दुनिया भर में 80 प्रतिशत ई-वेस्ट चीन, पाकिस्तान और भारत में पैदा होता है और दुर्भाग्य है कि ई-वेस्ट को मैनेज करने के बारे में सबसे कम जागरूकता इन्हीं देशों में देखने को मिलती है। ई-वेस्ट निश्चित तौर पर कई बीमारियों को तो जन्म देता ही है उसके साथ पर्यावरण के लिए भी भयानक खतरा पैदा करता है और ये खतरा भारतीयों की बढ़ती तादात के बाद और भी भयानक रूप में सामने आने की कगार पर है। इसी ई-कचरे के बारे में जानकारी देते अमित कुमार।
जहाँ पहले एक कंप्यूटर की उम्र 7 से 8 साल हुआ करती थी वहीं वो घटकर 3 से 4 साल हो गई है। देश में अभी करीब 8 करोड़ कंप्यूटर हैं और आप जानकर चौंक जाएंगे कि अगले पाँच साल में इसकी संख्या बढ़कर दोगुनी से भी ज्यादा हो जाएगी। लोगों के घरों में मनोरंजन के साधन टेलीविजन की आबादी भी 2015 तक बढ़कर 24 करोड़ के आसपास पहुँच जाएगी। वहीं बात की जाए मोबाइल्स की तो भारत में इसके यूजर भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 70 करोड़ मोबाइल इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ई-वेस्ट का प्रबंधन करने वाली कंपनियों का मानना है कि किसी मोबाइल फोन को 98 फीसदी तक रिसाइकिल किया जा सकता है, उसी तरह कंप्यूटर की रिसाइकिलिंग भी कई तरह के नए उत्पादों को जन्म दे सकती है। मेमोरी डिवाइस, एमपी3 प्लेयर और आईपॉड, ई-वेस्ट में निश्चित तौर पर इजाफा करते हैं।
ई-वेस्ट के बढ़ते इस्तेमाल ने बाजार को एक नया कारोबार खोलने के लिए भी प्रेरित किया है। इलेक्ट्रॉनिक साधनों के बढ़ते इस्तेमाल और उसके बाद उससे होने वाले खतरों को देखते हुए विशेषज्ञों ने वेस्ट मैनेजमेंट का रास्ता सबके सामने रखा। इलेक्ट्रॉनिक कचरे को फिर से इस्तेमाल करने का तरीका है वेस्ट मैनेजमेंट। इसमें कचरे को नष्ट करने की बजाए उसे रिसाइकिल किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करने के मामले में अव्वल देश होने के नाते ये जरूरी होता है कि भारत सरकार इसे लेकर कुछ प्रयास करे। इसी कड़ी में मंगलवार को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की अधिसूचना प्रभावी हो गई। मंगलवार से प्रभावी हुए ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन) अधिनियम 2011 के प्रावधान के मुताबिक जो कंपनियां इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाती हैं उसे सही ढंग से रिसाइकल करने की जिम्मेदारी उन्हीं की होगी। इसके लिए कंपनियों को जगह-जगह कुछ ऐसे सेंटर खोलने होंगे जहाँ इन उत्पादों की कलेक्शन हो सके। इतना ही नहीं इन रिसाइकल केंद्रों के प्रति लोगों को जागरूक करने का काम भी निर्माता कंपनियों को ही करना होगा।
अहम बात ये है कि यह कानून एक साल पहले ही बन गया था लेकिन कंपनियों ने अब तक रिसाइकिलिंग सेंटर्स के बारे में जागरूकता संबंधी कार्यक्रम चलाए हों ऐसा प्रतीत नहीं होता। दिलचस्प बात तो ये है कि कंपनियाँ अभी तक ये भी सुनिश्चित नहीं कर पाई हैं कि जो लोग ई-कचरा कंपनियों को लौटाएंगे उसके एवज उन्हें कितनी कीमत दी जाएगी। कंपनियाँ इस सामान को मुफ्त में लेना चाहती हैं लेकिन गौरतलब है कि जब कबाड़ी भी हमसे ई-कचरा ले जाता है तो वो भी उसकी कुछ कीमत अदा