इंडिया इन ट्रांजिशनः प्रौद्योगिकी मानव के इरादों को बुलंद करती है

अपने पर्यावरण की देशीय प्रकृति का ज्ञान संसाधनों के उपयोग, पर्यावरण के प्रबंधन, भूमि संबंधी अधिकारों के आवंटन और अन्य समुदायों के साथ राजनयिक संबंधों के लिए आवश्यक है। भौगोलिक सूचनाएं प्राप्त करना और उनका अभिलेखन समुदाय को चलाने के लिए एक आवश्यक तत्व है। इन सूचनाओं की प्रोसेसिंग और उसके आधार पर महत्वपूर्ण निर्णय लेना समुदाय के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है, भले ही वह कोई घुमंतू जनजाति हो या फिर भारत के आकार का कोई देश। परंपरागत रूप में भौगोलिक सूचनाओं का संकलन क्षेत्रों के सर्वेक्षक दल द्वारा किया जाता था और उन्हें मानचित्र के भौतिक माध्यम में अभिलिखित किया जाता था। वृक्षों के आच्छादन, खेती-बाड़ी की जमीन और पहाड़ों एवं नदियों जैसे भौतिक लक्षणों से संबंधित भू-आच्छादन और सीमाओं एवं परिसीमाओं तक फैले हुए स्थलों के आभासी डेटा को भौगोलिक सूचना के रूप में जाना जाता है। पृथ्वी की सतह के बिंदुओं से संबंधित स्थलों के परिमापन संबंधी विज्ञान का सर्वेक्षण, मानचित्रण और इन सूचनाओं के साथ मानचित्र निर्मित करने के पूरक विज्ञान अध्ययन के प्राचीन क्षेत्र रहे हैं।

आज भारत संक्रमण काल से गुजर रहा है, ऐसी कई स्वतंत्र एजेंसियां हैं, जो अलग-अलग लक्ष्यों और उद्देश्यों को सामने रखकर देश के संसाधनों पर अपनी पकड़ मजबूत करने में लगी हैं। पर्यावरण संबंधी विनियामक एजेंटों के बढ़ते काम के बोझ के कारण कार्यविधियों की बहुलता हो गई है, जिसके फलस्वरूप आर्थिक विकास की दर कम हो गई है और सरकार की पारदर्शिता भी कम हो गई है। खास तौर पर भारत के पर्यावरण और वनों के संरक्षण के लिए भारी मात्रा में भौगौलिक सूचनाओं को प्रोसेस करने और विभिन्न स्तरों पर प्रशासनिक अनुमोदनों की आवश्यकता होगी। निर्णय समर्थन प्रणाली को भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) के साथ समन्वित करके भारत के पर्यावरण संबंधी विनियमन में सुधार लाया जा सकता है। भौगोलिक सूचनाओं के विश्लेषण के लिए विकसित भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) नामक यह सूचना प्रबंधन प्रणाली विभिन्न डेटा सेटों को समन्वित करती है और उपयोगकर्ताओं को एक ऐसी क्षमता प्रदान करती है, जिसकी सहायता से विभिन्न मूल स्थानों के साथ देशीय डेटा सेटों के आर-पार की विशेषताओं को विश्लेषित किया जा सकता है।

परंपरागत रूप में भौगोलिक सूचनाओं का संकलन क्षेत्रों के सर्वेक्षक दल द्वारा किया जाता था और उन्हें मानचित्र के भौतिक माध्यम में अभिलिखित किया जाता था। वृक्षों के आच्छादन, खेती-बाड़ी की जमीन और पहाड़ों एवं नदियों जैसे भौतिक लक्षणों से संबंधित भू-आच्छादन और सीमाओं एवं परिसीमाओं तक फैले हुए स्थलों के आभासी डेटा को भौगोलिक सूचना के रूप में जाना जाता है। पृथ्वी की सतह के बिंदुओं से संबंधित स्थलों के परिमापन संबंधी विज्ञान का सर्वेक्षण, मानचित्रण और इन सूचनाओं के साथ मानचित्र निर्मित करने के पूरक विज्ञान अध्ययन के प्राचीन क्षेत्र रहे हैं। सर्वेक्षक-दल भूमि के स्वामित्व की सीमाओं और भौतिक लक्षणों के परिमापन के काम में वर्षों का समय लगा सकते हैं और उच्च प्रशिक्षित मानचित्रक विस्तृत मानचित्रों के रूप में समस्त समुदायों की भौगोलिक सूचनाओं को अभिलेखित करेंगे। भौगोलिक सूचनाओं को एकत्र और अभिलेखित करने की भारत में लंबी परंपरा रही है।

