भारत साल 2009 के बाद का सबसे भीषण अकाल का सामना कर रहा है। देश का करीब 50 फीसद क्षेत्र कम वर्षा से प्रभावित है। सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार शामिल हैं। पूरा देश इस समय गोमांस के खाने या ना खाने की चर्चा में तल्लीन है और पिछले 17-18 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या किसी को मायने ही नहीं रखती। क्या यही है हमारी राजनीति का वास्तविक ध्येय? ‘हंगर इज वेरी मच ए मैटर ऑफ हैबिट।’ इस रिपोर्ट के आने के बाद करीब 50 साल तक आजादी का संघर्ष चला। हमें आजाद हुए भी 68 साल बीत गए, लेकिन किसान की हालत बद से बदतर होती चली गई। जैविक खेती के बाद रासायनिक और औद्योगिक खेती का युग आया। उर्वरकों और बदलते पर्यावरण ने फिर से किसान की राह मुश्किल कर दी।
आज मौसम की मार से किसान बेहाल है। मानसून में बदलाव अब हर साल की बात होती दिखाई दे रही है। अकाल, कृषि और किसान तीनों एक दूसरे से जुड़े हैं। ऐसे में देश को खाद्यान्न पैदा कर दे रहे किसानों के लिये नए सिरे से सोचना जरूरी होता जा रहा है।
अकाल और उससे निपटने के तरीकों को लेकर भी एक बार आजादी के पहले के दौर यानी साल 1877 की एक गतिविधि पर गौर करते हैं। “साल 1877 में मद्रास प्रदेश में घोर अकाल पड़ा। प्रजा के कष्ट का ठिकाना नहीं रहा। अकाल से लोगों की रक्षा करने के उद्देश्य से भारत सरकार के तत्कालीन अर्थसचिव सर जान स्ट्राची ने ‘दरिद्र भारतवासियों’ पर ‘दुर्भिक्ष निवारक कर’ नाम से एक और कर लगा दिया। तय हुआ कि इससे हर साल डेढ़ करोड़ रुपए जमा होंगे। इनसे ‘दुर्भिक्ष निवारक कोष’ की स्थापना की जाएगी। फिर जहाँ कहीं अकाल पड़ेगा वहाँ के लोगों की इससे मदद होगी। जिस साल अकाल बिल्कुल नहीं पड़ेगा, उस साल इस धन में से सरकारी कर्ज कुछ-कुछ करके चुकाया जाएगा।”
आज करीब 140 साल बाद कर और वसूली तो बदस्तूर जारी है और फसल बीमा नाम के नए जन्तु ने आकार ले लिया है। जिसे कि फसल नष्ट होने पर बीमित राशि न चुकाने के हजारों तरीके मालूम हैं। यदि किसी को स्वीकृति मिल भी जाती है तो वह वास्तविक लागत की महज 6 से 10 फीसद बैठती है।
इतना ही नहीं मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहाँ लगातार चौथे कृषि मौसम में फसलें बर्बाद हो गई हैं, वहाँ पर अभी तक पिछले दो सालों में हुई फसल हानि की भरपाई अधिकांश किसानों को नहीं हो पाई है। देश में किसानों को राहत की राशि कही एक रुपए चालीस पैसे तो कहीं 11 रुपए बाँटी जा रही है।
भारत साल 2009 के बाद का सबसे भीषण अकाल का सामना कर रहा है। देश का करीब 50 फीसद क्षेत्र कम वर्षा से प्रभावित है। सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार शामिल हैं। पूरा देश इस समय गोमांस के खाने या ना खाने की चर्चा में तल्लीन है और पिछले 17-18 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या किसी को मायने ही नहीं रखती। क्या यही है हमारी राजनीति का वास्तविक ध्येय?
