामस्वरूप लगातार बाढ़ का पानी उसकी निचली घाटी में संग्रहीत होता जाता है।
चंबल एवं यमुना संगम पर भयंकर बाढ़ आती है। जहाँ पर ये दोनों नदियाँ एक दूसरे से विपरीत दिशा में आकर (900 कोण) पर मिलती है। अत: जल प्रवाह में अवरोध उत्पन्न हो जाने से दोनों नदियों की निचली घाटियों में रुक-रुक कर बाढ़ का पानी भरने लगता है।
नदी विसर्प :
“Meandiring reduce not only the dimensional and flow clate but also the time scale as well.”
यह पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि यदि जल निकास संग्रहण की अपेक्षा शीघ्रता से हो रहा है तो बाढ़ की समस्या नहीं होगी। पर्याप्त ढाल के साथ यदि नदी का मार्ग सीधा है तो जल निकास शीघ्र होगा। उदाहरण के लिये जनपद के दक्षिणी भाग में यमुना चंबल एवं क्वांरी नदियों में विसर्प है। विसर्प पूर्ण नदी मार्ग जल निकास में जल संग्रहण की अपेक्षा अधिक समय लगाता है। अत: बाढ़ का पानी क्रमश: संग्रहीत होकर घाटी के निचले भागों में फैलकर बाढ़ का रूप धारण कर लेता है।
वनस्पति आवरण की कमी एवं भू कटाव :
‘‘वनस्पति जल के तीव्र बहाव को रोककर बाढ़ को रोकने में सहायता प्रदान करती है। सघन वनस्पति वाले क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति गंभीर नहीं होती है।’’ जनपद के दक्षिणी भाग में वनस्पति का प्रतिशत अति न्यून होने के कारण बाढ़ अधिक आती है। अपरदन से प्राप्त होने वाला कुछ मलबा तो नदी के जल के साथ बह जाता है और कुछ नदी की तलहटी में जमा हो जाता है जिससे नदियों की जल ग्रहण क्षमता कम हो जाने के कारण अधिक वर्षा के समय बाढ़ आ जाती है। जनपद की सेंगर एवं अहनैया इसके अच्छे उदाहरण है। यहाँ नदी की तलहटी उथली हो गयी है अत: वर्षा के समय आस-पास की निम्न भूमि जलमग्न हो जाती है।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि जनपद में बाढ़ की समस्या एक गंभीर समस्या है। इस समस्या के समाधान के बिना जनपद का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। इस तथ्य का अनुभव पहले से ही किया जा रहा है अत: इसके समाधान हेतु निम्नांकित प्रयास किये गये हैं।
तटबंधों का निर्माण :
बाढ़ से प्रभावित नदियों की तटवर्ती बस्तियों के बचाव हेतु भारत में गंगा, यमुना चीन में ह्वांग्हो तथा उत्तरी अमेरिका में मिसिसिप्पी आदि नदियों पर तटबंधों का निर्माण किया गया है। सामान्यत: यह बाढ़ नियंत्रण का सरल एवं सुगम उपाय है, परंतु तटबंध टूटने की दशा में स्थिति अत्यंत विनाशक हो जाती है। अत: इसकी समुचित देखरेख होनी चाहिए। ये तटबंध स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल स्थानीय ढंग पर बनाये जा सकते हैं। तटबंधों पर हुआ व्यय लंबे समय तक बंध से सुरक्षित संपूर्ण क्षेत्र के विकास के मूल्य की तुलना में औचित्यपूर्ण होता है। 1996 में आयी तेज बाढ़ के समय जिलाधीश कार्यालय के अभिलेखों के आधार पर शोधार्थी ने कुछ नदियों के किनारे की बस्तियों की बाढ़ से सुरक्षा के लिये तटबंधों के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव किया है। अत: सर्वेक्षण कराकर उपयुक्तता के अनुसार तटबंधों का निर्माण किया जाना चाहिए। शोधकर्ता के अनुसार यमुना एवं चंबल नदी के मुहाने पर बाढ़ ग्रस्त हरौली यमुना नदी पर गौहानी, खिरीटी एवं चंबल नदी पर लेखक का स्वयं का ग्राम पालीधार आदि प्रमुख हैं।
वृक्षारोपण :
जनपद के दक्षिणी भाग में वनों का वितरण बहुत कम है ‘‘वृक्षों की उपस्थिति जहाँ एक ओर पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखती है वहीं दूसरी ओर जल प्रवाह को तथा मिट्टी के कटाव को रोककर बाढ़ रोकने में सहायक होती है।’’ अत: जनपद के दक्षिणी भाग में वनों का विस्तार किया जाना चाहिए।
निचले क्षेत्रों में बसे हुए ग्रामों को ऊँचाई पर बसाना :
जनपद के कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनका आवासीय क्षेत्र निम्न धरातल पर स्थित है। ये आवासीय क्षेत्र बाढ़ के समय जलाक्रांत हो जाते हैं, जिससे धन जन की अपार क्षति होती है। अत: ऐसे ग्रामों को समीपवर्ती उच्च धरातलीय क्षेत्र पर बसाने की अथवा उनके आवासीय क्षेत्र को ऊँचा करने की आवश्यकता है। ताकि वहाँ बाढ़ का पानी न पहुँच सके।
बाढ़ राहत कार्य :
बाढ़ में फँसे लोगों को सुरक्षित स्थान तक पहुँचाने के लिये पर्याप्त नावों तथा अन्य साधनों की व्यवस्था पहले से ही होनी चाहिए। इसके लिये तहसील मुख्यालय पर एवं विकासखंड मुख्यालय पर बाढ़ राहत कार्य के संचालन हेतु क्रमश: केंद्रों एवं उपकेंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए।
जनपद में दो बाढ़ पूर्वानुमान एवं नियंत्रण केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए। जिनके उपकेंद्र चंबल एवं यमुना नदियों पर होने चाहिए। जिससे उनसे प्राप्त सूचनाओं के द्वारा प्रत्याशित बाढ़ से उत्पन्न स्थिति का सामना किया जा सके। इससे बाढ़ में होने वाली क्षति कम हो जायेगी।
जल जमाव :
The waterlogging condition is a broad sence may be defined as presence of free water within the root zoni of crops thereby impending free aeriation.