करता है तो बड़ा सवाल ये है कि कंपनियाँ इससे क्यों इंकार कर रही हैं? हालांकि इस मामले में कंपनियां कहती हैं कि उन्हें ई-वेस्ट को रिसाइकिल करने में खर्चा करना पड़ेगा। अगर सरकारी पक्ष पर ध्यान दें तो पाएंगे कि सरकार भी इस मामले में लोगों को जागरूक करने में विफल ही रही है। लोग अभी भी ई-कचरे के निपटान को लेकर जागरूक नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 3.5 लाख टन ई-कचरा सालाना दिल्ली में इकट्ठा होता है और उस कचरे का अवैज्ञानिक ढंग से निपटारा किया जा रहा है।
दरअसल कचरे के अवैज्ञानिक ढंग से निपटान करने की वजह से पर्यावरण और लोगों को काफी नुकसान हो रहा है। गौर करने की बात ये है ई-कचरे के अवैज्ञानिक तरीके से निपटारा होने के एवज में पर्यावरण एवं संरक्षण अधिनियम के तहत कार्रवाई तक का प्रावधान है। दोषी पाए जाने पर 5 साल तक की सजा और 1 लाख रुपए के जुर्माने तक का प्रावधान है। लेकिन दुर्भाग्य है कि ई-कचरे के निपटारा एक गोरखधंधा बन गया है और कई जिंदगियों को नाश करने पर तुला हुआ है। जनसंख्या का लगातार बढ़ना और आर्थिक विकास की राह पर दौड़ते भारत के सामने इस कचरे का अंबार लगातार बढ़ता जा रहा है। कार्बनिक उत्पाद, गंदगी और धूल लगभग 80 फीसदी कचरे को पैदा करते है। बढ़ती जनसंख्या की वजह से इस कचरे को पैदा होने से रोका तो नहीं जा सकता लेकिन इसका मैनेजमेंट करके इसका सही इस्तेमाल जरूर किया जा सकता है। एक्सपर्ट्स के अनुसार तीन तरीकों से इलेक्ट्रॉनिक कचरे को मैनेज किया जा सकता है। पहला तरीका है जमीन में गड्ढा खोदकर कचरा गाड़ना, दूसरा है कचरे को इकट्ठा करके उसे जलाना और तीसरा और सबसे कारगर तरीका है कचरे को रिसाइकिल करके फिर से इस्तेमाल करना।
विशेषज्ञ इस तरीके को सबसे कारगर समझते हैं। देश में सन् 2000 से पहले कचरे को रिसाइकिल करने की नीति नहीं थी। लेकिन उसी साल सरकार ने इस पर सोचना शुरू किया। वेस्ट मैनेजमेंट की नीतियाँ समाज के हर तबके के हिसाब से अलग-अलग बनाई गई। ये नीतियाँ विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग है और शहरी और ग्रामीण इलाकों के लिए अलग। औद्योगिक क्षेत्रों के लिए भी अलग से नीतियाँ बनाई गई, इन नीतियों पर कुछ देशों में तो काम हो रहा है लेकिन भारत में इस ओर न के बराबर ध्यान दिया जा रहा है। ऑस्ट्रेलिया में कचरा इकट्ठा करने के लिए म्युनिसिपैलिटी हर एक मकान मालिक को तीन तरह के डस्टबिन देती है, जिनमें रिसाइकिल होने वाला कचरा, साधारण कचरा और बगीचे का कचरा अलग-अलग डाला जाता है। वहीं कनाडा में सारे शहर का कूड़ा इकट्ठा कर उसे रिसाइकिल किया जाता है। कनाडा में गाँवों में ट्रांसफर स्टेशन बनाकर कचरा रिसाइकिल केंद्रों को भेजा जाता है।
