जल जीवन का आधार है। जल का सर्वाधिक उपभोग कृषि क्षेत्र में होता है। जो उसे कृत्रिम एवं प्राकृतिक साधनों द्वारा प्राप्त होता है। वर्षा के अभाव में कृत्रिम साधनों द्वारा खेतों को जल उपलब्ध कराया जाता रहा है। भाराीय वर्षा पूर्णत: मानसून से प्राप्त होती है, जो अनिश्चित, अनियमित तथा असामयिक होने के साथ-साथ विषम भी है। अत: कृषि के लिये सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। भारत में प्राचीन काल से ही सिंचाई के लिये कृत्रिम साधनों का प्रयोग होता आ रहा है। सिंचाई के लिये जल दो रूपों में प्राप्त होता है। धरातलीय जल तथा भूमिगत जल किंतु वायु की तरह जल यथेष्ठ मात्रा में उपलब्ध नहीं है। विभिन्न उपयोगों के लिये शुद्ध जल की आवश्यकता पड़ती है, जिसका प्रमुख स्रोत भूमिगत जल है। यह जलराशि धरातल के नीचे पाई जाती है। धरातलीय जल प्रवेश्य चट्टानों में निरंतर नीचे की ओर रिसता रहता है। वर्षा काल में जब धरातल पर जल की मात्रा बढ़ जाती है, जल का रिसाव भी बढ़ जाता है। इसके कारण बड़ी मात्रा में जल नीचे चला जाता है। फलत: भूमि के नीचे जल का स्तर ऊँचा हो जाता है। कूपों और नलकूपों के माध्यम से इस जल का उपयोग कर लेते हैं।
कूप एवं नलकूप ऐसे कृत्रिम साधन हैं, जिससे भूमिगत जल को बाहर निकाला जाता है। इस जल का उपयोग विभिन्न कार्यों में किया जाता है, जिनमें सिंचाई भी एक है। भारत में कूप एवं नलकूप सिंचाई के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। वर्तमान समय में इन दोनों साधनों के सम्मिलित योगदान से 55.90 प्रतिशत भू-भाग सींचा जाता है, जबकि उत्तर प्रदेश में कूप एवं नलकूप 70.47 प्रतिशत क्षेत्र को सिंचन क्षमता उपलब्ध कराते हैं। कूप एवं नलकूप सिंचाई साधनों की अपनी अलग-अलग विशेषतायें हैं।
कूप
कूप भूमिगत जल निकालने का एक परंपरागत साधन है। इसका उपयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। भारत में कूपों की सहायता से कुल सिंचित भूमि के लगभग 22.47 प्रतिशत भाग में सिंचाई की जाती है। कुओं द्वारा वहीं सिंचाई की जाती है, जहाँ इनके निर्माण के लिये निम्न भौगोलिक दशाएँ अनुकूल हों।
1. भारत में अधिकांशता चिकनी बलुई मिट्टी पाई जाती है, जिसमें कहीं-कहीं बालू के मध्य कांप की परतें मिलती हैं। इस मिट्टी में रिसकर नीचे काफी मात्रा में जल एकत्र हो जाता है जिसके फलस्वरूप कांप की तहें जल राशि का अगाध भंडार बन जाती हैं। इन्हें खोदने पर जल की प्राप्ति होती है।
2. अधिकांश कूप जल स्तर उच्च पाये जाने वाले स्थानों पर ही खोदे जाते हैं इस दृष्टि से गंगा का समतल मैदान कूप द्वारा सिंचाई के लिये अधिक उपयुक्त है। क्योंकि वहाँ पर भूमिगत जल प्राय: सभी क्षेत्रों में धरातल के नीचे थोड़ी ही गहराई पर मिल जाता है।
कूपों का सामान्य वितरण :
इटावा जनपद में भूमिगत जल का प्रमुख स्रोत वर्षा है, वर्षा के कारण भमिगत जल स्तर में उतार-चढ़ाव होता रहता है। मानसून अवधि में भूमिगत जल स्तर भू-सतह के निकट आ जाता है। पूर्व मानसून काल तथा मानसूनोत्तर काल में जल स्तर निरंतर गहरा होता जाता है। इस प्रकार वर्षा एवं तापक्रम में परिवर्तन के अनुसार भूमिगत जल स्तर में उतार-चढ़ाव होता रहता है। मानसून एवं मानसूनोत्तर अवधि के मध्य भूमिगत जल स्तर का उतार-चढ़ाव लगभग तीन मीटर रहता है। इस जनपद में भूमिगत जल स्तर को नहरों तथा नलकूपों ने भी प्रभावित किया है। नहर द्वारा सिंचित क्षेत्र के भूमिगत जल स्तर में आकस्मिक परिवर्तन होता रहता है।
अध्ययन क्षेत्र में प्राचीन काल से ही कूप खोदकर जल निकाला जाता है। इस क्षेत्र में कूप सामान्यत: 5 मीटर से 30 मीटर गहराई तक खोदे जाते है। इन कूपों का भूमिगत जल स्तर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। स्थाई भूमिगत जल स्तर वाले अधिक गहरे कूपों से संपूर्ण वर्ष जल मिलता रहता है, कम गहरे कूप ग्रीष्म ऋतु में सूख जाते हैं।
