सर्वोच्च न्यायालय ने इंडोसल्फान के प्रयोग पर 8 सप्ताह की अस्थाई रोक लगा दी है। इस दौरान संबंधित सभी पक्षों को अपना-अपना पक्ष रखने को कहा गया है। केरल और अनेक अन्य राज्यों में इस कीटनाशक के दुष्परिणाम साफ तौर पर देखे जा सकते हैं लेकिन अनेक राजनीतिज्ञों व उद्योगपतियों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए लाखों किसानों की जिंदगियों को दाव पर लगा दिया है।
इंडोसल्फान के हानिकारक प्रभावों पर हुए अध्ययनों की अनदेखी करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार द्वारा अप्रैल के अंत में जेनेवा में स्टॉकहोम सम्मेलन के अंतर्गत होने वाले सम्मेलन के तुरंत पहले इंडोसल्फान के पक्ष में वातावरण बनाने का प्रयास किया गया। इंडोसल्फान को प्रतिबंधित करने के मामले में पवार का रुख कमोवेश नकारात्मक ही है। 22 फरवरी 2011 को लोकसभा में एक प्रश्न का जवाब देते हुए सदन को गुमराह करते हुए उन्होंने कहा कि अनेक राज्य नहीं चाहते हैं कि इस कीटनाशक पर प्रतिबंध लगे। 19 अप्रैल को दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अधिकारियों के साथ हुई बैठक में पवार ने इसे प्रतिबंधित करने में अपनी असमर्थता दोहराई थी। उन्होंने जोर दिया कि ऐसे कोई अध्ययन नहीं हुए हैं जो कि सिद्ध कर सकें कि इंडोसल्फान हानिकारक है। गौरतलब है कि लगभग 81 देश या तो इस कीटनाशक को प्रतिबंधित कर चुके हैं या इस प्रक्रिया में हैं। देश में केरल और कर्नाटक ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। पवार का तर्क है कि स्टॉकहोम सम्मेलन में ऐसा कोई वैज्ञानिक कारण प्रस्तुत नहीं किया गया जिसके आधार पर इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाया जा सके।वहीं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का कहना है ‘हम उनका तर्क ही नहीं समझ पा रहे हैं। जिन देशों ने इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाया है उनके पास उन्नत वैज्ञानिक शोध सुविधा उपलब्ध है। यूरोपियन यूनियन, अमेरिका, जापान, दक्षिणी कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने वैज्ञानिक आंकड़ों और अध्ययनों के आधार पर ही प्रतिबंध लगाया है। इसके पूर्व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सरकार से कहा था कि वह जेनेवा में इस संबंध में हुई अंतर्राष्ट्रीय सहमति के साथ है और इस रासायनिक कीटनाशक को अनुक्रमणिका ‘ए’ में सूचीबद्ध हो जाने दे। इससे इंडोसल्फान की पूरे पर्यावरण से समाप्ति में मदद मिलेगी।
टॉक्सिक वॉच अलायंस के संयोजक गोपालकृष्ण का कहना है ‘रसायन, कृषि और स्वास्थ्य मंत्रालयों ने एक औद्योगिक संस्था, भारतीय रसायन सभा के दबाव में आकर इंडोसल्फान को प्रतिबंधित करने के संबंध में प्रतिगामी निर्णय ले लिया है।’ पिछले दिसम्बर से इस कीटनाशक को प्रतिबंधित करने की मांग ने जोर पकड़ लिया था। उसके बाद पवार ने दावा किया है कि सरकार भारतीय चिकित्सा शोध परिषद (आईसीएमआर) के निर्णय को लागू करेगी। यह स्वास्थ्य संस्था केरल स्थित कालीकट चिकित्सा महाविद्यालय के नतीजों का इंतजार कर रही है और इसके बाद वह इंडोसल्फान पर राष्ट्रव्यापी अध्ययन प्रारंभ करेगी। परंतु शोध रिपोर्ट अभी तक जारी ही नहीं की गई है।
केरल सरकार द्वारा करवाए गए अध्ययन के नतीजों से सामने आया है कि इंडोसल्फान से गर्भपात के मामलों, बांझपन, गर्भावस्था के दौरान भ्रूण की मृत्यु के अलावा किडनी व मानसिक रूप से अस्वस्थता के मामलों में वृद्धि हुई है। बच्चों में हृदय रोग, सेरीब्रल पलसी (मानसिक पिछड़ापन) और शरीर में विकलांगता के मामले भी आम हो गए हैं। विद्यालय जाने वाली लड़कियों में एस्ट्रोजेन अधिक मात्रा में पाया गया है जिसकी वजह से उन्हें भविष्य में गर्भाशय एवं स्तन कैंसर भी हो सकता है। केरल के कसारागोड जिले के पीडि़तों के खून के नमूनों में इंडोसल्फान के अवशेष पाए गए थे।
