इस सूखे के लिये हम ही हैं जिम्मेदार


देश के विभिन्न हिस्से इन दिनों सूखे की चपेट में है। कई लोगों की जान भी जा चुकी है। हर साल यही होता है। कुछ दिन के लिये संसद, विधानसभाओं और मीडिया में हंगामा और बरसात के उतरते ही हम बाढ़ से जूझने में व्यस्त हो जाते हैं। सूखे की चुनौती देश के लिये नई नहीं है, लेकिन इतने वर्षों में हमने इससे कोई सबक नहीं लिया। इससे निपटने के लिये कोई नया रास्ता नहीं ढूँढा।

सूखे की समस्या प्रकृति व मौसम में आये बदलाव के साथ साथ मानवीय भूल का भी नतीजा है, इसलिये इसमें सुधार भी मानवीय प्रयासों से ही सम्भव है। आज देश में भूजल की स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। इसके लिये प्राकृतिक जलस्रोतों की सम्भाल न करना और तकनीक के सहारे अत्यधिक दोहन जैसे कारण जिम्मेदार हैं।

दुनिया में जब भी नई तकनीक आई है, उसने पुराने तौर तरीकों और तकनीकों को बदल दिया है। जब तक ये बदलाव उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाने वाले या श्रम को बचाने वाले रहते हैं, इनका स्वागत होता है और विस्तार भी। हर नई तकनीक ने एक नए व्यावसायिक वर्ग को जन्म दिया है, जो उस तकनीक के साथ रोजो-रोटी के लिये जुड़ जाता है और निहित स्वार्थ की भूमिका निभाता रहता है।

इसी तरह मानव विकास का क्रम चलता आया है। चिन्ता की बात तब पैदा होती है, जब कोई तकनीक जीवन के आधार हवा, पानी और मिट्टी (भोजन) की उपलब्धता पर संकट पैदा करने की भूमिका में आ जाती है या इनके महत्त्व के प्रति लापरवाह बना देती है।

भारत वर्ष में यदि जल संसाधन के बढ़ते संकट को देखें तो दो बातें उभर कर सामने आती हैं। एक तो पानी की मात्रात्मक उपलब्धता में कमी आ रही है और माँग दिनों दिन बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पिछले कुछ दशकों में, तापमान में एक डिग्री की बढ़ोत्तरी हो गई है। यह बढ़ोत्तरी हिमालय में स्थानीय कारणों से और भी ज्यादा हुई है।

हिमालय में बर्फ पड़ना कम हो गया है। सदियों से ग्लेशियरों के रूप में संचित जल के भण्डार भी तेजी से पिघलने लगे हैं। हिमालय के 90% ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं। इससे पानी के लिये संघर्ष बढ़ रहा है। उदाहरण के लिये पंजाब में पिछली अमरेन्द्र सिंह की सरकार ने राज्य की नदियों में आ रही जलस्तर की कमी को आधार बनाकर इन नदियों के जल बँटवारे के 1980 तक के सभी समझौतों को विधानसभा में प्रस्ताव पास करके रद्द कर दिया था। इससे स्थिति की गम्भीरता को समझा जा सकता है।

पंजाब के आधे ब्लॉक भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण भी भूजल संकट से गुजर रहे हैं। ट्यूबवेल तकनीक और मुफ्त बिजली ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। लोग बड़े पैमाने पर ज्यादा पानी खाने वाली गन्ना और धान जैसी फसलें उगाने लगे, भूजल नीचे जाता गया। उसे निकालने की तकनीक में सुधार आता गया। इससे भूजल की स्थिति की ओर किसानों का ध्यान ही नहीं जा सका।

सरकारें भी वोट बैंक की राजनीति करती चली गईं। मुफ्त बिजली से भूजल की जो अनदेखी हुई उसका दीर्घकालीन दुष्प्रभाव किसानों पर ही पड़ेगा। जिन इलाकों में 10-20 फुट से रहट (पर्शियन व्हील) से पानी निकाल लिया जाता था, वहाँ सैकड़ों फुट नीचे से पानी निकालने की जरूरत पड़ने लगी है, जिसके लिये ज्यादा बिजली चाहिए, ज्यादा बिजली के लिये ज्यादा कोयला जलाना पड़ेगा या पहाड़ों में कृत्रिम जलाशय बनाकर बिजली बनानी पड़ेगी। कोयले का धुआँ और जलाशयों से निकलने वाली मीथेन तापमान में वृद्धि करेगी। इससे ग्लेशियर और बर्फबारी से प्राप्त जल में और कमी आएगी। यह चल निकला है।

सतही जल में कमी से भूजल भरण में भी कमी आती है, लेकिन तकनीक का घमंड हमें सोचने नहीं देता है। हम दूर से नहर बनाकर, बड़ा जलाशय बनाकर पानी ले आएँगे या जमीन से और गहरे ट्यूबवेल लगाकर निकाल लेंगे। तकनीक प्रकृति के प्रति इस तरह की लापरवाही का जब कारण बन जाती है तो मनुष्य जीवन के लिये सुविधा के नाम पर खतरे का कारण भी बन जाती है।