इटावा जनपद में चकरनगर एवं बढ़पुरा विकासखंड को छोड़कर सभी विकासखंडों में समतल धरातल, जलोढ़ मिट्टी, ऊँचा जलतल तथा कृषि व्यवसाय की प्रधानता के कारण कुओं का जाल बिछा हुआ है। इटावा जनपद में विगत 35 वर्षों का कूपों का वितरण सारणी क्रमांक - 6.1 से स्पष्ट हो जायेगा -
तालिका संख्या - 6.1 के अवलोकर से स्पष्ट होता है कि विगत 35 वर्षों में कूपों की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है। सन 1970-71 में 976 कूप थे जो सन 1980-81 में बढ़कर 2938 हो गये। अत: इस दशक में जनपद में 1962 कूपों की वृद्धि हुई। 1990-91 में कूपों की संख्या बढ़कर 4217 हो गई अर्थात 1980-81 की तुलना में 1279 कूपों की वृद्धि हुई। 1990-91 से 2000-2001 के मध्य में मात्र 104 कूपों की वृद्धि हुई, जबकि 2000-2001 एवं 2004-05 के मध्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जो स्पष्ट करता है कि अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई के अन्य साधनों का विकास होने के फलस्वरूप कूप सिंचाई की तरफ से लोगों में उदासीनता आई है।
जनपद इटावा में विकासखंड वार कूपों का वितरण :
जनपद इटावा में सर्वाधिक 1734 कुआँ बसरेहर विकासखंड में हैं। तथा सबसे कम कुआँ 16 चकरनगर विकासखंड में हैं। बसरेहर विकासखंड में सर्वाधिक कुआँ होने का कारण समतल धरातल जलोढ़ मिट्टी तथा विकासखंड का वृहद आकार है। इसके अतिरिक्त एक सबसे प्रमुख कारण जलस्तर का ऊँचा होना भी है। यहाँ के निवासी बहुत कम धन खर्च करके कुओं का निर्माण करा लेते हैं। इसके विपरीत चकरनगर विकासखंड में सबसे कम कूप हैं। जिसका मुख्य कारण असमतल धरातल के साथ गहरा जल स्तर होना है। फलत: कुओं को खोदने में अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है तथा ऐसे कूप सिंचाई की दृष्टि से अधिक उपयोगी नहीं होते हैं। नलकूपों का विकास हो जाने से कूप निर्माण की ओर लोग उदासीन हो गये हैं। कुआँ कोटिक्रम में जसवंतनगर विकास खंड दूसरा स्थान रखता है। इस विकासखंड में 1411 कुएं हैं। इसी क्रम में भर्थना विकासखंड में 345, बढ़पुरा में 202 एवं महेबा विकासखंड में 88 कूप हैं।
विकासखंड में कूओं के कुल योग से कूओं का वास्तविक वितरण ज्ञात नहीं होता है। क्योंकि क्षेत्रफल में कोई विकासखंड बड़ा होता है और कोई छोटा। प्रति 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कुओं की संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक कूप जनपद के मध्य एवं उत्तरी भाग अर्थात बसरेहर विकासखंड में है तथा सबसे कम कूप चकरनगर विकासखंड में है। प्रति 100 वर्ग किलोमीटर की दृष्टि से बसरेहर विकासखंड में 609 कूप, जसवतंनगर में 526 कूप, एवं ताखा विकासखंड में 180 कूप हैं। इसका मुख्य कारण जनपद के उत्तरी भाग में समतल धरातल एवं जलतल का ऊँचा होना रहा है। फलत: कम परिश्रम करके कूप खोदे जा सकते हैं। इसके विपरीत जनपद के दक्षिणी दिशा में चकरनगर विकासखंड में सबसे कम कूपों का विकास हुआ है। यहाँ मात्र 16 कूप हैं, अर्थात वह प्रति 100 वर्ग किलोमीटर की दृष्टि से 4.00 कूप रखता है। बढ़पुरा विकाखंड में 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 51 कूप, तथा महेबा विकासखंड में 26 कूप हैं। इन विकासखंडों में कूपों का वितरण अधिक विरल होने का कारण असमतल धरातल एवं जल तल का अधिक नीचे चला जाना है। कूप खोदने में अधिक परिश्रम एवं धन व्यय होता है। इसके बावजूद वे उतने उपयोगी भी नहीं होते हैं। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं असमतल धरातल एवं ऊँचा जल तल कूपों के वितरण को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
जनपद इटावा में कुओं की स्थिति सारणी क्रमांक 6.2 से स्पष्ट हो जायेगी।
कूप सिंचित क्षेत्र :