दरअसल भारत में इस तरह के प्रयोगों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। कुछ एनजीओ भी इस विषय पर काम कर रहे हैं लेकिन भारत में इस प्रयास को जागरूकता के अभाव में वो कामयाबी नहीं मिल पा रही जो विदेशों में मिल रही है। ई-वेस्ट मैनेजमेंट को कारोबार के तौर पर भी कई कंपनियाँ अपना रही है और देश में जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक साधनों का प्रयोग बढ़ रहा है उससे इन कंपनियों के सुनहरे भविष्य को लेकर कोई आशंका नजर नहीं आती। चिंता कि बात तो ये है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे ने लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा कई तरह की बीमारियों को पैदा करता है, जिनमें सांस से संबंधित बीमारियों के अलावा, स्किन से संबंधित बीमारियाँ, हैपेटाइटिस-बी शामिल है। आपको जानकर हैरानी होगी कि ई-वेस्ट कैंसर तक का खतरा पैदा करने का माद्दा रखता है। इसके अलावा कई तरह की संक्रमित बीमारियों को जन्म देता है ई-वेस्ट।
ई-वेस्ट के खतरे को रोकने के लिए कई तरह के प्रोग्राम भी चलाए जा रहे हैं जिनमें स्वास्थ्य कर्मियों, कार्यकर्ताओं और गैरसरकारी संगठनों को शिक्षित किया जा रहा है। इस समस्या का सामना करने के लिए इग्नू ने वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाईजेशन के साथ हाथ मिलाकर कई तरह के कार्यक्रमों की शुरूआत भी की है। हालांकि जैसे-जैसे लोगों में जागरूकता आएगी इस ओर सुधार आएगा, लेकिन ये भी सच्चाई है कि जागरूकता का स्तर जिस गति से बढ़ेगा उस गति से इलेक्ट्रॉनिक साधनों के प्रयोग में भी इजाफा होगा और ये निश्चित तौर पर गंभीर समस्या को ही जन्म देगा। ई-वेस्ट के तौर पर ज्यादा चर्चा हमारे देश में नहीं होती बल्कि भारत ई-वेस्ट उत्पादन के मामले में अव्वल देशों में गिना जाता है। दुनिया भर में 80 प्रतिशत ई-वेस्ट चीन, पाकिस्तान और भारत में पैदा होता है और दुर्भाग्य है कि ई-वेस्ट को मैनेज करने के बारे में सबसे कम जागरूकता इन्हीं देशों में देखने को मिलती है। ई-वेस्ट निश्चित तौर पर कई बीमारियों को तो जन्म देता ही है उसके साथ पर्यावरण के लिए भी भयानक खतरा पैदा करता है और ये खतरा भारतीयों की बढ़ती तादात के बाद और भी भयानक रूप में सामने आने की कगार पर है।
किसी वस्तु को कई बार इस्तेमाल करना भारतीय मानसिकता का पॉजिटिव पहलू है। भारतीय घरों में इलेक्ट्रॉनिक साधनों की चिपों में से तांबा और मेटल निकालने का काम जोरों पर होता है और यही मेटल और तांबा मल्टीनेशनल कंपनियों में दोबारा इस्तेमाल के लिए पहुँचता है। दरअसल रिसाइकिलिंग का काम भारत में निचले स्तर पर तो हो रहा है लेकिन इसे ऑर्गेनाइज्ड तौर से करना उतना ही जरूरी है जितना अस्पतालों में दवाइयों का वितरण और बात अस्पताल की आ ही गई है तो हम आपको बता दें कि अस्पतालों से भी बहुत बड़ी मात्रा में ई-कचरा पैदा होता है। मल्टीनेशनल कंपनियाँ अपने फायदे के लिए भारत के गरीब क्षेत्रों में छोटे स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक पार्टस की रिसाइकिलिंग करवा रही है जिससे लोगों के स्वास्थ्य को भयंकर खतरा है।
दुर्भाग्य है कि इन गैरसंगठित मजदूरों के लिए सरकार के पास किसी भी तरह का कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। दिल्ली का सीलमपुर, मुंडका और नेहरू प्लेस, सेकेंड हैंड इलेक्ट्रॉनिक पार्टस के एक बहुत बड़े बाजार के रूप में उभर रहे हैं। उसी तरह मुंबई का धारावी इलाका भी गैरसंगठित मजदूरों की फैक्ट्री बन गया है, जहाँ मल्टीनेशनल कंपनियों के सैकड़ों एजेंट अपने ही लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। कोड़ी