हमने जयपुर जिले के दुदू ब्लॉक में लापोड़िया गांव से काम शुरू किया था, और यह सोचकर शुरू किया था कि हमारे गांव में संसाधनों की किसी भी प्रकार की कमी ना रहे। सबसे पहले पानी की कमी को दूर करने का प्रयास शुरू किया। पानी अच्छा हो, पीने के काम आए तथा सिंचाई के लिए भी पर्याप्त हो, हमारी यह कोशिश थी। 40 साल पहले लापोड़िया के कुओं में पानी नहीं था, जिसका मुख्य कारण गांव के एकमात्र तालाब का टूटा हुआ होना था। मैंने गांव वालों को समझाना चाहा कि हमें तालाब ठीक करना चाहिए, लेकिन उनकी समझ में बात नहीं आई। मैंने दो-तीन बार गांव वालों के साथ बैठक की, लेकिन नतीजा शून्य रहा, तो मैं और मेरे एक मित्र रामअवतार, बस हम दोनों ही चल दिए तालाब को ठीक करने के लिए। हमें काम करता देख लोगों में भी जोश आया और एक-एक करके लोग आते गए तथा काफिला बड़ा हो गया। तालाब बनकर तैयार हुआ तो कुएं में पानी आने लगा, सिंचाई होने लगी। इस तालाब का नाम हमने अन्नसागर रखा अर्थात फसलों की सिंचाई करने वाला। तालाब बनने की खुशी मनाई गई। पूरे गांव में शहनाई बजी, गुड़ बंटा। इस तरह तरह इस तरह तालाब का काम पूरा हुआ।
इसके बाद मैंने सोचा कि हम और दूसरे तालाब बनाएंगे। गांव के पास ही हमने एक और तालाब बनाया, जिसका नाम रखा फूलसागर और यह तय किया कि इस तालाब से सिंचाई नहीं होगी, सिर्फ पशु-पक्षी तथा वन्यजीवों के लिए इसका पानी सुरक्षित रखा जाएगा। इस तालाब के किनारे बंगड़ थे कुएं तथा हैंडपंप भी थे। मैंने गांव वालों के सामने सुझाव रखा कि- ‘हम यहां जमीन से भी पानी नहीं निकालेंगे, सिंचाई नहीं करेंगे’ तो मेरी बात से सभी गांव वाले सहमत हुए। पूरे गांव ने इस नियम का पालन किया। फूलसागर आज भी बहुत खरा और मजबूत तालाब है। फिर मैंने सोचा कि ऐसा तालाब भी चाहिए, जिससे गांव का निर्माण भी हो। जैसे कि गांव में छतरियां हो, चबूतरे हों, पालों पर बैठने की जगह हो। फूलसागर तो हमने श्रमदान से बनाया था, जिसमें दो-दो हजार लोग काम करते थे। इसी प्रकार एक और तालाब बनाया, देवसागर, अर्थात भगवान का तालाब। इस तालाब का पानी भी हम सिंचाई के लिए नहीं निकालते। यह तालाब केवल ग्राउंड वाटर का लेवल बढ़ाने के लिए है। लापोड़िया का ग्राउंड वाटर का लेवल अब बहुत अच्छा है। सभी कुओं और हैंडपंपों में हमेशा अच्छा पानी आता है।
कभी के सूखे राजस्थान के गांव ना पोरिया में आज की तारीख में प्रवेश कीजिए तो दूर-दूर तक फैली हरियाली लबालब भरे तालाब गोचर में घूमते जानवर और पक्षियों का कलरव आपका जैसे स्वागत करते हैं विपन्नता से संपन्नता तक पहुंचाने वाली इस गांव की जनक्रांति अद्भुत है
इसके अलावा भी हमने कई छोटे-छोटे तालाब बनाए। जैसे कि मानसरोवर तालाब, अमृतनाड़ी इत्यादि। तालाब निर्माण के साथ हमने एक और महत्वपूर्ण काम किया; वह था वहां की गोचर भूमि को हरा-भरा बनाने का काम। वहां के गोचर से पानी बह कर निकल जाता था, जिसकी वजह से गोचर हमेशा सूखा रहता था। घास नहीं उगती थी, पशुओं के लिए चारा नहीं होता था। ऐसे में हमने तय किया कि हमारा गांव ऐसा हो, जिसमें पशुपालन अच्छा हो, दूध अच्छा हो, लेकिन हम खनन जैसा कोई काम नहीं करें। हमने तय किया कि हम र्कोई इंट-भट्ठे जैसी चीजें नहीं लगाएंगे। हम नहीं चाहते थे कि उपजाऊ मिट्टी को पका-पकाकर मकान बनाए जाएं। हम चाहते थे कि मिट्टी उपजाऊ बने और उसमें हम खेती करें। गोचर और खेती की जमीनों को हमने संभाला। इतने अच्छे से संभाला कि मिट्टी धीरे-धीरे उपजाऊ होने लगी और वह भी प्रकृति के तरीके से। जब बरसात का पानी 9 इंच रुकता है, जब पानी जमीन में जाता है; तब घास उगती है, पेड़ उगते हैं। जब घास उगती है, पेड़ बढ़ते हैं तो उनके पत्ते गिरते हैं। पत्तियों को बकरियां या गाय, भैंस खाती हैं और गोबर होता है, जिससे जमीन उपजाऊ बनती है। हमने गोचर में एक नाम दिया, चोका सिस्टम। एक चोके से दूसरे चोके में, फिर तीसरे चोके में पानी भरता है और इस तरह से 2 किलोमीटर तक पानी हम रोकने लगे। फिर वह पानी जमीन में जाता रहता है। छोटे-छोटे तालाबों में जाता है, जिनको नाड़ियों के नाम से जाना जाता है। नाड़ियों से पानी बड़े तालाब में यानी अन्नसागर में और अन्नसागर से नदी में जाता है। हमने पानी को गोचर खेतों से लेकर नदी तक जोड़ा। लेकिन हर कदम पर कितना पानी रोकना है, किस काम के लिए रोकना है, इसी काम के लिए हमने गोचर में चोका सिस्टम बनाया, जिसका काफी नाम है। म चोका का मतलब है कि चारों कोने तक पानी भरता है। नमी बनी रहती है, जिससे घास आती है, पेड़ उगते हैं।
आज लापोड़िया गोचर में लाख से ज्यादा पेड़ हैं, जिसमें 1000 से अधिक पीपल हैं, नीम हैं। यहां बगीचियां बनाई गईं हैं। बगीचियां नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि हमने एक इको पार्क बनाया है। गोचर के बीच में 10 बीघा को बिल्कुल पैक कर दिया गया है, जिससे उसमें गाय, बकरी जैसा कोई भी पालतू जानवर नहीं जाए, लेकिन वन्यजीव उसमें रहते हैं, उनके लिए वातावरण का निर्माण किया गया है। हमारी सोच थी कि वन्यजीव उसमें रहें, चारा खाएं, पक्षी घोंसले बनाएं; लेकिन मनुष्य, गाय, बकरी, भैंस आदि उसमें न जाने पाएं। पशु-पक्षी जो कुछ खाते हैं, तो उनके द्वारा किए गए बीट तथा गोबर के जरिए और भी घास व पेड़ उगते हैं। वहां शिकार नहीं किया जाता। गांव का पूरा एरिया 6000 बीघा है। 6000 बीघे के इलाके में किसी जीव को मारना नहीं, सताना नहीं, बल्कि जीवों के लिए आवास बनाना है, उनकी सुरक्षा करनी है, उनके लिए चारा उपलब्ध कराना है- यह हमारी कार्य पद्धति है। ये सारे काम हमने गांव में किए। कई प्रकार के टांके बने हैं। पक्के टांके भी हैं, ताकि लोग पीने का पानी ले सकें, लेकिन चोका सिस्टम में भी टांके हैं। जमीन का पानी पक्के टांके में जाता है और उसमें साल भर पानी रहता है। साल भर पानी रहता है, तो उसमें से पक्षी और वन्यजीवों को पानी मिलता रहता है। पशुओं के लिए हमने नाड़ियां बनाई है। नाड़ियों में कुछ पेड़ लगाए हैं, जिनके नीचे पशु बैठ सकते हैं। ग्वालों व गोचर के लिए बड़ व पीपल के जंगल बनाए हैं। 4 फुट की छतरी है, पक्का स्ट्रक्चर है, जिसके नीचे ग्वाल बैठकर आराम कर सकते हैं। वहीं हैंडपंप भी हैं, ग्वालों के पानी पीने के लिए और छोटा तालाब बनाया गया है कि पशु पानी पी सकें। इससे हमारे इलाके में पशु खूब बढ़ने लगे। गायों की नस्लें सुधारीं हमने। गीर नस्ल बहुत अच्छी नस्ल है। बाहर से आती है दूध खूब होता है। पालने में सस्ती है, कोई खर्चा नहीं लगता। पेड़ों की पत्तियां खाती हैं। देसी बबूल की पत्तियां, फलियां खाती हैं और अच्छा दूध देती हैं। पानी की उपलब्धता के चलते बढ़ती हरियाली में बहुत कम चारा देना होता है। आज इस जल क्रांति के चलते एक-एक व्यक्ति की 10,000 से लेकर 60,000 तक हर महीने आमदनी हो गई है लापोड़िया में। गांव में करीब ग्यारह लाख का हर महीने दूध बिकता है। यानी हमने पशुपालन के सुधार के लिए, जमीनों के सुधार के लिए, पानी की बढ़त के लिए, स्वरोजगार के लिए गांव में अलग ढांचा बनाया है। अलग शक्ल बनाई है, अलग चेहरा दिया है, गांव की समझ को अलग से उठाया है। हमने ऐसा माहौल बनाया है कि सभी लोग मिलकर निर्णय लेने की प्रवृत्ति में चलें। ऐसा निर्णय करें कि हमारा पर्यावरण अच्छा हो, हमारी आमदनी बढ़ें, हम हरियाली के साथ जिएं, अच्छी फसलें हों। हमारी जमीनों में पानी ऊपर से नीचे तक रुके, इस प्रकार के नाले बनाए। सिंचाई में जब पानी खाली होता है तालाब से, तो तालाब अगर नीचे है तो खेतों में चने की फसल उगाई जाती है। इसमें जमीनें खराब नहीं होतीं। ऐसा किया है कि सारा पानी मिल कर नाले में इकट्ठा हो। नालों में भी छोटे-छोटे हिस्से बनाए हैं। तरीका ऐसा है कि गांव की नदी जो है, हमेशा भरी रहे, हमेशा पानी रिचार्ज करे।
