लघु सिंचाई परियोजनायें :
जनपद इटावा में वृहद सिंचाई योजनाओं की अपेक्षा यदि लघु सिंचाई योजनाओं का विकास किया जाये, तो इससे इस जनपद के कृषकों का अधिक हित होगा। लघु सिंचाई योजनाओं के स्थापन से पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या भी उत्पन्न नहीं होगी।
नहर के निर्माण में अधिक भूमि का प्रयोग होता है। अधिक समय तथा अधिक लागत आती है, जबकि कुओं के निर्माण में अल्प भूमि के प्रयोग के साथ कम समय तथा कम लागत आती है। नहर सिंचाई में भूमि की उर्वरता का क्रमिक ह्रास होता है तथा कुओं की सिंचाई से भूमि की उर्वरता में वृद्धि होती है, क्योंकि कुओं के पानी में, सोडा, नाइट्रेट फ्लोराइड्स तथा सल्फेट के तत्व होते हैं। नहर की सिंचाई से क्षारीयता एवं जलाक्रांत की संभावना रहती है। कुओं से अल्प जलापूर्ति के कारण न क्षारीयता की संभावना है, न जलाक्रांत की। कुओं की सिंचाई प्राविधि सरल, सहज तथा सस्ती है। नहर पर शासन का स्वामित्व होने के कारण, सिंचाई के लिये शासकीय कर्मचारियों का मुखापेक्षी होना पड़ता है। आवश्यकता पड़ने पर, नहर का पानी समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाता। कुओं पर कृषकों का स्वामित्व रहता है। अत: वे आवश्यकतानुसार कुओं के पानी का उपयोग कभी भी कर सकते हैं।
जनपद के दक्षिणी भाग में दो प्रमुख नदियाँ यमुना एवं चंबल अवस्थित हैं, जिन्होंने लगभग अधिकांश क्षेत्र को खड्ड भूमि (बीहड़) में परिवर्तित कर दिया है। अत: इस भाग में नहर सिंचाई हेतु उपयुक्त धरातल उपलब्ध नहीं है। अर्थात नहर सिंचाई की संभावनायें न के समान हैं, ऐसी स्थिति में लघु सिंचाई संसाधनों का विकास आवश्यक है।
जनपद इटावा में इस समय निम्नलिखित लघु सिंचाई परियोजनायें प्रभावी ढंग से कार्य कर रही हैं।
(क) नलकूप सिंचाई परियोजना :
जनपद इटावा में सिंचाई साधनों की समुचित व्यवस्था हेतु नहर सिंचाई की पूरक व्यवस्था के रूप में नलकूपों का निर्माण कराया जा रहा है। जनपद इटावा में नलकूपों की संख्या 36972 है, जिसमें बढ़पुरा एवं चकरनगर विकासखंडों में क्रमश: 1735 एवं 441 नलकूप अवस्थित हैं। अर्थात कह सकते हैं कि जो नलकूप उपलब्ध हैं सिंचाई हेतु पर्याप्त नहीं है। दूसरी तरफ इन विकासखंडों में (चकरनगर, बढ़पुरा, महेवा, जसवंतनगर) का अधिकांश भाग असमतल (बीहड़) है, फसल सूख जाती है। अत: यहाँ की कृषि मुख्यत: नलकूप सिंचाई पर निर्भर है। जिस वर्ष वर्षा ठीक से नहीं होती, फसल सूख जाती है। अत: इस स्थिति के निदान के लिये नलकूपों का निर्माण आवश्यक हो जाता है।
जनपद इटावा में सरकार द्वारा किसानों को लघु सिंचाई के साधनों के विकास हेतु अनेक सुविधायें प्रदान की जा रही हैं। जिनका लाभ उठाकर अधिक से अधिक नलकूपों का निर्माण करके सिंचाई की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
उथली बोरिंग :
1. यह योजना लघु/सीमांत कृषकों के लिये है। जिनमें 30 मी. तक की बोरिंग की जाती है।
2. इस योजना में लाभार्थी का चयन ग्राम सभा की खुली बैठक में पात्रता के आधार पर किया जाता है।
3. सामान्य श्रेणी के लघु कृषकों के लिये बोरिंग में 3000/- रुपये तक एवं सीमान्त किसानों के लिये 4000/- रुपये तक का अनुदान देय है तथा अनुसूचित जाति जनजाति के कृषकों को 6000/- रुपये तक अनुदान देय है।
4. पूर्ण बोरिंग पर सामान्य श्रेणी के लघु कृषकों को पम्पसेट स्थापन हेतु 2800/- रुपये सीमांत कृषकों को 3750/- रुपये तथा अनुसूचित जाति, जनजाति के कृषकों को 5650/- रुपये अनुदान दिया जाता है।
गहरी बोरिंग :
1. यह योजना सभी जाति/श्रेणी के कृषकों के लिये है। जिनमें 60 मीटर से अधिक गहरी बोरिंग की जाती है।
2. बोरिंग से पूर्व सर्वेक्षण हेतु 1500 रुपये जमा कराया जाता है।
3. जगह उपयुक्त पाये जाने पर बोरिंग व्यय की आधी धनराशि विभाग में जमा करानी होगी। पूर्ण नलकूप व्यय का 50 प्रतिशत अथवा 1 लाख रुपये अनुदान देय है।
मध्यम गहरी बोरिंग :
1. यह योजना सभी जाति एवं श्रेणी के कृषकों के लिये है जिनमें 31 मीटर से 60 मीटर तक गहरी बोरिंग की जाती है।
2. बोरिंग में पूर्ण सर्वेक्षण हेतु 1500 रुपये जमा करना होगा।
3. सर्वेक्षण में उपयुक्त पाये जाने पर बोरिंग की आधी धनराशि कृषक को विभाग में जमा करनी होगी।
4. पूर्ण नलकूप पर कुल लागत का 50 प्रतिशत अधिकतम 75 हजार रुपये जो भी कम है अनुदान दिया जायेगा।
इस प्रकार शासन द्वारा कृषकों को सिंचाई के साधन विकसित करने हेतु अनेक सुविधायें उपलब्ध कराई जा रही हैं फिर भी कृषकों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। नलकूपों द्वारा सिंचाई करने में सबसे बड़ी बाधा नियमित विद्युतापूर्ति की है। इस बाधा से मुक्ति हेतु डीजल इंजनों की वैकल्पिक व्यवस्था की जाये। वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में डायनमो तकनीकी का प्रयोग किया जाना चाहिए। नलकूपों के समीप संग्रहण टैंकों का निर्माण किया जाये। विद्युताभाव के समय इन टैंकों से सिंचाई की जाये।
शासकीय नलकूपों की अपेक्षा निजी नलकूपों का अधिक निर्माण किया जाये। नलकूपों के संचालन एवं साज-संभाल का प्रारंभिक प्रशिक्षण कृषकों को दिया जाये। जिससे वह टेक्नीशियन का मुखापेक्षी न रहे।
उत्स्रुत कूप परियोजना :
उत्स्रुत कूप अधिकांशत: परतदार (Synclinal) और (Monoclinal) संरचना में पाये जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में अनेक उत्स्रुत कूप हैं। इन कूपों से लघु पैमाने पर सिंचाई की जा सकती हैं। अध्ययन क्षेत्र के चकरनगर एवं महेवा विकासखंडों के ग्राम गौहानी एवं दिलीपनगर आदि में इस प्रकार की शैल संरचना पाई जाती है जहाँ दबाव के कारण भूमिगत जल स्वत: ऊपर निकलने लगता है। अध्ययन क्षेत्र में ऐसे नलकूपों की संख्या लगभग 2 दर्जन से भी अधिक है। इनमें धीमी गति से जल निकलता रहता है। अत: इन कूपों के निर्माण से अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई सुविधा को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है।
तालाब सिंचाई परियोजना :
जनपद इटावा में दोमट एवं चिकनी दोमट मिट्टीयुक्त क्षेत्र अधिक होने से तालाब निर्माण के लिये उपयुक्त है। वर्षाऋतु में जल बहकर नदियों में चला जाता है। अत: वर्षा के अमूल्य जल का सदउपयोग नही हो पाता है। इस क्षेत्र में वर्षा का पानी संग्रहीत करने के लिये आसानी से तालाबों का निर्माण किया जा सकता है। जनपद में इस समय 147 तालाब हैं। इन तालाबों की तली में अवसादीकरण के कारण जल कम संग्रहीत हो पाता है। इसके लिये सरकार ने पुराने अवसादों से भरे तालाबों का जीर्णोद्धार किया है। इसके लिये संपूर्ण जनपद में 50 तालाबों को चुना गया था।
इन तालाबों को खोदने का मुख्य उद्देश्य भूजल स्तर में सुधार एवं सिंचाई हेतु जल उपलब्ध कराना रहा है।
पूर्व योजना में जनपद में 420 ग्राम पंचायतें हैं जिनमें 362 तालाबों की कार्ययोजना बना ली गयी है, 143 तालाब उत्तर प्रदेश शासन से प्राप्त बजट के आधार पर तथा 219 तालाब ग्रामीणयोजना से खुदवाये जायेंगे।
इन तालाबों के जीर्णोद्धार से जलाभाव होने पर जलापूर्ति की जाये। नवीन तालाबों का निर्माण किया जाये। सब्जियों की खेती के लिये तालाब सिंचाई योजना उपयुक्त है।
चंबल डाल परियोजना :
आगरा जनपद की वाह तहसील व इटावा जनपद की इटावा तहसील, जो चंबल एवं यमुना नदियों के दोआब में स्थित है, को सिंचाई सुविधा प्रदान करने हेतु आगरा जनपद की वाह तहसील के पिनहट ग्राम के पास चंबल नदी से जल उठाकर पंप नहर द्वारा आगरा व इटावा जनपदों को सिंचाई सुविधा प्रदान की जा रही है। इस परियोजना के अंतर्गत पानी दो चरणों में उठाकर मुख्य नहर में डाला गया है। प्रथम चरण में 26.4 मी. तथा द्वितीय चरण में 31.1 मी. पानी ऊपर उठाकर नहरों को उपलब्ध कराया जाता है। चंबल नदी का जल प्रथम चरण में पंप हाउस से 1.25 किमी लंबी लिंक कैनाल में तथा द्वितीय चरण में द्वितीय पंप हाउस से जो इस लिंक चैनल के छोर पर होगा। उससे पानी उठाकर मुख्य नहर में डाला गया है। इन दोनों पंप हाउस में 150 क्यूसेक के 4-4 पंप स्थापित किये गये हैं। जिसमें एक स्टैंडबाई रखा गया है।
कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम :
भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि ही यहाँ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। ऐसा माना जाता है कि हमारे देश का कृषि कार्य पूर्ण रूप से मानसून पर निर्भर करता है। इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि देश का बहुत बड़ा भू-भाग गंभीर सूखे एवं बाढ़ से प्रभावित होता है, परिणामत: फसल की बर्बादी और भूमि-क्षरण के साथ-साथ प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में पशु धन की हानि होती है। सूखे से फसलें एवं पेड़-पौधे सूख जाते हैं। ऐसी स्थिति में सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
भारतीय कृषि सतत विकास के क्रम में है। लेकिन सिंचाई की अत्याधुनिक तकनीकी के अभाव में जल का पूर्ण रूप से उपयोग नहीं हो पाता। अधिकांश जल रिसकर, वाष्पन द्वारा एवं अन्य प्रकार से नष्ट हो जाता है। इस समस्या के समाधान के लिये एक कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया। जिसे कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम नाम दिया गया है।
तीन वार्षिक योजनाओं (1966-67) के अंतर्गत इस प्रकार का कार्यक्रम पहली बार बनाया गया। इस विकास योजना का प्रमुख उद्देश्य था कि उपलब्ध जल का कृषि कार्यों में समुचित उपयोग करना।
उद्देश्य (Objectives) :
1. पानी का रिसना व अधिक सिंचाई द्वारा पानी के नष्ट होने को कम करना।