के भाव के खराब हो चुके पार्टस रिसाइकिल होने के बाद हजारों की कीमत का भाव रखते हैं। नदियों की अविरल बहती धारा में बड़े पैमाने पर इन पार्टस का गंदा पानी जहर के रूप में घोला रहा है। सरकार से सवाल है कि क्या ये जनता के अधिकारों का हनन नहीं है? उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ का हक आखिर इस धंधे में लगे लोगों को किसने दिया? ई-कचरे को जमीन में दबाना या जलाना एक वैकल्पिक उपाय तो हो सकता है लेकिन उस कचरे की रिसाइकिलिंग निश्चित तौर पर एक बेहतर उपाय होगी, लेकिन इसके लिए जरूरत है एक राष्ट्रीय सोच की और सबसे अधिक जागरूकता की। सरकार की पहल, इंतजार ही बढ़ाएगी इसलिए जागरूकता का प्रसार अपने स्तर पर शुरू हो जाना चाहिए। ई-वेस्ट बहुत बड़ा खतरा है, जब तक उसे मैनेज न किया जाए। मैनेज करने के बाद वो निश्चित तौर पर किफायती ही साबित होगा।
नदियों की अविरल बहती धारा में बड़े पैमाने पर इन पार्टस का गंदा पानी जहर के रूप में घोला रहा है। सरकार से सवाल है कि क्या ये जनता के अधिकारों का हनन नहीं है? उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ का हक आखिर इस धंधे में लगे लोगों को किसने दिया? ई-कचरे को जमीन में दबाना या जलाना एक वैकल्पिक उपाय तो हो सकता है लेकिन उस कचरे की रिसाइकिलिंग निश्चित तौर पर एक बेहतर उपाय होगी, लेकिन इसके लिए जरूरत है एक राष्ट्रीय सोच की और सबसे अधिक जागरूकता की।
सोफे पर बैठे-बैठे हम खबरों की दुनिया से निकलकर फिल्मी दुनिया में घूमने लगते हैं। रिमोट के बटन के आसरे चैनल बदलने का सिलसिला शुरू हो जाता है। कंप्यूटर पर उंगलियों के आसरे हम दुनियाभर में होने वाली गतिविधियों को महसूस कर सकते हैं। दो दशक पहले तक जिंदगी इतनी आसान नहीं थी। लेकिन अब वक्त बदल गया है क्योंकि अब हमारे पास इलेक्ट्रॉनिक साधनों की भरमार है। जहाँ इन इलेक्ट्रॉनिक साधनों के आसरे लोगों की जिंदगी कठिनाईयों और लेटलतीफी से बाहर निकली, वहीं इनके बढ़ते इस्तेमाल ने लोगों के लिए एक बहुत बड़ा खतरा भी पैदा कर दिया। और ये खतरा है ई-वेस्ट। आखिर क्या है ये ई-वेस्ट, क्यों आज इस विषय पर चर्चा हो रही है और क्या जरूरत पड़ी सरकार को ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन) अधिनियम 2011 को लागू करने की। इलेक्ट्रॉनिक साधनों के बिना जिंदगी गुजारना किसी भयावह सपने से कम नहीं है। बिना कंप्यूटर के ऑफिसों में काम नामुमकिन होता जा रहा है, घरों में बच्चे विडियोगेम खेलने के लिए कंप्यूटरों का इस्तेमाल करने लगे हैं, स्कूली सिलेबसों में कंप्यूटर जरूरी हो गया है। तेजी से बढ़ते कंप्यूटरमेनिया से ई-वेस्ट में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।जहाँ पहले एक कंप्यूटर की उम्र 7 से 8 साल हुआ करती थी वहीं वो घटकर 3 से 4 साल हो गई है। देश में अभी करीब 8 करोड़ कंप्यूटर हैं और आप जानकर चौंक जाएंगे कि अगले पाँच साल में इसकी संख्या बढ़कर दोगुनी से भी ज्यादा हो जाएगी। लोगों के घरों में मनोरंजन के साधन टेलीविजन की आबादी भी 2015 तक बढ़कर 24 करोड़ के आसपास पहुँच जाएगी। वहीं बात की जाए मोबाइल्स की तो भारत में इसके यूजर भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 70 करोड़ मोबाइल इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ई-वेस्ट का प्रबंधन करने वाली कंपनियों का मानना है कि किसी मोबाइल फोन को 98 फीसदी तक रिसाइकिल किया जा सकता है, उसी तरह कंप्यूटर की रिसाइकिलिंग भी कई तरह के नए उत्पादों को जन्म दे सकती है। मेमोरी डिवाइस, एमपी3 प्लेयर और आईपॉड, ई-वेस्ट में निश्चित तौर पर इजाफा करते हैं।
