प्रकृति ने प्राकृतिक संसाधन के रूप में अनेक निधियाँ प्रदान की हैं। इन प्राकृतिक संसाधनों में जल सबसे बहुमूल्य है। पानी का प्रयोग प्राणीमात्र, मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ सभी करते हैं, इसीलिये जल को जीवन का आधार कहा गया है।
जल संरक्षण का कार्य प्रदेश के समस्त भागों में क्षेत्रीय आवश्यकता, ढाल तथा भूमि उपयोग क्षमता के आधार पर किया जा रहा है। वर्षा जल अर्थात जल अपवाह का तालाबों, जलाशयों, छोटी नदियों में स्थलीय संचयन फसलों में जीवनदायी सिंचाई पशुओं के पेयजल, जलीय खेती, मत्स्य पालन, भूमिगत जल स्तर बढ़ाने तथा नमी संरक्षण हेतु जलागम प्रदेश की परंपरागत प्रणाली है। लगभग 80 प्रतिशत जल का उपयोग सिंचाई के रूप में होता है। वर्षा जल सदैव ढाल का अनुसरण करता है और भूमि के धरातल पर पहुँचते ही जल अपवाह के रूप में खेतों मैदानों चारागाहों, वनों, जलाशयों आदि में एकत्रित हो जाता है तथा वर्षा जल का अधिकांश भाग नाले से होता हुआ नदियों में प्रवाहित हो जाता है। जो किसी भी रूप में जलागम क्षेत्र के उपयोग में नहीं आ पाता। जिसके कारण भूमि की उर्वरता भी क्षीण होती है। जल अपवाह के साथ 61 प्रतिशत मृदा एक स्थान से दूसरे स्थान पर 10 प्रतिशत मृदा जलाशयों एवं झीलों में तथा 21 प्रतिशत मृदा नदियों द्वारा समुद्र में पहुँचती है। यही कारण है कि असंरक्षित जलागम क्षेत्र धीरे-धीरे अपघटित होकर, वीरान, बंजर अनुत्पादक एवं असंतुलित हो जाते हैं तथा उसका पारिस्थितकीय संतुलन बिगड़ जाता है।इस प्रकार जलागम क्षेत्र के जल को विभिन्न तकनीकों द्वारा क्षेत्र में ही रोक कर यदि कृषि क्षेत्र में उपयोग किया जाय तो एक साथ सभी समस्याओं का निराकरण संभव है। अध्ययन क्षेत्र में इसके लिये लघु बाँधों का निर्माण सबसे उपयोगी विधि हो सकती है।
लघु बाँध :
इस प्रकार के बाँध ढालू क्षेत्र में नालों के जल को रोक कर जल संचयन हेतु निर्मित किये जाते हैं। जिनका प्रत्यक्ष लाभ सिंचाई व्यवस्था को सुचारू बनाने में किया जाता है। ये आकार में काफी बड़े होते हैं। नालों के अपवाह में दो रिज बिंदुओं को मिलाकर अर्थात चैक करके इन बाँधों का निर्माण किया जाता है। इनके सहारे पानी रुक जाता है। एक निर्धारित ऊँचाई के ऊपर फालतू पानी निकालने हेतु, कच्चा अथवा जैसी स्थिति हो, इमरजेंसी स्पिलवे निर्मित किया जाता है। इसमें पक्की संरचनायें तथा कुलावा सिस्टम/पपिंग प्लेटफार्म भी बनाना चाहिए, ताकि सिंचाई के लिये पानी निकालने में कोई कठिनाई न हो।
केंद्रीय भूमि एवं जल संरक्षण शोध एवं प्रशिक्षण बासद गुजरात द्वारा ढालू क्षेत्रों के लिये बाँधों का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया गया है -
1. अति लघु बाँध :
गहराई 3 मीटर से कम, तली की चौड़ाई 18 मीटर से कम तथा भिन्न-भिन्न बाजू ढाल।
2. लघु बाँध :
गहराई 3 मीटर से कम, तली की चौड़ाई 18 मीटर से अधिक तथा भिन्न-भिन्न बाजू ढाल