 

 

 

तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ, गायब हो रही हैं। कहीं गन्दगी की भेंट चढ़ गईं, कहीं नाजायज कब्जों और भूमि उपयोग में बदलाव की। तालाबों की जगह पार्किंग स्पॉट बन गए। समस्या के स्थानीय समाधान की संस्कृति लुप्त होती चली गई। अब नदी जोड़ो जैसे कार्यक्रमों की शरण में जाने की सोच बन रही है, जिसमें लाखों लोगों के विस्थापन की स्थितियाँ बनेंगी। इतने बड़े स्तर पर विस्थापन झेलना अब भारत के बस की बात नहीं है।

इस समय हमें वैकल्पिक, प्रकृति मित्र तकनीकों की खोज करनी चाहिए, किन्तु निहित स्वार्थ हमेशा इस तरह की कोशिश और विचार का विरोध करते हैं। क्योंकि उनके आर्थिक तात्कालिक हित उससे जुड़े रहते हैं। ऐसी बात करने पर आपको विकास विरोधी बताएँगे या कोई दलगत राजनीति का ठप्पा लगाकर दबाने का प्रयास करेंगे। आखिर जीत तो सच्चाई की ही होगी, किन्तु उसमें काफी समय की बर्बादी हो जाती है और कुछ लोगों को कष्ट भी उठाने पड़ जाते हैं। बड़े बाँधों से नहरें, गहरे ट्यूबवेल और नल तकनीक ने स्थानीय जलस्रोतों के प्रति लापरवाही का भाव पैदा कर दिया है।

तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ, गायब हो रही हैं। कहीं गन्दगी की भेंट चढ़ गईं, कहीं नाजायज कब्जों और भूमि उपयोग में बदलाव की। तालाबों की जगह पार्किंग स्पॉट बन गए। समस्या के स्थानीय समाधान की संस्कृति लुप्त होती चली गई। अब नदी जोड़ो जैसे कार्यक्रमों की शरण में जाने की सोच बन रही है, जिसमें लाखों लोगों के विस्थापन की स्थितियाँ बनेंगी। इतने बड़े स्तर पर विस्थापन झेलना अब भारत के बस की बात नहीं है।

आजादी के बाद के बड़ी परियोजनाओं के विस्थापित अब तक नहीं बस पाये तो नए कैसे बस पाएँगे। हिमाचल का उदाहरण लें तो भाखड़ा और पौंग के विस्थापित आज तक भटक रहे हैं। इसलिये तालाबों, कुओं और छोटे-छोटे जलस्रोतों के द्वारा स्थानीय स्तर के समाधान ज्यादा कारगर होंगे। स्थानीय स्तर पर संरक्षित पानी को कम पानी से सिंचाई वाली आधुनिक तकनीकों द्वारा प्रयोग करके बड़ी राहत किसानों के लिये हासिल की जा सकती है।

इस काम के लिये जलागम विकास कार्यक्रमों को कुछ सुधारों के साथ लागू करके रास्ता निकला जा सकता है। बहुत कम इलाके ऐसे बचेंगे जहाँ के लिये पानी दूर-दराज से नहरों द्वारा लाने की जरूरत पड़ेगी। दूसरी बड़ी समस्या उद्योगों और शहरी मल जल के कारण जल प्रदूषण और औद्योगिक जरूरतों के लिये पानी की बढ़ती माँग है।

बहुत से उद्योगों को बड़ी मात्रा में पानी चाहिए किन्तु पानी को शुद्ध करके वापस नदी में छोड़ने की व्यवस्थाएँ ठीक नहीं हैं, जिसके कारण रासायनिक और जैविक कचरा नदियों में पहुँच रहा है। यमुना, हिंडन, सिरसा आदि अनेक नदियों का जल किसी भी काम के लायक नहीं बचा है। जल जीव नष्ट हो गए हैं। गंगा तक के सफाई अभियानों का असर देखना अभी बाकी है।

हालांकि सरकारें हजारों करोड़ रुपए इस कार्य पर खर्च कर रही हैं। समस्याएँ तो पैदा होती ही रहेंगी, किन्तु घमंडी तकनीकों के बूते जीवन के बुनियादी आधारों हवा, पानी, मिट्टी (भोजन) के प्रति लापरवाह व्यवहार से जो समाधान ढूँढे जाएँगे वे नई समस्याएँ ही पैदा करेंगे, जिसके चलते विकास का स्वरूप टिकाऊ नहीं हो सकता। अतः जरूरी है कि नम्रतापूर्वक प्रकृति को माँ समझते हुए प्रकृति मित्र तकनीकों के विकास के प्रयास हों, ताकि शस्यश्यामला धरती सदा जीवनदायिनी बनी रहे।
 

 

 

 

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Post By: RuralWater
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