ई-वेस्ट के बढ़ते इस्तेमाल ने बाजार को एक नया कारोबार खोलने के लिए भी प्रेरित किया है। इलेक्ट्रॉनिक साधनों के बढ़ते इस्तेमाल और उसके बाद उससे होने वाले खतरों को देखते हुए विशेषज्ञों ने वेस्ट मैनेजमेंट का रास्ता सबके सामने रखा। इलेक्ट्रॉनिक कचरे को फिर से इस्तेमाल करने का तरीका है वेस्ट मैनेजमेंट। इसमें कचरे को नष्ट करने की बजाए उसे रिसाइकिल किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करने के मामले में अव्वल देश होने के नाते ये जरूरी होता है कि भारत सरकार इसे लेकर कुछ प्रयास करे। इसी कड़ी में मंगलवार को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की अधिसूचना प्रभावी हो गई। मंगलवार से प्रभावी हुए ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन) अधिनियम 2011 के प्रावधान के मुताबिक जो कंपनियां इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाती हैं उसे सही ढंग से रिसाइकल करने की जिम्मेदारी उन्हीं की होगी। इसके लिए कंपनियों को जगह-जगह कुछ ऐसे सेंटर खोलने होंगे जहाँ इन उत्पादों की कलेक्शन हो सके। इतना ही नहीं इन रिसाइकल केंद्रों के प्रति लोगों को जागरूक करने का काम भी निर्माता कंपनियों को ही करना होगा।
अहम बात ये है कि यह कानून एक साल पहले ही बन गया था लेकिन कंपनियों ने अब तक रिसाइकिलिंग सेंटर्स के बारे में जागरूकता संबंधी कार्यक्रम चलाए हों ऐसा प्रतीत नहीं होता। दिलचस्प बात तो ये है कि कंपनियाँ अभी तक ये भी सुनिश्चित नहीं कर पाई हैं कि जो लोग ई-कचरा कंपनियों को लौटाएंगे उसके एवज उन्हें कितनी कीमत दी जाएगी। कंपनियाँ इस सामान को मुफ्त में लेना चाहती हैं लेकिन गौरतलब है कि जब कबाड़ी भी हमसे ई-कचरा ले जाता है तो वो भी उसकी कुछ कीमत अदा करता है तो बड़ा सवाल ये है कि कंपनियाँ इससे क्यों इंकार कर रही हैं? हालांकि इस मामले में कंपनियां कहती हैं कि उन्हें ई-वेस्ट को रिसाइकिल करने में खर्चा करना पड़ेगा। अगर सरकारी पक्ष पर ध्यान दें तो पाएंगे कि सरकार भी इस मामले में लोगों को जागरूक करने में विफल ही रही है। लोग अभी भी ई-कचरे के निपटान को लेकर जागरूक नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 3.5 लाख टन ई-कचरा सालाना दिल्ली में इकट्ठा होता है और उस कचरे का अवैज्ञानिक ढंग से निपटारा किया जा रहा है।