राष्ट्र और राज्य दोनों के स्तर पर किसान किसी की चिन्ता का विषय नहीं है। अकाल की भयावहता और किसानों की बदहाली के बीच प्रधानमंत्री 10 दिन का अमेरिका दौरा करने को अपनी बड़ी उपलब्धि बताते हैं। वहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रदेश में पिछले एक महीने से प्रतिदिन करीब 4-5 किसानों की आत्महत्या और असामयिक मौतों के बीच जापान और दक्षिण कोरिया के लम्बे दौरे पर चले जाते हैं।
पूरा मंत्रिमंडल किसानों को तात्कालिक सहायता देने के लिये मुख्यमंत्री का इंतजार करता है। प्रधानमंत्री लौटते हैं और बिहार के चुनावी दौरे पर चले जाते हैं और वहाँ पर किसानों के लिये या कृषि के लिये कुछ नहीं बोलते।
देश में हर घंटे एक दर्जन से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस हालात को लेकर किसी भी तरह की गम्भीरता नजर नहीं आती केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक तथा भू-विज्ञान मंत्री हर्षवर्धन कहते हैं, ‘भगवान से प्रार्थना करिए कि संशोधित (मौसम) भविष्यवाणी सच साबित न हो’। लेकिन एक पुरानी कहावत है ईश्वर भी उसी की मदद करते हैं जो खुद अपनी मदद करने को तत्पर है। हमारे यहाँ स्थितियाँ एकाएक नहीं बिगड़ी। देश के सबसे बीच में बुन्देलखण्ड (मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) पिछले 15 वर्षों से मौसमी अनियमितताओं से ग्रस्त है। पर वहाँ कोई भी स्थायी हल निकालने के स्थान पर ‘पैकेज’ दे दिया जाता है।
ऐसे प्रयोग महाराष्ट्र के विदर्भ में भी लगातार किये जा चुके हैं। इनका नतीजा हमारे सामने है। एक दूसरा तथ्य यह है कि अब फसलों को नुकसान सिर्फ अकाल नहीं पहुँचाता बल्कि ओले और असामयिक वर्षा, अतिवृष्टि, पाला गिरना, बहुत तेज गर्मी या ठण्ड जैसे तमाम कारकों का आम हो जाना है। साल 2014-15 यानी दो वर्ष लगातार अकाल पड़ा है। इसके पहले साल 1965-66 में लगातार मानसून असफल रहा था।
इस दौरान बिहार में पड़े अकाल से करीब 6 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। सैकड़ों लोग भूख से मरे भी थे। साल 1986-87 में भी दो साल लगातार मानसून असफल रहा। करीब 30 करोड़ लोग प्रभावित रहे। मौजूदा दौर में यानी 2014-15 में इसकी भयावहता और भी बढ़ी। इसने खाद्यान्न उत्पादन के 60 फीसद को प्रभावित किया। इतना ही नहीं पिछले तीन सालों में विपरीत परिस्थितियों के चलते हालात बदतर हो रहे हैं।
साल 2013 में करीब 5 राज्य प्रभावित हुए थे। इसमें 3.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में करीब 500 करोड़ की फसल नष्ट हुई थी। साल 2014 में 6 राज्यों के कुल प्रभावित क्षेत्रफल बढ़कर 55 लाख हेक्टेयर हो गया। आर्थिक नुकसान भी बढ़कर 5000 करोड़ रुपए पर पहुँच गया। पर साल 2015 में तो स्थितियाँ कमोबेश बेकाबू हो गई हैं।
प्रभावित राज्यों की संख्या इस साल 15 तक पहुँच गई है। करीब 1 करोड़ 23 लाख हेक्टेयर में स्थित 20,000 करोड़ रुपए की फसलें नष्ट हो गई हैं। परन्तु न तो राजनीतिक तंत्र और न ही प्रशासनिक तंत्र चेत रहा है।
किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ अब हमें विचलित भी नहीं करतीं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की इस टिप्पणी पर गौर करिए, “आत्महत्या भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत एक अपराध है, लेकिन क्या हमने एक भी किसान को इस अपराध में पकड़ा? पर क्या आपने कभी इसकी खबर दी।” (हिन्दुस्तान टाइम्स 31 अक्टूबर 2007) यानी सरकार कितनी संवेदनशील है।
सरकारें किसानों की कितनी ‘आउट ऑफ वे’ जाकर मदद कर रही हैं। यह सोचने का विषय है। सूखे से प्रभावित होकर अब आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार जिसमें महिलाएँ भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि हम तो इस त्रासदी का सामना नहीं कर पा रहे हैं। पिछले साल उनके पति ने आत्महत्या कर ली थी, इस वर्ष हम उसी राह पर चलेंगे। बहुत बरस पहले फैज अहमद ‘फैज’ ने लिखा था,
खेती के कोनो, खुदरों मेंं
फिर अपने लहु की खाद भरो,
फिर मिट्टी सीचों अश्को से
फिर अगली रुत की फिक्र करो
लेकिन लहू और पसीने से सींचने के बावजूद स्थितियाँ नहीं बदल रही। महाराष्ट्र के दिलासा जनविकास प्रतिष्ठान के अध्ययन से पता चलता है कि पिछले साल जिन किसानों ने आत्महत्या की उनमें से 95 फीसद किसान कपास उगाते थे। इस वर्ष पंजाब, राजस्थान और हरियाणा में भी बीटी कपास की फसल पर सफेद सूली लगने से फसल नष्ट हो गई।
मध्य प्रदेश की बात करें तो यहाँ बड़े पैमाने पर सोयाबीन की खेती होने लगी है। पिछले 10 सालों से इसके उत्पादन में ठहराव आ गया है। इस साल तो आधे से ज्यादा इलाके की खड़ी फसल नष्ट हो गई है। मध्य प्रदेश का मालवा व निमाड़ का क्षेत्र अपनी समृद्धि के लिये प्रसिद्ध था और यह कहा जाता था कि मालव धरती गहन गम्भीर/ घर-घर रोटी पग-पग नीर।
लेकिन यहाँ पर भी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। वही पंजाब का मालवा भी कपास की बर्बादी और रासायनिक खेती की वजह से फैले कैंसर और अन्य तमाम बीमारियों से हैरान-परेशान है। ग़ौरतलब है कि भारत में अपने क्षेत्र के सर्वाधिक समृद्ध क्षेत्रों में मालवा का नाम था। आज देश भर के मालवा संकट में हैं।
इन सबके बीच किसानों और खेतिहर मजदूरों को संकट से निकालने के सरकारी उपायों की वास्तविकता मनरेगा के घटते दिनों से सामने आ रही है। वर्ष 2012-13 में व 2013-14 में 100 में से मात्र 46 दिन। अत्यधिक संकट के वर्ष 2014-15 में तो यह घटकर मात्र 40 दिन रह गया।
कृषि का संकट आँकड़ों से नहीं सुलझाया जा सकता। हम लगातार देख रहे हैं कि बीटी कपास और हाइब्रीड खाद्यान्न बीजों की वजह से कृषि महंगी और अविश्वसनीय होती जा रही है। अनादिकाल से भारतीय कृषि परम्परा एकल फसल (मोनोकल्चर) के दोष बताती आई है।