3. मध्यम बाँध :
गहराई 3 मीटर से 9 मीटर, तली की चौड़ाई 18 मीटर से अधिक तथा बाजू ढाल 8-15 प्रतिशत।
4. गहरा एवं सकरा बाँध :
गहराई 3 मीटर से 9 मीटर, तली की चौड़ाई 18 मीटर से अधिक तथा भिन्न-भिन्न बाजू ढाल।
लघु बाँधों का निर्माण एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ :
1. बाँध का स्थल चयन नाले में ऐसे स्थान पर किया जाय जहाँ जल डूब क्षेत्र अधिक एवं समान गहराई का हो, नाले की चौड़ाई कम हो तथा आस-पास सिंचाई हेतु क्षेत्र उपलब्ध हो।
2. बाँध में आने वाले जल अपवाह तथा उसके दर की गणना की जाये। जल अपवाह की गणना विगत 25 वर्षों में एक दिन की अधिकतम वर्षा, जल समेट क्षेत्र का जल अपवाह प्रतिशत तथा मृदा प्रकार, ढाल, वनस्पति, आच्छादन आदि को दृष्टिगत रखते हुये रन आॅफ प्लाटों द्वारा प्राप्त परिणामों के आधार पर किया जाय।
जल अपवाह दर का आकलन राशनल विधि से किया जाय :
क्यू = सी आई ए/360
जहाँ क्यू = अधिकतम जल अपवाह की दर, क्यूमेक
सी = जल अपवाह गुणांक
आई = वर्षा की सघनता, मिमी प्रति घंटा, जिसकी अवधि जल समेट के टाइम आॅफ कंसट्रेशन से कम न हो।
ए = जल समेट का क्षेत्रफल हेक्टेयर में।
राशनल विधि से जल अपवाह की गणना नोमोग्राफ से भी की जा सकती है। जल अपवाह दर का उपयोग बाँधों में पक्के जल निकास की डिजाइन में किया जाता है।
3. बड़े बाँध जिनमें पानी की गहराई अधिक हो, तथा अधिक पानी को रोकने के लिये डिजाइन किया गया हो, के आधार की गणना जल रिसाव लाइन के आधार पर की जाय। बाँध के स्थायित्व के लिये यह आवश्यक है कि जल रिसाव (फ्रीयाटिक या सीपेज लाइन) बाँध के 2/3 भाग में ही समाप्त हो जाय। निर्धारित विशिष्टियों के अनुसार यदि ऐसा नहीं होता है तो बाँध के डाउनस्ट्रीम स्लोप पर वर्म देकर आधार की चौड़ाई को बढ़ाया जा सकता है। सामान्यत: जल रिसाव रेखा का ढाल बलुही मिट्टी में 6:1, दोमट मिट्टी में 5:1 तथा मटियार मिट्टी में 4:1 माना गया है।
4. जल रिसाव रेखा के प्रभाव को कम करने के लिये कोरवाल का भी निर्माण किया जाता है। कोरवाल 1:1 का साइड स्लोप देते हुए पानी की ऊँचाई के स्तर तक चिकनी तथा घास विहीन मिट्टी से बनाया जाना चाहिए। भराव के समय उसे उचित नमी के साथ ठोस बनाना चाहिये।
5. बाँध एवं भूमिगत अभेद्य तक (इम्परमिएविल सब स्वायल) के बीच पानी के रिसाव को रोकने के लिये कोर ट्रेंच का निर्माण किया जाना आवश्यक है। सामान्यत: कोर ट्रेंच का निर्माण बाँध के मध्य पूरी लंबाई में न्यूनतम गहराई एक मीटर, तली की चौड़ाई न्यूनतम 1.25 मीटर तथा साइड स्लोप 1:1 रखते हुए किया जाय।
6. जल संचय बाँध से अतिरिक्त पानी को सुविधापूर्वक निकालने हेतु पक्की संरचनाओं का निर्माण कराया जाय। यदि ड्राप इनलेट स्पिलवे निर्मित करना है तो बाँध में अस्थाई अथवा बाढ़ भंडारण हेतु ऊँचाई में अवश्य प्रावधान किया जाय जो फ्री बोर्ड के नीचे तक हो, ताकि स्पिलवे कुछ समय बाद तक पानी को सुरक्षापूर्वक निकालकर बाँध की वास्तविक ऊँचाई तक क्रस्ट लेविल पर स्थित हो जाये।