प्राचीन काल से ही जनपद इटावा में कूप सिंचाई का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। तालिका संख्या 6.3 के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि कूप सिंचित क्षेत्र में निरंतर कमी होती जा रही है। सन 1970-71 में कूपों द्वारा 10076 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होती थी जो कुल सिंचित क्षेत्र का 12.93 प्रतिशत था। इस दशक में सिंचाई के अन्य साधनों का अपेक्षाकृत कम विकास हुआ। फलत: कूपों की संख्या कम होने के बावजूद भी उनसे सिंचित क्षेत्र अधिक था। क्योंकि लोग इसी साधन पर निर्भर थे। 1980-81 के दशक में कूपों की संख्या में तो वृद्धि हुई लेकिन सिंचित क्षेत्र में ह्रास देखने को मिला। इस दशक में कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्र 3710 हेक्टेयर रह गया जो जनपद के कुल सिंचित क्षेत्र का 11.33 प्रतिशत था। इसके बाद कूप सिंचित क्षेत्र में निरंतर ह्रास देखा जा सकता है।
1990-91 में कूप सिंचित क्षेत्र घटकर 1058 हेक्टेयर रह गया जो कुल सिंचित क्षेत्र का 0.91 प्रतिशत था पुन: 2000-01 में यह 768 हेक्टेयर अर्थात 0.67 प्रतिशत रहा। 2004-05 में मात्र 51 हेक्टेयर क्षेत्र कूप सिंचित क्षेत्र है। जो जनपद के कुल सिंचित क्षेत्र का 0.04 प्रतिशत है। अत: 35 वर्षों में कूप सिंचित क्षेत्र का ग्राफ स्पष्ट गिरता हुआ दिखाई देता है।
इटावा जनपद के विकासखंडों में कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्र :
जनपद इटावा में कूप सिंचाई का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन वर्तमान समय में सिंचाई के नवीन साधनों नलकूप एवं नहरों आदि के आगमन से कूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र में भारी कमी हुई है। जनपद में कूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र को तालिका क्रमांक 6.4 में विकासखंडवार प्रदर्शित किया गया है।
तालिका संख्या 6.4 से स्पष्ट है कि 1993-95 में कूपों द्वारा सिंचित सर्वाधिक क्षेत्र में 394 हेक्टेयर भर्थना विकासखंड में था जो शुद्ध सिंचित क्षेत्र का 2.18 प्रतिशत था। दूसरे स्थान पर कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्र बढ़पुरा विकासखंड में 206 हेक्टेयर क्षेत्र अर्थात शुद्ध सिंचित क्षेत्र का 2.01 प्रतिशत है। तीसरे स्थान पर महेबा विकासखंड में 205 हेक्टेयर अर्थात कुल सिंचित क्षेत्र का 1.05 प्रतिशत भाग कूप सिंचित है। उपरोक्त तीनों विकासखंड जनपद के औसत से अधिक सिंचित क्षेत्र हैं। इसके पश्चात बसरेहर विकासखंड में 139 हेक्टेयर अर्थात 0.72 प्रतिशत ताखा विकासखंड में 64 हेक्टेयर अर्थात 0.38 प्रतिशत सैफई विकासखंड में 30 हेक्टेयर अर्थात 0.60 प्रतिशत एवं जसवंतनगर विकासखंड में सबसे कम 0.5 हेक्टेयर क्षेत्र कूपों द्वारा सिंचित है, जो शुद्ध सिंचित क्षेत्र का 0.038 प्रतिशत है।
तालिका संख्या 6.4 से स्पष्ट है कि 1993-95 की अपेक्षा सन 2003-05 में कूप सिंचित क्षेत्र में भारी कमी आयी है। 2003-05 में कूप सिंचित क्षेत्र घटकर मात्र 51 हेक्टेयर रह गया, जो शुद्ध सिंचित क्षेत्र का 0.04 प्रतिशत है। इस वर्ष सर्वाधिक कूप सिंचित क्षेत्र 13 हेक्टेयर सैफई विकासखंड में है, जो कुल सिंचित 0.08 प्रतिशत है। इसके बाद 11 हेक्टेयर बढ़पुरा विकासखंड जो शुद्ध सिंचित क्षेत्र का 0.05 प्रतिशत महेबा विकासखंड 09 हेक्टेयर अर्थात शुद्ध सिंचित क्षेत्र का 0.04 प्रतिशत है। जबकि बसरेहर एवं ताखा विकासखंडों में किसी भी प्रकार का कूपों द्वारा सिंचाई कार्य नहीं किया जा रहा है।
कूप सिंचित क्षेत्र में परिवर्तन :