2. पानी, भूमि तथा भूमि तल के अनुसार ऐसा फसल कार्यक्रम बनाना जिससे अधिक से अधिक उपज प्राप्त हो।
कार्यक्रम (Programme) :
1. उपयुक्त सिंचाई विधि अपनाना।
2. भूमि प्रबंध पर विशेष ध्यान देना, ताकि भूमि की दशा सुधरे, भूमि कटाव न हो।
3. खेतों में सिंचाई के लिये नाली बनवाना।
4. अच्छे जल निकास पर ध्यान देना।
5. उपयुक्त फसल चक्र क्षेत्र में प्रचलित करना।
6. पानी को नष्ट होने से बचाने के लिये रात्रि सिंचाई को बढ़ावा देना।
7. खेतों को समतल कराना।
8. चकबंदी तथा खेतों की मेंड़बंदी कराना।
9. नहरों के साथ ट्यूबवेल लगवाना।
10. क्षेत्र में बाजार वर्कशाप तथा सड़कें उपलब्ध कराना।
चकरनगर एवं बढ़पुरा विकासखंडों को छोड़कर अध्ययन क्षेत्र का अधिकांश भाग मैदानी है। अत: नौवें दशक में इस कार्यक्रम को तीव्रगति से चलाया गया। इसके लिये मेड़बंदी कराई गयी ताकि भूमि कटाव कम हो। खेतों में पानी ले जाने के लिये पक्की नालियों का निर्माण कराया गया। उपयुक्त फसल चक्र अपनाया गया, जिससे खेतों की उर्वराशक्ति पर कोई प्रभाव न पड़े। पानी को नष्ट होने के लिये रात्रि सिंचाई को बढ़ावा दिया गया। असमतल खेतों का समतलीकरण किया गया। खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में फैले हुए थे। अधिकांश क्षेत्र में चकबंदी एवं मेड़बंदी कराई गयी। जहाँ नहरों का विकास संभव नहीं हो सका वहाँ ट्यूबवेलों का विकास कराया गया। बाजार एवं सड़कों को क्षेत्र में उपलब्ध कराया गया।
किसी भी योजना की सफलता के लिये निगरानी, सावधानी एवं संतुलन की आवश्यकता होती है। लेकिन भारत में अधिकांश योजनायें इस प्रकार से क्रियान्वित की जाती है कि योजना की समाप्ति के बाद उसकी देखरेख एवं योजना के अंतर्गत किए गये निर्माणों का समुचित रख-रखाव व आवश्यकतानुसार मरम्मत आदि की व्यवस्था नहीं की जाती है। फलत: कुछ समय के बाद निर्माण कार्य नष्ट होने की दशा में पहुँच जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में भी देखरेख के अभाव में खेतों की मेड़बंदी टूट गयी, पक्की नालियाँ टूट-फूट गयीं अथवा लोगों ने तोड़कर ईंटों को अपने कार्य में लगा लिया। बड़े खेत टूट कर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गये। पानी के तेज बहाव के कारण बीहड़ क्षेत्र निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। जनपद इटावा में यह कार्यक्रम 1990 से पहले चलाया गया था। अत: इसके प्रमाणित आंकड़े मिल पाना संभव नहीं हैं।
जल विभाजक प्रबंधन (Water Shed Management)
भूमि और वनस्पति का प्रबंधन विभिन्न इकाइयों द्वारा किया जा सकता है। यथा - विकासखंड अथवा वनखंड के रूप में। लेकिन जल का प्रबंधन करने के लिये मूल इकाई उत्पादन इकाइयों के एक साथ समुचित प्रबंधन के लिये जल विभाजक की परिकल्पना की गयी।
जल विभाजक (Water Shed)
जल सदैव ऊँचे बिंदुओं से नीचे बिंदुओं की ओर बहता है अर्थात जब किसी क्षेत्र में वर्षा होती है तो वर्षा का जल धीरे-धीरे बहकर ढाल की दिशा में नीचे की ओर चल पड़ता है। प्रारंभ में जल महीन नलिकाओं से होता हुआ कुछ बड़ी नालियों में जाता है। नालियों से नालों में और फिर नालों से नदियों में बहने लगता है। इस प्रकार एक क्षेत्र पर हुई वर्षा का जल अन्य क्षेत्रों के वर्षा जल के साथ मिलता हुआ एक मुख्य और बड़ी धारा का रूप धारण कर लेता है। जो अंत में समुद्र में पहुँच जाती है। छोटी-छोटी धाराओं के संयोग से बड़ी धाराओं का निर्माण होता है यह बड़ी धारा ‘‘नदी’’ के नाम से विभूषित होकर प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य खजाने को समुद्र तक पहुँचा देती है। संपूर्ण क्षेत्र का वह भाग अथवा क्षेत्र इकाई जो जल की एक धारा नाला नदी को उत्पन्न करने में सहयोग देती है। इसे जलागम, जल ग्रहण क्षेत्र, जल समेट प्रबंधन, जलविभाजक प्रबंधन आदि नामों से जाना जाता है। यह जल व भूमि का वह क्षेत्र है जिसका समस्त अपवहन जल एक ही बिंदु से होकर गुजरता है। इस प्रकार समस्त जल विभाजक क्षेत्र में प्राप्त होने वाले वर्षा जल का नियंत्रण संभव हो पाता है। जो एक छोटे नाले के कुछ हेक्टेयर क्षेत्र के जल विभाजक से लेकर नदियों का सैकड़ों हजारों वर्ग किमी क्षेत्र का जल समेट हो सकता है। लेकिन सफल प्रबंधन की दृष्टि से साधारणत: जल समेट का क्षेत्रफल उतना होना चाहिए जितने क्षेत्रफल के विभिन्न भागों में मृदा, वनस्पति, जलवायु, भू प्रयोग, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में लगभग समानता हो तथा उस जल समेट के संपूर्ण कार्यों को एक निश्चित अवधि (3-5 वर्ष) में पूरा किया जा सके। इस दृष्टि से 500 हेक्टेयर के जल समेट उपयुक्त समझे जाते हैं।
जल विभाजक प्रबंधन की आवश्यकता एवं महत्त्व :
जल विभाजक प्रबंध एक बहुआयामी कार्यक्रम है। जिसके अंतर्गत मृदा, जल, वनस्पति, मनुष्य व जानवरों का संवर्धन एवं विकास, मृदा अपरदन एवं गाद की रोकथाम, बाढ़ व सूखा नियंत्रण, भूमि व भूमिगत जल में सुधार, घास, चारा, र्इंधन एवं फसलों की पैदावार में नियमित आधार पर वृद्धि, पर्यावरण व पारिस्थितिकी सुधार आदि कार्य आते हैं। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर आधारित कुटीर उद्योगों और धंधों के विकास से स्थानीय जनता की आर्थिक दशा में सुधार करना भी इसका उद्देश्य है। इन सभी कार्यों में स्थानीय निवासियों का सक्रिय सहयोग भी वांछनीय है।
जल विभाजक प्रबंधक कार्यक्रम के निम्नलिखित एक या अधिक उद्देश्य हो सकते हैं।
1. जलागम में त्वरित अत्यधिक भू-क्षरण से रोकथाम।
2. विश्वसनीय स्वच्छ जल की आपूर्ति।
3. बाढ़ एवं सूखे पर नियंत्रण।
4. फसल, चारा, र्इंधन, फलों आदि की लगातार आपूर्ति।
5. विशेष समस्याओं जैसे भू-स्खलन, खनिज क्षेत्र, नदी-नाला, कटाव आदि का नियंत्रण।
संसाधन सर्वेक्षण :
समन्वित जल विभाजक प्रबंधन के लिये योजना का प्रारूप तैयार करना जरूरी है। जिसके लिये जल विभाजन की अवस्थाओं संसाधनों के विकास की संभावनायें व स्थानीय जनता की आवश्यकताओं आदि के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की जरूरत पड़ती है। योजना का प्रारूप निम्नलिखित सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार किया जाता है।
जल विभाजक विवरण :
स्थिति (Location)
जलागम का नाम, भौगोलिक स्थिति, (अक्षांश एवं देशांतर) आवागमन के साधन आदि।
क्षेत्रफल व आकृति (Area and Shape) :
क्षेत्रफल (हेक्टेयर अथवा वर्ग किलोमीटर), आकृति (लंबा व संकरा चौड़ा पंखनुमा), लंबाई व चौड़ाई का अनुुपात।
आकृति कारक (Shape Factors)
आकृति कारक (एफ एस) मुख्य नाले की लंबाई के वर्ग ओर जल विभाजक के क्षेत्रफल का अनुपात।
Fs = L
यहाँ L मुख्य नाले की लंबाई तथा A जल विभाजक का क्षेत्रफल है।
ढाल :-
औसत ढाल, जल समेट के विभिन्न भागों की ढाल की लंबाई आदि। स्थालाकृति नक्शे की मदद से जल समेट के औसत ढाल के प्रतिशत को निम्नलिखित सूत्र की सहायता से ज्ञात किया जा सकता है।
S = MN/A × 100
जहाँ एम जल विभाजक के नक्शे में समोच्च रेखाओं की कुल लंबाई।
N = कंटूर अंतकर
A = जल विभाजक का क्षेत्रफल।
जल निकास :
मुख्य व सहायक जल निकास नालों की विस्तृत सूचना, प्रवाह का प्रकार (मौसमी लगातार) जल समेट के जल निकास की जानकारी जल निकास घनत्व से भी जानी जा सकती है। जो निम्न प्रकार दी गयी है।
जल निकास का घनत्व = सभी नालों की लंबाई/ जल समेट का क्षेत्रफल2
यह प्रति मील अथवा प्रति किलोमीटर में दर्शाई जाती है। अधिक जल निकास वाले जल समेट में अपवाह जल्द ही बाहर निकल जायेगा।
जल विभाजक नियोजन :
उपर्युक्त सूचनाओं को एकत्र करने के पश्चात जल विभाजक की प्रस्तावित भूमि प्रयोग योजना तैयार की जाती है। जिसमें उपयुक्त भू एवं जल संरक्षण उपायों व विधियों का समावेश होता है। जल विभाजक प्रबंध योजना ऐसी होनी चाहिए, जो तकनीकी दृष्टि से कारगर हो, आर्थिक रूप से लाभप्रद सामाजिक दृष्टि से उपयोगी व पर्यावरण की दृष्टि से भी अनुकूल हो।
जल विभाजक योजना चरण :
मोटे रूप में किसी जल विभाजक के विकास व प्रबंध में भू एवं जल संरक्षण के निम्नलिखित चरण हो सकते हैं।
1. जल संसाधन विकास-संवर्धन :
वर्षा जल को सर्वप्रथम मृदा प्रोफाइल में ही अधिकाधिक मात्रा में अवशोषित होने का अवसर प्रदान किया जाता है। भूमिगत जल में वृद्धि के लिये परकोलेशन तालाब बनाये जाते हैं। जल संसाधन विकास वास्तव में अन्य जल विभाजक विकास कार्यक्रम के लिये उत्प्रेरक का कार्य करता है।
मेड़बंदी, बेदकाएँ, भूमि समतलीकरण, घास दार जलमार्ग (Gressy Water Ways), अवरोधक, बंध, नाला-बंदी, समोच्च खत्तियों का प्रयोग अपरदन नियंत्रण तथा अन्य विशेष समस्याओं जैसे भू-स्खलन, खंडहर सुधार व अतिरिक्त जल की नियंत्रित निकासी आदि के लिये किया जाता है। साथ ही इससे नमी का संरक्षण होने से पैदावार वृद्धि में मदद मिलती है।
3. जल प्रबंध व जल निकास :
जहाँ कहीं आवश्यकता हो वहाँ भूमि समतलीकरण, जल वितरण व्यवस्था का नियोजन, नालियों को पक्का करना, उचित जल निकास की व्यवस्था करना, आवश्यक होता है। जिससे कम पानी में ही ज्यादा क्षेत्र की सिंचाई की जा सके। पानी का समान वितरण हो तथा आवश्यकता से अधिक जल को नियोजित ढंग से बाहर निकाला जा सके।
4. फसल सुधार कार्यक्रम :
इसका उद्देश्य मृदा अपरदन को निर्धारित सीमा के अंदर रखते हुए फसल की पैदावार में वृद्धि करना है। इसके लिये विभिन्न उपाय काम में लाये जाते हैं। जैसे समोच्च खेती, मिश्रित फसलें, जुताई में कमी आदि।
5. वानिकी :
इसके अंतर्गत पंचायत व सरकारी भूमि में वन विकास, उपचारित व बंजर भूमि में वनीकरण सामाजिक व कृषि वानिकी, बागवानी, कृषि बागवानी, चारागाह विकास आदि कार्यक्रम आते हैं।
