इंजीनियर बनने के बाद हर कोई बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करने और आरामदायक जिंदगी के सपने देखता है, लेकिन वहीं ग्रेटर नोएडा के गांव के रहने वाली रामवीर तंवर ने तालाबों का संरक्षण करने के लिए मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने लोगों को जल संरक्षण और तालाबों के बारे में न केवल जागरुक किया, बल्कि कई तालाबों को निर्माण करवाने के बलावा उन्हें पुनर्जीवित भी किया। उनके कार्यों की सराहना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में भी कर चुके हैं। ताइवान द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया गया है। उनके पूरे कार्य को जानने के लिए इंडिया वाटर पोर्टल हिंदी के हिमांशु भट्ट ने ‘रामवीर तंवर’ से बातचीत की है। पेश है बातचीत के कुछ अंश -
बचपन कहां और कैसे बीता ?
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा के डाढ़ा-डाबरा गांव में किसान परिवार में हुआ था। माता-पिता सहित सभी खेती का कार्य करते हैं। 8वीं कक्षा तक गांव के ही एक प्राथमिक स्कूल में पढ़ा। कक्षा 9 और 10 की पढ़ाई दूसरे सरकारी स्कूल से की। आसपास 12वीं तक का कोई स्कूल न होने के कारण गांव से 30 किलोमीटर दूर सरकारी स्कूल से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। हमारे पास करीब 20 भैंस थीं। पढ़ाई के साथ भैंस की देखभाल भी करता था। गांव में ही पढ़ने के दौरान जब स्कूल में लंच होता, तो घर आता था। भैंसों को नहर में नहलाकर वापस स्कूल चला जाता। स्कूल की छुट्टी के बाद घर जाकर, काॅपी किताबों को थैले में रखकर भैंसों को चराने चल पड़ता था। कक्षा दस तक यही दिनचर्या रही। कक्षा दस में स्कूल टाॅप किया था। तब अपने स्कूल की कक्षा दस में केवल मैं ही पास हुआ था। उस दौरान तेजी से औद्योगिकरण हो रहा था। हमने भी थोड़ी जमीन एक कंपनी को बेच दी। जिसका पैसा मिला था। कुछ पैसों से ग्रेटर नोएडा से ही मैंने बीटैक किया। हालाकि इससे पहले परिवार में कक्षा 10 से ज्यादा कोई नहीं पढ़ा था। बीटेक का थोड़ा खर्च निकालने के लिए इंटरमीडिएट में बोर्ड की परीक्षा के बाद मिलने वाली छुट्टियों में ट्यूशन पढ़ाना शुरु किया। मैं गणित और फिजिक्स पढ़ाता था। धीरे-धीरे 80 बच्चे हो गए। इसके बाद दोपहर तक काॅलेज जाता था और उसके बाद बच्चों को पढ़ता था।
जल संरक्षण का विचार कैसे आया या कहां से प्रेरणा मिली ?
उस समय गांव में काफी लोग समर्सिबल लगवा रहे थे। पानी का अनियमित दोहन होता था। सड़कों आदि पर यूं ही पानी बहता रहता था। किसी का इस ओर ध्यान नहीं था। एक बार ट्यूशन में बच्चों के बीच ही इस बात का जिक्र हुआ। इस बारे में पढ़ने पर पता चला कि कई शहरों में भूजल समाप्त होने की कगार पर है। मुझे लगा ‘कहीं अन्य शहरों की तरह हमें भी पानी के लिए लंबी लाइनों में न लगना पड़े।’’ इसलिए सभी को जागरुक करना जरूरी था। मैने ट्यूशन के बच्चों के साथ ही गांव वालों को जागरुक करने की योजना बनाई।
क्या योजना बनाई और बच्चों के माध्यम से कैसे लोगों को जागरुक किया ?