ड्राप इनलेट स्पिलवे की डिजाइन में कुछ जल अपवाह अधिकतम जल अपवाह दर, अस्थाई भंडारण आदि को ध्यान में रखते हुए पाइप की क्षमता ज्ञात की जाय तथा विशिष्टियाँ ज्ञात की जाय।
7. प्रत्येक बाँध में फ्री बोर्ड के ऊपर पानी न भरना सुनिश्चित करने हेतु इमरजेंसी स्पिलवे बनाई जाये। उचित होगा इसे प्राकृतिक रूप में रखा जाय। यदि संभव न हो तो नाली बनाई जाय जिसकी गहराई चौड़ाई से आधी रखी जाय तथा यह सुनिश्चित किया जाय कि इसके बहाव की गति 1.0 से 1.50 मी. प्रति सेकेंड से अधिक न हो। नाली की गहराई अधिकतम 0.3 से 0.6 मीटर ही रखी जाय। इसे मैनिंग फार्मूले के आधार पर डिजाइन किया जाय तथा इसमें घास रोपड़ भी किया जाय।
8. बाँध में संचित जलराशि को सिंचाई के लिये उपयोग करने हेतु कुलावा सिस्टम अथवा पम्पिंग प्लेटफार्म बनाये जाय।
9. सिंचित क्षेत्र में प्रक्षेत्र विकास का कार्य किया जाय।
10. बाँध से लाभान्वित/सिंचित क्षेत्रफल को ज्ञात करने हेतु गेहूँ के लिये पलेवा तथा प्रथम सिंचाई को आधार मानते हुये 1500 घन मीटर प्रति हेक्टेयर पानी की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाय। इससे यदि बाँध की कुल भंडारित मात्रा में भाग दिया जाय तो सिंचित क्षेत्रफल ज्ञात होगा। चूँकि नालियों में पानी की हानियाँ भी होती हैं, जिसके कारण लगभग 20 प्रतिशत हानि को ध्यान में रखा जाय।
इस प्रकार स्पष्ट है कि लघु बाँधों के माध्यम से जल समेट क्षेत्र के जल को संचयन कर सिंचाई हेतु उपयोग किया जा सकता है।
लघु बाँधों का विकास एवं अवस्थिति :
अध्ययन क्षेत्र को हम सामान्यत: दो भागों बाँट सकते हैं, यमुना नदी के उत्तर वाला समतल एवं उपजाऊ मैदान एवं यमुना नदी के दक्षिण वाला बीहड़ एवं असमतल भाग। उत्तरी भाग समतल एवं उपजाऊ होने से नहरों का जाल फैला हुआ है। नलकूप सिंचाई का विकास नहर सिंचाई की पूरक व्यवस्था के रूप में किया जा रहा है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में लघु बाँध सिंचाई के लिये भौगोलिक दशायें उपलब्ध होने पर भी लोग इस तकनीक के प्रति उदासीन रहे हैं और लघु बाँधो का विकास नहीं हो सका है। अध्ययन क्षेत्र के दक्षिणी भाग में जनपद की दो बड़ी नदियाँ (चंबल एवं यमुना) प्रवाहित होती हैं, जिससे अधिकांश भू-भाग बीहड़ में परिवर्तित हो गया है, संपूर्ण क्षेत्र में लघु बाँधों के निर्माण की भौगोलिक परिस्थितियाँ उपलब्ध है। सैकड़ों की संख्या में बाँधों का निर्माण किया जा सकता है। यह क्षेत्र सदैव से ही सरकारी उपेक्षा का शिकार रहा है, फलत: इस क्षेत्र में भी लघु बाँधों का निर्माण नहीं हो सका है। बीहड़ क्षेत्र में जो बंधियां बनाई गयी है, वो आकार में बहुत छोटी होती है, जिनका उद्देश्य मुख्यत: अपरदन समस्या पर नियंत्रण एवं वर्षा जल का अत्यधिक मात्रा में पुनर्भरण कराना है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में लघु बाँधों के लिये भौगोलिक परिस्थितियाँ उपलब्ध है, जिनका उपयोग नहीं किया जा सका है। लघु बाँधों के विकास से सिंचाई व्यवस्था का अधिक विकास किया जा सकता है।