6. पशुधन, मुर्गी पालन एवं मत्स्य पालन :
उन्नत नस्ल के अधिक दूध देने वाले पशुओं को उपलब्ध कराना व उनके लिये चारा उगाने की व्यवस्था/तालाबों में मछली पालन व मुर्गी पालन आदि कार्यक्रम हैं। इसके अलावा रेशम के कीड़े पालन आदि के विकास की संभावनाओं पर भी ध्यान देना।
7. जल विभाजक योजना में संपूर्ण लागत व उसका वर्गीकरण तथा लाभ :
लागत अनुपात को सम्मिलित किया जाना चाहिए साथ ही उन दूरगामी लाभों का भी उल्लेख होना चाहिए जिनसे अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त हो रहे हों।
समीक्षा एवं मूल्यांकन :
जल विभाजक प्रबंध कार्यक्रम के कार्यान्वयन के पश्चात लगातार उसका मूल्यांकन करना भी जरूरी है। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कार्यक्रमों ने अपने उद्देश्यों को पूर्ण किया है अथवा वह इसमें किस हद तक सक्षम रहे हैं। जल समेत विकास के बाद उसकी देख-रेख के लिये कृषि या भू-संरक्षण भागों को उत्तरदायी होना चाहिए। ग्रामीण समितियों को भी इस कार्य में सहयोग देना चाहिए।
निरीक्षण एवं प्रशिक्षण :
विभिन्न उपायों की कार्यशीलता वानस्पतिक आवरण में परिवर्तन तथा उपयोग की अनिवार्यता आदि के लिये बीच-बीच में तथा बार-बार निरीक्षण कार्य जरूरी है। वन एवं घास स्थलों का सुनियोजित तरीकों से उपयोग एवं इसमें होने वाली हानियाँ तुरंत देखी जा सकती हैं और उनका निराकरण भी किया जा सकता है। कुशल जल विभाजक प्रबंध ही मृदा संरक्षण, सर्वोत्तम वन एवं चारागाह प्रबंध का आधार है।
जल विभाजक के उचित प्रबंध के लिये प्रशिक्षित तकनीशियन आवश्यक है, क्योंकि इसमें किसी कार्य का केवल ज्ञान ही आवश्यक नहीं है बल्कि विशिष्ट जल समेट की समस्त योजना का प्रारूप तैयार करके उसे प्रयोग में लाने का व्यवहारिक ज्ञान भी अपेक्षित है। अत: जल विभाजक प्रबंध को व्यवहारिक स्वरूप देने के लिये जल विभाजक संबंधी विभिन्न विषयों में प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता है।
जल विभाजक प्रबंधन अध्ययन क्षेत्र के संदर्भ में :
देश में विभिन्न नदी घाटी परियोजनाओं, सूखा ग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रमों व जलागम कार्यक्रमों आदि के अंतर्गत कई छोटे बड़े जल विभाजक प्रबंधन कार्यक्रम शुरू किये गये हैं। केंद्रीय भूमि जल-संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान देहरादून ने देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्र व विशिष्ट समस्याओं के निदान के लिये सफल जल विभाजक प्रबंध कार्यक्रम क्रियान्वित किये हैं। अध्ययन क्षेत्र के दक्षिणी भाग (यमुना एवं चंबल बेसिन) में बीहड़ का अधिक विस्तार होने के कारण यहाँ भूमि अपरदन की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। फलत: इस भाग में अनेक समस्याओं ने गंभीर रूप ले रखा है। भूमि अपरदन की समस्या सबसे बड़ी समस्या है। प्रतिवर्ष सैकड़ों टन मिट्टी वर्षा जल के साथ बह जाती है और कृषि योग्य भूमि तीव्र गति से बीहड़ क्षेत्र में परिवर्तित हो रही है। बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने से वर्षा जल तेजी से बहकर नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुँच जाता है। फलत: जल का पुनर्भरण बहुत कम हो पाता है। परिणामत: क्षेत्र के जलस्तर में निरंतर कमी हो रही है। जल के अभाव में वनस्पति जगत को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। इस स्थिति के निराकरण हेतु जल विभाजक तकनीकी आवश्यक है। जिसके द्वारा एक साथ सभी समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है।
अध्ययन क्षेत्र का दक्षिणी भाग पूर्व से ही अनदेखी का शिकार रहा है। सरकार द्वारा केवल कभी-कभी छोटी बंधियों का निर्माण कराया जाता रहा है। जिनके बनाने की तकनीक इस प्रकार की होती थी कि वर्षा ऋतु के आगमन के तुरंत बाद लगभग अधिकांश बंधियां टूट जाती रही हैं। परिणामत: समस्या में किसी प्रकार का सुधार नहीं हो सका है। शोधार्थी ने संपूर्ण जनपद का सर्वे किया और बताया कि अध्ययन क्षेत्र में 100 से अधिक जल विभाजकों के निर्माण की तात्कालिक आवश्यकता है। इसमें एक जल विभाजक के प्रारूप का संक्षिप्त विवरण दिया रहा है -
जनपद के दक्षिणी भाग का विकासखंड चकरनगर जो कि अत्यधिक मृदा अपरदन की समस्या व भूमिगत जल स्तर में गिरावट से जूझ रहा है। वहाँ की इन समस्याओं के निराकरण हेतु जल विभाजक प्रबंधन आवश्यक है।
विकासखंड चकरनगर के ग्राम पालीधार में एक जल समेट को शोधार्थी द्वारा एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
संभावनायें :
1. भूमिगत जल स्तर में वृद्धि होगी।
2. सिंचित क्षेत्र में वृद्धि होगी।
3. मृदा अपरदन की गति लगभग शून्य हो जायेगी।
4. पशुधन का विकास होगा।
कूप एवं नलकूप प्रबंधन :
अध्ययन क्षेत्र में प्राचीन काल से ही कूप सिंचाई का उपयोग होता रहा है। प्रारंभ में सतही जल के रूप में नदियों एवं तालाबों तथा भूमिगत जल के रूप में कुओं का उपयोग हुआ करता था। लेकिन मानव सभ्यता के सतत विकास के साथ नलकूप सिंचाई का शुभारंभ हुआ।
जनपद इटावा में कुओं की कुल संख्या 4315 है। जिनके द्वारा जनपद के 51 हे. क्षेत्रफल को सिंचन सुविधा प्राप्त है। 1993-95 में कुओं की संख्या 4315 थी। 2003-05 में उतनी ही बनी हुई है। जबकि इस अवधि में कूप सिंचित क्षेत्र 768 हे. से घटकर मात्र 51 हे. रह गया। इससे स्पष्ट होता है कि अध्ययन क्षेत्र में कूप सिंचाई का चलन धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। क्योंकि कूप सिंचाई एक थकानयुक्त सिंचाई का साधन है। इसमें कड़ी मेहनत के बाद थोड़े से क्षेत्र को सिंचाई सुविधा प्रदान की जा सकती है। आधुनिक समय में नयी वैज्ञानिक तकनीकी के विकास से अर्थात नहर एवं नलकूप सिंचाई के विकास ने लोगों को कूप सिंचाई के प्रति उदासीन बना दिया है। अत: जो कूप हैं उनका उपयोग पेयजल के लिये अथवा सब्जियों आदि की सिंचाई के लिये किया जा रहा है। सरकार नये कुएँ खुदवाने के प्रति उदासीन है तथा जो कुएँ खराब पड़े हैं, उनका उपयोग सरकार द्वारा ‘‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’’ अर्थात भूमिगत जल के पुनर्भरण हेतु किया जा रहा है।
अध्ययन क्षेत्र में नलकूप, सिंचाई का सबसे उपयोगी साधन है। जनपद में सबसे अधिक सिंचाई नलकूपों द्वारा की जाती है। यह अधिक उपयोगी है, परंतु नलकूप सिंचित क्षेत्र की अनेक समस्यायें भी हैं। इन समस्याओं के निराकरण के लिये प्रभावी कदम उठाकर इसे और अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है।
* जनपद इटावा में नलकूपों की संख्या 36972 है। जिसमें चकरनगर में 341, बढ़पुरा विकासखंड में 1735 एवं महेवा विकासखंड में 5663 नलकूप हैं। जनपद के उत्तरी भाग में समतल भूमि होने से नहर सिंचाई का पर्याप्त विकास हुआ है। अत: इस क्षेत्र में नलकूपों को नहरों की पूरक व्यवस्था के रूप में रखा गया है, लेकिन जनपद के दक्षिणी भाग में चकरनगर विकासखंड एक ऐसा विकासखंड है जहाँ सिंचाई का एक मात्र साधन नलकूप हैं। इसके अतिरिक्त बढ़पुरा, महेवा विकासखंडों का भी अधिकांश भाग बीहड़ी होने से वहाँ नलकूप सिंचाई के अलावा अन्य सिंचाई साधनों का विकास नहीं हो सका है। अत: सरकार को चाहिए कि नलकूप स्थापन हेतु सरकारी सहायता के रूप में दक्षिणी क्षेत्र के विकासखंडों को प्राथमिकता दे।
* अध्ययन क्षेत्र में सरकार द्वारा किसानों को लघु सिंचाई के माध्यम से अनेक सुविधायें प्रदान की जा रहीं है। जिनका लाभ उठाकर किसानों द्वारा अधिक से अधिक नलकूपों का निर्माण कर इस समस्या से निजात पाया जा सकता है-
उथली बोरिंग :
1. यह योजना लघु/सीमांत कृषकों के लिये है। जिनमें 30 मी. तक की बोरिंग की जाती है।
2. इस योजना में लाभार्थी का चयन ग्राम सभा की खुली बैठक में पात्रता के आधार पर किया जाता है।
3. सामान्य श्रेणी के लघु कृषकों के लिये बोरिंग में 3000 रुपये तक एवं सीमांत किसानों के लिये 4000 रुपये तक का अनुदान देय है। अनुसूचित जाति, जनजाति के कृषकों को मुक्त 6000 रुपये तक अनुदान देय है।
गहरी बोरिंग :
1. यह योजना सभी जाति/श्रेणी के कृषकों के लिये है। जिनमें 60 मी. से अधिक गहरी बोरिंग की जाती है।
2. बोरिंग में पूर्ण सर्वेक्षण हेतु 1500 रुपये जमा करना होगा।
3. सर्वेक्षण में उपयुक्त पाये जाने पर बोरिंग की आधी धनराशि कृषक को विभाग में जमा करनी होगी।
4. पूर्ण नलकूप पर कुल लागत का 50 प्रतिशत अधिकतम 75 हजार रुपये जो भी कम है अनुदान दिया जायेगा।
इस प्रकार नलकूप स्थापन हेतु शासन द्वारा कृषकों को अनेक सुविधायें प्रदान की जा रही हैं, लेकिन जनपद का अधिकांश कृषक अनपढ़ एवं अशिक्षित है। उन्हें इन योजनाओं की जानकारी भी नहीं हो पाती फलत: वह इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। अत: सरकार को चाहिए कि वह प्रत्येक कृषक को इन योजनाओं के बारे में जानकारी प्रदान कराये। कूप एवं नलकूप क्षेत्र अभी भी अनेक समस्याओं से ग्रस्ति हैं जिनका उचित प्रबंधन कर आशातीत सफलता प्राप्त की जा सकती है।
* नलकूपों द्वारा अत्यधिक मात्रा में जल का दोहन किया जाता है। फलत: अनेक ‘डार्क जोन’ बन जाते हैं। अध्ययन क्षेत्र में उत्तर पश्चिमी भाग में इस तरह की परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं। ग्रीष्म काल में जब जल स्तर 10-10 फीट तक नीचे चला जाता है, तब किसानों को एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में कृषकों को चाहिए कि वे जल संचयन की नवीन तकनीकों का उपयोग करें, जिससे जल स्तर का संतुलन बना रह सके।