सबसे पहले बच्चों से कहा गया कि वे अपने-अपने घरों में माता-पिता व अन्यों को जल संरक्षण के प्रति जागरुक करें, लेकिन बच्चों का कहना था कि ‘उनकी बात कोई नहीं सुन रहा।’’ इसके बाद मैंने जागरुकता के लिए कुछ पैंपलेट बनवाए। हमने एकत्र होकर सभी के पास जाने का निर्णय लिया, क्योंकि ज्यादा लोगों के कहने का असर पड़ता है। रविवार को सभी (ट्यूशन वाले बच्चे) गांव में एकत्र हुए और शुरुआत मेरे घर से ही की गई। कुछ लोगों ने हमारे कार्य की आलोचना की, जबकि कुछ लोगों ने सराहना की। हमने आलोचनाओं पर कभी ध्यान नहीं दिया और अपने कार्य में जुटे रहे। फिर हम समय समय पर पेंटिग करते थे। इससे लोगों में जागरुकता दिखी और पानी की बर्बादी काफी हद तक कम हुई।
शुरुआती दौर में प्रशासन ने इस कार्य में किस प्रकार सहयोग किया ?
जागरुकता के लिए हम गांव में घर घर जाते थे, लेकिन इसमें बदलाव करते हुए हमने चौपाल बुलाने का निर्णय लिया। बच्चों के साथ चौपाल की फोटो किसी ने मीडिया को भेजी। अच्छा मीडिया कवरेज मिलने पर बात जिलाधिकारी तक पहुंची। तब तक मैं बीटैक के फाइनल इयर में आ गया था। जिलाधिकारी ने मुझे बात करने के लिए बुलाया और चौपाल का नाम ‘‘जल चौपाल ’’ रखने के लिए कहा। तब घरेलू स्तर पर पानी की बर्बाद को रोकने के लिए कोई कानून नहीं था। हमने जागरुकता का काम आसपास के गांवों में भी शुरु किया। जिलाधिकारी अपने पूरी काफिले के साथ हमारे गांव में आए। जिलाधिकारी के आने से गांव में भारी भीड़ जुट गई। जिलाधिकारी ने कहा जल संरक्षण के प्रति जागरुकता के लिए एक दो मिनट की डाक्युमेंट्री बनाई जाए, जिसमें डीएम, मेरा और अन्य पर्यावरणविदों का संदेश होगा। डाक्युमेंट्री को हर सिनेमा घरों में हर फिल्म से पहले चलाने का आदेश दिया। प्रशासन की इस मदद से हमारा संदेश कई बुद्धिजीवियों तक भी पहुंचा। इससे कई लोग जुड़ने लगे।
परिवार से पहली बार कोई इंजीनियर बना था, लेकिन फिर नौकरी क्यों छोड़ दी ?
पहली नौकरी ऑटोकैड ट्रेनर के रूप में की। कुछ महीने करने के बाद एक मल्टीनेशनल कंपनी में जूनियर इंजीनियर के तौर पर काम किया। नौकरी के साथ ही जल संरक्षण का कार्य कर रहा था। 2015 में ऐसा लगा कि केवल जागरुकता फैलाकर कुछ नहीं होगा। धरातल पर काम करने की भी जरूरत है। 2015-16 में कंपनी के ही कुछ लोगों और गांव के लड़कों ने मेरे साथ मिलकर एक तालाब की सफाई की। मुझे लगा कार्य को आगे बढ़ाने के लिए फंड जरूरी है, क्योंकि तालाब के कार्यों में संसाधनों की जरूरत पड़ती है। इसके लिए अध्ययन शुरु किया, तो पता चला कि पानी का उपयोग करने वाले उद्योग, यानी जिन उद्योगों में प्रोडक्ट बनाने में पानी का उपयोग होता है, उन्हें जल संरक्षण या भूजल संरक्षण का कार्य अनिवार्य रूप से कार्य करना है। सूचना के अधिकार में ऐसे सभी उद्योगों की जानकारी मांगने पर पता चला कि उद्योगों ने लगभग सभी तालाबों को पुनर्जीवित करने के लिए गोद लिया है, लेकिन धरातल पर स्थिति कुछ और थी। कंपनियों द्वारा गोद लिए गए कई तालाब गंदगी से भरे पड़े थे, जबकि कुछ जगहों पर तो तालाब ही नहीं थे। कंपनियों ने कहा कि तुम्हे क्या चाहिए, तो हमने तालाबों की सफाई और खुदाई के लिए जेसीबी और ट्रेक्टर आदि मांगा। हमे आगे काम करने के लिए धन की जरूरत थी। कई कंपनियों में प्रजेंटेशन दिया। एक कंपनी को काम पसंद आया और कंपनी ने ढाई लाख रुपये का फंड दिया, जिसे सीएसआर भी कहा जा सकता है। शुरुआत में नौकरी के साथ ही काम आसानी से हो पा रहा था, लेकिन जैसे जैसे काम आगे बढ़ा तो नौकरी के छोड़ने का निर्णय लिया। फिलहाल मैंने ‘से अर्थ’ नाम से एनजीओ खोला है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कंसलटेंट के रूप में कार्य कर रहा हूं। साथ ही कई कंपनियों के साथ मिलकर कार्य में जुटे हैं।
ज्यादातर तालाब अतिक्रमण की चपेट में हैं। तालाब के कार्यों को चुनौतीपूर्ण भी माना जाता है, क्योंकि कई बाहुबलियों का भी इन पर कब्जा होता है। आपको इस कार्य में किन-किन प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा ?
कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। कई इलाकों में हमारी टीम के साथ लोग हाथापाई करने तक उतर आए। तालाबों पर अतिक्रमण आदि की शिकायत करने पर कई लड़कों पर झूठे मुकदमे हुए। हमे खुद कई बार थाने के जाना पड़ता है, लेकिन फिर भी हम अपने कार्य में लगे रहे और धीरे-धीरे लोगों का समर्थन मिल रहा है। अब तक 20 से ज्यादा तालाबों का पुनजीर्वित कर चुके हैं। इन करीब 4 तालाब नए खुदवाए हैं।
तालाब की खुदाई या पुनर्जीवित करने के दौरान तालाब से लाखों रुपये की मिट्टी निकलती है। जिसका उपयोग भरान के लिए किया जा सकता है। उपजाऊ होने के कारण इसे खेतों में भी डाला जाता है, लेकिन तालाब से निकलने वाली मिट्टी को लेकर कई बार लोग आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। इस इमस्या के समाधान के लिए हम किसी भी गांव में काम करने से पहले चौपाल लगाते हैं। पूरी जानकारी गांव वालांे को दी जाती है। उन्हें बताया जाता है कि मिट्टी को हम बेचते नहीं हैं। मिट्टी उसी को दी जाएगी, जिसके पास प्रधान का अनुमति पत्र होगा।
प्रधानमंत्री ने ‘‘मन की बात’’ कार्यक्रम में आपके कार्यों को जिक्र किया था। वो कौन-सा कार्य है ?
हम उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में विभिन्न स्थानों में कार्य कर रहे हैं। डाबरा गांव में एक तालाब कूड़ाघर बन गया था। हमने इस तालाब को साफ किया था। प्रधानमंत्री के मन की बात में इसी तालाब की सफाई से पहले और सफाई के बाद की तस्वीर दिखाते हुए जिक्र किया गया था। इसके अलावा सहारनपुर के नैनखेड़ी गांव में एक तालाब को साफ किया। आज ये तालाब ईको-टूरिस्ट स्पाॅट बन गया है। तालाब के आसपास के इलाके को ऑर्गेनिक खेतों में बदल दिया गया। यहां खाने के लिए पत्तल का उपयोग किया जाता है। गिलास आदि मिट्टी के बनाए गए हैं। इन्हीं पत्तलों आदि की खाद बनाई जाती है। मेरे पास शोध के लिए दुनियाभर से लोग आते हैं। एक बार इटली से आई एक लड़की को सहारनपुर के इसी गांव में रुकवाया था। ईको-टूरिस्ट स्पाॅट बनने से यहां लोगों के लिए आजीविका के माध्यम भी बढ़े हैं। मेरे कार्यों के लिए मुझे ताइवान द्वारा ‘शाइनिंग अर्थ प्रोटेक्शन अवार्ड’ से भी नवाजा जा चुका है। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयंसिद्ध सम्मान और रेक्स कर्मवीर चक्र अवार्ड भी मिल चुका है।
आपके ऑनलाइन अभियान की काफी चर्चा हुई थी। क्या है वो ऑनलाइन अभियान ?