दरअसल कचरे के अवैज्ञानिक ढंग से निपटान करने की वजह से पर्यावरण और लोगों को काफी नुकसान हो रहा है। गौर करने की बात ये है ई-कचरे के अवैज्ञानिक तरीके से निपटारा होने के एवज में पर्यावरण एवं संरक्षण अधिनियम के तहत कार्रवाई तक का प्रावधान है। दोषी पाए जाने पर 5 साल तक की सजा और 1 लाख रुपए के जुर्माने तक का प्रावधान है। लेकिन दुर्भाग्य है कि ई-कचरे के निपटारा एक गोरखधंधा बन गया है और कई जिंदगियों को नाश करने पर तुला हुआ है। जनसंख्या का लगातार बढ़ना और आर्थिक विकास की राह पर दौड़ते भारत के सामने इस कचरे का अंबार लगातार बढ़ता जा रहा है। कार्बनिक उत्पाद, गंदगी और धूल लगभग 80 फीसदी कचरे को पैदा करते है। बढ़ती जनसंख्या की वजह से इस कचरे को पैदा होने से रोका तो नहीं जा सकता लेकिन इसका मैनेजमेंट करके इसका सही इस्तेमाल जरूर किया जा सकता है। एक्सपर्ट्स के अनुसार तीन तरीकों से इलेक्ट्रॉनिक कचरे को मैनेज किया जा सकता है। पहला तरीका है जमीन में गड्ढा खोदकर कचरा गाड़ना, दूसरा है कचरे को इकट्ठा करके उसे जलाना और तीसरा और सबसे कारगर तरीका है कचरे को रिसाइकिल करके फिर से इस्तेमाल करना।
विशेषज्ञ इस तरीके को सबसे कारगर समझते हैं। देश में सन् 2000 से पहले कचरे को रिसाइकिल करने की नीति नहीं थी। लेकिन उसी साल सरकार ने इस पर सोचना शुरू किया। वेस्ट मैनेजमेंट की नीतियाँ समाज के हर तबके के हिसाब से अलग-अलग बनाई गई। ये नीतियाँ विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग है और शहरी और ग्रामीण इलाकों के लिए अलग। औद्योगिक क्षेत्रों के लिए भी अलग से नीतियाँ बनाई गई, इन नीतियों पर कुछ देशों में तो काम हो रहा है लेकिन भारत में इस ओर न के बराबर ध्यान दिया जा रहा है। ऑस्ट्रेलिया में कचरा इकट्ठा करने के लिए म्युनिसिपैलिटी हर एक मकान मालिक को तीन तरह के डस्टबिन देती है, जिनमें रिसाइकिल होने वाला कचरा, साधारण कचरा और बगीचे का कचरा अलग-अलग डाला जाता है। वहीं कनाडा में सारे शहर का कूड़ा इकट्ठा कर उसे रिसाइकिल किया जाता है। कनाडा में गाँवों में ट्रांसफर स्टेशन बनाकर कचरा रिसाइकिल केंद्रों को भेजा जाता है।
दरअसल भारत में इस तरह के प्रयोगों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। कुछ एनजीओ भी इस विषय पर काम कर रहे हैं लेकिन भारत में इस प्रयास को जागरूकता के अभाव में वो कामयाबी नहीं मिल पा रही जो विदेशों में मिल रही है। ई-वेस्ट मैनेजमेंट को कारोबार के तौर पर भी कई कंपनियाँ अपना रही है और देश में जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक साधनों का प्रयोग बढ़ रहा है उससे इन कंपनियों के सुनहरे भविष्य को लेकर कोई आशंका नजर नहीं आती। चिंता कि बात तो ये है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे ने लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा कई तरह की बीमारियों को पैदा करता है, जिनमें सांस से संबंधित बीमारियों के अलावा, स्किन से संबंधित बीमारियाँ, हैपेटाइटिस-बी शामिल है। आपको जानकर हैरानी होगी कि ई-वेस्ट कैंसर तक का खतरा पैदा करने का माद्दा रखता है। इसके अलावा कई तरह की संक्रमित बीमारियों को जन्म देता है ई-वेस्ट।