तालिका संख्या 6.4 एवं मानचित्र संख्या 6.3 के अवलोकन से स्पष्ट है कि वर्ष 1993-95 में कूप सिंचित क्षेत्र 1058 हेक्टेयर था जो 2003-05 में घटकर मात्र 51 हेक्टेयर रह गया है। इस प्रकार विगत दशक में कूप सिंचित क्षेत्र में 1007 हेक्टेयर की कमी हुई है। यह कमी 95.17 प्रतिशत है। इसका प्रमुख कारण जनपद में आधुनिक सिंचाई के साधनों की पर्याप्त उपलब्धता एवं विकास है। बसरेहर, ताखा एवं चकरनगर विकासखंडों में कूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र में 100 प्रतिशत का ह्रास हुआ है। विकासखंड भर्थना में 97.46 प्रतिशत, महेबा में 95.66 प्रतिशत, बढ़पुरा में 94.66 प्रतिशत, सैफई में सबसे कम 56.66 प्रतिशत का ह्रास हुआ है। केवल जसवंतनगर विकास खंड मात्र एक ऐसा विकासखंड है जहाँ कूप सिंचित क्षेत्र में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जनपद में लोग कूप सिंचाई के प्रति उदासीन हो गये हैं। फलत: कूपों द्वारा सिंचाई का ग्राफ गिरता चला जा रहा है।
कूप सिंचाई का कृषि विकास में योगदान :
अध्ययन क्षेत्र में कूप सिंचाई का चलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। सन 1993-95 में कुल कूपों की संख्या 4315 थी तथा कूप सिंचित क्षेत्र 1058 हेक्टेयर था, लेकिन 2003-2005 में कूपों की संख्या 4315 में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जबकि सिंचित क्षेत्र कम होकर मात्र 51 हेक्टेयर रह गया।
कूप सिंचाई में आ रही निरंतर गिरावट का मुख्य कारण इसकी सिंचाई में नहरों एवं नलकूप की सिंचाई की अपेक्षा अधिक व्यय एवं अधिक श्रम खर्च करना पड़ता है। कुओं द्वारा सिंचाई का प्रति घंटे औसत क्षेत्रफल बहुत कम है। अत: बड़े क्षेत्रफल में कुओं द्वारा सिंचाई नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त गर्मियों में जब जल की अधिक आवश्यकता पड़ती है तब प्राय: कुएँ भी सूख जाते हैं।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में कूप सिंचाई का ग्राफ निरंतर गिरता जा रहा है और यह अपनी अंतिम अवस्था में पहुँच गयी है। इसका केवल उपयोग पेयजल के रूप में एवं लॉन आदि में बोई गयी सब्जियों को उगाने के लिये किया जा रहा है। अत: ऐसी ही स्थिति बनी रही तो आने वाले 10 वर्षों में इनका प्रयोग एवं उपयोग नगण्य हो जायेगा।
कूप सिंचित क्षेत्र की समस्याएँ :
अध्ययन क्षेत्र में सदैव से ही कूप सिंचाई का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। लेकिन वर्तमान समय में इसके ह्रास का क्रम जारी है। सन 1980-81 में कूप सिंचित क्षेत्र 2938 हेक्टेयर था, जो 2004-05 में कम होकर मात्र 51 हेक्टेयर रह गया है। क्योंकि कूपों द्वारा सिंचाई करने में अनेक समस्यायें हैं -
1. कुओं से लगातार जल निकालने पर उसमें जल की कमी पड़ जाती है। इसके अतिरिक्त जिस वर्ष वर्षा कम होती है, उस वर्ष भूमिगत जल स्तर नीचा हो जाता है जिससे कुओं में जल की कमी पड़ जाती है और कभी-कभी वह पूरी तरह से सूख जाते हैं। फलत: सिंचाई नहीं हो पाती अथवा बहुत कम क्षेत्र में हो पाती है। जनपद इटावा के अधिकांश विकासखंडों में ग्रीष्म ऋतु में इस तरह की स्थिति प्राय: देखी जा सकती है।
2. सिंचाई की आवश्यकता वस्तुत: वर्षा रहित दिनों में पड़ती है। कुओं का जल वर्षा रहित दिनों में घट जाता है। जबकि गर्मी की ऋतु में फसलों को जल की अधिक आवश्यकता होती है। उस समय कूपों में पानी कम हो जाता है अथवा सूख जाता है। ऐसी स्थिति में फसलों को यथेष्ठ मात्रा में पानी नहीं मिल पाता।
3. कूपों द्वारा सिंचाई करने में नहरों एवं नलकूपों की अपेक्षा अधिक व्यय और अधिक श्रम खर्च करना पड़ता है। जिससे फसलों को पर्याप्त मात्रा में जल नहीं मिल पाता है। परिणामत: उनसे पर्याप्त उत्पादन नहीं मिल पाता है।
4. कूपों से केवल सीमित क्षेत्र की ही सिंचाई की जा सकती है। उदाहरणार्थ कुएं अधिक से अधिक प्रतिदिन 0.5 एकड़ भूमि को सिंचाई सुविधा प्रदान कर सकता है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि कूप सिंचाई में अधिक परिश्रम होने के कारण लोक कूप सिंचाई के प्रति उदासीन हो गये हैं। परिणामत: कूप सिंचित क्षेत्र निरंतर कम होता चला जा रहा है।