आज के समय में सोशल मीडिया संचार का काफी सशक्त माध्यम है। मैंने फेसबुक पर पेज बनाया था। इसमें हमने तालाब के साथ सेल्फी अभियान चलाया। लोगों से अपील की गई कि वें अपने गांव में तालाब के साथ सेल्फी लें और उस जगह का विवरण देते हुए तालाब की पहले और वर्तमान स्थिति बताएं। ये अभियान हमारे गांव या जिले तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि भारत के 21 जिलों से हमारे पास सेल्फी आई। यहां तक कि न्यूयार्क, सिडनी, इंडोनेशिया आदि में रह रहे भारतीयों ने भी सेल्फी भेजी। हम इन पोस्ट में फिर सरकार को टैग करते थे। ऐसे में लोग प्रशासन से तालाबों के बारे में पूछने लगे। फिर धीरे-धीरे इन तलाबों की सफाई भी शु़रु हुई।
तालाब बनने से क्या जलस्तर में सुधार आया ?
हमारे पास जल स्तर देखने की कोई मशीन नहीं है, लेकिन ये स्वभाविक है कि तालाबों के बनने से जलस्तर बढ़ेगा। गांव के कई लोग बताते हैं कि तालाब बनने या पुनर्जीवित होने से पहले गांव के नलों में पानी कम आता था। कई जगह तो पानी ही नहीं आता था, लेकिन अब नलों में पानी आने लगा है। इससे ही हमे पता चला कि जलस्तर बढ़ा है।
नोएडा में पहले काफी संख्या में तालाब हुआ करते थे, लेकिन अब हर साल जलस्तर कम हो रहा है। क्या तालाब बचाने की दिशा में सरकार के प्रयास पर्याप्त हैं ?
ये बात सही है कि यहां पहले 200 से ज्यादा तालाब हुआ करते थे, लेकिन आज ये स्थिति आ गई है कि नोएडा में हर साल भूजल स्तर 1.5 मीटर तक नीचे जा रहा है। एक तरह से देखा जाए तो शासन और प्रशासन मिलकर शहर में पार्क बना रहे हैं, जिम बना रहे हैं। ऐसे ही नोएडा बना, लेकिन वाॅटर बाॅडी नहीं बनाई जा रही हैं। 2006 का ही एक आर्डर है कि 1 प्रतिशत हिस्से में तालाब होने चाहिए, लेकिन नियमों का अनुपालन नहीं हो रहा है। शायद तालाब बनाना प्राथमिकता में नहीं है, लेकिन जलशक्ति मंत्रालय के आने से बदलाव आया है। विभागों में कार्य के प्रति रूचि आई है। तालाबों पर जोर दिया जा रहा है। मंत्रालय की तरफ से जनपदों को लक्ष्य दिया जा रहा है। एनओसी मिलने में दिक्कत नहीं आती। ऐसे में जो प्रशासन तलाबों की अनदेखी करता था, वो कहता है कि ‘‘हमारे पास कुछ तालाब हैं, आप कार्य करना चाहते हैं ?’’
तालाबों के संरक्षण के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं ? अर्थात जल संकट का समाधान क्या है ?
जल संरक्षण प्राथमिकता में होना चाहिए, लेकिन देखा जाता है कि पानी को लेकर गर्मियों में तीन से चार महीने ही हल्ला होता है, फिर सभी शांत हो जाते हैं। दरअसल, हमारे देश में तालाब अलग-अलग विभागों के अधीन हैं। कोई राजस्व विभाग का है, तो कोई सिंचाई विभाग। कई तालाब मत्स्य और कृषि विभाग तथा वन विभाग के अंतर्गत आते हैं। ऐसे में आदमी परेशान हो जाता है। कई बार पता ही नहीं चलता कि तालाब किस विभाग का है। ऐसे में तालाबों के लिए एक अलग विभाग होना चाहिए। एकल विंडो बनाई जाए। तलाबों के संदर्भ में शिकायतकर्ताओं के नाम गुप्त रखे जाएं। साथ ही शहरी इलाकों या अन्य कहीं भी, यदि लोगों के पास तालाब के लिए जमीन नहीं है, तो छत सभी के पास है। वर्षाजल संग्रहण को अनिवार्य किया जाए। केवल खानापूर्ति के लिए नहीं, बल्कि बकायदा इसका ऑडिट हो और टीम मौके पर जाकर वर्षाजल संग्रहण के लिए लगाए गए ढांचे को देखे। इसके बाद ही एनओसी दी जाए।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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