हम लोग हर साल देवउठनी ग्यारस पर तालाबों पर गोचर का, पेड़ों का पूजन करते हैं और बैठकर योजना बनाते हैं। श्रद्धा भाव से ढूंढार को रस्म बनाया गया है। ऐसे लोग, जो निशुल्क काम करते हैं, चाहे दुकानदार हो, चाहे नौकरी करने वाले हो या किसान हों, वे सब बड़ी संख्या में एक साथ खड़े हुए। ऐसे बहुत से लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए देवउठनी ग्यारस की यात्रा के समापन के बाद में अवार्ड दिए जाते हैं। हमें 40 साल हो गए इस काम को करते हुए। गांव बिल्कुल हरा-भरा है। सब तरफ छाया ही छाया फैली हुई है। यह अच्छा है और हम चाहते हैं कि यह मुहिम आगे बढ़े। ऐसे तो हमने 80 गांवों तक काम को फैला लिया है, लेकिन भारत के लिए यह कोई बड़ी चीज नहीं है। हम चाहते हैं कि एक ब्लाॅक पूरा करें,जिला पूरा करें; इसके बाद राजस्थान हो, भारत हो। भारत को पानी वाला बनाना है और इसके बूते समृद्ध अर्थतंत्र वाला बनाना है। अच्छी उपजाउ मिट्टी हो, सब लोग सहभागिता से रहें, विकास करते हुए शांति से रहें।
पहचानने की जरूरत है कि प्रकृति क्या करती है? जैसे कि बीजड़ में बाड़मेर, जैसलमेर का इलाका है। बिल्कुल सूखा होता है, पर वहां भी छः फुट की श्रवण घास होती है और चेरापूंजी में भी छः फुट की घास मिलती है। प्रकृति कम पानी में भी अच्छी घास की व्यवस्था करती है, जरूरत के अच्छे पेड़ देती है। आप देखिए कि अगर चेरापूंजी में और गुवाहाटी में या काजीरंगा में हाथी जैसा बहुत बड़ा जानवर रहता है, तो बीजड़ में भी उंट रहता है। प्रकृति के इस कमाल को हमको समझना पड़ेगा। हमारे गांव के लोगों ने समझ लिया है कि कम पानी में क्या चीजें हो सकती हैं। कम पानी में क्या तरीका कारगर हो सकता है, यह हमने अपनाया। यह नहीं हो सकता कि यहां पर हिमाचल बन जाए या बिहार बन जाए। हमारे राजस्थान में सब जगह कम पानी है, लेकिन कम पाने के अनुसार जीवन जीने का तरीका भी दुरुस्त है। हम हर जगह पानी बचाते हैं। यहां बकरी पालन खूब है, भेड़ पालन खूब है, जो कि अच्छी बारिश वाले इलाकों में इस तरह से नहीं होता। यहां चने की फसल होती है। चने की फसल चेरापूंजी में नहीं होती, क्योंकि यह कम पानी में होती है। बारिश के बाद चने का बीज डाल दो और एक बार भी पानी नहीं दो तो भी बहुत अच्छी फसल होती है। सरसों में 1-2 बार पानी लगता है। गेहूं हम इतना ही उगाते हैं कि खाने भर को हो जाए। हमारा इलाका जो है, वह चने का है, मूंग का है।
यहां रहने का जो तरीका है, वह यह है। अगर हम यहां गन्ना बोने लगे तो हमारा पानी तो नीचे ही चला जाएगा, इसलिए हमने खेती का यह तरीका अपनाया है कि मूंग, चना जैसी चीजें बड़े स्तर पर हों। इससे फसल तो अच्छी होती है, जमीन भी उपजाऊ होती है। इन चीजों को हमने अपनाया, अपनी आमदनी बढ़ाई और पानी को भी अच्छे से सहेजा। सूखे इलाके में खेती का तरीका, पशुपालन का तरीका और पानी रोकने का तरीका हमने गहराई से समझा है, अपनाया है और इसीलिए आज हरे-भरे हैं, सफल-सुजल हैं।
(राजस्थान के प्रसिद्ध जन एवं पर्यावरण कार्यकर्ता)
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