पवार का झूठ:- कृषि मंत्री ने संसद से कहा था कि अनेक राज्य इंडोसल्फान पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहते। परंतु वास्तविकता यह है कि किसी भी राज्य ने उनसे ऐसा लिखित अनुरोध नहीं किया। सूचना का अधिकार के अंतर्गत मंत्रालय ने लिखा है कि उसे इस संबंध में कुल 6 पत्र मिले हैं। परंतु इसमें से राज्य सरकारों का कोई पत्र नहीं था। 4 पत्र गुजरात से थे। इनमें से 2 किसानों द्वारा व 1 सौराष्ट्र चेंबर्स ऑफ ऑमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज द्वारा, जबकि चौथा अमरेली, गुजरात के एक गैर सरकारी संगठन सुदर्शन विश्व कृषि केंद्र ट्रस्ट द्वारा लिखा गया है। वैसे गुजरात द्वारा प्रतिबंध का विरोध करने की एक वजह यह भी हो सकती है कि इंडोसल्फान के तीन बड़े निर्माताओं में से दो एक्सेल क्रॉप केयर लि. व कोरोमंडल इंटरनेशनल लि. राज्य में ही स्थित हैं।
पांचवा पत्र कंसोरटियम ऑफ इंडियन फॉरमर्स एसोसिएशन की ओर से आया है। इसके सचिव पी.चेंगलरेड्डी मोंनसेंटो के साथ गहनता से कार्य कर चुके हैं। अंतिम पत्र ज्योत्सना पी. कपाडि़या द्वारा लिखा गया है जिसे कीटनाशक लाबी ‘ऐसा वैज्ञानिक जिसने राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान (एमआईओएच) के धोखे को उजागर किया है’ के रूप में प्रस्तुत करती है। वैसे कपाडि़या एक्सेल क्रॉप केयर लि. की उपमहाप्रबंधक भी हैं।
गुजरात सरकार द्वारा मार्च में जारी राज्य के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के अध्ययन में कहा गया है कि इंडोसल्फान के संपर्क में आने से व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए केरल में राज्य इंडोसल्फान प्रभावित पुनर्वास कार्यक्रम के सहायक नोडल अधिकार एवं चिकित्सक मोहम्मद अशील का कहना है ‘यह एक अनर्गल रिपोर्ट है। इन्होंने यह कहते हुए इंडोसल्फान को क्लीन चिट दे दी है कि एम.आई.ओ.एच. के अध्ययन में प्रक्रियागत त्रुटियां हैं।’ गुजरात की इंडोसल्फान रिपोर्ट में भावनगर के एक गैर सरकारी संगठन संवर्धन ट्रस्ट के अध्ययन को आधार बनाया गया है। ट्रस्ट ने राजकोट के दो गांवों के किसानों के खून में कीटनाशकों के अवशेष के नमूने तमिलनाडु स्थित ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायो टेक्नॉलॉजी एण्ड टेक्सिकोलॉजी (अंतर्राष्ट्रीय जैव तकनीक एवं विज्ञान संस्थान, आईआईबीएटी) को सौंप दिए थे।
सन् 2001 में आईआईबीएटी जिसे पहले एफआईपीपीएटी पुकारा जाता था, को केरल के प्लांटेशन आयोग ने कसारागोड में इंडोसल्फान के प्रभाव के अध्ययन का कार्य सौंपा था। संस्थान द्वारा खून के किसी भी नमूने, गाय के दूध और पानी में कीटनाशक के कोई अवशेष नहीं पाए गए। परंतु सन् 2004 में डाउन टू अर्थ द्वारा करवाई गई जांच में रहस्योद्घाटन हुआ था कि संस्थान को मनुष्यों के खून में इंडोसल्फान के अवशेष मिले थे, परंतु उन्होंने अपनी अंतिम रिपोर्ट में इस तथ्य को उजागर नहीं किया। पेस्टीसाइड एक्शन नेटवर्क - उत्तरी अमेरिका के वरिष्ठ वैज्ञानिक कार्ल टपर ने लिखा है, मुझे लगता है कि रिपोर्ट अप्रत्यक्ष रूप से पेस्टीसाइड मेन्यूफेक्चरर्स एण्ड फार्मुलेटर्स एसोएिसशन आॅफ इंडिया (पीएमएफएआई) या भारतीय रसायन परिषद के अधिकारियों द्वारा लिखी गई है क्योंकि इसमें वे ही मानक तर्क दिए गए हैं और उसी भाषा का इस्तेमाल किया गया जो कि उद्योग से मेल खाती है। इसमें कहा गया है कि इंडोसल्फान परागण पर विपरीत प्रभाव नहीं डालता है तथा इसे यूरोपियन यूनियन का षड़यंत्र निरुपित किया है।
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