पौधों के जड़ कटिबंध में जल की निर्बाध अवस्थिति को मोटे तौर पर जल जमाव अथवा जलाकृन्ति कह सकते हैं। जल स्तर के बढ़ने से जल की मात्रा बढ़ने लगती है और ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगती है। इससे मिट्टी में जीव-जंतु संबंधी प्रक्रियायें रुक जाती हैं। जिसकी पौधों के विकास के लिये आवश्यकता पड़ती है। फलस्वरूप मिट्टी संरचना अपघटित हो जाती है और इसका नत्रजन संतुलन बिगड़ जाता है। इससे पौधे नष्ट होने लगते हैं।
जनपद में जिन क्षेत्रों में नहरें पाई जाती हैं और उनकी प्रवाह प्रणाली दोषयुक्त है, वहाँ भौम जलस्तर खतरे की सीमा (1.5 मीटर गहरा) तक आ जाता है। परिणाम स्वरूप जलाकृन्ति की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जनपद का दक्षिणी भाग चंबल एवं यमुना नदियों के अंतर्गत आता है। जबकि उत्तरी भाग में समतल भूमि का अधिक विस्तार होने के कारण, जल स्तर में पर्याप्त वृद्धि हुई है। इस समस्या के लिये उत्तरदायी भौगोलिक कारक निम्न्लिखित हैं।
(1) भर्थना एवं बसरेहर विकासखंडों के निचले भागों में जल निकास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण जलाकृन्ति की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
(2) ताखा, महेवा, सैफई एवं जसवंतनगर विकासखंडों की नहरों में, जल की मात्रा पर्याप्त है लेकिन सिंचाई के लिये मिट्टी उपयुक्त नहीं है। नहर की तली एवं किनारे कच्चे होने के कारण मध्य चट्टानों में जल निस्यंदन अधिक होता है। फलत: निकटवर्ती क्षेत्रों में जलाकृन्ति की समस्या उत्पन्न हो गयी है।
(3) अधिकांश जनपद में सिंचाई की दोषपूर्ण पद्धति का प्रचलन है जो कि जलाकृन्ति की समस्या के लिये उत्तरदायी है।
(4) जनपद के उत्तरपूर्वी भागों के विकासखंडों में समतल भूमि का अधिक विकास हुआ है, फलत: वर्षा का अधिकांश जल भूमि के अंदर ही सोख जाता है। परिणामस्वरूप वर्षा ऋतु में भौम जल काफी ऊपर आ जाता है। और जल जमाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
(5) जनपद में स्थान-स्थान पर अवमृदा जल को निकालने के लिये गहरी प्राकृतिक एवं धरातलीय प्रवाह प्रणाली का न होना भी जलाकृन्ति अथवा जल जमाव का कारण है। विकासखंड महेवा में लखना एवं बकेवर के बीच काफी बड़े क्षेत्र में वर्षा ऋतु के समय पानी भर जाता है। इसके अतिरिक्त जनपद में नहर, सड़क, रेलमार्ग एवं अन्य रचनात्मक कार्यों से प्राकृतिक जल प्रवाह अवरुद्ध हो गया है। उपयुक्त जल प्रवाह के अभाव में सामान्यत: नवंबर माह तक वर्षा का जल भरा रहता है और नवंबर से ही सिंचाई प्रारंभ हो जाती है जिससे नहर निस्यंद जल भरना प्रारंभ हो जाता है। सर्वेक्षण के समय यह तथ्य प्रकाश में आया है कि नहर द्वारा सिंचिंत क्षेत्र में भौम जल स्तर प्राय: ऊँचा है और नदियों की ओर क्रमश: कम होता गया है। उपर्युक्त अनुसंधान के बाद लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि इस जनपद में नहर से जल निस्यंद, वर्षा का जल, अवरुद्ध प्राकृतिक प्रवाह एवं समतल धरातल जलाकृन्ति अथवा जल जमाव की समस्या के लिये उत्तरदायी है।
उपर्युक्त कारणों से जनपद में नहर एवं उसकी शाखाओं के सहारे पश्चिम में जसवंतनगर से पूर्व में ताखा, भर्थना एवं महेवा विकासखंडों में लगभग 17625 हे. क्षेत्र जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 7.18 प्रतिशत क्षेत्रफल में जल भराव की समस्या है। अत: स्पष्ट है कि जनपद के नहर द्वारा सिंचित केवल उन क्षेत्रों को छोड़कर, जो मुख्य नहर एवं उसकी शाखाओं के अंतिम भाग में है या जिसका जल प्रवाह उत्तम है प्राय: समस्त सिंचित क्षेत्र जल जमाव से ग्रस्त है।
जनपद का 17625 हे. क्षेत्र जलाकृान्ति से प्रभावित है। इसमें 42.27 प्रतिशत क्षेत्र गंभीर रूप से ग्रस्त है। शेष 57.73 प्रतिशत क्षेत्र सामान्य जल भराव की समस्या से ग्रस्त है। जल जमाव से गंभीर रूप से ग्रस्त क्षेत्र जनपद में यत्र तत्र छोटे-छोटे भू भागों के रूप में विभिन्न विकासखंडों में फैले हुए हैं।
जनपद में सबसे अधिक जल जमाव से प्रभावित विकासखंड भर्थना है। जो जनपद के कुल जल जमाव क्षेत्र का 20.08 प्रतिशत है। इस जनपद में जल जमाव से प्रभावित क्षेत्र नहर तटीय क्षेत्र है दूसरा व तीसरा स्थान क्रमश: जसवंतनगर व बसरेहर विकासखंडों का है। इन विकासखंडों में जल जमाव क्षेत्र क्रमश: 3275 एवं 2725 हे. है जो जनपद के कुल जल जमाव क्षेत्र का क्रमश: 18.58 एवं 15.46 प्रतिशत है। इसके बाद 2615 हे. क्षेत्र ताखा विकासखंड में 2260 हे. क्षेत्र सैफई विकासखंड में एवं 2235 हे. क्षेत्र महेवा विकासखंड के अंतर्गत आता है इस प्रकार इन विकासखंडों में जनपद के कुल जल जमाव क्षेत्रफल का क्रमशः 14.84, 12.82, एवं 12.68 प्रतिशत है। इन विकासखंडों में अधिक जल जमाव होने के मुख्य कारणों में एक नहरों का अधिक विकास होना है। अन्य कारणों में समतल भूमि का अधिक विस्तार होने के कारण वर्षाजल का अधिक से अधिक निस्यंदन होता है। फलत: जल काफी ऊपर आ जाता है। भूमि में जल धारण करने की क्षमता लगभग समाप्त सी हो जाती है अत: जल का जमाव हो जाता है। सबसे कम जल जमाव की समस्या बढ़पुरा विकासखंड में है। जहाँ केवल 975 हे. क्षेत्र जमाव की समस्या से ग्रस्त है जो जनपद के कुल जल जमाव का 5.53 प्रतिशत है। अधिकांश क्षेत्र में बीहड़ क्षेत्र का विस्तार होने तथा नहरों का अभाव होने से चकरनगर विकासखंड में जल जमाव की समस्या नगण्य है।
जल जमाव पर नियंत्रण के कुछ सुझाव यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं
1. नहर पक्कीकरण जल जमाव का स्थाई समाधान है। यह कार्य अत्यधिक व्यय साध्य है। इसलिये जनपद में नहर के उन्हीं भागों की तली एवं किनारों को पक्का किया जाना चाहिए। जहाँ नहर में निर्मित किये गये अवरोधकों के कारण जल प्रवाह में अवरोध आने से जल निस्यंदन अधिक होता है या नहर की तली की चट्टानें भेद होने के कारण अंत: निस्यंदन होता है। जनपद मुख्य नहर शाखा के दोनों ओर, जहाँ अवरोधक बनाये गये हैं, जल जमाव की समस्या अधिक देखने को मिलती है। लेखक द्वारा स्वयं देखा गया है कि नहरों का जल निस्यंदन उस क्षेत्र में तो रुक गया जहाँ नहरों का पक्कीकरण हुआ है। परंतु ऐसे भागों में भी नहर का पक्कीकरण कर दिया गया है जहाँ उसके बिना भी काम चल सकता था। यदि कहीं केवल नहर की तली को पक्का करना पर्याप्त था तो वहाँ साइडों को भी पक्के करने में अनावश्यक धन का अपव्यय करने से कोई लाभ नहीं। इस धन का उपयोग वहाँ किया जा सकता है जहाँ जल निस्यंदन अधिक है।
2. शहर, सड़क एवं अन्य निर्माण कार्यों से जनपद में जहाँ प्राकृतिक जल प्रवाह अवरुद्ध हो गये हैं वहाँ भूमिगत पुलिया बनाकर प्राकृतिक जल प्रवाह को पुन: खोलना चाहिए। इससे अवरुद्ध जल प्रवाहित होकर प्रमुख जल प्रवाह में मिल सकेगा।
