इसके बावजूद जिन्दगी आगे बढ़ रही है


बंगाल की खाड़ी से इस साल उठे प्रचंड मानसून से लोग इतने दुःखी हुए कि वे विकराल हो चुकी गंगा से थमने की प्रार्थना को मजबूर हो गये। गंगा, यमुना, मंदाकिनी, पिंडर, सरयू, धौली, काली, कोसी, रामगंगा आदि सभी नदियों के साथ छोटे-छोटे गाड़-गधेरे भी प्रलयंकारी हो गये। विद्युत परियोजनायें ठप्प पड़ गईं। जो बन रही थीं वे मलबे में तब्दील हो गईं। ग्रीष्मकाल में ऊँचे पहाड़ों पर प्रवास पर गये परिवार, जिनमें बूढ़े, महिलायें व जानवर भी थे, नीचे गाँवों को नहीं आ पाये। कई दिनों तक पहाड़ में अखबार भी नहीं पहुँच सके। रेडियो व टीवी भी बंद पड़े रहे। सैकड़ों गाड़ियाँ रास्तों में अटकी रहीं। परिवहन व्यवस्था लड़खड़ाने से प्रवास में रह रहे लोग परिजनों का हाल जानने नहीं पहुँच पा रहे हैं। बारातें तक कई दिन पैदल चलकर दुल्हन के घर पहुँचीं। सरकार को प्रतियोगी परीक्षाएँ टालनी पड़ीं, जबकि बाहरी राज्यों में होने वाली परीक्षाओं से कई लोग वंचित हो गये। अधिकतर क्षेत्रों में लंबे समय से रसोई गैस की आपूर्ति नहीं हो सकी, जबकि ईंधन की लकड़ी ने सूखने का नाम नहीं लिया। छुट्टी का वारंट लेकर निकले सैकड़ों सैनिक स्टेशनों में दिन काटने को मजबूर हो गये।

अकेले 18-19 सितम्बर की बारिश में ही 60 लोगों की जानें चली गयी। पूरी बरसात में यह आँकड़ा 200 से ऊपर चला गया है। 1200 लोगों के गंभीर रूप से घायल होने की खबर है। सात हजार से अधिक पशु मारे जा चुके हैं। जबकि राष्ट्रीय पार्कों में मारे गये वन्यजीवों की गणना नहीं की जा सकी है। आठ हजार परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर शिविरों व स्कूलों में ठहराया गया है। 30 हजार हैक्टेयर कृषि भूमि नष्ट हो गयी।

बारिश की मार ने पर्वतीय राज्य के हर गाँव-तोक में हाहाकार मचा दिया। बच्चे स्कूल नहीं जा पाये, किसान खेतों से महरूम हुए, बूढे़-बुजुर्ग ऐसे घरों में दुबके हैं जो कभी भी ध्वस्त हो सकते हैं। बीमारों को अस्पतालों तक नहीं ले जाया जा सका। जिन गाँवों में लोग हताहत हुए, उन्हें बाहर निकालना सेना के लिये भी मुश्किल हो गया। कई गाँवों में तो मृतकों की सामूहिक चितायें जलीं। लोगों की आँखों में रोने के लिये आँसू नहीं बचे।

सड़कें ध्वस्त होने से गाँवों के साथ कस्बों, नगरों में दाल-रोटी का संकट है। बड़े इलाके में दूध व राशन नहीं पहुँच पाया। बिजली गायब रही, जबकि दुकानों से डीजल, पेट्रोल, कैरोसिन, सब्जियों, दालों का कोटा खत्म हो गया। अस्पताल में दवायें नहीं बचीं। सैकड़ों, मोबाइल टावर ध्वस्त हो गये। जहाँ मोबाइल काम कर भी रहे थे, वहाँ बैटरियों ने जवाब दे दिया। ऊँचे पहाड़ों में पर्वतारोहण को गये यात्रियों का सम्पर्क टूट गया, जबकि हजारों तीर्थ यात्री कई-कई दिनों तक रास्तों में फँस गये। बाहर से तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों का आना रुकने से पर्यटन से जुड़े हजारों लोगों का व्यापार ठप्प पड़ गया। गेहूँ-चावल लेकर सेना के जो हैलीकॉप्टर राहत कार्य में लगे, बादलों की घनी चादर से घूमकर वापस लौट आये। पूरे पहाड़ में पेयजल लाइनें ध्वस्त होने से पीने का पानी का संकट आ गया। डाक सेवायें बाधित होने से मनीऑर्डर व्यवस्था ठप रही। राजधानी का जिला मुख्यालयों और जिला मुख्यालयों का जनपद के गाँवों का सड़क संपर्क आपस में कट गया। मार्ग टूटने से सेब के फल रास्ते में खड़े ट्रकों में ही सड़ गये। खड़ी फसलें व खेत भी पूरी तरह से चैपट हो गये। सिंचाई नहरें सिरे से गायब हैं। खेतों व पहाड़ों में जहाँ-तहाँ दरारें हैं। बमुश्किल घोड़ों व खच्चरों पर लदकर गया महंगा सामान लोगों की क्षमता से बाहर हो गया। मुनस्यारी व मोरी जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में प्याज 150 व टमाटर 80 रुपये किलो बिका। अल्मोड़ा में तक एक अंडे की कीमत 12 रुपये तक पहुँच गई। आपदा से निबटने को केन्द्र से भेजी गई एनडीआरएफ की टीम कई दिनों तक हरिद्वार व ऋषिकेश से ऊपर जाने का साहस नहीं जुटा पाई।
 

 

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