आज हम पूरी तरह से इसी प्रणाली को अपनाते जा रहे हैं, जिसकी वजह फसली बीमारी पूरे इलाके की फसलें एक साथ नष्ट कर देती है। इसके अलावा पानी की घटती उपलब्धता के चलते हमें अपनी कृषि प्रणाली पर नए सिरे से विचार करना चाहिए। इसके लिये आवश्यकता इस बात की है कि हमारे कृषि संस्थान खासकर शिक्षण संस्थाएँ अपनी मनोवृत्ति बदलें और भारत की जैवविविधता व किसान का सम्मान करना भी सीखें।
हमारे यहाँ कृषि को काफी हिकारत से देखने की आदत बनती जा रही है। इसी वजह से यह जीडीपी में महज 15 फीसद योगदान देती है। पर भारत की अधिकांश आबादी और पूरी अर्थव्यवस्था सिर्फ कृषि पर निर्भर है। कृषि पर पिछले दो सालों में आये संकट से पूरी उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था संकट में पड़ गई है।
बदहाल किसान सभी का अन्नदाता है। पूरे देश के पोषण का जिम्मा कृषि के जरिए किसान ही करते हैं। ऐसे में समय रहते नई नीतियाँ नहीं बनाई गई तो आने वाले दिनों में देश को बुरे दौर से गुजरना पड़ सकता है।
आज मौसम की मार से किसान बेहाल है। मानसून में बदलाव अब हर साल की बात होती दिखाई दे रही है। अकाल, कृषि और किसान तीनों एक दूसरे से जुड़े हैं। ऐसे में देश को खाद्यान्न पैदा कर दे रहे किसानों के लिये नए सिरे से सोचना जरूरी होता जा रहा है।
अकाल और उससे निपटने के तरीकों को लेकर भी एक बार आजादी के पहले के दौर यानी साल 1877 की एक गतिविधि पर गौर करते हैं। “साल 1877 में मद्रास प्रदेश में घोर अकाल पड़ा। प्रजा के कष्ट का ठिकाना नहीं रहा। अकाल से लोगों की रक्षा करने के उद्देश्य से भारत सरकार के तत्कालीन अर्थसचिव सर जान स्ट्राची ने ‘दरिद्र भारतवासियों’ पर ‘दुर्भिक्ष निवारक कर’ नाम से एक और कर लगा दिया। तय हुआ कि इससे हर साल डेढ़ करोड़ रुपए जमा होंगे। इनसे ‘दुर्भिक्ष निवारक कोष’ की स्थापना की जाएगी। फिर जहाँ कहीं अकाल पड़ेगा वहाँ के लोगों की इससे मदद होगी। जिस साल अकाल बिल्कुल नहीं पड़ेगा, उस साल इस धन में से सरकारी कर्ज कुछ-कुछ करके चुकाया जाएगा।”
आज करीब 140 साल बाद कर और वसूली तो बदस्तूर जारी है और फसल बीमा नाम के नए जन्तु ने आकार ले लिया है। जिसे कि फसल नष्ट होने पर बीमित राशि न चुकाने के हजारों तरीके मालूम हैं। यदि किसी को स्वीकृति मिल भी जाती है तो वह वास्तविक लागत की महज 6 से 10 फीसद बैठती है।
इतना ही नहीं मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहाँ लगातार चौथे कृषि मौसम में फसलें बर्बाद हो गई हैं, वहाँ पर अभी तक पिछले दो सालों में हुई फसल हानि की भरपाई अधिकांश किसानों को नहीं हो पाई है। देश में किसानों को राहत की राशि कही एक रुपए चालीस पैसे तो कहीं 11 रुपए बाँटी जा रही है।
भारत साल 2009 के बाद का सबसे भीषण अकाल का सामना कर रहा है। देश का करीब 50 फीसद क्षेत्र कम वर्षा से प्रभावित है। सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार शामिल हैं। पूरा देश इस समय गोमांस के खाने या ना खाने की चर्चा में तल्लीन है और पिछले 17-18 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या किसी को मायने ही नहीं रखती। क्या यही है हमारी राजनीति का वास्तविक ध्येय?