3. नहर के समानांतर निस्यंदन प्रवाह नालियों का निर्माण किया जाना चाहिए। और इन नालियों के जल को जल की कमी वाले क्षेत्रों को प्रदाय किया जाना चाहिए। इससे आगामी प्रवाह के कारण उत्पन्न जल निस्यंदन पर नियंत्रण होगा तथा नवीन क्षेत्रों को सिंचाई के लिये जल उपलब्ध भी हो सकेगा।
इस प्रकार की निस्यंदन प्रवाह नालियों के निर्माण तथा प्राकृतिक प्रवाह हेतु भी लंबी छोटी नालियों का निर्माण सरकार द्वारा अन्तरराष्ट्रीय विकास परिषद एवं विश्व बैंक की सहायता से किया जाना चाहिए।
4. महेवा एवं भर्थना विकासखंडों के निचले क्षेत्रों के जल प्रवाह को गहरी नालियों द्वारा प्राकृतिक प्रवाह से जोड़ना चाहिए।
5. जल जमाव वाले क्षेत्रों में यथा संभव सिंचाई एवं अन्य कार्यों में अधिक से अधिक भौम जल का प्रयोग किया जाना चाहिए।
6. सिंचाई जल का नियमित एवं नियंत्रित प्रदाय किया जाना चाहिए।
7. सिंचाई की वैज्ञानिक विधि जैसे कूड़ विधि क्यारी विधि थामला विधि (Sprinklers Methods) को समय स्थान एवं आवश्यकतानुसार अपनाना चाहिए।
8. जनपद में पाइप लाइन सिंचाई जल वितरण का सर्वोत्तम साधन सिद्ध हो सकता है। इसके द्वारा जल निस्यंदन पर पूर्ण नियंत्रण होता है। यह खुली नहरों एवं नालियों से अधिक मितव्ययी होता है। पाइपलाइन का प्रयोग खेतों में जल वितरण के लिये भी खुली नालियों की अपेक्षा अधिक लाभप्रद होता है। खुली नालियों में कृषि भूमि का प्रयोग होता है और कृषि कार्य में भी बाधा उत्पन्न होती है। साथ ही इसके अनुरक्षण में समय और धन दोनों ही अधिक लगते हैं। इसकी तुलना में पाइपलाइन के अनुरक्षण में समय एवं धन दोनों कम लगते हैं। साथ ही यह निस्यंदन की समस्या का स्थाई निदान है।
इतना सब कुछ होते हुए भी इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि पाइपलाइन को बिछाने के लिये तत्काल अत्यधिक धनराशि की आवश्यकता होगी जिसे सरकार एवं कृषकों को एक किस्त में वहन करने में आर्थिक कठिनाई होगी। इसलिये जनपद के जल जमाव ग्रस्त समस्त क्षेत्रों में पाइपलाइन बिछाने का कार्य तर्कसंगत नहीं है। केवल उन्हीं क्षेत्रों में जिनमें जल जमाव की समस्या गंभीर है, मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ है तथा साथ ही कृषक संपन्न हैं, नहर शीर्ष कर अत्यधिक जल उपलब्ध रहता है एवं जहाँ जल को ऊपर से नीचे की ओर ले जाना हो व वहाँ पाइप लाइन डालने के अतिरिक्त अन्य कोई सुविधाजनक विकल्प न हो, उन्हीं क्षेत्रों में पाइपलाइन बिछाने का सुझाव दिया जा रहा है।
मृदा अपरदन :
पृथ्वी के धरातल पर मिट्टी का कटाव या बहना मृदा अपरदन कहलाता है। मृदा अपरदन जल या वर्षा की मात्रा पर निर्भर करता है। जब वर्षा अधिक होती है तो धरातल की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है इस प्रकार प्रतिवर्ष भूमि क्षरण से लाखों टन मिट्टी नदियों में बह कर सागर में समा जाती है भारतीय वर्षा की प्रवृत्ति कुछ ऐसी है कि यहाँ भूमि क्षरण से हानि अन्य सभी देशों की तुलना में अधिक होती है। मूसलाधार वर्षा होने से मिट्टी का कटाव अधिक होता है। अनुमान लगाया गया है कि 6 करोड़ हे. भूमि इससे प्रभावित हो चुकी है। एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत में 6000 मिलियन टन मिट्टी प्रतिवर्ष बह जाती है तथा 10000 हे. भूमि मिट्टी अपरदन द्वारा प्रभावित हो जाती है।
अध्ययन क्षेत्र में मृदा अपरदन से सबसे अधिक प्रभावित दक्षिण, दक्षिण पश्चिम, एवं दक्षिण पूर्वी भाग हैं। इस भाग में जनपद की प्रमुख नदियाँ चंबल, यमुना, क्वारी प्रवाहित होती हैं। जिन्होंने गहरी घाटियों का निर्माण कर लिया है। फलत: समस्त क्षेत्र का जल तीव्र गति से प्रवाहित होता हुआ नदियों में मिल जाता है। साथ ही हजारों टन उपजाऊ मिट्टी अपने साथ बहाकर ले जाता है। नदी जल बेसिन में वर्षा जल के तीव्र बहाव से निरंतर बीहड़ क्षेत्र का विस्तार होता चला जा रहा है। और गहरे-गहरे खड्डों का निर्माण हो गया है। जिसका क्षेत्र की आर्थिक सामाजिक गतिविधियों पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
अभिनव महाकल्प में चंबल एवं यमुना नदियों ने अपना समतल मैदान बना लिया था किंतु हिमालय के निर्माण की अंतिम अवस्था के साथ यह मैदान भी ऊपर उठ गया। परिणामस्वरूप चंबल एवं यमुना नदियों ने अपने ही निक्षेपण को काटना आरंभ कर दिया है, मुलायम एवं निक्षेपित पदार्थ तीव्रता से कटता जा रहा है। जैसे-जैसे नदी की सतह नीची होती जा रही है कटाव बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त जनपद में चंबल, यमुना बेसिन की दोषपूर्ण कृषि क्रियाएँ, वर्षा, सिंचाई की कमी, कृषि जोत का विघटन, अत्यधिक पशु चारण और प्राकृतिक वनस्पति का पर्याप्त न होना आदि मृदा अपरदन के लिये उत्तरदायी हैं। यदि एक बार अवनालिका का निर्माण हो जाता है तो वह अधिक से अधिक क्षेत्र को निगलती जाती है। फलस्वरूप विभिन्न आकार, आकृतियाँ एवं अवस्थाओं की अवनालिकाओं का जाल विकसित होता जा रहा है।
दक्षिणी भू भाग की जलोढ़ और रेतीली मिट्टियाँ अत्यधिक घुलनशील एवं मुलायम है जो मृदा अपरदन में सहायक होती हैं। शोधार्थी स्वयं इस भाग का निवासी है, फलत: उसने प्रत्यक्ष रूप में वर्षा के समय देखा है कि जैसे ही वर्षा की बूँदें खड्डों के ऊपर गिरती है वैसे ही ये बूँदें अपने साथ घुलनशील मिट्टी को नीचे की ओर बहा ले जाती हैं। बाद में भी खड्डों की दीवालों पर जल रिसाव के चिन्ह स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं।
इसके अतिरिक्त अनियंत्रित पशुचारण वनस्पति का ह्रास, भूमि दुरुपयोग, अनियंत्रित जल प्रवाह, शुष्क कृषि, विभिन्न ग्रामों के तीखे ढलानों से गुजरने वाले जानवर एवं बैलगाड़ी के मार्ग मृदा अपरदन में सहायक होते हैं। परिणामस्वरूप समतल भूमि से क्षितिज और लंबवत कटाव प्रारंभ हो जाता है परिणामत: ऊपर की मिट्टी निराश्रित होकर गिर पड़ती है। यह क्रम अनवरत जारी रहता है। परिणामस्वरूप छोटी-छोटी अवनालिकायें बाद में बड़े-बड़े खड्डों में परिवर्तित हो जाती हैं। जनपद में मृदा अपरदन से उत्पन्न खड्डों ने कृषि भूमि को ही नहीं बल्कि ग्रामीण बस्तियों, सड़क, रेल मार्ग व नहरों को भी प्रभावित किया है। ये खड्ड लुकने छिपने व भागने के मार्ग के रूप में डाकुओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं। इस प्रकार यह प्रशासन के लिये कानून व्यवस्था बनाये रखने में भी बाधक सिद्ध होते हैं।
जनपद का 87081 हे. क्षेत्रफल अपरदन से प्रभावित है, जो जनपद के कुल क्षेत्रफल का 32.19 प्रतिशत है। जिसमें 25159 हे. भूमि अत्यधिक एवं 61922 हे. भूमि सामान्य अपरदन की क्रिया से प्रभावित है।