ई-वेस्ट के खतरे को रोकने के लिए कई तरह के प्रोग्राम भी चलाए जा रहे हैं जिनमें स्वास्थ्य कर्मियों, कार्यकर्ताओं और गैरसरकारी संगठनों को शिक्षित किया जा रहा है। इस समस्या का सामना करने के लिए इग्नू ने वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाईजेशन के साथ हाथ मिलाकर कई तरह के कार्यक्रमों की शुरूआत भी की है। हालांकि जैसे-जैसे लोगों में जागरूकता आएगी इस ओर सुधार आएगा, लेकिन ये भी सच्चाई है कि जागरूकता का स्तर जिस गति से बढ़ेगा उस गति से इलेक्ट्रॉनिक साधनों के प्रयोग में भी इजाफा होगा और ये निश्चित तौर पर गंभीर समस्या को ही जन्म देगा। ई-वेस्ट के तौर पर ज्यादा चर्चा हमारे देश में नहीं होती बल्कि भारत ई-वेस्ट उत्पादन के मामले में अव्वल देशों में गिना जाता है। दुनिया भर में 80 प्रतिशत ई-वेस्ट चीन, पाकिस्तान और भारत में पैदा होता है और दुर्भाग्य है कि ई-वेस्ट को मैनेज करने के बारे में सबसे कम जागरूकता इन्हीं देशों में देखने को मिलती है। ई-वेस्ट निश्चित तौर पर कई बीमारियों को तो जन्म देता ही है उसके साथ पर्यावरण के लिए भी भयानक खतरा पैदा करता है और ये खतरा भारतीयों की बढ़ती तादात के बाद और भी भयानक रूप में सामने आने की कगार पर है।
किसी वस्तु को कई बार इस्तेमाल करना भारतीय मानसिकता का पॉजिटिव पहलू है। भारतीय घरों में इलेक्ट्रॉनिक साधनों की चिपों में से तांबा और मेटल निकालने का काम जोरों पर होता है और यही मेटल और तांबा मल्टीनेशनल कंपनियों में दोबारा इस्तेमाल के लिए पहुँचता है। दरअसल रिसाइकिलिंग का काम भारत में निचले स्तर पर तो हो रहा है लेकिन इसे ऑर्गेनाइज्ड तौर से करना उतना ही जरूरी है जितना अस्पतालों में दवाइयों का वितरण और बात अस्पताल की आ ही गई है तो हम आपको बता दें कि अस्पतालों से भी बहुत बड़ी मात्रा में ई-कचरा पैदा होता है। मल्टीनेशनल कंपनियाँ अपने फायदे के लिए भारत के गरीब क्षेत्रों में छोटे स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक पार्टस की रिसाइकिलिंग करवा रही है जिससे लोगों के स्वास्थ्य को भयंकर खतरा है।
दुर्भाग्य है कि इन गैरसंगठित मजदूरों के लिए सरकार के पास किसी भी तरह का कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। दिल्ली का सीलमपुर, मुंडका और नेहरू प्लेस, सेकेंड हैंड इलेक्ट्रॉनिक पार्टस के एक बहुत बड़े बाजार के रूप में उभर रहे हैं। उसी तरह मुंबई का धारावी इलाका भी गैरसंगठित मजदूरों की फैक्ट्री बन गया है, जहाँ मल्टीनेशनल कंपनियों के सैकड़ों एजेंट अपने ही लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। कोड़ी के भाव के खराब हो चुके पार्टस रिसाइकिल होने के बाद हजारों की कीमत का भाव रखते हैं। नदियों की अविरल बहती धारा में बड़े पैमाने पर इन पार्टस का गंदा पानी जहर के रूप में घोला रहा है। सरकार से सवाल है कि क्या ये जनता के अधिकारों का हनन नहीं है? उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ का हक आखिर इस धंधे में लगे लोगों को किसने दिया? ई-कचरे को जमीन में दबाना या जलाना एक वैकल्पिक उपाय तो हो सकता है लेकिन उस कचरे की रिसाइकिलिंग निश्चित तौर पर एक बेहतर उपाय होगी, लेकिन इसके लिए जरूरत है एक राष्ट्रीय सोच की और सबसे अधिक जागरूकता की। सरकार की पहल, इंतजार ही बढ़ाएगी इसलिए जागरूकता का प्रसार अपने स्तर पर शुरू हो जाना चाहिए। ई-वेस्ट बहुत बड़ा खतरा है, जब तक उसे मैनेज न किया जाए। मैनेज करने के बाद वो निश्चित तौर पर किफायती ही साबित होगा।
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