राष्ट्र और राज्य दोनों के स्तर पर किसान किसी की चिन्ता का विषय नहीं है। अकाल की भयावहता और किसानों की बदहाली के बीच प्रधानमंत्री 10 दिन का अमेरिका दौरा करने को अपनी बड़ी उपलब्धि बताते हैं। वहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रदेश में पिछले एक महीने से प्रतिदिन करीब 4-5 किसानों की आत्महत्या और असामयिक मौतों के बीच जापान और दक्षिण कोरिया के लम्बे दौरे पर चले जाते हैं।
पूरा मंत्रिमंडल किसानों को तात्कालिक सहायता देने के लिये मुख्यमंत्री का इंतजार करता है। प्रधानमंत्री लौटते हैं और बिहार के चुनावी दौरे पर चले जाते हैं और वहाँ पर किसानों के लिये या कृषि के लिये कुछ नहीं बोलते।
देश में हर घंटे एक दर्जन से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस हालात को लेकर किसी भी तरह की गम्भीरता नजर नहीं आती केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक तथा भू-विज्ञान मंत्री हर्षवर्धन कहते हैं, ‘भगवान से प्रार्थना करिए कि संशोधित (मौसम) भविष्यवाणी सच साबित न हो’। लेकिन एक पुरानी कहावत है ईश्वर भी उसी की मदद करते हैं जो खुद अपनी मदद करने को तत्पर है। हमारे यहाँ स्थितियाँ एकाएक नहीं बिगड़ी। देश के सबसे बीच में बुन्देलखण्ड (मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) पिछले 15 वर्षों से मौसमी अनियमितताओं से ग्रस्त है। पर वहाँ कोई भी स्थायी हल निकालने के स्थान पर ‘पैकेज’ दे दिया जाता है।
ऐसे प्रयोग महाराष्ट्र के विदर्भ में भी लगातार किये जा चुके हैं। इनका नतीजा हमारे सामने है। एक दूसरा तथ्य यह है कि अब फसलों को नुकसान सिर्फ अकाल नहीं पहुँचाता बल्कि ओले और असामयिक वर्षा, अतिवृष्टि, पाला गिरना, बहुत तेज गर्मी या ठण्ड जैसे तमाम कारकों का आम हो जाना है। साल 2014-15 यानी दो वर्ष लगातार अकाल पड़ा है। इसके पहले साल 1965-66 में लगातार मानसून असफल रहा था।
इस दौरान बिहार में पड़े अकाल से करीब 6 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। सैकड़ों लोग भूख से मरे भी थे। साल 1986-87 में भी दो साल लगातार मानसून असफल रहा। करीब 30 करोड़ लोग प्रभावित रहे। मौजूदा दौर में यानी 2014-15 में इसकी भयावहता और भी बढ़ी। इसने खाद्यान्न उत्पादन के 60 फीसद को प्रभावित किया। इतना ही नहीं पिछले तीन सालों में विपरीत परिस्थितियों के चलते हालात बदतर हो रहे हैं।
साल 2013 में करीब 5 राज्य प्रभावित हुए थे। इसमें 3.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में करीब 500 करोड़ की फसल नष्ट हुई थी। साल 2014 में 6 राज्यों के कुल प्रभावित क्षेत्रफल बढ़कर 55 लाख हेक्टेयर हो गया। आर्थिक नुकसान भी बढ़कर 5000 करोड़ रुपए पर पहुँच गया। पर साल 2015 में तो स्थितियाँ कमोबेश बेकाबू हो गई हैं।
प्रभावित राज्यों की संख्या इस साल 15 तक पहुँच गई है। करीब 1 करोड़ 23 लाख हेक्टेयर में स्थित 20,000 करोड़ रुपए की फसलें नष्ट हो गई हैं। परन्तु न तो राजनीतिक तंत्र और न ही प्रशासनिक तंत्र चेत रहा है।
किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ अब हमें विचलित भी नहीं करतीं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की इस टिप्पणी पर गौर करिए, “आत्महत्या भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत एक अपराध है, लेकिन क्या हमने एक भी किसान को इस अपराध में पकड़ा? पर क्या आपने कभी इसकी खबर दी।” (हिन्दुस्तान टाइम्स 31 अक्टूबर 2007) यानी सरकार कितनी संवेदनशील है।