जनपद में अपरदन क्रिया से सबसे अधिक प्रभावित चकरनगर एवं बढ़पुरा विकासखंड हैं। जिनमें क्रमश: 41702.1 हे. क्षेत्र एवं 19491.2 हे. क्षेत्र अपरदन से प्रभावित है। जो उस विकासखंड के कुल क्षेत्रफल का 82.43 प्रतिशत एवं 68.43 प्रतिशत है। इसके बाद महेवा एवं जसवंतनगर विकासखंड में क्रमश: 10155.5 हे. क्षेत्र एवं 6440.2 हे. क्षेत्र अपरदन से प्रभावित है। जो उस विकासखंड के कुल क्षेत्रफल का क्रमश: 28.02 प्रतिशत एवं 23.04 प्रतिशत है। सामान्य प्रभावित क्षेत्रों में जनपद का उत्तरी भाग आता है। जिसमें सैफई विकासखंड में 4726 हे. क्षेत्र, ताखा विकासखंड में 1837, हे. क्षेत्र, बसरेहर विकासखंड में 1209 हे. क्षेत्र एवं भर्थना विकासखंड में 1520 हे. क्षेत्र अपरदन से प्रभावित है जो संबंधित विकासखंड के कुल भू भाग का क्रमश: 9.46, 6.71, 5.71 एवं 5.28 प्रतिशत है।
जनपद में अपरदित क्षेत्र का वितरण निम्न तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है।
मानचित्र संख्या 9.1 से स्पष्ट है कि जनपद में उत्तरी भाग की अपेक्षा दक्षिणी भाग अपरदन क्रिया से अधिक प्रभावित है। क्योंकि उत्तरी भाग समतल मैदानी भाग है। वहाँ वर्षा के पानी में तीव्र बहाव न होने से अधिकांश खेतों में ही भरा रहता है। फलत: अपरदन क्रिया का प्रभाव सामान्य है। इसके विपरीत दक्षिण भाग अधिक ढालू तथा यमुना नदी का तटवर्ती होने से वहाँ वर्षा का जल ढाल का अनुशरण करता हुआ तीव्र गति से कटाव करता है। जो अपने साथ सैकड़ों टन मिट्टी को बहा कर ले जाता है। लाखों सालों से अपरदन की क्रिया प्रभावी होने के परिणामस्वरूप आज वहाँ की अवनालिकायें बड़े-बड़े खड्डों में परिवर्तित हो गयी हैं। इस प्रकार दक्षिण का अधिकांश भाग अपरदन क्रिया से प्रभावित है। यदि निरंतर हो रहे मृदा अपरदन के विस्तार को रोका नहीं गया तो कालांतर में समस्त मैदानी कृषि भूमि बीहड़ में परिवर्तित हो जायेगा।
मृदा अपरदन की यह समस्या सामान्य नहीं है। इसके लिये प्राकृतिक स्थितियों के साथ अव्यवस्थित मानवीय क्रियायें भी उत्तरदायी हैं। अध्ययन क्षेत्र में इस समस्या को सुलझाने के लिये निम्नांकित उपायों का प्रयोग किया जा सकता है।
(1) अपरदित भूमि का ग्राम स्तर पर सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। इस प्रकार के सर्वेक्षण में अपरदित भूमि का वर्गीकरण, मिट्टी के नमूने और जल संबंधी वैज्ञानिक सूचनाओं के एकत्रीकरण पर जो दिया जाना चाहिए।
(2) मिट्टी संरक्षण की विधियों को अपनाने में ग्रामीणों के तटस्थता के कारकों को मालूम करने के लिये उनका सामाजिक आर्थिक र्सोक्षण किया जाना चाहिए। इस संबंध में जब शोधार्थी ने चंबल नदी की घाटी में भू-संरक्षण का सुझाव एक ग्रामवासी को दिया तो उसने कहा ‘‘भैया मैं तो बटाई वाला हूँ। पिछले वर्ष दूसरा किसान था अगले वर्ष तीसरा किसान होगा। हमें भूमि के कटने फटने से क्या मतलब।’’ इससे स्पष्ट है कि भूमि पर कृषकों का स्वामित्व न होने से वे भू-संरक्षण की विधियों का प्रयोग करने के प्रति उदासीन हैं। भूमि स्वामी खेतों से निकट संबंध नहीं रखते। अत: भूमि का उपयोग करने वालों का उस पर स्वामित्व होना आवश्यक है। इस प्रकार की कई महत्त्वपूर्ण बातें ग्रामीणों के सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण से प्रकाश में आ सकती हैं। जो कि अपरदन समस्या के समाधान में सहायक होंगी।
(3) अपरदित भूमि के उपचार के लिये कृषकों को आर्थिक सहायता देने का विधान सरकार द्वारा रखना चाहिए। जिससे अपरदित भूमि की समस्या का उसी समयांतराल में निदान हो सके। उपचारित भूमि में सिंचाई सुविधायें भी विकसित की जानी चाहिए। इसके साथ ही यदि हम कृषकों में सामाजिकता राष्ट्रीय भावना और भूमि अपरदन के प्रति जन चेतना को विकसित करने का प्रयास करें तो यह भूमि अपरदन को रोकने में उपादायी होगा।
(4) अध्ययन क्षेत्र का दक्षिणी क्षेत्र अर्थात बीहड़ क्षेत्र इस समस्या से सबसे अधिक प्रभावित है। इस भाग में पूर्व से ही घने वृक्षों का अभाव रहा है। साथ ही सरकारी अफसरों की रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति ने जंगल के लगभग सभी बड़े पेड़ों को कटवा दिया है। अब केवल वृक्षों के अवशिष्ट दिखाई पड़ते हैं। शोधार्थी ने स्वयं बड़े अफसरों (एसडीएम तक को) सड़क पर खड़े होकर लकड़ी काटने वालों से धन वसूली करते हुए देखा है।
(5) बीहड़ क्षेत्र में तीव्र गति से उतरता हुआ जल बहता है। जल के इस प्रवाह का नियंत्रण आवश्यक है, क्योंकि एकाएक भारी मात्रा में जल प्राप्त हो जाने के कारण उसके प्रवाही क्षेत्रों में मृदा अपरदन अत्यधिक होता है। इसके लिये मृदा अपरदित क्षेत्रों में जहाँ गहरे गड्ढे नालियाँ आदि बन जाती हैं, वहाँ बाँध बनाकर जल को रोका जा सकता है। पहाड़ी भागों में जलाशय बनाकर भी जल के तीव्र प्रवाह पर नियंत्रण किया जा सकता है।
(6) ज्यों-ज्यों जनसंख्या की वृद्धि हो रही है त्यों-त्यों घरेलू उपयोग के साथ-साथ जलौनी के लिये लकड़ी की मांग भी बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरूप वनों को तेजी से काटा जा रहा है। जिसके कारण मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न हो रही है। इस समस्या को दूर करने के लिये आवश्यक है कि लकड़ी के स्थान पर अन्य विकल्पों का विकास हो जिससे लकड़ी पर निर्भरता कम हो सके। ऐसा करने से वन विनाश को रोका जा सकता है, जो मृदा अपरदन की समस्या के समाधान में सहयोगी होगा।
(7) मैदानी क्षेत्रों में बहते हुए जल का वेग रोकने के लिये खेतों की मेड़बंदी करना ऊँची भूमि पर पतली खेती तथा टेढ़ी-मेढ़ी खेती की पद्धति अपनाना आवश्यक होता है जिससे जल का बहना रुककर उपजाऊ मिट्टी वहीं पड़ी रहे।
उपरोक्त उपायों द्वारा मृदा अपरदन की समस्या से निजात पाया जा सकता है।
लवणीय एवं क्षारीय मृदा
लवणीय मृदा :
यह मृदा की ऊपरी सतह पर लवणों के एकत्रित होने की एक क्रिया है जिन भूमियों में किन्हीं कारणों से सम्यक जल निकास नहीं हो पाता उन भूमियों की ऊपरी परतों से पानी का वाष्पीकरण होता रहता है जिससे उनके घुले हुए लवण ऊपरी सतह पर पपड़ी के रूप में एकत्रित हो जाते हैं। आरंभ में सोडियम के लवण इकट्ठे होते हैं, क्योंकि ये इस प्रकार की भूमियों में पाये जाने वाले लवणों जैसे कैल्शियम सल्फेट व कैल्शियम कार्बोनेट की तुलना में अधिक घुलनशील होते हैं। इस प्रकार की भूमि की निचली सतहों से ये लवण घोल रूप में रंध्रकूप नलिकाओं के सहारे ऊपरी सतह पर आते हैं और बाद में वाष्पीकरण के फलस्वरूप ऊपरी सतह पर छोड़ दिये जाते हैं।
इन मृदाओं की पीएच 8.5 से कम मृदा में संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत चालकता 25 सीजी तापक्रम पर 4.0 मिनट मोस/सेमी से अधिक विनिमय श्लेषाभ में विनिमय योग्य सोडियम 15 प्रतिशत से कम होता है।
क्षारीय मृदा :
