गंगा के मैले होने की चर्चा गाहे-बगाहे होती रहती है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद केंद्र की सत्ता में आए राजीव गांधी ने गंगा ऐक्शन प्लान शुरू किया था। उसका मकसद तो गंगा की सफाई था, लेकिन कहा जाता है कि वह ऐक्शन प्लान नेता और इंजीनियरों का प्लान होकर रह गया। इसमें नौ सौ करोड़ रुपये बरबाद हो गए। गंगा की सफाई को लेकर एक बार फिर चर्चा जोरों पर है। दूरदर्शन ने भी विगत 26 दिसंबर को अपने स्टूडियों में ‘गंगा पंचायत’ लगाई थी।
अकसर गंगा पर बातचीत का मतलब यही समझा जाता है कि यह हिंदुओं की धार्मिकता का मामला है। सामान्य-सी जानकारी दी जाती है कि नागर सभ्यता नदियों के किनारे बसी है। यदि गंगा क्रमशः मैली होती गई, तो इसकी वजह नगर सभ्यता का पुराने अर्थों में विकराल होते जाना है। आंकड़े भी निकाले गए हैं कि गंगा में सबसे ज्यादा प्रदूषण नगरपालिका की नालियों से निकलने वाली गंदगी के कारण है। इसके बाद उद्योगों की भूमिका बताई जाती है। गंगा की गंदगी पर बहस के दौरान घाट पर एक-दो महिलाओं के कपड़े धोने के दृश्य दिखाए जाते हैं। लाशें भी दिखाई जाती हैं। हिंदू मान्यता के अनुसार, गंगा के किनारे शवों को जलाना या नदी में बहाना पुण्य कार्य है।
गंगा से जुड़ी जितनी रूढ़ियां हैं, उनमें यह भी है कि गंगा में नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं और अंतिम समय में गंगा का पानी पीने से स्वर्ग मिलता है। संपन्न घरों के लोग अंतिम संस्कार के लिए शवों को गंगा के किनारे तक तो लाते ही हैं, धार्मिक कार्यों व स्वर्ग प्राप्ति की आकांक्षा में गंगा का पानी बोतलों में भरकर घर भी ले जाते हैं। यानी गंगा का उपयोग सबसे ज्यादा समाज का संपन्न वर्ग ही करता रहा है।
नगर सभ्यता के क्रमिक विकास के आंकड़ों को देखकर भी कहा जा सकता है कि नगरों में समाज का संपन्न तबका ही बसता रहा है। उसी के यहां सबसे पहले सीवर बना। गांव-देहात की बड़ी आबादी को तो आज भी पानी और शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है। नगरों में रहनेवालों लोगों ने ही आर्थिक संपन्नता हासिल की और उद्योग-धंधों के मालिक बने। दरअसल गंगा की सफाई के पीछे सामाजिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करना जरूरी है।
गंगा सफाई योजना को सामाजिक पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना इसलिए जरूरी है कि दूरदर्शन की ‘गंगा पंचायत’ में ये पूर्वाग्रह साफ-साफ दिखे। बेशक गंगा को एक महान नदी माना जाए, लेकिन किसी खास संप्रदाय विशेष की नहीं, बल्कि पूरे देश की महान नदी माना जाए। गंगा सफाई पर बातचीत धार्मिकता की भाषा में नहीं की जानी चाहिए। धार्मिकता का यह दृष्टिकोण इसे एक सीमित दायरे में बांध देता है। जैसे गंगा की सफाई पर दूरदर्शन में बातचीत हो रही थी, तो पैनल में हिंदुओं के अलावा मुस्लिम या अन्य समुदाय का एक भी व्यक्ति शामिल नहीं था। जबकि पैनल में शामिल गंगा मुक्ति आंदोलन के नेता अनिल प्रकाश ने ‘गंगा पंचायत’ के आखिर में कहा कि हजारों मुस्लमानों का जीना-मरना गंगा से ही होता है और वे उसे ‘गंगा जी’ कहते हैं। काशी में राजघाट के पास एक मंदिर के निकट गंगा में गंदगी दिखने के एक दृश्य की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि यह मंदिर प्रबंधन की जिम्मेदारी थी कि वह उसकी सफाई करता। लेकिन मंदिर के महंत ने जो जवाब दिया, वह गंगा सफाई में बाधक बनने वाले सामाजिक दृष्टिकोण को और उजागर करता है। उन्होंने कुछ समुदायों द्वारा इस तरह की गंदगी फैलाने की शिकायत की।
वह सामाजिक दृष्टिकोण ही है, जो गंगा की सफाई योजना को महज सरकारी योजना में तबदील कर देता है। जाहिर-सी बात है कि सरकारी योजनाओं के अपने एक सामाजिक आधार होते हैं। इसे इस बहस में आए इस तथ्य से समझा जा सकता है। राजीव गांधी ने गंगा ऐक्शन प्लान 1985 में शुरू किया था, जबकि 1982 से ही गंगा मुक्ति आंदोलन चल रहा था। इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर गंगा के किनारे रहने वाली विभिन्न पेशों वाली जातियां शामिल थीं, जिनमें मछुआरे प्रमुख थे। आज उन मछुआरों को गंगा में मछली नहीं मिलती, क्योंकि प्रदूषण ने मछलियों को मार डाला। उनकी नावें नहीं दौड़ पातीं। आखिर मछुआरे क्यों चाहेंगे कि गंगा मैली हो और उनके सामने जीवन का संकट खड़ा हो जाए। उस बहस में बार-बार यह बात दोहराई जा रही थी कि गंगा से जन को जोड़ने की जरूरत है। बल्कि खुद जन ही गंगा से क्यों न जुड़े! तभी गंगा की गंदगी और दूसरी जकड़नों से मुक्ति संभव है।
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