सरकारें किसानों की कितनी ‘आउट ऑफ वे’ जाकर मदद कर रही हैं। यह सोचने का विषय है। सूखे से प्रभावित होकर अब आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार जिसमें महिलाएँ भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि हम तो इस त्रासदी का सामना नहीं कर पा रहे हैं। पिछले साल उनके पति ने आत्महत्या कर ली थी, इस वर्ष हम उसी राह पर चलेंगे। बहुत बरस पहले फैज अहमद ‘फैज’ ने लिखा था,
खेती के कोनो, खुदरों मेंं
फिर अपने लहु की खाद भरो,
फिर मिट्टी सीचों अश्को से
फिर अगली रुत की फिक्र करो
लेकिन लहू और पसीने से सींचने के बावजूद स्थितियाँ नहीं बदल रही। महाराष्ट्र के दिलासा जनविकास प्रतिष्ठान के अध्ययन से पता चलता है कि पिछले साल जिन किसानों ने आत्महत्या की उनमें से 95 फीसद किसान कपास उगाते थे। इस वर्ष पंजाब, राजस्थान और हरियाणा में भी बीटी कपास की फसल पर सफेद सूली लगने से फसल नष्ट हो गई।
मध्य प्रदेश की बात करें तो यहाँ बड़े पैमाने पर सोयाबीन की खेती होने लगी है। पिछले 10 सालों से इसके उत्पादन में ठहराव आ गया है। इस साल तो आधे से ज्यादा इलाके की खड़ी फसल नष्ट हो गई है। मध्य प्रदेश का मालवा व निमाड़ का क्षेत्र अपनी समृद्धि के लिये प्रसिद्ध था और यह कहा जाता था कि मालव धरती गहन गम्भीर/ घर-घर रोटी पग-पग नीर।
लेकिन यहाँ पर भी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। वही पंजाब का मालवा भी कपास की बर्बादी और रासायनिक खेती की वजह से फैले कैंसर और अन्य तमाम बीमारियों से हैरान-परेशान है। ग़ौरतलब है कि भारत में अपने क्षेत्र के सर्वाधिक समृद्ध क्षेत्रों में मालवा का नाम था। आज देश भर के मालवा संकट में हैं।
इन सबके बीच किसानों और खेतिहर मजदूरों को संकट से निकालने के सरकारी उपायों की वास्तविकता मनरेगा के घटते दिनों से सामने आ रही है। वर्ष 2012-13 में व 2013-14 में 100 में से मात्र 46 दिन। अत्यधिक संकट के वर्ष 2014-15 में तो यह घटकर मात्र 40 दिन रह गया।
कृषि का संकट आँकड़ों से नहीं सुलझाया जा सकता। हम लगातार देख रहे हैं कि बीटी कपास और हाइब्रीड खाद्यान्न बीजों की वजह से कृषि महंगी और अविश्वसनीय होती जा रही है। अनादिकाल से भारतीय कृषि परम्परा एकल फसल (मोनोकल्चर) के दोष बताती आई है।
आज हम पूरी तरह से इसी प्रणाली को अपनाते जा रहे हैं, जिसकी वजह फसली बीमारी पूरे इलाके की फसलें एक साथ नष्ट कर देती है। इसके अलावा पानी की घटती उपलब्धता के चलते हमें अपनी कृषि प्रणाली पर नए सिरे से विचार करना चाहिए। इसके लिये आवश्यकता इस बात की है कि हमारे कृषि संस्थान खासकर शिक्षण संस्थाएँ अपनी मनोवृत्ति बदलें और भारत की जैवविविधता व किसान का सम्मान करना भी सीखें।
हमारे यहाँ कृषि को काफी हिकारत से देखने की आदत बनती जा रही है। इसी वजह से यह जीडीपी में महज 15 फीसद योगदान देती है। पर भारत की अधिकांश आबादी और पूरी अर्थव्यवस्था सिर्फ कृषि पर निर्भर है। कृषि पर पिछले दो सालों में आये संकट से पूरी उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था संकट में पड़ गई है।
बदहाल किसान सभी का अन्नदाता है। पूरे देश के पोषण का जिम्मा कृषि के जरिए किसान ही करते हैं। ऐसे में समय रहते नई नीतियाँ नहीं बनाई गई तो आने वाले दिनों में देश को बुरे दौर से गुजरना पड़ सकता है।
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Post By: RuralWater