नदियों एवं नहरों द्वारा अपने साथ काफी मात्रा में क्षारीय पदार्थ जैसे सोडियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, क्लोराइड आदि बहाकर लाये जाते हैं। ये क्षारीय पदार्थ जल के साथ भूमि द्वारा सोख लिये जाते हैं। भूमि के अंदर जल सतह तक क्षारीय पदार्थ खूब सोख लिया जाता है। जैसे-जैसे मृदा के अंदर लवण एकत्र होते हैं, क्षार विनिमय की क्रिया के फलस्वरूप मृदा घोल से विभिन्न धनायनों का प्रतिशत बढ़ जाने के कारण मृदा में क्षार बढ़ जाता है और मिट्टी का स्वरूप क्षारीय हो जाता है।
इस मृदा पीएच 8.5 से अधिक और 250C पर मृदा के संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत चालकता 4.0 मिली मोम/सेमी से कम विनिमय श्लेषाभ, विनिमय योग्य सोडियम (E. S. P.) 15 प्रतिशत से अधिक होता है।
लवणीय एवं क्षारीय मिट्टियों का वितरण :
विश्व में 90 करोड़ हे. भूमि लवणीय एवं क्षारीय है। हमारे देश में लगभग 70 लाख हे. लवणीय एवं क्षारीय मृदायें हैं। उत्तर प्रदेश में इस प्रकार की भूमि का क्षेत्रफल 25 लाख हे. है। तालिका सं.9.3 में विकासखंड वार लवणीय एवं क्षारीय मिट्टियों के क्षेत्र को प्रदर्शित किया जा रहा है।
अध्ययन क्षेत्र में 5222 हे. भूमि लवणीय एवं क्षारीय है जो जनपद के कुल क्षेत्रफल का 1.93 प्रतिशत है। विकासखंड वार लवणीय एवं क्षारीय भूमि की स्थिति के अनुसार सबसे अधिक 1503 हे. क्षेत्रफल ताखा विकासखंड का लवणीय एवं क्षारीय भूमि के अंतर्गत है जो विकासखंड के कुल क्षेत्रफल का 5.49 प्रतिशत है। इस विकासखंड में सबसे अधिक लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी होने का मुख्य कारण सिंचाई सुविधाओं का अधिक विकास होना है। जल स्रोतों के माध्यम से लवण युक्त जल आ जाता है तथा जल निकास की सही व्यवस्था न होने के कारण शुष्क समय में जल वाष्प बनकर उड़ जाता है, जबकि लवण भूमि पर ही पड़े रहते हैं। लंबे समय से इस क्रिया के कारण क्षेत्र की मिट्टी लवणीय एवं क्षारीय बन गयी है। मध्यम श्रेणी में जनपद के तीन विकासखंडों बसरेहर, भर्थना एवं बढ़पुरा में क्रमश: 824 हे., 1024 हे. एवं 976 हे. क्षेत्र जो संबंधित विकासखंड के कुल क्षेत्रफल का क्रमश: 3.89, 3.56 एवं 3.43 प्रतिशत है, लवणीय एवं क्षारीय मृदा से ग्रस्त है इन विकासखंडों में भी सिंचाई सुविधाओं के अधिक विकास के साथ जल निकास की समुचित व्यवस्था का अभाव है। निम्न श्रेणी में जनपद के तीन विकासखंडों में जसवंतनगर में 372 हे., महेवा में 432 हे. एवं सैफई में 91 हे. क्षेत्र लवणीय एवं क्षारीय मृदा से प्रभावित है, जो संबंधित विकासखंड के कुल क्षेत्रफल का क्रमश: 1.33, 1.19 एवं 0.18 प्रतिशत है। चकरनगर विकासखंड में किसी भी प्रकार की लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी का अभाव है। इसका मुख्य कारण विकासखंड में बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने के कारण सिंचाई सुविधाओं का कम विकास होना है। वर्षा के रूप में जो पानी धरातल पर आता है, सीधा बहकर नदियों में चला जाता है। फलत: किसी प्रकार की लवणीय एवं क्षारीय भूमि नहीं है।
अध्ययन क्षेत्र में लवणीय एवं क्षारीय मृदा बनने के कारण :
प्राय: इस प्रकार की मृदाओं का निर्माण शुष्क, अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों या ऐसी भूमियों जहाँ पर जल निकास उचित न हो या भूमि की पारगम्यता बहुत ही कम हो, होता है। इस प्रकार की मृदाओं के निर्माण के मुख्य कारक निम्नलिखित हैं -
1) शुष्क जलवायु
शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में कम एवं उच्च तापमान के कारण जल केशिका उन्नयन द्वारा मृदा की सतह पर पहुँचता है, जहाँ वाष्पन द्वारा जल वायुमंडल में विसरित हो जाता है तथा विलय लवणों का मृदा की सतह पर संचय हो जाता है। अध्ययन क्षेत्र इस समस्या से काफी हद तक प्रभावित है।
2) लवणीय जल से सिंचाई :
लवणों की अधिकता वाले जल से सिंचाई करने पर लवणीय मृदाओं का निर्माण होता है। जल में लवणों की मात्रा के अनुपात में ही लवणों का मृदा सतह पर संचय होता है। लवणयुक्त जल द्वारा सिंचाई करने पर जल पहले मृदा में नीचे की सतह में चला जाता है जो बाद में केशिका उन्नयन द्वारा विलय लवणों साथ सतह पर पहुँचता है। जलवाष्प के रूप में उड़ जाता है। अथवा पौधों द्वारा उपयोग कर लिया जाता है तथा लवण अवशेष के रूप में सतह पर जमे रह जाते हैं। सिंचाई जल में सोडियम की उपस्थिति के कारण लवणीय-क्षारीय मृदाओं का विकास होता है। अध्ययन क्षेत्र का अधिकांश भाग नहर जल के द्वारा लाये गये लवणीय जल से इस प्रकार की मृदा का निर्माण हुआ है।
3) उच्च जल स्तर :
जल स्तर की पर्याप्त ऊँचाई होने पर जल की अधिक मात्रा केशिका प्रभाव से मृदा धरातल तक चली आती है। मृदा सतह पर पहुँचने के बाद विलियन का जल वाष्पित हो जाता है तथा विलय लवण मृदा सतह पर संचित हो जाते हैं। मृदा सतह पर लवणों का संचय केशिका गति भूजल में लवणों की मात्रा एवं वाष्पीकरण की गति पर निर्भर करता है। ताखा, भर्थना, बसरेहर आदि विकासखंडों में इस प्रकार की समस्या देखी जा सकती है।
4) अधो मृदा की अभेद्यता :
अधो मृदा में कड़ी परत होने के कारण जल निचली सतहों में नहीं रिस पाता है जिसके कारण लवणों का लीचिंग नहीं होता और वे सतह पर संचित हो जाते हैं।
5) दूषत जल निकास :
दूषित जल निकास की परिस्थितियों में निचले स्थानों पर एकत्रित जल अन्यत्र नहीं निकल पाता है, जो सूखने पर अपने साथ लाये विलेय लवणों की परत वहीं छोड़ देता है, यह क्रिया अनवरत चलती रहती है, जिसके कारण लवणों की पर्याप्त मात्रा मृदा सतह में एकत्रित हो जाती है। जनपद का उत्तरी एवं उत्तरी पूर्वी भाग लगभग समतल है, जल निचली सतह पर भरा रहता है और निरंतर वाष्पीकरण की क्रिया जारी रहती है। जिससे लवण एकत्रित होते रहते हैं। और वहाँ लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी का निर्माण हो जाता है।
6) क्षारीय उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग :
सोडियम युक्त उर्वरकों की प्रकृति भास्मिक होती है। ऐसे उर्वरकों के निरंतर उपयोग से मृदा संकीर्ण पर सोडियम की मात्रा बढ़ जाती है। फलस्वरूप मृदा क्षारीय हो जाती है। ऐसी मृदा में सोडियम नाइट्रेट का प्रतिबंधात्मक उपयोग करना चाहिए।
लवणीय एवं क्षारीय भूमियों का सुधार :
अध्ययन क्षेत्र की लवणीय एवं क्षारीय मृदा का सुधार निम्न विधियों द्वारा किया जा सकता है -
(अ) भौतिक एवं यांत्रिक क्रियायें :
इन क्रियाओं द्वारा मृदा में उपस्थित हानिकारक लवणों का उन्मूलन किया जाता है, साथ ही क्षारीयता के विस्तार को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
1. लवणों को खुरचकर :
लवणीय मृदा की सतह पर एक भुरभुरी सफेद परत के रूप में लवणों का जमाव होता है। इन लवणों को खुरचकर एकत्रित करके प्रभावित क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है।
2. निक्षालन :