जनपद इटावा में नलकूप सिंचाई :
नलकूप का ही एक प्रकार है, इसमें भूमिगत जल को पाइप द्वारा विद्युत पंप या डीजल इंजन की सहायता से बाहर निकाला जाता है। इसका निर्माण उन्हीं स्थानों पर किया जाता है जहाँ भूमिगत जल धरातल से 150 से 200 मीटर, से अधिक गहरा न हो। भारत में इस तरह की भौगोलिक दशायें नदियों के बेसिनों में पाई जाती हैं। अध्ययन क्षेत्र में नदियों का जल रिसकर पर्याप्त मात्रा में नीचे चला जाता है। इसके कारण उन भागों में अगाध भूमिगत जल बहुत कम गहराई पर ही पाया जाता है। यही कारण है कि अध्ययन क्षेत्र में यमुना एवं चंबल नदियों की घाटियों में जल पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।
नलकूप सिंचाई का सबसे नवीन साधन है, इससे लगभग 1 घंटे में 135 हजार लीटर जल बाहर निकलता है। एक नलकूप से लगभग 200 हेक्टेयर भूमि सींची जा सकती है। नलकूपों की सिंचन क्षमता अधिक होने के कारण इनका उपयोग उन्हीं भागों में उपयुक्त होता है, जहाँ सिंचाई की मांग औसत रूप से वर्ष भर हो। अधिक सिंचन क्षमता, सुविधाजनक संचालन तथा व्यक्तिगत नियंत्रण होने के कारण नलकूप अधिक प्रचलित हो गये हैं।
नलकूपों का वितरण :
नलकूप सिंचाई का सबसे उपयोगी साधन है। भारत में सर्वप्रथम नलकूपों द्वारा सिंचाई का प्रारंभ गंगा की घाटी में किया गया। जनपद इटावा में सन 1960 में विद्युतीकरण के साथ ही नलकूपों का स्थापन प्रारंभ हुआ। राज्य सरकार की लघु सिंचाई योजनाओं के अंतर्गत विगत 35 वर्षों में नलकूपों के स्थापन में निरंतर वृद्धि होती रही है। सन 1970-71 में जनपद इटावा में 2075 नलकूप थे। सन 1980-81 में बढ़कर 10759 नलकूप हो गये। सन 1990-91 में नलकूपों की संख्या बढ़कर 23522 हो गयी। नौवें दशक में नलकूपों की संख्या में सर्वाधिक वृद्धि का कारण शासन द्वारा लघु सिंचाई साधनों के विकास को प्रोत्साहित करना है। विगत 35 वर्षों में जनपद इटावा में नलकूपों का स्थापन सारणी क्रमांक 6.5 में दिया जा रहा है-
निम्नांकित तालिका सं. 6.6 से स्पष्ट है कि विगत दस वर्षों में इटावा जनपद में नलकूपों के स्थापन में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। 1994-95 में 24522 नलकूप थे जो 2004-05 में बढ़कर 36972 हो गये। इस दशक में नलकूपों के स्थापन में सर्वाधिक वृद्धि सन 2004-05 में हुई। इसमें 4282 नलकूपों का स्थापन हुआ। इस वृद्धि का प्रमुख कारण शासन में जनपदीय नेताओं का महत्त्वपूर्ण पदों पर होना रहा है।विगत दस वर्षों में इटावा जनपद में नलकूपों के स्थापन की प्रगति निम्नांकित सारणी से स्पष्ट हो जायेगी।
जनपद इटावा में सर्वाधिक नलकूप सैफई विकासखंड में 6960 हैं। तथा सबसे कम नलकूप 341 चकरनर विकासखंड में है। सैफई विकासखंड में सर्वाधिक नलकूप होने का कारण पृथ्वी की निचली तहों में बलुई दुमट मिट्टी की उपलब्धता तथा भूमिगत जल स्तर का ऊँचा होना है। साथ ही इस वृद्धि का एक अन्य प्रमुख कारण इस विकासखंड से प्रदेश की राजनीति में कुछ बड़े नेताओं का सत्तासीन होना भी रहा है। फलत: इस विकासखंड में नलकूपों का अधिक विकास हुआ है। भर्थना एवं बसरेहर विकासखंड में क्रमश: 6579 एवं 6187 नलकूप हैं। इसके बाद महेबा एवं ताखा विकासखंड में क्रमश: 5663 एवं 4414 नलकूप हैं। इन विकासखंडों में नलकूपों की सघनता का प्रमुख कारण जलतल का ऊँचा होना है, जिससे किसान आसानी से अर्थात सामान्य लागत में नलकूप का निर्माण कर लेते हैं।