लघु बाँध सिंचाई का कृषि विकास में योगदान :
अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई हेतु लघु बाँधों का अभाव है। यहाँ जिन छोटे बाँधों का निर्माण हुआ है, उनका मूलत: उद्देश्य अपरदन की समस्या पर रोक लगाना एवं भूमिगत जल का पुनर्भरण है। उत्तरी भाग में सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विकास हुआ है, फलत: इस तकनीक के प्रति लोग उदासीन हैं, जबकि दक्षिणी भाग में सिंचाई सुविधाओं का अभाव तथा लघु बाँधों के निर्माण के लिये भौगोलिक परिस्थितियाँ उपलब्ध होने के बाद भी लघु बाँधों का निर्माण नहीं हो सका है इसका प्रमुख कारण यह क्षेत्र सदैव से ही सरकारी उपेक्षा का शिकार रहा है।
बजाहद अली उस्मानी के एक प्रोजेक्ट, ग्रामीण क्षेत्रों हेतु जल संचयन एवं कृत्रिम भूगर्भ जल रिचार्ज योजना 2004 के अनुसार जनपद में सात बड़े नाले एवं 4 छोटी नदियाँ (सेंगर, अहनैया, पुरहा, सिरसा) जिनसे होकर जल का एक बड़ा भाग बिना उपयोग किये बड़ी नदियों के माध्यम से सागर में चला जाता है, यदि इन नालों एवं नदियों पर लघु बाँधों का निर्माण किया जाये एवं उस संचित जल का सिंचाई के रूप में उपयोग किया जाय, तो भूमिगत जल स्तर में सुधार के साथ सिंचाई के क्षेत्र में आश्चर्यजनक वृद्धि की जा सकती है।
लघु बाँध सिंचाई की समस्याएँ :
1. लघु बाँधों का संबंध वर्षा जल से होता है जिस वर्ष सूखा जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, बाँधों में पानी नहीं रहता। ऐसी स्थिति में इन बाँधों का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
2. इन बाँधों में वर्षा ऋतु में पर्याप्त मात्रा में जल मिलता है, लेकिन मार्च अप्रैल के महीने में पानी का अभाव हो जाता है, फलतः नहर एवं नलकूप सिंचाई की तरह वर्ष भर इनका उपयोग नहीं किया जा सकता।
3. अपवाह जल के साथ कृषि एवं अकृषि क्षेत्रों से सिल्ट बहकर आती है तथा बाँधों की तली में एकत्रित होती रहती है, जिससे धीरे-धीरे बाँधों की संचयन क्षमता कम हो जाती है।
4. अधिकांश बाँधों का नर्माण कच्ची मिट्टी अथवा कंकड़ पत्थर द्वारा किया जाता हैं जो कभी-कभी टूट जाते हैं, जिससे प्रवाह मार्ग में आने वाली फसलें नष्ट हो जाती हैं।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में लघु बाँधों के विकास की संभावनायें विद्यमान है, जिसका उपयोग कर सिंचाई क्षमता का विकास किया जा सकता है।
इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 |
Path Alias
/articles/itaavaa-janapada-kaa-laghau-baandha-saincaai-lower-dam-irrigation-etawah-district
Post By: Hindi
Topic
Sub Categories
Regions