लवणीय मृदा में जल की मात्रा प्रयोग करके विलेय लवणों का निक्षालन कर दिया जाता है। इस प्रकार हानिकारक लवण पौधों की जड़ों की पहुँच से नीच चले जाते हैं। तथा पौधे हानिकारक लवणों के प्रभाव से बच जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में जहाँ का जल स्तर नीचा है, उन भागों के लिये यह विधि उपयोगी है।
3. जल निकास :
मृदा में विलेय लवणों को जल के साथ पृष्ठीय अथवा भूमिगत जल निकास द्वारा प्रभावित क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। उच्च जल स्तर एवं मृदा में कठोर परत होने पर यह विधि अत्यंत उपयोगी होती है।
4. वाष्पीकरण का नियंत्रण :
मृदा की सतह पर घास फूस डालकर जल के वाष्पन को अवरुद्ध कर दिया जाता है। जिससे केशिका उन्नयन नहीं होता तथा निचली सतह से लवण ऊपर की सतह पर नहीं आ पाते।
(ब) रासायनिक सुधार -
रासायनिक सुधारकों के प्रयोग द्वारा अधिक हानिकारक सोडियम लवणों व मृदा संकीर्ण को कम हानिकारक लवणों एवं सीए संकीण में परिवर्तित किया जाता है। इसके सुधार के लिये निम्न रसायनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(1) जिप्सम -
क्षारीय मृदाओं को कृषि योग्य बनाने के लिये जिप्सम का सर्वाधिक प्रयोग किया जाना चाहिए।
(2) गंधक -
विनियम योग्य सोडियम के विस्थापन के लिये गंधक सबसे अधिक उपयोगी पदार्थ है। गंधक का एक परमाणु मृदा संकीर्ण में 3 सोडियम आयन्स को विस्थापित करने में सक्षम होता है।
(3) सल्फ्यूरिक अम्ल -
सल्फ्यूरिक अम्ल का प्रयोग सीधे रूप से क्षारीय मृदाओं के सुधार हेतु किया जाता है। मृदा में इसकी क्रिया तत्वीय एस से उत्पन्न एच टू एस ओ फोर की भाँति होती है। अधिक महँगा एवं दाहक होने के कारण इसका प्रयोग वर्जित है।
(4) चूना पत्थर -
कम पी-एच वाली मृदाओं को सुधारने के लिये पिसे हुए चूना का उपयोग किया जाता है। मृदा पी-एच 7.6 से अधिक होने पर इसका प्रभाव कम हो जाता है क्योंकि इस पी-एच पर चूना मृदा में अविलेय रहता है। मृदा में चूना मिलाने पर मृदा संकीर्ण पर उपस्थित सोडियम सी ए के साथ विस्थापित हो जाता है।
(5) पायराइट्स -
पायराइट्स एक उत्तम सस्ता एवं सुलभ रासायनिक सुधारक है। मृदा में पायराइट्स मिलाने पर यह जैविक रासायनिक परिवर्तनों द्वारा आक्सीकृत होन सल्फ्यूरिक अम्ल व अन्य अम्लीय पदार्थों का निर्माण करता है। मृदा सोडियम से क्रिया करके उसे सीए- मृदा में परिवर्तित कर देता है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जनपद में लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं से प्रभावित एक बड़ा क्षेत्र है। उपरोक्त विधियों के द्वारा इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है।
भूमिगत जल का अतिशय दोहन :
हमारे वैदिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि जल ही प्राण है और यह अमृत के समान है। शायद इसीलिये ब्रह्माण्ड के किसी ग्रह पर जीवन की तलाश करने वाले हमारे विद्वान वैज्ञानिक सबसे पहले जल को खोजते हैं चट्टान में जमी बर्फ या मिट्टी में नमी इसका आधार है। जहाँ जल नहीं होगा वहाँ न तो वनस्पति होगी और न ही जीवन की कोई संभावना। वस्तुत: हम हैं इसलिये कि हमारी धरती पर पानी है। परंतु जब पानी ही नहीं रहेगा तो हम भी कहाँ रहेंगे। लेकिन जन समान्य में इतनी दूरदर्शिता कहाँ है। शहरों में जल एवं बोरिंग, कस्बे में कुएँ एवं हैंडपंप, गाँवों में तालाब एवं नाड़ी आदि में जब तक पानी है, हम बेफिक्र होकर इसका उपयोग करते हैं। घरों में, कार्यालयों में, बाग-बगीचों में और गैरिजों में अंधाधुंध पानी का उपयोग और दुरुपयोग होता है। हम यह मानकर पानी का उपयोग/दुरुपयोग करते हैं कि यह अनंत है। वस्तुतः जल को हम अपने हिस्से की एक ऐसी निधि मानते हैं जिस पर केवल हमारा ही एकमात्र अधिकार है और हम यह भूल जाते हैं, कि यह समूचे समाज की संपदा है। इस पर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का उतना ही हक है जितना हमारा परंतु हम में से अधिकांश लोग दूसरे के प्यास की कीमत पर इसे अपने आनंद के लिये नष्ट कर देते हैं।
भारत में बढ़ती हुई जल की मांग को पूर्ण करने के लिये सतही जल की अपेक्षा भूमिगत जल का अनियंत्रित मात्रा में दोहन किया जा रहा है। हमारे देश में उपयोग योग्य भूमिगत जल की अनुमानित मात्रा 4.53 करोड़ हेक्टेयर मीटर प्रतिवर्ष है। जिसमें 68.3 लाख हेक्टेयर मीटर पेयजल के रूप में उद्योगों एवं अन्य कार्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है। जबकि शेष 3.85 करोड़ हेक्टेयर मीटर भूमिगत जल का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता है। वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल का 90 प्रतिशत भाग भूमिगत जल से प्राप्त हो रहा है। भारत में भूमिगत जल निष्कासन की अद्यतन तकनीकि बोरवेल है, जिससे भूमिगत जल की बेतहासा निकासी की जा रही है। भूमिगत जल की अंधाधुंध निकासी के कारण भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है। कुएँ सूख गये हैं, हैंडपंप एवं नलकूपों ने भी जल की कमी के कारण काम करना बंद कर दिया है। ऐसा अनुमान है कि 1970 से प्रतिवर्ष 2 लाख ट्यूबवेल लगाकर कृषि उद्योग व घरेलू उपयोग हेतु भूजल का दोहन किया जा रहा है। वर्तमान में केवल फसलों की सिंचाई हेतु 1 लाख नये नलकूप लगाये जाते हैं। जिसके भविष्य में बहुत खतरनाक प्रभाव होंगे। चिंता का विषय है कि भूमिगत जल का अविवेकपूर्ण व अनियंत्रित दोहन होने के कारण पूरी दुनियाँ में जल स्तर औसतन दस फुट नीचे चला गया है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि जो वस्तु नि:शुल्क या कम कीमत पर सुलभ हो उसका दक्ष व पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है। ऐसा ही भूमिगत जल के संदर्भ में हो रहा है एक शोध ने इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया है कि यदि कृषि उत्पादन में समुचित जल निकासी एवं जल उपयोग के वैज्ञानिक तरीके अपनाए जाएँ तो 20 प्रतिशत तक की बचत संभव है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि किसान वैज्ञानिक जानकारी के अभाव में कृषि कार्यों के लिये 15 प्रतिशत जल अनावश्यक उपयोग करते हैं। यही नहीं देश की सिंचाई योजनाओं के रख रखावों व संरक्षण में कमी के कारण सिंचाई के लिये निकाले गये कुल जल का 45 प्रतिशत जल खेत तक पहुँचते-पहुँचते नालियों में रिस जाता है। और केवल 55 प्रतिशत जल का ही उपयोग हो पाता है। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने एक अनुमान लगाया है कि अत्यधिक भूमिगत जल दोहन से कई राज्यों में 45 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्रों में भूमिगत जल स्तर तेजी से घट रहा है परिणामत: ‘डार्क जोन’ एरिया में वृद्धि होती जा रही है। आज देश के 50 प्रतिशत जिले पानी की दृष्टि से सूखे क्षेत्रों की श्रेणी में शामिल हैं।