प्रति 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में नलकूपों की दृष्टि से सर्वाधिक नलकूप 3285 सैफई विकासखंड में हैं। प्रति 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में भर्थना में 2404, बसरेहर में 2172, जसवंतनगर में 1898, महेबा विकासखंड में 1533 एवं बढ़पुरा विकासखंड में 434 नलकूप हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जनपद के उत्तरी एवं उत्तरी पूर्वी एवं उत्तर पश्चिमी मैदानी भागों में जहाँ जल स्तर ऊँचा है, कम लागत में नलकूपों का निर्माण हो जाता है इसके विपरीत जनपद के दक्षिणी विकासखंडों में बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने के कारण जल बहकर नदियों में चला जाता है, जिससे वहाँ भूमिगत जल स्तर अत्यधिक गहराई पर है, फलत: नलकूप निर्माण में अधिक लागत पड़ती है, अत: नलकूपों का अधिक विकास नहीं हो सका है।
नलकूप सिंचित क्षेत्र :
जनपद इटावा में 15 वर्षों में नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र में निरंतर वृद्धि हो रही है। सन 1990-91 में नलकूपों द्वारा 45626.00 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जाती थी, जो जनपद के कुल सिंचित क्षेत्र की 39.24 प्रतिशत थी। सन 2000-01 में नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई, इस वर्ष नलकूपों द्वारा 54150 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित किया गया जो कुल सिंचित क्षेत्र का 47.30 प्रतिशत था। सन 2004-05 में जनपद में नलकूपों द्वारा 56804.67 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई की गयी जो जनपद के कुल सिंचित क्षेत्र का 48.27 प्रतिशत था।
विगत 15 वर्षों में जनपद इटावा में नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र निम्नांकित सारणी से स्पष्ट हो जायेगा।
जनपद इटावा के विकासखंडों में नलकूप सिंचित क्षेत्र :
जनपद इटावा में सर्वाधिक सिंचाई नलकूपों द्वारा की जाती है, अध्ययन क्षेत्र के विकासखंडों में नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र निम्नांकित सारणी द्वारा दर्शाया जा रहा है -
उक्त तालिका संख्या 6.9 से स्पष्ट होता है कि 1994-95 में जनपद इटावा में विकासखंडों के कुल सिंचित क्षेत्र का नलकूप सिंचित क्षेत्र चकरनगर विकासखंड में सबसे अधिक 97.80 प्रतिशत था। दूसरे स्थान पर जसवंतनगर 66.44 प्रतिशत एवं बढ़पुरा 60.20 प्रतिशत नलकूप सिंचित क्षेत्र रखता हैं। तदंतर क्रमश: सैफई विकासखंड 46.68 प्रतिशत तथा महेवा विकासखंड 35.83 प्रतिशत नलकूप सिंचित क्षेत्र रखता है। सबसे कम नलकूप सिंचित क्षेत्र महेवा, बसरेहर एवं भर्थना विकासखंडों में क्रमश: कुल सिंचित क्षेत्र का 35.83, 31.69 एवं 27.39 प्रतिशत है।
अत: मानचित्र संख्या 6.5 के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि जनपद के पश्चिमी भाग एवं दक्षिण भाग में नलकूप सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत अधिक है। जिसका मुख्य कारण इस क्षेत्र में बीहड़ क्षेत्र का अधिक विकास होना है। असमतल धरातल होने के कारण नहर आदि सिंचाई साधनों का अधिक विकास नहीं हो सका। फलत: नलकूपों का अधिक विकास हुआ है। इसके विपरीत उत्तरी-पूर्वी भागों में नलकूपों सिंचित क्षेत्र कम है। इसका मुख्य कारण इस क्षेत्र में नहर सिंचाई का अधिक विकास होना है।
2004-05 का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि चकरनगर विकासखंड में नलकूप सिंचित क्षेत्र सर्वाधिक 99.84 प्रतिशत है। इसके बाद बढ़पुरा, जसवंतनगर एवं सैफई विकासखंड क्रमश: 70.25, 68.74 एवं 57.47 प्रतिशत नलकूप सिंचित क्षेत्र रखते हैं। तदंतर महेबा विकासखंड में 42.70 प्रतिशत क्षेत्र नलकूप द्वारा सिंचित किया जाता है। इस प्रकार अवरोही क्रम में भर्थना में 34.57 प्रतिशत, ताखा में 33.87 प्रतिशत एवं बसरेहर विकासखंड 33.03 प्रतिशत क्षेत्र नलकूपों द्वारा सिंचित किया जाता है। यदि मानचित्र संख्या - 6.7 का अवलोकन करें तो पायेंगे कि पश्चिमी एवं दक्षिणी पश्चिमी भाग नलकूपों द्वारा अधिक सिंचित है, पूर्वी एवं उत्तरपूर्वी भाग में नलकूप सिंचाई का अधिक विकास नहीं हुआ है।