* सरकार द्वारा राजकीय एवं विश्वबैंक योजना के द्वारा जनपद में नलकूपों का बड़े पैमाने पर निर्माण किया गया है। सरकारी नलकूपों पर किसी का स्वामित्व नहीं होता है। फलत: अधिकांश खराब पड़े हैं। जनपद में ई.ई.सी. (2005) नलकूपों की संख्या 346 थी। जिनमें 267 सिंचाई रत, 20 नलकूप सुधारात्मक स्थिति में, 53 नलकूप असफल श्रेणी में, तथा 04 नलकूप प्रस्तावित हैं। निष्कर्षत: इन नलकूपों को संचालित करने के लिये कुशल एवं जिम्मेदार पर्यवेक्षक होना आवश्यक है।
* सभी सरकारी नलकूप विद्युत चालित हैं। विद्युत के अभाव में इन्हें चलाना संभव नहीं होता। अध्ययन क्षेत्र में पर्याप्त विद्युत व्यवस्था नहीं है। प्रतिवर्ष लगभग अच्छी फसल होने पर जब सिंचाई की अधिक आवश्यकता होती है। उस समय चोरों द्वारा विद्युत तार काट लिये जाने से किसानों को समय से पानी नहीं मिल पाता एवं फसल सूख जाती है।
* नलकूपों के सार्वजनिक होने के कारण पानी के बँटवारे को लेकर समय-समय पर विवाद होता रहता है। परिणामत: कई-कई दिनों तक नलकूप बंद पड़े देखे जा सकते हैं। अत: नलकूपों का स्वामित्व एक कुशल सरकारी व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए।
* अधिकांश किसानों के पास पाइपलाइन का अभाव है। जिससे उसे नाली खोदकर दूर-दूर खेतों में पानी ले जाना पड़ता है। परिणामत: काफी हद तक पानी नालियों द्वारा ही सोख लिया जाता है। अत: समय एवं पानी दोनों की बर्बादी होती है। सरकार द्वारा पाइप लाइन आदि के लिये निम्न ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कूप, नलकूप सिंचित क्षेत्र की अनेक समस्यायें हैं। जिनका उचित प्रबंधन कर अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है।
मेड़बंदी :
अध्ययन क्षेत्र की कृषि वर्षा पर आधारित है। इसलिये इस तकनीकी से यह परिकल्पना की गयी कि वर्षा से प्राप्त जल को संरक्षित किया जाय और संरक्षित जल का सुरक्षित जलवाहक साधनों के माध्यम से उपयोग किया जाये।
मेड़बंदी जल प्रबंधन की एक अतिउत्तम तकनीक है, जिसके अंतर्गत खेत की सीमा को मिट्टी के द्वारा ऊँचा किया जाता है। समतल खेतों में इसका क्रास सेक्शन बहुत कम होता है, किंतु असमतल खेतों में इसका आकार जल को रोकने की दृष्टि से बड़ा बनाया जाता है। इस मेड़बंदी में घेरवाड़ का भी कार्य किया जाता है तथा सीमा पर कटीली झाड़ियाँ भी लगा दी जाती है। भूमि संरक्षण परियोजना के अंतर्गत शुष्क कृषि कार्यक्रम चलाने हेतु मेड़बंदी अति आवश्यक है, क्योंकि इसमें नमी संरक्षण की सुविधा होती है। मेड़बंदी का कार्य किसान अपनी सुविधानुसार कराते हैं, किंतु सामान्य स्थिति 0.438 वर्ग मीटर क्रास सेक्शन की मेड़बंदी कराना अति उपयोगी होता है।
मेड़बंदी की आवश्यकता :
अध्ययन क्षेत्र का उत्तरी भाग जहाँ समतल मैदानी भाग है, इस क्षेत्र की प्रमुख समस्या भूमिगत जल स्तर गिरने की है। यहाँ मेड़बंदी का प्रमुख उद्देश्य अधिक से अधिक जल का पुनर्भरण कराना है, जबकि दक्षिणी भाग में अधिक ढालू भूमि होने से वर्षा का जल बिना किसी अवरोध के ढाल का अनुसरण करता हुआ नाले के माध्यम से नदियों में चला जाता है, फलत: जल स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है। इसके अलावा ढालू भूमि पर तीव्र गति से बहते जल से भूमि कटाव की समस्या उत्पन्न हो गयी है। अध्ययन क्षेत्र का अधिकांश दक्षिणी भाग पर बीहड़ का विस्तार हो गया है। अध्ययन क्षेत्र में मेड़बंदी का प्रमुख उद्देश्य जल का पुनर्भरण अर्थात गिरते जल स्तर को रोकना तथा मृदा अपरदन की गति पर प्रभावी रोक लगाना है।
अध्ययन क्षेत्र में भूमि संरक्षण कार्यक्रम नौवें दशक से बड़ी तेजी से चलाया जा रहा है। इसके अंतर्गत चयनित विकासखंडों में क्षेत्रों का चयन करके उसके लिये छोटे-छोटे प्रोजेक्ट बनाये जाते हैं (एक प्रोजेक्ट = 500 हेक्टेयर) अध्ययन क्षेत्र में पाँच वर्ष के आंकड़ों का प्रयोग किया गया। वर्ष 2001 से 2005 के मध्य जनपद में 19500 हेक्टेयर क्षेत्र पर मेड़बंदी का कार्य किया जा चुका था। इस अवधि में सर्वाधिक कार्य चकरनगर, बढ़पुरा एवं महेवा विकासखंडों में हुआ।
मेड़बंदी का कार्य किसी भी क्षेत्र में एक बार किया जाता है, तत्पश्चात इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। अधिकांश क्षेत्र में जल निकास की व्यवस्था नहीं होती परिणामत: ऊपरी भाग में यदि एक की मेड़ टूटती है तो उसके नीचे वाले समस्त खेतों की मेड़ें टूट जाती हैं, अर्थात स्थिति जस की तस हो जाती है। परिणामत: जिस लाभ के उद्देश्य से इसका क्रियान्वयन किया जाता है उसका उतना लाभ नहीं मिलता है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अध्ययन क्षेत्र में मेड़बंदी का कार्यक्रम अति आवश्यक एवं अत्यधिक लाभकारी है। यदि इसकी कुछ त्रुटियों का निस्तारण कर दिया जाय, तो गिरते जल स्तर एवं अपरदन की समस्या का पूर्णत: निदान संभव है।
वर्षा जल संचयन (Rain Water Harvesting) :
शुद्ध जल एक सीमित एवं बहुमूल्य संसाधन है। आधुनिक विकासशील दुनियाँ के बहुत सारे क्षेत्रों में पीने के पानी की जटिल समस्या है। 21वीं सदी में जल का अभाव एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा होने से जल संसाधन अन्तरराज्यीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कलह का केंद्र बिंदु होगा। जल मानव, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों आदि सभी के जीवन के लिये एक आवश्यक तत्व है। जल की आपूर्ति का विकास एवं प्रबंधन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे जलीय संतुलन बना रहे और पर्यावरण के जैविक कार्य संरक्षित रहें।
हमारे देश में जल की उपलब्धता क्षेत्रीय वर्षा एवं भौगोलिक परिस्थितियों आदि पर निर्भर है। भारत में वर्षा पूरे वर्ष में मानसून के तीन महीनों के दौरान होती है जिसका समय एवं स्थान अनिश्चित है। देश की बढ़ती जनसंख्या और शहरीकरण के बढ़ते क्षेत्र का दुष्प्रभाव जल की उपलब्धता एवं गुणवत्ता पर परिलक्षित हो रहा है।
जलस्रोतों का विकास उसकी प्राकृतिक क्षमता के अनुसार उसकी पुन: संपूर्ति के साथ उसे सतत जीवित रखने के दृष्टिकोण से होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि आविष्कारी प्रौद्योगिकियों के अनुप्रयोग और स्वदेशी उपायों के विकास में जल संसाधनों को प्रदूषण से बचाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिये जलस्रोतों के प्रबंधन को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। आशोन्मुख स्थिति यह है कि अब निम्न लागत में जल संसाधन के प्रभावी विकल्प के रूप में वर्षा जल संचयन के प्रति लोगों की अभिरुचि बढ़ रही है।
आवश्यकता इस बात की है कि जल के अधिकतम संचयन की दृष्टि से वह सतही अपवाह के रूप में कम से कम नष्ट हो।
वर्षा जल संचयन का अर्थ :
वर्षा का जल सतही अपवाह के रूप में नष्ट होने से पहले सतही उपसतही जलभृत में एकत्रित व संचित किये जाने की तकनीकी को वर्षा जल संचयन कहते हैं।
वर्ष जल संचयन का उपयोग :
हमारी मांग की पूर्ति के लिये अपर्याप्त सतही जल की कमी को पूरा करने, भूमिगत जल के गिरते स्तर को रोकने, स्थान विशेष एवं समय पर भूमि जल की उपलब्धता बढ़ाने, सूखे के खतरे एवं प्रभाव को कम करने, मृदा अपरदन कम करने एवं बाढ़ के खतरे को कम करने हेतु वर्षा जल संचयन बहुत उपयोगी है।
वर्षा जल संचयन संबंधी ढाँचे की अभिकल्पना में निम्नलिखित कारकों पर विचार किया जाता है।
1. जल की आवश्यकता।
2. जल की उपलब्धता।
3. वर्षा की मात्रा।
4. भू उपयोग अथवा वनस्पति आवरण।
5. स्थलाकृति और भू भागीय पृष्ठभूमि।
6. मिट्टी के प्रकार एवं गहराई।
7. जल विज्ञान और जल संसाधन।
8. सामाजिक, आर्थिक, बुनियादी ढाँचे की स्थितियाँ।
9. पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी प्रभाव।
वर्षा जल संचयन मुख्यत: तीन प्रकार से किया जा सकता है।
(क) छत से प्राप्त वर्षा जल का संचयन।
(ख) सतही वर्ष जल संचयन।
(ग) भू-जल का कृत्रिम पुनर्भरण।
(क) छत से प्राप्त वर्षा जल का संचयन :
शहरी क्षेत्रों में इमारतों की छतों एवं पक्के क्षेत्रों से प्राप्त वर्षा का जल जो बेकार चला जाता है उसका उपयोग जल भृतों को पुनर्भरित करने में किया जा सकता है। वर्षा जल संचयन की प्रणाली को इस तरह से अभिकल्पित करने की आवश्यकता है जिससे वह संचयन करने के साथ पुनर्भरण प्रणाली के लिये अधिक स्थान न घेरे। छतों से प्राप्त वर्षा जल के भंडारण तथा संचयन करने की कुछ तकनीकों का विवरण निम्नलिखित है।
1. पुनर्भरण पिट द्वारा छत से प्राप्त वर्षा जल का संचयन :
यह तकनीकी लगभग 100 वर्ग मीटर क्षेत्रफल वाली छत के लिये उपयुक्त होती है। इसका निर्माण जलोढ़ क्षेत्र के छिछले जल भृतों को पुनर्भरित करने के लिये होता है। पुनर्भरण पिट किसी भी शक्ल या आकार का हो सकता है। यह सामान्यत: एक से दो मीटर चौड़ा दो से तीन मीटर गहरा एवं दो से तीन मीटर लंबा बनाया जाता है। इसमें फिल्टर के लिये शिलाखंड व बोल्डर (4 से 20 सेंटीमीटर), बजरी (5 से 10 मिली मीटर) व माटी रेत (1.5 से 2 मिली मीटर) क्रमवार नीचे से ऊपर की ओर भरा जाता है। कम क्षेत्रफल वाली छत के लिये ईंटों के टुकड़ों व कंकड़ का उपयोग भी किया जा सकता है। छत से जल निकासी के स्थान पर जाली लगाई जाती है ताकि पत्ते व अन्य ठोस पदार्थ को पिट में जाने से रोका जा सके। जमीन पर एक गाद-निस्तारण कक्ष बनाया जाता है। जो महीन कण वाले पदार्थों को पुनर्भरण पिट की तरफ जाने से रोक सके।