तालिका संख्या 9.4 के अवलोकन से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिये भूमिगत जल की अंधाधुंध निकासी की जाती है जिससे भूमिगत जल स्तर निरंतर गिरता चला जा रहा है। पिछले 15 वर्षों में भूमिगत जल स्तर में काफी गिरावट आयी है। अध्ययन क्षेत्र में सबसे अधिक गिरावट बढ़पुरा एवं चकरनगर विकासखंडों में क्रमश: 3.04 एवं 2.05 मीटर हुई है। ये विकासखंड जनपद के दक्षिणी भाग में अवस्थित है। यहाँ बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने के कारण नहर आदि स्रोतों का अभाव है। फलत: यहाँ किसानों को सिंचाई के लिये केवल नलकूप सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है जिससे भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन होता है, दूसरी तरफ कुछ वर्षों से वर्षा भी बहुत कम हो रही है। असमतल भू-भाग होने के कारण जल तुरंत बहकर नदियों में पहुँच जाता है और जल का पुनर्भरण भी ठीक ढंग से नहीं हो पता एवं जल स्तर निरंतर नीचे गिरता चला जा रहा है। इसके बाद सैफई, जसवंतनगर, ताखा, बसरेहर में जो मुख्यत: जनपद की उत्तरी सीमा पर स्थित है, के भूमिगत जल स्तर में क्रमश: 1.84, 1.42, 1.34 एवं 1.09 मी. की गिरावट आई है। इन क्षेत्रों में नहर सिंचाई का काफी विकास हुआ है, लेकिन समय से नहरों आदि में पानी नहीं पहुँच पाने से लोगों का ध्यान नलकूपों की ओर गया है। अत: नलकूपों आदि के विकास के साथ इस क्षेत्र का जल स्तर भी तीव्र गति से गिरता जा रहा है। इन विकासखंडों में देखा गया है, कि मानसून पूर्व नलकूपों का जल स्तर काफी नीचा हो जाता है। जिससे किसानों को सिंचाई हेतु जल प्राप्त करने के लिये प्रतिवर्ष ‘डिलेवरी’ को नीचा करना पड़ता है। भर्थना एवं महेवा विकासखंड जो जनपद के मध्य पूर्व भाग में अवस्थित हैं, के भूमिगत जल स्तर में क्रमश: 0.98 एवं 0.35 मी. की गिरावट देखी गयी है। इस क्षेत्र की भूमि समतल होने के साथ मेड़बंदी होने के कारण जल का अधिक पुनर्भरण होता रहता है। फलत: अत्यधिक जल दोहन के बावजूद जल स्तर में सामान्य गिरावट देखी गयी है। शोधार्थी के द्वारा इन विकासखंडों का निरीक्षण करने पर ज्ञात हुआ है कि नहरों के विकास से पहले जल स्तर नीचा था। अब नहरों के विकास के फलस्वरूप यहाँ काफी सुधार देखा गया है।
भूमिगत जल के अतिशय दोहन से अनेक स्थानों पर गर्मियों के समय में कुएँ एवं हैंडपंप सूख रहे हैं। जल स्तर के गिरने से नलकूप भी काफी स्थानों पर मानसून पूर्व पानी देना बंद करने लगे हैं। जल संकट की समस्या भविष्य में विकराल रूप धारण कर लेगी। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए हमें इस समस्या का निराकरण करने हेतु अभी से सतत प्रभावी प्रयास करने होंगे। मनुष्य सोना, चांदी, पेट्रोलियम के बिना जीवन जी सकता है, किंतु पानी के बिना जीवन असंभव है। इसलिये समय की माँग है कि जल का उपयोग विवेकपूर्ण संतुलित व नियमित ढंग से हो। इस सर्वव्यापी समस्या के निदान हेतु हमें निम्न बिंदुओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा।
1. जल संरक्षण व बचत का संस्कार समाज में हर व्यक्ति को बचपन से ही दिया जाना चाहिए।
2. भूमिगत जल के अविवेकपूर्ण व अनियंत्रित दोहन व नलकूपों के गहरीकरण पर प्रभावी रोक लगानी चाहिए। नये ट्यूबवेलों की खुदाई करने से पूर्व सरकार से अनुमति अवश्य ली जानी चाहिए।
3. भूजल के संवर्धन व संरक्षण हेतु सुव्यवस्थित वर्षा जल-संचयन प्रणाली विकसित की जाये। वर्षा जल के संग्रहण हेतु घर व स्कूलों में ही टांके, कुंड व भू-गर्भ टैंक वगैरह निर्मित करने की नीति क्रियान्वित की जाये। परंपरागत जल स्रोतों, कुएँं, बावड़ी, तालाब, जोहड़ आदि की तलहटी में जमें गाद को निकलवाने का कार्य प्राथमिकता के आधार पर किया जाये। ताकि यह मृत प्राय: जल स्रोत पुनर्जीवित होकर वर्षा के जल को संग्रहित व संरक्षित कर सके।
4. जल प्रबंधन एवं संरक्षण व जल की बचत आदि कार्यक्रमों को जन जागरण व जन आंदोलन के रूप में चलाया जाये। गैर सरकारी संगठनों, स्कूलों महाविद्यालयों आदि को भी विचार गोष्ठी, सेमीनार व रैलियों के माध्यम से जल संरक्षण चेतना जागृत करनी चाहिए। ताकि जल का समुचित उपयोग संभव हो सके।
5. वनों की कटाई को रोकने के लिये हर संभव प्रयास किये जाने चाहिए तथा साथ ही वृक्षारोपण ‘कार्यक्रम’ को अधिक प्रभावी बनाने हेतु कठोर कदम उठाने चाहिए।
6. घरों में विद्युत मीटर की भाँति जल मीटर लगाया जाए ताकि जल उपयोग की मात्रा के अनुरूप ही शुल्क निर्धारण किया जा सके।
7. भारत में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ जल प्रबंधन का महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित कर रही हैं। औरंगाबाद जिले में अन्ना हजारे, हिमालय क्षेत्र के श्री सुंदर लाल बहुगुणा तथा राजस्थान में श्री राजेन्द्र सिंह ने अपने अथक प्रयासों से यह सिद्ध कर दिया है कि जल संकट का निवारण जन सहयोग से आसानी से किया जा सकता है। मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में खेत का पानी खेत में रोकने की संरचना (डबरिया) का विकास करके खेती के लिये जल की व्यवस्था की गयी है। इस व्यवस्था का अनुसरण जनपद में करके जल संकट की समस्या से कुछ सीमा तक निजात पाया जा सकता है।
8. आज सिंचाई की परंपरागत प्रणाली से हमारे खेतों तक पहुँचने वाले पानी का 25 से 45 प्रतिशत तक भाग व्यर्थ चला जाता है। नालियों के माध्यम से होने वाली सिंचाई में फसलों की क्यारियों तक पहुँचने से पूर्व ढेरों पानी नालियों द्वारा सोख लिया जाता है, रख- रखाव के अभाव में ये नालियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, साथ ही चूहे आदि अन्य जीवों द्वारा सिंचाई की नालियों में छेद बना दिये जाते हैं। जिससे खेतों तक पहुँचने से ही पहले बड़ी मात्रा में पानी व्यर्थ चला जाता है। इस दोषयुक्त प्रणाली से निजात के लिये आवश्यक है कि हम ऐसे साधनों का प्रयोग करें जिससे सिंचाई का पानी सीधा क्यारियों तक पहुँचे। इसके लिये हमें आधुनिक सिंचाई साधनों के रूप में पाइप, स्प्रिंकल (फुहार) और ड्रिप सिंचाई प्रणालियों का प्रयोग करना चाहिए।
9. हमें नई सिंचाई प्रणालियाँ खोजनी चाहिए जिससे जल खर्च तो कम से कम हो लेकिन फसलों को उनकी जरूरत के अनुसार पानी मिल सके, जिससे खेतों में उत्पादन तो पूरा प्राप्त हो लेकिन पानी कम से कम खर्च हो।
10. जीनिया गिरी के वर्तमान युग में अलग-अलग क्षमताओं के जीनों के मेल मिलाप से विशेष क्षमताओं वाली फसलों को गढ़ा जाना संभव हो गया है। आज इस प्रविधि का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। प्रयोगशालाओं में जीनों का हेर-फेर कर बनी ये फसलें कई तरह से नये गुणों से युक्त होती हैं। समय के अनुसार आवश्यकता इस बात की है कि कृषि एवं जैव वैज्ञानिक अपने शोधों के माध्यम से ऐसी नयी फसली-प्रजातियों का विकास करें, जो अपनी मूल फसल की तुलना में कम से कम पानी लेकर भरपूर उत्पादन देने में सक्षम हों।