सबसे पहले और सबसे बड़ा भूमि सर्वेक्षण छठी सदी में शेरशाह सूरी ने भू-राजस्व के प्राक्कलन के लिए कराया था। मुगल बादशाह औरंगजेब और ब्रिटिश साम्राज्य ने भी सत्रहवीं सदी के अंत में लिखित अभिलेखों और क्षेत्रीय मानचित्रों की प्रणाली का उपयोग करते हुए अपनी अर्जित भूमि पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए इस काम को जारी रखा था। सूचनाओं के संकलन और विश्लेषण के लिए प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता होती है, ताकि इस डेटा को प्रोसेस कराया जा सके और ज्यादातर लोगों को इस विधि की जानकारी से दूर रखा जा सके, लेकिन पिछली सदी में सेटेलाइट आधारित रिमोट सेंसिंग के आविष्कार के बाद इस स्थिति में काफी बदलाव आ गया है। भौगोलिक सूचनाओं के संकलन के लिए यह अब अनिवार्य उपकरण बन गया है। रिमोट सेंसिंग सुदूर से ही निष्क्रिय और सक्रिय विद्युत चुंबकीय विकिरण द्वारा वस्तुओं के अध्ययन की विद्या है, जिसने सर्वेक्षण के तौर-तरीकों को स्वचालित कर दिया है और इस प्रकार के डेटा को संकलित करने में लगने वाले समय को भी कम कर दिया है।

अभिकलनात्मक (कम्यूटेशनल) शक्ति में वृद्धि होने और उन्नत सॉफ्टवेयर के विकास के कारण सरलता से लगाई जा सकने योग्य भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) के निर्माण को भी सहज बना दिया गया है।

आदर्श रूप में पर्यावरणीय या वन संबंधी अनुमति के आवेदनों से प्राप्त देशीय डेटा की जीआईएस में तेजी से प्रविष्टि की जाएगी और फिर उसका मिलान वन आच्छादन, भूजल और संरक्षित क्षेत्रों से दूरी जैसे डेटाबेस से किया जाएगा। चूंकि सभी आवेदनों का डेटा उसी जीआईएस के अंदर निहित होगा, विशिष्ट क्षेत्र पर संचयी पर्यावर्णीय प्रभाव का तेजी से अनुमान लगाया जा सकेगा।

आज भारत में सरकारी और निजी क्षेत्र में अनेक एजेंसियां हैं, जो रिमोट सेंसिंग डेटा के विभिन्न अनुप्रयोगों पर काम कर रही हैं। इन अनुप्रयोगों में सबसे प्रमुख है, प्रबंधन और संरक्षण की दृष्टि से पर्यावरण का अध्ययन। भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा देश के वन आवरण मानचित्रों का निर्माण किया जाता है और अन्य एजेंसियों द्वारा अपने हितों के संवर्धन के लिए मानचित्र बनाए या कमीशन किए जाते हैं। भौगोलिक सूचनाएं और पर्यावरणीय संरक्षण आपस में गुंथे हुए हैं। सीमाओं की पहचान और परिसीमन से उन क्षेत्रों या फिर सीमाओं पर पाबंदी लगाई जा सकती है या फिर उनमें प्रवेश मिल सकता है, जिनसे पारिस्थितिक सीमाओं या वन्य गतिविधियों को परिभाषित किया जा सकता है, जो पर्यावरणीय प्रबंधन के लिए बहुत आवश्यक है। मानवीय गतिविधियों के पर्यावरणीय प्रभाव के नियंत्रण के लिए यह सूचना बहुत आवश्यक है, ताकि भारतीय पर्यावरण एवं वन (एमओईएफ) और विभिन्न राज्य वन विभाग जैसी पर्यावरणीय विनियामक एजेंसियों को इसे सुलभ कराया जा सके। इन एजेंसियों द्वारा लिए गए निर्णयों से हर रोज लाखों भारतीयों के जीवन और आजीविका पर असर पड़ता है। यह डेटा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त किया जाता है और इन तमाम महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने के लिए इनका उपयोग किया जाता है, परंतु डेटाबेस बिखरा हुआ है। उच्चतम न्यायालय ने हाल में दिए गए अपने निर्णय में भारत की पर्यावरणीय सूचनाओं के डिजिटीकरण की जोरदार शब्दों में वकालत की है और इस प्रकार इसकी आवश्यकता को स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है।