पुनर्भरण पिट के ऊपरी परत यानि ऊपरी रेत को समय-समय पर साफ किया जाता है, ताकि पुनर्भरण गति बनी रह सके। गाद निस्तारण कक्ष से पहले वर्षा जल को बाहर जाने के लिये एक उपमार्ग की व्यवस्था की जाती है। जिससे प्रथम वर्षा उपरांत गंदा जल पिट में न जा सके इसे चित्र क्रमांक 10.2 में दर्शाया गया है। अध्ययन क्षेत्र में इस विधि का प्रयोग अभी तक नहीं किया जा सका है।
2. पुनर्भरण खाई (ट्रैन्च) द्वारा छत से प्राप्त वर्षा जल का संचयन :पुनर्भरण खाई 200 से 300 वर्ग मीटर वाली छत के भवन के लिये उपयुक्त है। जहाँ जमीन के नीचे का भेद्यस्तर छिछली गहराई में उपलब्ध हो वहाँ पुनर्भरण खाई जल की उपलब्धता के अनुसार 0.5 से 1 मीटर चौड़ी 1 से 1.5 मीटर गहरी तथा 10 से 20 मीटर तक लंबी हो सकती है। यह खाई शिलाखंड, बजरी एवं मोटी रेत से क्रमानुसार नीचे से ऊपर की ओर भरा जाता है। जिसे चित्र क्रमांक-2 में दर्शाया गया है। अपवाह के साथ वाली गाद मोटी रेत पर जमा हो जाती है जिसे समय-समय पर खरोच कर निकाल दिया जाता है। छत से जल निकलने वाले पाइप के अगले हिस्से में जाली लगाई जाती है। ताकि पत्तों या अन्य ठोस पदार्थों को खाई में जाने से रोका जा सके। छत से निकलने वाले जल को एक गाद निस्तारण कक्ष या संग्रहण कक्ष से गुजारा जाता है। ताकि सूक्ष्म पदार्थों को खाई में जाने से रोका जा सके। पहली वर्षा के गंदे उपवहित जल को संग्रहण कक्ष में जाने से रोकने के लिये पहले एक उपमार्ग की व्यवस्था की जाती है।
अध्ययन क्षेत्र में अभी तक (Roof Top Rain Water Harvesting) तकनीक का शुभारंभ नहीं हो सका है, लेकिन ‘‘ई. बजाहत अली उस्मानी’’ के एक प्रोजेक्ट के अनुसार जनपद इटावा में 139737 पक्के मकानों को 50 प्रतिशत अनुदान की सुविधा देकर मकान मालिकों द्वारा स्वयं ‘रूफ टॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ से आच्छादित करने का प्रस्ताव रखा गया है। 1310 ग्रामीण स्कूल, 105 अस्पताल, 188 आंगनवाड़ी केंद्रों, 189 पंचायत घरों पर सरकारी संस्थाओं द्वारा ‘रूफ टॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ से आच्छादित करने का प्रस्ताव है, जनपद के 13974 कच्चे आवासों को इस चरण में आच्छादित किया जायेगा। अत: इस प्रोजेक्ट को अमली जामा पहनाने में कामयाबी मिल सकी तो, पुनर्भरण की गति को तीव्र किया जा सकता है।
(ख) सतही वर्षा जल संचयन :
ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन वाटर शेड को एक इकाई के रूप में लेकर करते हैं। आमतौर पर वर्षा जल को संचालित करने के लिये सतही फैलाव की तकनीकी अपनाई जाती है क्योंकि ऐसी प्रणाली के लिये जगह प्रचुरता में उपलब्ध होती है के साथ पुनर्भरित जल की मात्रा भी अधिक होती है। ढलानों नदियो-नालों के माध्यम से व्यर्थ जा रहे जल को बचाने के लिये विभिन्न तकनीकों को अपनाया जा सकता है। जिसका विवरण नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है।
1. गली प्लग :
गली प्लग का निर्माण स्थानीय पत्थर चिकनी मिट्टी व झाड़ियों का उपयोग कर वर्षा ऋतु में पहाड़ों के ढलान से छोटे कैचमेंट में बहते हुए नालों एवं जल धाराओं के आर-पार किया जाता है। यह मिट्टी और नमी के संरक्षण में मदद करता है।
2. टंका :
यह राजस्थान व गुजरात के इलाकों में वर्षा जल के संग्रह के लिये बनाये जाते हैं। यह जमीन के अंदर गोलाकार आकृति का टैंक होता है, जिसकी दीवारें चिकनी मिट्टी से पुती होती हैं। और जिसमें छोटे कैचमेंट से वर्षा जल एकत्रित किया जाता है। यह एकत्रित जल मुख्यत: पीने के लिये उपयोग किया जाता है।
3. परिरेखा कंटूर बाँध :
परिरेखा कंटूर बाँध समान ऊँचाई वाले परिरेखा के चारों-ओर ढलान वाली भूमि पर बनाये बाँध को कहते हैं। जिसमें मॉनसून के अपवाहित जल को रोका जा सके। यह वाटर शेड में लंबे समय तक मृदा नमी को संरक्षित रखने की एक बहुप्रभावी पद्धति है। यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। जहाँ वार्षिक वर्षा 800 मिमी से भी कम होती है। बाँध के बीच की दूरी इस प्रकार दी जाती है कि बहता हुआ जल कटाव वेग प्राप्त न कर सके। दो बंध के बीच की दूरी क्षेत्र के ढलान एवं मृदा की पारगम्यता पर निर्भर करती है। परिरेखा बाँध को चित्र रेखा क्रमांक-4 में दर्शाया गया है।
4. चेक डैम :
चेक डैम का निर्माण स्थाई एवं अस्थाई संरचना के रूप में किया जाता है। स्थाई संरचना के रूप में चेक डैम का निर्माण स्थानीय पत्थरों, ईंटों एवं सीमेंट से किया जाता है। अस्थाई चेक डैम बनाने के लिये लकड़ी खुले पत्थरों व सूखे पत्थरों की चिनाई की जाती है अथवा गेबियन संरचना एवं लोहे के तारों में पत्थरों को बाँधकर अस्थाई चेक डैम का निर्माण किया जाता है।
(क) स्थाई चेक डैम :
इस चेक डैम का निर्माण अति सामान्य ढाल वाली छोटी जलधाराओं व नालों पर किया जाता है। चेक डैम बनाने वाले चयनित स्थान पर पारगम्य स्तर की पर्याप्त मोटाई होनी चाहिए। चेक डैम की ऊँचाई सामान्यत: 2 मीटर से कम होती है। और इन संरचनाओं में संचित जल अधिकांशत: नालों के प्रभाव क्षेत्र में सीमित रहता है। निचले क्षेत्र की तरफ जलकुशन बनाये जाते हैं ताकि अत्यधिक जल के बहने से जमीन में गड्ढ़े न बन पायें। और मिट्टी के कटाव को रोका जा सके। जलधारा के अधिकांश अपवाह का उपयोग करने के लिये इस तरह के चेक डैमों की एक श्रृंखला का निर्माण किया जाता है ताकि संबंधित क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जल का पुनर्भरण हो सके। इस तरह के बाँधों का निर्माण जनपद के कुछ बीहड़ क्षेत्रों में किया गया है।
(ख) अस्थाई चेक डैम :
अस्थाई चैक डैम का निर्माण जलधाराओं के बहाव को संरक्षित रखने, जलधाराओं के त्रियक अनुभाग को कम करने, गाद के कुछ हिस्सों को रोकने एवं मृदा की नमी को बनाये रखने के लिये किया जाता है। जल धाराओं पर छोटे अस्थाई बाँधों का निर्माण स्थानीय रूप में उपलब्ध शिलाखंडों को लोहे के तारों की जालियों में बाँधकर तथा उसे जल धारा के किनारों पर स्थिरक एंकर कर दिया जाता है। इस तरह की संरचना को गेवियन संरचना कहते हैं, जिसकी ऊँचाई लगभग आधा मीटर होती है। और यह सामान्यत: 10 मीटर से कम चौड़े नालों पर बनायी जाती है। जलधारा की गाद शिलाखंडों के बीच जम जाने से उसमें वनस्पति उग आती है जो बाँध को अपारगम्य बना देती है। यह वर्षा के अपवहित सतही जल को अधिक समय तक रोक कर जल को भूमि में पुनर्भरित होने में मदद करता है। गेवियन संरचना को चित्र क्रमांक 5 में दर्शाया गया है।
नाले के आर-पार उथली खाई खोदकर दोनों ओर एस्बेस्टस सीट के बीच के स्थान को चिकनी मिट्टी से भरे सीमेंट बैगों को ढलवा क्रम में लगा दिया जाता है।
अस्थाई चेक डैम का निर्माण स्थानीय रूप से उपलब्ध खुले पत्थरों द्वारा भी किया जाता है। यह रख-रखाव के कम खर्च में लंबी अवधि तक बना रहता है। इस संरचना का निर्माण जलधाराओं के अपवाह वेग को कम करने के लिये किया जाता है। जो कैचमेंट के ऊपरी हिस्सों के लिये ज्यादा प्रभावी है। नाले के आधार को एक समान 0.3 मीटर गहराई तक खोदकर उसमें नीव स्तर से 20-30 सेमी आकार वाले शिलाखंडों के टुकड़ों को एक दूसरे से जोड़कर भर दिया जाता है। बड़े आकार के शिला खंडों को डैम के बीच रखा जाता है। और दो शिलाखंडों के बीच का स्थान छोटे शिलाखंडों से भर दिया जाता है। इस डैम की ऊँचाई लगभग 1.0 मीटर होती है। और डैम के बीच में एक उत्पलव स्पिलवे बना दिया जाता है जिससे अतिरिक्त अपवाह जल का प्रवाह कम हो सके। इसे चित्र क्रमांक 6 में दर्शाया गया है।
(5) भूमिगत जल बांध या उपसतही डाईक :
भूमिगत बाँध या उपसतही डाइक नदी के आर पार एक प्रकार का उपसतही अवरोधक होता है, जो आधार बहाव की गति को कम कर देता है। और जल को भूमि सतह के नीचे ऊपरी क्षेत्र में जमा करता है। जो जलमृत के सूखे भाग को संतृत्प करने में मदद करता है। इस डाइक के निर्माण के लिये स्थल का चयन उस स्थान पर किया जाता है जहाँ अपारगम्य स्तर छिछली गहराई में हों और संकरे निकास चौड़ी खाई में हों। नाले की पूर्ण चौड़ाई में 1-2 मीटर चौड़ी अभेद्य सतह तक एक खाई खोदी जाती है। खाई को चिकनी मिट्टी या ईट/ कंकरीट की दीवार से जल स्तर के 0.5 मीटर नीचे तक भर दिया जाता है। डाइक की सतहों को पूर्ण रूप से अप्रवेश्यता सुनिश्चित करने के लिये 3000 पी. एस. आई. की पीवीसी चादर जिसकी टियरिंग शक्ति 400 से 600 गेज हो अथवा कम घनत्व वाली 200 गेज की पॉलीथीन फिल्म का प्रयोग किया जाता है। चूँकि इसमें जल का संचयन जलभृत से होता है इसलिये जमीन का जलप्लावन रोका जा सकता है। जलाशय के ऊपर की जमीन को बाँध बनाने के पश्चात प्रयोग में लाया जा सकता है इससे जलाशय में वाष्पीकरण द्वारा नुकसान नहीं होता। अध्ययन क्षेत्र इस तरह की संभावनाओं से भरा हुआ है। लेकिन शासन द्वारा अभी तक इस दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया है।
(6) परिस्त्रण टैंक (परकोलेशन टैंक) :
परिस्त्रण टैंक कृत्रिम रूप से सृजित सतही जल संरचना है, जिसमें सतही अपवाह परिस्त्रवित होकर भूमि जल भंडार का पुनर्भरण करता है। यह टैंक अत्यंत पारगम्य भूमि पर बनाया जाता है जहाँ भूमि जलप्लावित रहती है। इसका उद्देश्य भूमि जल भंडार का पुनर्भरण करना है। इसका निर्माण यथासंभव अत्यधिक दरार वाली कच्ची चट्टानों जो सीध में नीचे बहने वाली जल धारा तक फैली हो, की जाती है। परिस्त्रवण टैंक का आकार टैंक तल के संस्तर की परिस्त्रवण क्षमता के अनुसार निर्धारित किया जाता है। सामान्यत: इसकी अभिकल्पना 0.1 से 0.5 मिलियन घन मीटर के भंडार के लिये होती है। जिसमें सामान्यत: 3 से 4.5 मीटर का टैंक में जमा जल का शीर्ष रहे। यह चारों ओर से मिट्टी के तटबंधों से घिरे रहते हैं जिनमें केवल उत्पलव मार्ग के लिये चिनाई की गयी संरचना होती है। जिससे अतिरिक्त जल निचले क्षेत्र में प्रवाहित होता है। इसे चित्र क्रमांक 7 में दर्शाया गया है।