आज विश्व में तेल के लिये युद्ध हो रहा है, भविष्य में जल के लिये युद्ध न हो, इसके लिये हमें अभी से सजग, सतर्क व जागरूक रहते हुए जल संरक्षण व प्रबंधन की प्रभावी नीति बनाकर उसका क्रियान्वयन करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवनशैली व प्राथमिकताएँ इस प्रकार निर्धारित करनी होंगी ताकि अमृत रूप जल की एक भी बूँद बेकार न जाये।
जल संसाधन की गुणवत्ता की समस्या :
बढ़ती जनसंख्या और विभिन्न कार्यों में जल के बढ़ते उपयोग के फलस्वरूप जैसे-जैसे भूमिगत जल का स्तर घटता जा रहा है, जल की गुणवत्ता का प्रश्न तेजी से जोर पकड़ रहा है। आज हमारे द्वारा प्रयुक्त किए जा रहे पेयजल में फ्लोराइड व आर्सेनिक आदि रासायनिक प्रदूषकों तथा कीट नाशकों आदि की दर काफी ऊँची है, और यह लगातार बढ़ रही है। केंद्र सरकार द्वारा 1994 में कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार 7 करोड़ लोग ऐसा प्रदूषित जल पी रहे हैं, जिसमें फ्लोराइड, आयरन, नाइट्रेट, आर्सेनिक तथा खारेपन की मात्रा अधिक है। केंद्र सरकार के भूजल उपसमूह (1997) द्वारा किए गये एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार यह स्थिति और भी भयानक रूप में सामने आई है। अत: मानव कल्याण हेतु पेयजल के उद्देश्यों के अनुरूप जल के गुणों के निर्धारण पर प्रमुख बल दिया जा रहा है। इसलिये इसका वैज्ञानिक मूल्यांकन करना आवश्यक है कि जल प्रदूषित, संदूषित, कठोर या शुद्ध किस प्रकार का है? तथा पीने हेतु किस प्रकार का जल उपयुक्त है। यहाँ इस विषय सामग्री का विवेचन नहीं किया गया है। फिर भी हमने अपने शोध के अंतर्गत जल की गुणवत्ता के मूल्यांकन पर विचार किया है।
भारत में भूतकाल में भौमजल एवं भू- पृष्ठीय जल के गुणों का कदाचित ही मूल्यांकन किया गया हो। जहाँ तक पेयजल में उसके उद्देश्यों के अनुरूप गुणों का प्रश्न है, इस पर बहुत कम लोग विचार करते हैं- कि यह जल पीने के लिये उपयुक्त है या नहीं। यहाँ न तो किसी सरकारी विभाग और न ही किसी सरकारी एजेंसी द्वारा ग्रामों व नगरों में प्रयोग किये जाने वाले पेयजल के गुणों का निरीक्षण किया जाता है कि यह जल मलिन है अथवा वायुमंडल द्वारा संदूषित। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व लोगों के प्रयोग में आने वाले जल की आपूर्ति का शायद ही भौतिक एवं रासायनिक परीक्षण हुआ हो। अध्ययन क्षेत्र के नगरीय एवं ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजना के क्रियान्वयन के पूर्व कभी भी जल की गुणवत्ता का मापन नहीं किया गया। यहाँ ऐसे प्रशिक्षित स्टाफ की कमी है, जो जैविक आधार पर जल के गुणों का परीक्षण कर सके।
नगरीय एवं ग्रामीण पेयजल आपूर्ति की योजना लागू होने के पश्चात राज्य सरकार ने पेयजल के गुणों का मूल्यांकन करने हेतु विशेषज्ञ नियुक्त किये थे। स्वास्थ्य मंत्रालय की स्थापना के पश्चात पी.एच.ई. (P. H. E.) तथा जल निगम की स्थापना प्रत्येक प्रदेश में की गयी थी। जल निगम जल आपूर्ति योजनाओं के अभियांत्रिक एवं स्वास्थ्य के बीच के विभिन्न पहलुओं पर पर्याप्त समन्वय रखता है। प्रथम पंचवर्षीय योजना अवधि में, सरकार ने केंद्रीय जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी संस्थान नागपुर में स्थापित किया है। जहाँ पर जल की गुणवत्ता के वैज्ञानिक मूल्यांकन का अनुसंधान किया जाता है। इसके अतिरिक्त जल की गुणवत्ता को जाँचने के लिये औद्योगिक विषय-विज्ञान अनुसंधान केंद्र, लखनऊ में स्थापित किया गया है। इस अनुसंधान केंद्र की चलती-फिरती जल जाँच प्रयोगशाला का उपयोग ग्रामीण विशेषकर दूर दराज के क्षेत्रों में पीने के जल की गुणवत्ता की जाँच करने, प्रदूषण के स्रोतों का पता लगाने, जनपद एवं ग्राम स्तर पर जल की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने संबंधी प्रशिक्षण देने के साथ जल प्रदूषण के स्रोतों और तदनुरूप उनके निवारक उपायों के विषय में अधिकाधिक लोगों को समुचित जानकारी देने के लिये किया जाता है।
भौम जल का रासायनिक मूल्यांकन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। साथ ही भौम जल प्रणाली के विश्लेषण हेतु भू-रासायनिक प्रविधि से परीक्षण भी आवश्यक है। इसके मूल्यांकन से भौम-जल की अपेक्षित आयु के निर्धारण में सहायता मिलती है। रसायनत: शुद्ध एवं पीने योग्य जल की आपूर्ति केवल कुछ ही नगर केंद्रों में होती है। जनपद में 60 प्रतिशत से अधिक लोगों को संदूषित एवं अशुद्ध जीवाण्विक जल की आपूर्ति की जाती है। इस संबंध में राज्य के जल निगम द्वारा पेयजल आपूर्ति के कुछ मानक निर्धारित किए जाने चाहिए। उन मानकों के आधार पर समय-समय पर पेयजल के गुणों का विशेषत: महामारी बीमारियों के समय परीक्षण होना चाहिए। खुले कुओं का जल पीने के लिये अधिक प्रयोग किया जाता है, जो रसायनत: अशुद्ध होता है। जल निगम द्वारा प्रत्येक विकासखंड में एक परीक्षक नियुक्त होना चाहिये, जो जल के गुणों विशेषतया खुले कूपों के जल का परीक्षण करे और जल के नमूने एकत्र करके उनका प्रयोगशाला में परीक्षण कराये। पेयजल के रासायनिक विश्लेषण हेतु जनपद इटावा में भी एक प्रयोगशाला की स्थापना की जानी चाहिए, जो नदियों, खुले कुओं एवं भौम जल का विश्लेषण व परीक्षण करे। यमुना, चंबल, क्वारी एवं सेंगर नदियों के जल का रासायनिक एवं जीवाण्वीय (Bacteriological) परीक्षण किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में केवल कुछ ही खुले कूपों के जल का परीक्षण भू-गर्भ जल विभाग इटावा द्वारा किया जा रहा है।
प्रदूषण से बचने के लिये कुओं के निर्माण से पूर्व कुछ सावधानियाँ यथा कुएँ के स्थल की अवस्थिति की संरचना, कूप अवस्थित में भौम जल का संभरण कुएँ का रोगाणुनाशक द्वारा संशोधन, पम्पिंग की सुरक्षा व स्वच्छता की सुविधाओं पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए तथा परित्यक्त कुओं को बंद कर देना चाहिए। भू-पृष्ठीय जल के जल गुण में कुओं के प्राकृतिक अंत: स्यंदन एवं अन्य सदृश विधियों द्वारा सुधार लाया जा सकता है। क्लोरीन एवं कोडीन दो रोगाणुनाशक रसायन प्रयोग किये जा सकते हैं। नागपुर के संस्थान ने कुएँ के जल को पॉट क्लोरीनीकरण द्वारा शुद्धीकरण की विधि विकसित की है। इस विधि से जल का शुद्धिकरण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त धीमी गति बालू का शुद्धीकरण यंत्र तथा हस्तचलित पंप से जुड़ा छानने का संयंत्र ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोगी पाया गया है। इस विधि से जल को सरलता से परिष्कृत किया जा सकता है।
References
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इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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