नलकूप सिंचित क्षेत्र में परिवर्तन :
तालिका संख्या 6.9 में यदि हम वर्ष 1994-95 एवं 2004-05 की तुलना करें एवं बसरेहर विकासखंड को छोड़ दें, (इसका क्षेत्रफल घटा है) तो प्रत्येक विकासखंड में नलकूप सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई है। सबसे अधिक परिवर्तन बढ़पुरा विकासखंड में दृष्टिगत होता है। इस विकासखंड में नलकूप सिंचित क्षेत्र में 2769 हेक्टेयर की आश्चर्यजनक वृद्धि हुई, जो कि 55.24 प्रतिशत है इसी प्रकार भर्थना एवं चकरनगर विकासखंडों में क्रमश: 32.26 प्रतिशत एवं 28.04 प्रतिशत का परिवर्तन हुआ है। इसके बाद सैफई विकासखंड में 27.84 प्रतिशत, महेबा में 22.91 प्रतिशत एवं बसरेहर विकासखंड में 20.40 प्रतिशत का परिवर्तन दिखाई देता है। जसवंतनगर एवं ताखा विकासखंडों में क्रमश: 7.51 एवं 12.21 प्रतिशत का परिवर्तन हुआ है, जो सबसे कम है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे विद्युतीकरण का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे नलकूपों की संख्या एवं उनके द्वारा सिंचित क्षेत्र में वृद्धि होती गयी। नलकूपों द्वारा सिंचाई की सुविधाजनक प्रक्रिया को देखते हुए जनपद के किसानों में नलकूप लगवाने के प्रति जागरूकता उत्पन्न हुई। इस प्रावधिक कुशलता के द्वारा विभिन्न अश्वशक्ति के छोटे बड़े मोटरों के 4315 नलकूपों का विकास हुआ। साथ ही साथ सरकार ने गाँवों में विद्युतीकरण की योजना चलाकर इसमें सहयोग करने का प्रयास किया।
नलकूप सिंचाई का कृषि विकास में योगदान :
नलकूप सिंचाई जनपद का सबसे उपयोगी सिंचाई साधन है। जिसके विकास के फलस्वरूप सिंचाई क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। यदि हम पिछले 10 वर्षों के आंकड़ों का अवलोकन करें, तो पायेंगे कि जनपद इटावा में 1993-95 में कुल नलकूपों की संख्या 29626 एवं नलकूप सिंचित क्षेत्र 48648.34 हेक्टेयर था। 2003-05 में नलकपों की कुल संख्या बढ़कर 36972 हो गई तथा नलकूप सिंचित क्षेत्र बढ़कर 56804.67 हेक्टेयर हो गया। अत: स्पष्ट है कि जनपद इटावा में कुल नलकूपों की संख्या में 7346 की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि नलकूप सिंचित क्षेत्र में 8156.34 हेक्टेयर की वृद्धि हुई।
अध्ययन क्षेत्र का उत्तरी भूभाग अधिकांशत: मैदानी है, जहाँ सिंचाई के अन्य साधनों के रूप में नहर सिंचाई का पर्याप्त विकास हुआ है। अत: जिस वर्ष नहरों में समय से पानी नहीं आता, फसल नष्ट होने के कगार पर पहुँच जाती है तब ऐसी स्थिति में सिंचाई नलकूप के द्वारा की जाती है। अर्थात कहा जा सकता है कि नलकूप सिंचाई का उपयोग नहरों की पूरक व्यवस्था के रूप में किया जाता है। इस क्षेत्र में कुछ भाग अभी भी ऐसा है जहाँ नहरों का विकास नहीं हो सका है, वहाँ नलकूपों से सिंचाई करके कृषि कार्य किया जा रहा है। उत्तरी भाग के विकासखंड जसवंतनगर में 11813.00 हेक्टेयर क्षेत्र नलकूप सिंचित है। इसी प्रकार बसरेहर विकासखंड में 5992.67 हेक्टेयर, ताखा विकासखंड में 7782.00 हेक्टेयर, भरथना विकासखंड में 6325.67 हेक्टेयर एवं सैफई विकासखंड में 8202.00 हेक्टेयर क्षेत्र नलकूप सिंचित है।
अध्ययन क्षेत्र के दक्षिणी भाग के अधिकांश क्षेत्र में बीहड़ का विस्तार है जिसमें नहरों का विस्तार नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में नलकूपों द्वारा सिंचाई की विशेष आवश्यकता अनुभव की जाती है। यदि इन क्षेत्रों में नलकूप सिंचाई का विकास नहीं होता तो संपूर्ण क्षेत्र असिंचित होता। विकासखंड चकरनगर में 2830.33 हेक्टेयर, बढ़पुरा में 7782.00 हेक्टेयर एवं विकासखंड महेबा में 8263.67 हेक्टेयर क्षेत्र को नलकूप सिंचन सुविधा उपलब्ध है। आज जब वर्षा कम हो रही है या किसी वर्ष सूखे जैसे स्थिति उत्पन्न हो जाती है, खेतों में धूल उड़ती दिखाई देती है उस समय भी नलकूपों के समीप वाले क्षेत्रों में किसान यथास्थिति फसलों का उत्पादन कर कुछ राहत महसूस करते हैं।