7. नाला बंड
नाला (एक प्राकृतिक जलधारा) बंड एक कृत्रिम संरचना है जिसका निर्माण अपवाह के वेग को कम करने, भूमि जल का पुनर्भरण करने और मिट्टी की संतृप्तता को बढ़ाने के लिये नाले के आर पार किया जाता है। इसमें नाला बंड के ऊपरी क्षेत्र में जल का अस्थाई जमाव हो जाता है और अतिरिक्त जल उत्पलव मार्ग द्वारा निचले क्षेत्र में निकल जाता है। जल को ऊपरी क्षेत्र में जमा करने से जल भूमि के आंतरिक सतह तक परिस्त्रिवित करने लगता है और प्राकृतिक जल धारा के मार्ग संरक्षण या मार्ग में गाद कम जमा होने लगती है इसलिये इसका अभिकल्प ऐसा होता है ताकि जल क्षरण वेग प्राप्त करने से पहले ही नाले के निचले बंड के जल से मिल जाये। नाला बंड उपयुक्त अन्तराल पर जलधारा के मार्गों पर बनाया जाता है। इसे चित्र क्रमांक 8 में दर्शाया गया है। ई. बजाहत अली उस्मानी के एक प्रोजेक्ट के अनुसार जनपद में 8 बड़े नाले हैं। यदि इन नालों पर नियंत्रण किया जाये तो सिंचाई क्षेत्र एवं जल स्तर दोनों में वृद्धि संभव है।
(ग) भूजल का कृत्रिम पुनर्भरण :
भूजल का कृत्रिम पुनर्भरण वह प्रक्रिया है जिसमें भूमि जल से जलाशयों का भंडारण प्राकृतिक स्थिति में भंडारण का दर अधिक होता है। भूजल का कृत्रिम पुनर्भरण निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है।
1. कुओं द्वारा पुनर्भरण :
इस प्रक्रिया में खेतों से प्राप्त जल को चालू या बंद पड़े कुओं में सफाई या गाद निस्तारण कक्ष के पश्चात एक पाइप द्वारा डाला जाता है। जिससे जल जमीन के अंदर पुनर्भरित हो सके। जीवाणु संदूषण को नियंत्रित रखते के लिये समय-समय पर क्लोरीन भी डाली जाती है।
2. पुनर्भरण शाफ्ट :
यह अबाधित जलभृत जिसके ऊपर कम पारगम्य स्तर हो के पुनर्भरण के लिये सबसे उपयुक्त और सबसे कम लागत वाली तकनीक है। शाफ्ट का अंतिम सिरा ऊपरी अपारगम्य स्तर के नीचे अधिक पारगम्य स्तर में होता है। इसका व्यास सामान्यत: दो मीटर से अधिक होता है। यह जरूरी नहीं है कि इसका अंतिम सिरा जमीन के अंदर जलस्तर को छूता हो शाफ्ट को पहले बोल्डर फिर अंत में मोटी रेत से क्रमानुसार नीचे से ऊपर की ओर भरा जाता है। इस तरह की पुनर्भरण संरचनाएँ ग्रामीण टैंकों के लिये काफी उपयुक्त होती है। जहाँ छिछली चिकनी मिट्टी की परत जलमृत के रिसाव होने में बाधक होती है। तालाब में पुनर्भरण शाफ्ट का ऊपरी सिरा टैंक के तल स्तर से ऊपर एवं पूर्ण आपूर्ति स्तर के आधे तक रखा जाता है। जिसे बोल्डर बजरी एवं मोटी रेत द्वारा पुन: भर दिया जाता है। संरचना की मजबूती के लिये ऊपरी एक दो मीटर गहराई वाले भाग में ईंटों एवं सीमेंट मिश्रित मसाले से चिनाई की जाती है। इसे चित्र क्रमांक 10 में दर्शाया गया है।
जल संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में अभिनव प्रभाव :
जल ही जीवन है और जल का विकल्प मात्र जल है। बिना जल के पृथ्वी पर जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जल संसाधन के मामले में हमारा देश शुरू से ही संसार के संपन्न देशों में गिना जाता रहा है। हमारे यहाँ उपजाऊ भूमि और जल संसाधनों का पर्याप्त भंडार रहा है। इसी कारण प्रगैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक युग तक यह कृषि प्रधान देश माना जाता रहा है। आज विश्व की लगभग 16 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है। जबकि पानी मात्र 4 प्रतिशत ही है।
भारत में नदियों की पर्याप्तता और मानसून की भरपूर वर्षा के बाद भी ग्रामीणों को प्यास बुझाने के लिये पर्याप्त स्वच्छ जल और किसानों को सिंचाई के लिये भरपूर पानी उपलब्ध नहीं हो रहा है। वर्षा का कुछ जल ही तालाबों, बाँधों और पोखरों में रुक पाता है। शेष जल नदियों नालों से होता हुआ पुन: सागर में मिल जाता है। अधिकतर खेती मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है। पशुधन और आमजन के लिये सदियों से पानी तालाबों, कुओं व नदियों से ही मिलता रहा है। अब इनका चलन बंद होने व उनके सूखने के कारण जल संकट पैदा होता जा रहा है।
हमारे देश में भी जल संकट ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। जल संकट की भयावहता के प्रति सचेत करते हुए वाशिंगटन स्थित ‘वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट’ ने भी कहा है कि भारत में 2020 के बाद गंभीर जल संकट हो सकता है। बढ़ते जल संकट की झलक हमें तेजी से घटते हुए जल की औसत उपलब्धता से स्पष्ट हो जाती है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रतिव्यक्ति पानी की औसत उपलब्धता 1950 में 5000 क्यूबिक लीटर थी जो 2005 में घटकर 1869 क्यूबिक लीटर हो गयी है। जो वर्ष 2025 में प्रति व्यक्ति औसत 100 क्यूबिक लीटर रह जाने का अनुमान है। वास्तव में यह तथ्य खतरे के आगमन के संकेत हैं। जिसके समाधान के लिये तत्काल प्रभारी कदम उठाने की नितांत आवश्यकता है अन्यथा यह समस्या भीषण रूप धारण कर लेगी। जहाँ एक ओर हमारे देश में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता कम होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण, शहरीकरण, पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण व जल का विभिन्न कार्यों में दुरुपयोग इस बढ़ती मांग के लिये उत्तरदायी है। वन क्षेत्र की अंधाधुंध कटाई, भूमिगत जल का बेतहासा दोहन, परंपरागत जलस्रोतों की निरंतर उपेक्षा, समुचित जल प्रबंधन का अभाव आदि के साथ इस बढ़ती जल मांग से गंभीर जल संकट उत्पन्न होता जा रहा है। अन्तरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान के सर्वेक्षणों के अनुसार भारत में अगले 20 वर्षों में जल की मांग 50 प्रतिशत तक बढ़ जायेगी जिसकी पूर्ति करना गंभीर समस्या होगी।
अध्ययन क्षेत्र में जल संकट की समस्या विकराल रूप धारण करने लगा है और भविष्य में और अधिक विकराल रूप धारण करने की स्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए हमें इस समस्या का निराकरण करने हेतु अभी से सतत व प्रभावी प्रयास करने होंगे। मनुष्य सोना, चांदी व पेट्रोलियम के बिना जीवन जी सकता है, किंतु पानी के बिना जीवन असंभव है। इसलिये यह समय की मांग है कि जल का उपयोग विवेकपूर्ण संतुलित व नियमित ढंग से हो। इस सर्वव्यापी समस्या के निदान हेतु निम्न प्रयास किये जा सकते हैं।
* जल संरक्षण एवं बचत का संस्कार समाज के हर व्यक्ति को बचपन से ही दिया जाना चाहिए।
* अध्ययन क्षेत्र में नलकूपों का तेजी से विकास होने के कारण अत्यधिक अविवेकपूर्ण दोहन हो रहा है। भूमिगत जल के अविवेकपूर्ण, अनियंत्रित दोहन व नलकूपों के गहरीकरण पर प्रभावी रोक लगानी चाहिए। नये ट्यूबवेलों की खुदाई करने से पूर्व सरकार से अनुमति आवश्यक होने की प्रभावी व्यवस्था की जानी चाहिये।
* अध्ययन क्षेत्र में भूजल के संवर्धन एवं संरक्षण हेतु सुव्यवस्थित वर्षा जल संचयन प्रणाली विकसित की जाये। वर्षा जल के संग्रहण हेतु घर व स्कूलों में ही टांकी, कुंड व भूगर्भ टैंक आदि निर्मित करने की नीति क्रियान्वित की जाये। परंपरागत जलस्रोतों - कुएँ, बावड़ी, तालाब, जोहड़ आदि की तलहटी में जमी गाद को निकालने के कार्य को प्राथमिकता दी जाये व साथ ही इनके पुनरुद्धार की व्यवस्था प्राथमिकता के आधार पर की जाए ताकि मृतप्राय जलस्रोत पुनर्जीवित होकर वर्षा के जल को संग्रहीत व संरक्षित कर सकें।
* अध्ययन क्षेत्र में जल प्रबंधन, जल संरक्षण जल का समुचित वितरण व जल की बचत आदि कार्यक्रमों को जनजागरण व जनआंदोलन के रूप में चलाया जाए। गैर सरकारी संगठनों, स्कूलों, महाविद्यालयों आदि में भी विचारगोष्ठी, सेमीनार व रैलियों के माध्यम से जल संरक्षण चेतना जागृत करनी चाहिए। ताकि जल का अनुकूलतम उपयोग संभव हो सके। वनों की कटाई को रोकने के लिये हर संभव प्रयास किये जाने चाहिए व साथ ही ‘‘वृक्षारोपण कार्यक्रम’’ को अधिक प्रभावी बनाने हेतु कठोर कदम उठाने चाहिए।
* घरों में विद्युत मीटर की भाँति जल मीटर लगाया जाये, ताकि जल उपयोग मात्रा के अनुरूप ही शुल्क निर्धारित किये जा सके।
* सिंचाई की परंपरागत प्रणाली से हमारे खेतों तक पहुँचने वाले पानी का 25-45 प्रतिशत भाग व्यर्थ चला जाता है। नालियों के माध्यम से होने वाली सिंचाई में फसलों की क्यारियों तक पहुँचने से पूर्व ढेरों पानी नालियों द्वारा सोख लिया जाता है। रखरखाव के अभाव में नालियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं साथ ही चूहे तथा अन्य जीवों द्वारा सिंचाई की नालियों में छेद बना दिये जाते हैं। जिससे खेतों तक पहुँचने से पहले ही बड़ी मात्रा में पानी व्यर्थ चला जाता है। इस दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली से निजात के लिये आवश्यक है कि हम ऐसे साधनों का प्रयोग करें जिससे पानी सीधा फसलों की क्यारियों तक पहुँचे। इसके लिये हम आधुनिक सिंचाई साधनों के रूप में पाइप स्प्रिंकलर (फुहार) और ड्रिप सिंचाई प्रणालियों का विकास करें।
* हमें ऐसी नयी सिंचाई प्रणालियाँ खोजनी चाहिए, जिनसे कम से कम जल खर्च हो लेकिन फसलों को उनकी जरूरत के अनुसार पानी भी मिल सके। जिससे खेती में उत्पादन तो पूरा प्राप्त हो, लेकिन पानी कम से कम खर्च हो।
* जीनियागिरी के वर्तमान युग में अलग-अलग क्षमताओं के जीनों के मेल-मिलाप से विशेष क्षमताओं वाली फसलों को उगाया जाना संभव हो गया है। आज इस प्रविधि का प्रचलन जोरों पर है। प्रयोगशालाओं में जीनों के हेर फेर से बनी यह फसलें कई तरह के नये गुणों से युक्त होती है। समय के अनुसार आवश्यकता इस बात की है कि कृषि एवं जैव वैज्ञानिक अपने शोध के माध्यम से फसलों की ऐसी नयी प्रजातियों का विकास करें जो अपनी मूल फसल की तुलना में कम से कम पानी लेकर भरपुर उत्पादन देने में सक्षम हों।