आदर्श रूप में पर्यावरणीय या वन संबंधी अनुमति के आवेदनों से प्राप्त देशीय डेटा की जीआईएस में तेजी से प्रविष्टि की जाएगी और फिर उसका मिलान वन आच्छादन, भूजल और संरक्षित क्षेत्रों से दूरी जैसे डेटाबेस से किया जाएगा। चूंकि सभी आवेदनों का डेटा उसी जीआईएस के अंदर निहित होगा, विशिष्ट क्षेत्र पर संचयी पर्यावरणीय प्रभाव का तेजी से अनुमान लगाया जा सकेगा। इस जीआईएस का उपयोग भूदेशीय निर्णय समर्थन प्रणाली (जीडीएसएस) के रूप में किया जा सकेगा, ताकि विनियामक एजेंसियां पारदर्शी, सटीक, पुनरुत्पादक और नीति संबंधी मजबूत निर्णय लेने में उनकी मदद ले सकें। इस जीडीएसएस के बिना सरकारी एजेंसियों की पहुंच उन सर्वोत्तम उपलब्ध उपकरणों तक नहीं हो सकती, जो देश के कानून को लागू करने के लिए आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए गोवा राज्य की विधानसभा की लोक लेखा समिति ने अवैध खनन का पता लगाने के लिए हाल में गूगल अर्थ के उपलब्ध सैटेलाइट बिंबों का खुलकर उपयोग किया। एक दक्ष जीआईएस की सहायता से संबंधित डेटाबेस का मात्र मिलान करके ही फ्लेग्रेंट उल्लंघनों को स्वत: फ़्लैग किया जा सकेगा। ऐसे बहुत से मामले होंगे, जो अब तक सामने नहीं आ पाए होंगे। यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केंद्र द्वारा अनुरक्षित भूमि के उपयोग की निगरानी/कवर डायनेमिक्स वस्तुत: काम कर रहे जीडीएसएस का एक उदाहरण है। इस परियोजना का घोषित उद्देश्य यूरोपियन संघ की नीतियों एवं विधायिका की तैयारी, परिभाषा एवं कार्यान्वयन के समर्थन के लिए शहरी और क्षेत्रीय पर्यावरणों का मूल्यांकन, निगरानी, मॉडलिंग और विकास है। इसकी शुरुआत वर्ष 1998 में की गई थी। अमेरिकी वन सेवा भी जीडीएसएस के विभिन्न प्रयोजनों के लिए इसका उपयोग करती है। यह सेवा अपने इस नवीनतम उपकरण का उपयोग उन क्षेत्रों को चिन्हित करने के लिए करती है, जो सतही पेयजल की आपूर्ति करते हैं और जिन पर विकास के कारण खतरे मंडरा रहे हैं। जीडीएसएस से प्राप्त सूचना को उसके बाद वन कार्य योजनाओं में शामिल किया जा सकेगा या उसका उपयोग अन्य निर्णय संबंधी उपकरणों के लिए किया जा सकेगा।

इस (जीडीएसएस) का निर्माण एक तकनीकी और प्रौद्योगिकीय चुनौती होगी और इसका विकास गूगल या पैलेडिन जैसी निजी एजेंसियों द्वारा किया जा सकेगा, जो इस प्रकार के उद्यम स्तर के सॉफ्टवेयर के डिजाइन और उत्पादन की प्रामाणिक तौर पर विशेषज्ञ हैं। राष्ट्रीय सूचना केंद्र (एनआईएस), राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग एजेंसी (एनआरएसए) जैसी भारत सरकार की एजेंसियां और विभिन्न सरकारी अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (एसएसी) भी इस प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं। वैकल्पिक उत्पादन प्रक्रिया ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर के विकास के द्वारा हो सकती है। बीते सितंबर माह में आयोजित अमेरिकी-रूसी सरकार का कोड-ए-थोन इस प्रक्रिया का एक उदाहरण है, जिसमें प्रोग्रामरों के दलों ने बेहतर शासन के लिए सूचना प्रणालियां निर्मित करने के लिए आपस में प्रतियोगिता की थी। व्यापक पर्यावरणीय जीडीएसएस निर्मित करने के लिए अपेक्षित प्रौद्योगिकी विद्यमान हैं, जिनके कार्यान्वयन से भारत में पर्यावरणीय विनियामक प्राधिकरणों की क्षमता बढ़ेगी और उनके इरादे बुलंद होंगे। आशा है, इससे भारत के पर्यावरण और वनों का बेहतर ढंग से संरक्षण होगा।

हिंदी अनुवाद : विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार। (लेखक पर्यावरण के स्वतंत्र अनुसंधानकर्ता एवं मानचित्रकार हैं।)

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