यदि हम 1993-95 से 2003-05 के आंकड़ों का अवलोकन करें तो पायेंगे कि 10 वर्षों में नलकूप सिंचित क्षेत्र में 8156.34 हेक्टेयर अर्थात 16.77 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यदि दक्षिणी भाग में नलकूपों का निर्माण किया गया तो नलकूप सिंचित क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हो सकती है तथा जनपद में कृषि उत्पादन को काफी ऊँचाई तक ले जाया जा सकता है।
नलकूप सिंचित क्षेत्र की समस्याएँ :
अध्ययन क्षेत्र में नलकूप सिंचाई सबसे उपयोगी साधन है। जनपद में सबसे अधिक सिंचाई नलकूपों द्वारा की जाती है नलकूपों से सिंचाई अधिक उपयोगी होते हुये भी नलकूप सिंचित क्षेत्र की अनेक समस्याएँ भी हैं -
1. नलकूपों द्वारा भूमिगत जल का अत्याधिक मात्रा में दोहन किया जाता है जिससे जल स्तर काफी नीचे चला जाता है, फलत: अनेक डार्क जोन बन जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में ग्रीष्म काल में इस तरह की परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं। हैंडपंपों एवं कूपों में पानी सूख जाता है। जनपद के उत्तर पूर्वी भाग में वर्षाऋतु के समय में जल स्तर काफी ऊपर आ जाता है लेकिन नलकूपों द्वारा भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन करने से जल सतर अचानक 10-10 फीट तक नीेचे चला जाता है। फलत: किसानों को एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ता है।
2. सरकार द्वारा राजकीय एवं विश्वबैंक योजना के द्वारा जनपद में नलकूपों का बड़े पैमाने पर निर्माण किया गया है। नलकूप सरकारी संपत्ति होने के कारण उन पर किसी का अपना स्वामित्व नहीं होता है, जिससे वे उचित देखरेख के अभाव में अधिकांश बेकार होकर खराब पड़े हैं।
3. सभी सरकारी नलकूप विद्युत चालित होते हैं विद्यतु के अभाव में इन्हें चलाना संभव नहीं होता है। अध्ययन क्षेत्र में विद्युत की अच्छी व्यवस्था नहीं है। समय-समय पर विद्युत पोलों से तारों की चोरी हो जाने के कारण किसानों को समय से पानी नहीं मिल पाता एवं फसल सूख जाती है।
4. नलकूपों के सार्वजनिक होने के कारण पानी के बँटवारे को लेकर किसानों में समय-समय पर विवाद होता रहता है। परिणामत: कई-कई दिनों तक नलकूप बंद पड़े देखे जा सकते हैं।
5. सरकार द्वारा नलकूप निर्माण के समय एक बार पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिये पाइप लाइन बिछवा दी जाती है। यह पाइप लाइन मरम्म के अभाव में अनेक स्थानों पर टूट जाती है जिससे अनावश्यक पानी बहता रहता है।
6. निजी नलकूपों वाले किसानों के पास पाइपलाइन सुविधा का अभाव है, जिससे उन्हें नाली खोदकर दूर-दूर तक खेतों में पानी ले जाना पड़ता है, जिससे कुछ सीमा तक पानी नाली द्वारा ही सोख लिया जाता है तथा कच्ची नाली कट जाने से अनावश्यक बह जाता है। अत समय एवं पानी की बर्बादी होती है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जनपद इटावा में नलकूप सिंचित क्षेत्र की इन अनेक समस्याओं के बावजूद भी नलकूप सिंचित क्षेत्र की दृष्टि से यह जनपद प्रमुख स्थान रखता है तथा इस दृष्टि से उज्जवल भविष्य की और संकेत करता है।
Reference :
1. गुप्ता, संजय, सिंचाई, यूजीसी जूनियर रिसर्च फैलोशिप, रमेश पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ. 640
2. चौहान, पीआर (2005), सिंचाई, भारत का वृहत भूगोल, वसुंधरा प्रकाशन, गोरखपुर, पृ. 202
1. मामोरिया, चतुर्भुज, 2001, सिंचाई, भारत का भूगोल, साहित्य भवन, पब्लिकेसंस, आगरा, पृ. 121
2. वही, पृ. 122
इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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