* अध्ययन क्षेत्र में किसानों में फसल के अनुसार जलापूर्ति की जानकारी का सर्वथा अभाव है। अधिकांश किसानों में यह धारणा है कि अधिक पानी की आपूर्ति से अधिक उपज की प्राप्ति होगी। इसके विपरीत वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सिंचाई के रूप में फसलों को संतुलित जल की कुशलतापूर्वक आपूर्ति से ही फसलों से उच्चतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। फसलों में अंधाधुंध जल के प्रयोग से जल जैसी महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा की बर्बादी होती है। इसलिये अलग-अलग फसलों के अनुरूप जल की मांग को दृष्टिगत रखते हुये किसानों में मृदा और फसल के अनुसार सिंचाई पर जोर दिया जाये।
* भारत में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ जल प्रबंधन का महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित कर रहीं हैं। औरंगाबाद जिले में अन्ना हजारे, हिमालय क्षेत्र में श्री सुंदरलाल बहुगुणा व राजस्थान में श्री राजेन्द्र सिंह ने अपने अथक प्रयासों से यह सिद्ध कर दिया है कि जल संकट का निवारण जनसहयोग से आसानी से किया जा सकता है। मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में खेत का पानी खेत में रोकने की संरचना (डबरिया) का विकास करके खेती के लिये जल की व्यवस्था की गयी है। इस व्यवस्था का अनुसरण अध्ययन क्षेत्र में किया जाय तो जल संकट की समस्या का कुछ हद तक समाधान हो सकता है।
आज विश्व में तेल के लिये युद्ध हो रहा है, भविष्य में जल के लिये युद्ध न हो, इसके लिये हमें अभी से सजग, सतर्क व जागरुक रहते हुए जल संरक्षण व प्रबंधन की प्रभावी नीति बनाकर उसे क्रियान्वित करनी होगी। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवन-शैली व प्राथमिकताएँ इस प्रकार निर्धारित करनी होेंगी कि अमृत रूपी जल की एक भी बूँद व्यर्थ न हो।
सारांश एवं निष्कर्ष
जल एक सार्वजनिक संसाधन है, क्योंकि यह जीवन का पारिस्थितिकीय आधार है और इसकी उपलब्धता और सम्यक आवंटन सामुदायिक सहयोग पर आधारित है। हालाँकि समस्त मानव इतिहास की विभिन्न संस्कृतियों में जल प्रबंधन सार्वजनिक है और ज्यादातर समुदायों ने जल संसाधनों का प्रबंधन संयुक्त संपदा के रूप में किया है दुख तो इस बात का है कि हम पानी का उपयोग ही नहीं बल्कि दुरुपयोग सार्वजनिक संपदा की तरह कर रहे हैं, जबकि जल प्राणि मात्र के जीवन का आधार है। इस अमूल्य निधि का हम बिना सोचे समझे इस कदर दुरुपयोग कर रहे हैं कि सतत जल जनित समस्यायें उत्पन्न हो गयी हैं। जल के अतिशय दोहन से जल की मात्रा कम होती जा रही है, चाहे धरातलीय जल हो अथवा भूमिगत जल। विगत शताब्दी में जनसंख्या के विस्फोट एवं भौतिकवादी जीवनदर्शन के तहत जीवन स्तर में सतत वृद्धि की स्पर्धा के फलस्वरूप अन्य प्राकृतिक संसाधनों के सदृश्य ही जल संसाधन का अतिदोहन हुआ है। इसलिये अन्य संसाधनों की तरह जल संसाधन का विशेषकर शुद्ध जल का अभाव होता जा रहा है। इन विषयम स्थितियों के परिणामस्वरूप प्रत्येक क्षेत्र में जल संसाधन के संरक्षण एवं विवेकपूर्ण दोहन एवं उपयोग के साथ इसके विकास पर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। अत: क्षेत्रीय स्तर पर उपलब्ध जल संसाधन के समुचित उपयोग एवं विवेकपूर्ण दोहन के लिये मितव्ययी विकासपरक एवं वैज्ञानिक योजना की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। शोधार्थी ने अपने शोध ‘‘इटाव जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता उपयोगिता एवं प्रबंधन’’ में इस समसामयिक विषय पर उपयोगी एवं वैज्ञानिक विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
अध्ययन क्षेत्र गंगा-यमुना दोआब एवं पार क्षेत्र में स्थित कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाला जनपद है। यहाँ 5 तहसीलें, 8 विकासखंड, 4 नगरपालिकायें एवं 694 ग्राम हैं। संपूर्ण जनपद कांपीय जमाव द्वारा निर्मित एक समतल मैदानी भाग है। इस जलोढ़ जमाव की प्रक्रिया मायोसीन युग के अग्रगर्त में प्लीस्टोसीन युग के प्रारंभ में हुई और आज भी चल रही है। जलोढ़ जमाव की इन पर्तों की गहराई असाधारण रूप से अधिक है। धरातलीय बनावट के अनुसार जनपद का अधिकांश भाग मैदानी समतल भू-भाग है, जबकि कुछ भू-भाग पर नदियों के अपवाह अपरदन से बीहड़ निर्मित हो गये हैं। इस मैदान की समुद्र तल से औसत ऊँचाई लगभग 143 मीटर है। जनपद का अपवाह तंत्र मुख्य रूप से यमुना नदी द्वारा निर्धारित हुआ है। यमुना से दक्षिण का अपवाह तंत्र विशिष्ठ प्रकार का है, क्योंकि पंचनद क्षेत्र में, चंबल यमुना में क्वांरी सिंधु में, सिंधु यमुना में एवं पहुज सिंधु में मिलती है। यहाँ पर नदियाँ उत्तर-पश्चिम दिशा से दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर प्रवाहित होती हैं। अध्ययन क्षेत्र सम शीतोष्ण मानसूनी जलवायु वाले प्रदेश के अंतर्गत आता है। जहाँ वर्ष में शीत ऋतु, शुष्क ग्रीष्म ऋतु, आर्द्र ग्रीष्म, वर्षा एवं मॉनसून के प्रत्यावर्तन की ऋतुओं का स्पष्ट क्रम देखने को मिलता है। जनपद का औसत वार्षिक तापमान 25.40C है, जो जून माह में 45.90C एवं जनवरी माह का तापमान 5.40C होता है। जनपद की औसत वार्षिक वर्षा 702.6 मिमी है, जो मुख्य रूप से जून, जुलाई, अगस्त एवं सितंबर के महीनों में होती है।
जनपद की मिट्टियाँ जलोढ़ हैं। उच्च भागों में दोमट, बलुई दोमट एवं चीका मिट्टियों का आधिक्य है, जिन्हें बांगर की मिट्टियाँ कहते हैं। जबकि निम्न भागों में बालू एवं सिल्ट की प्रधानता पाई जाती है, जिन्हें खादर के नाम से जाना जाता है। यह मिट्टियाँ नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटास की उपस्थिति के कारण कृषि उत्पादन के लिये धनी हैं। यहाँ नदियों के किनारे मिट्टी के कटाव की गंभीर समस्या है। जनपद में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 14.67 प्रतिशत भाग वनों से घिरा है। क्षेत्र में बढ़ती हुई जनसंख्या के भार के परिणामस्वरूप प्राकृतिक वनस्पति को निर्दयतापूर्वक नष्ट करके उसे कृषि भूमि में परिवर्तित किया जा रहा है। जनपद में प्राकृतिक वनस्पति का विस्तार ऊबड़-खाबड़ भूमि तक सीमित रह गया है, शेष भागों में नीम, आम, शीशम, महुआ, बबूल इत्यादि के वृक्ष विरलता से देखने को मिलते हैं। अध्ययन क्षेत्र में सरकार द्वारा सामाजिक वानिकी के अंतर्गत वृक्षारोपण के प्रयास किये जा रहे हैं जिससे प्राकृतिक वनस्पति में वृद्धि की किंचित आशा की जा सकती है।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार जनपद की कुल जनसंख्या 13.39 लाख है तथा जनसंख्या का घनत्व भारत के जनसंख्या घनत्व 324 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी तथा उत्तर प्रदेश के जनसंख्या घनत्व 689 प्रतिवर्ग किमी की तुलना में यहाँ 381 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। जनपद इटावा में सन 1991-2001 के मध्य जनसंख्या वृद्धि की दर 19.6 प्रतिशत है। जनपद का लिंगानुपात 1000 पुरुषों पर 858 महिलायें हैं। यहाँ की 76.98 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है।
अध्ययन क्षेत्र का कुल प्रतिवेदित क्षेत्र 245380 हेक्टेयर है। यहाँ कुल प्रतिवेदित क्षेत्र के 59.89 प्रतिशत क्षेत्र पर फसलें बोई जाती हैं तथा यहाँ वन क्षेत्र 14.69 प्रतिशत, कृषि योग्य बंजर भूमि 2.72 प्रतिशत, वर्तमान परती 6.27 प्रतिशत, अन्य परती भूमि 2.11 प्रतिशत, ऊसर एवं कृषि के अयोग्य भूमि 4.84 प्रतिशत, कृषि के अतिरिक्त अन्य उपयोग की भूमि 8.44 प्रतिशत, चारागाह 0.26 प्रतिशत एवं उद्यानों, बागों एवं झाड़ियों का क्षेत्रफल 0.89 प्रतिशत है। यहाँ कृषि भूमि उपयोग की दक्षता मध्यम स्तर की दृष्टिगत होती है, साथ ही जिस भाग में जनसंख्या का दबाव कम है, वहाँ निम्न कृषि भूमि उपयोग दिखायी देता है। शस्य प्रतिरूप खाद्यान्न प्रधान है। सकल क्षेत्रफल के 77.32 प्रतिशत पर अनाज, 6.92 प्रतिशत पर दलहन एवं 6.42 प्रतिशत भाग पर तिलहन की कृषि की जाती है। जनपद का शस्य संयोजन प्रारूप से ज्ञात होता है कि गेहूँ सभी विकासखंडों की प्रमुख फसल होने के साथ चावल एवं बाजरा की कृषि भी प्रमुखता से होती है। जनपद का उत्पादकता गुणांक 159.96, सामान्य स्तर दिखाता है। शस्य गहनता 158.39 प्रतिशत भी मध्यम स्तर दर्शाती है तथा जनपद की सिंचाई गहनता भी मध्यम स्तर ही दर्शाती है।
अध्ययन क्षेत्र में जल संसाधन दो रूपों में पाया जाता है, धरातलीय जल एवं भूमिगत जल। धरातलीय जल में नदियों, नहरों एवं तालाबों को सम्मिलित किया गया है। चंबल एवं यमुना जनपद की प्रमुख नदियाँ हैं। अन्य नदियों में सेंगर, कुंआरी, अहनैया पुरहा एवं सिरसा हैं। चंबल एवं यमुना दोनों नदियों का वार्षिक डिस्चार्ज 107030 क्यूसेक है। नहर सिंचाई के अंतर्गत जनपद में दो नहर शाखायें हैं- भोगनीपुर शाखा एवं इटावा शाखा। जिनकी वास्तविक जल निस्तारण क्षमता 2872.78 क्यूसेक है। अध्ययन क्षेत्र में प्राय: तालाबों की कमी है तथा जो तालाब हैं उनका जल उपयोग की दृष्टि से कोई विशेष महत्त्व नहीं है। क्योंकि इनका प्रयोग केवल मवेशियों को पानी पिलाने हेतु किया जाता है। इन तालाबों की वार्षिक जल वहन क्षमता 319.26 हेक्टेयर मी. है।
अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल पेयजल एवं सिंचाई व्यवस्था का प्रमुख स्रोत है। जिसकी स्थिति भूमिगत जल के पुनर्भरण पर निर्भर करती है। अध्ययन क्षेत्र का उत्तरी भाग समतल अथवा मैदानी होने से वहाँ जल का अधिक पुनर्भरण होता है। परिणामत: इस क्षेत्र में सबसे ऊँचा जल स्तर बसरेहर विकासखंड में (4.12 मी.) है, जबकि दक्षिणी भाग में बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने से वर्षा का जल बिना किसी अवरोध के नदियों में चला जाता है, जिससे भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं हो पाता। अत: इस भाग का जल स्तर नदियों के जल स्तर का अनुसरण करता है और बाढ़ के समय जल स्तर काफी ऊपर आ जाता है। बाढ़ के बाद धीरे-धीरे नीचे होता चला जाता है। इस क्षेत्र का सबसे अधिक गहरा जल स्तर चकरनगर विकासखंड का 38.23 मीटर है। अत: स्पष्ट होता है कि उत्तरी भाग से दक्षिणी भाग की ओर जाने पर जल स्तर तेजी से गिरता है। जनपद में उपलब्ध कुल भूमिगत जल 79691.39 हेक्टेयर मीटर है। जो विभिन्न साधनों के माध्यम से प्रतिवर्ष 27016.76 हे. मी. निकाला जाता है।
वर्षा की अनिश्चितता के कारण अध्ययन क्षेत्र की कृषि मूल रूप से सिंचाई व्यवस्था पर आधारित है। नहर सिंचाई जनपद का प्रमुख सिंचाई साधन है। अध्ययन क्षेत्र में केवल दक्षिणी भाग को छोड़कर सभी भागों में नहरों का जाल बिछा हुआ है। जनपद के मध्य एवं उत्तरी भाग से दो नहर शाखायें, भोगनीपुर शाखा एवं इटावा शाखा निकलती है, जो संपूर्ण मध्य एवं उत्तरी भाग को सिंचाई सुविधा प्रदान करती है। 1993-95 में नहर सिंचित क्षेत्र 68264 हे. अर्थात कुल सिंचित क्षेत्र का 54.25 प्रतिशत था, जो 2003-05 में घटकर 59594.67 हे. अर्थात कुल सिंचित क्षेत्र का 50.64 प्रतिशत रह गया। अत: इस शताब्दी में नहर सिंचित क्षेत्र में 8661.33 हे. अर्थात 12.68 प्रतिशत की कमी आई। इसके कई कारण हैं। यथा नहरों में समय से पानी न आना, जल का अनियंत्रित उपयोग, दोषपूर्ण सिंचाई व्यवस्था, नहर के समीपस्थ क्षेत्रों में अधिक सिंचाई की प्रवृत्ति, कुलावों एवं पक्की कूलों का अभाव आदि। अत: नहर सिंचाई की व्यवस्था को पुन: चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिये इन समस्याओं का निराकरण अति आवश्यक है।
नलकूप सिंचाई जनपद में सिंचाई का दूसरा प्रमुख साधन है। अभी तक अध्ययन क्षेत्र में 36972 नलकूपों का स्थापन किया गया है। सन 1993-95 में अध्ययन क्षेत्र में 48646.33 हे. अर्थात कुल सिंचित क्षेत्र के 41.07 प्रतिशत क्षेत्र पर नलकूप सिंचाई सुविधा उपलब्ध थी, जो 2003-05 में बढ़कर 56804.67 अर्थात 48.27 प्रतिशत हो गई। अत: विगत दशाब्दी में नलकूप सिंचित क्षेत्र में 8156.34 हेक्टेयर की अर्थात 16.77 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसका कारण दक्षिणी भाग में नहर सिंचाई के अभाव के कारण तीव्र गति से नलकूपों का स्थापन तथा उत्तरी भाग में नलकूपों का प्रयोग नहर सिंचाई की पूरक व्यवस्था के रूप में किया जाना है, लेकिन अभी नलकूप सिंचित क्षेत्र में अनेक समस्यायें हैं, जैसे स्वामित्व का अभाव पुन: पाइपलाइन की मरम्मत का न होना, पानी के बँटवारे की समस्या, विद्युत पोलो से प्राय: चोरों द्वारा तारों का काट लेना, निजी नलकूप वाले किसानों के पास पाइपलाइन सुविधा का अभाव आदि अध्ययन क्षेत्र में इन समस्याओं के निराकरण की आवश्यकता है। जिससे नलकूप सिंचित क्षेत्र में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है।
अध्ययन क्षेत्र में कूप सिंचाइ का प्रयोग लगभग समाप्ति की ओर है। 1970-71 में कूप सिंचित क्षेत्र जहाँ 10076 हे. था वहीं सन 1993-95 में यह केवल 1058 हे. पर आ गया तथा 2003-05 की अवधि में यह मात्र 51 हेक्टेयर रह गया। अर्थात इस दशाब्दी में कूप सिंचित क्षेत्र में 1007 हे. अर्थात 95.17 प्रतिशत की गिरावट आई है। क्योंकि अधिक परिश्रम के साथ समय एवं धन की बर्बादी के कारण लोग कूप सिंचाई के प्रति उदासीन हो गये हैं। परिणामत: कूप सिंचित क्षेत्र कम होता चला जा रहा है।
अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई सुविधाओं हेतु लघु बांधों का अभाव है, यहाँ इसके निर्माण हेतु सभी आवश्यक भौगोलिक दशायें उपलब्ध हैं। पिछड़ा क्षेत्र होने के कारण अभी तक लघु बांधों का निर्माण नहीं किया जा सका। यदि इस तकनीकी का अच्छे ढंग से उपयोग किया जाये तो सिंचाई व्यवस्था के साथ-साथ भूमिगत जल स्तर में भी सुधार किया जा सकता है।
जनपद में कृषयेत्तर क्षेत्रों में भी जल का उपयोग किया जा रहा है। यहाँ पेयजल के क्षेत्र में 20134691 गैलन जल प्रतिदिन एवं पशुपालन के क्षेत्र में 960.98 हे. मी. जल का वार्षिक उपभोग किया जा रहा है। उद्योगों एवं मत्स्य पालन के क्षेत्र में भी सामान्य रूप से जल का उपयोग हो रहा है। लेकिन यहाँ पर्यटन के क्षेत्र में जल का कोई विशेष महत्त्व नहीं है, फिर भी यहाँ की पर्याप्त जलराशि एवं ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुये, पर्यटन की भावी संभावना के रूप में देखा जा सकता है।
अध्ययन क्षेत्र में अनेक जलजनित समस्यायें उत्पन्न हो गयी हैं। दक्षिणी भाग में वर्षा ऋतु में जहाँ बाढ़ की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है तथा लाखों की संपत्ति या तो जल में डूब जाती है अथवा तीव्र प्रवाह में बह जाती है। वहीं उत्तरी भाग में जल निकास की उचित व्यवस्था न होने के कारण सैकड़ों एकड़ भूमि जल जमाव की समस्या से ग्रसित हो जाती है। अपरदन की समस्या भी जनपद की प्रमुख समस्या है। अध्ययन क्षेत्र का 87081 हे. क्षेत्र अर्थात कुल क्षेत्रफल का 32.19 प्रतिशत क्षेत्र अपरदन से प्रभावित है। दक्षिणी भाग में नदियों की अधिकता के कारण बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार है। अत: चकरनगर, बढ़पुरा एवं महेबा विकासखंड संयुक्त रूप से जनपद की कुल अपरदित भूमि का 81.93 प्रतिशत रखते हैं। यदि इसकी रोकथाम के लिये प्रभावी कदम नहीं उठाये गये तो यह समस्या एक विकराल रूप धारण कर लेगी। जल निकास की उचित व्यवस्था न होने के कारण अध्ययन क्षेत्र का 5222 हे. क्षेत्र अर्थात कुल क्षेत्रफल का 1.93 प्रतिशत भाग लवणीयता एवं क्षारीयता की समस्या से ग्रसित है।
भूमिगत जल के अतिशय दोहन से अध्ययन क्षेत्र का जल स्तर तेजी से गिरा है। 1991 से 2004 के मध्य अध्ययन क्षेत्र के जल स्तर में औसत गिरावट 1.50 मी. से अधिक रही है। सर्वाधिक गिरावट जनपद के दक्षिणी भाग के बढ़पुरा विकासखंड में 3.04 मी. है। इस क्षेत्र का जल स्तर अधिक नीचा होने का कारण बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार है। वर्षा का जल बिना किसी अवरोध के बहकर नदियों में चला जाता है। परिणामत: ठीक ढंग से भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं हो पाता। जबकि उत्तरी भाग में समतल भूमि एवं नहरों द्वारा भूमिगत जल के अधिक निस्यंदन के कारण सामान्य गिरावट आई है। लेकिन सिंचाई सुविधा हेतु किसानों द्वारा भूमिगत जल के अतिशय दोहन से जल स्तर अचानक 10-10 फीट तक नीचे चला जाता है। इस उतार-चढ़ाव से क्षेत्र के किसानों को एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
लघु सिंचाई योजनाओं के अंतर्गत नलकूप सिंचाई परियोजना, तालाब सिंचाई परियोजना, चंबल ढाल परियोजना आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें नलकूप सिंचाई परियोजना को अध्ययन क्षेत्र में प्रभावी ढंग से चलाया जा रहा है। इस परियोजना के अंतर्गत अभी तक जनपद में 36972 नलकूपों का स्थापन किया जा चुका है, जिनके द्वारा 56804.67 हे. भूमि को सिंचाई सुविधा प्रदान की जा रही है। जनपद के उत्तरी भाग में नहर सिंचाई का पर्याप्त विकास हुआ है, यहाँ नलकूपों का स्थापन नहर सिंचाई की पूरक व्यवस्था के रूप में किया जा रहा है। जबकि दक्षिणी भाग में बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने से संपूर्ण सिंचाई व्यवस्था नलकूप सिंचाई पर आधारित है, फिर भी अभी तक चकरनगर एवं बढ़पुरा विकासखंडों में क्रमश: 441 एवं 1735 नलकूपों का स्थापन किया जा सका है। अत: नलकूपों की संख्या में वृद्धि से सिंचित क्षेत्र में आश्चर्य जनक वृद्धि की जा सकती है। यहाँ कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम 9वें दशक में चलाया गया था, इसके अंतर्गत चकबंदी, मेड़बंदी, पक्की नालियों का निर्माण एवं खेतों का समतलीकरण कराया गया था, लेकिन देखरेख के अभाव में आज पुन: वही पुरानी स्थिति दृष्टिगत होती है। अत: इस कार्यक्रम को अध्ययन क्षेत्र में पुन: चलाये जाने की आवश्यकता है।
यहाँ वर्षा का औसत सामान्य है लेकिन तेज ढाल होने के कारण वर्षा का अधिकांश जल बहकर बिना किसी अवरोध के नदियों में चला जाता है, परिणाम स्वरूप भूमिगत जल स्तर में गिरावट एवं मृदा अपरदन की विकराल समस्या उत्पन्न हो गयी है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि वर्षा जल को क्षेत्र में ही रोका जाये। इसके लिये यहाँ मेड़बंदी कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसे और अधिक तेजी से चलाने की आवश्यकता है। अन्य क्षेत्रों में चलायी जा रही जल प्रबंधन तकनीकों जल विभाजक एवं वाटर हार्वेस्टिंग का अभी तक अध्ययन क्षेत्र में ठीक ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सका है। इनका प्रयोग प्रभावी ढंग से किया जाये तो सिंचित क्षेत्र में वृद्धि, भूमिगत जल स्तर में सुधार के साथ-साथ अनेक समस्याओं का समाधान संभव है।
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इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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