प्रस्तावना
हिमालय पृथ्वी का सबसे युवा तथा कच्चा पर्वत है। इसलिए यह प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। हिमालय में जो नदियां बहती हैं वो अपने साथ गाद लेकर आती हैं। इस कारण यहां नालों तथा छोटी नदियों का निश्चित मार्ग नहीं है वो अक्सर अपना रास्ता बदलते हैं। भारी बारिश हिमालयी क्षेत्र में मौसम का सामान्य हिस्सा है। भूस्खलन और बाढ़ पहले भी पहाड़ों पर आते रहे हैं। ये सब पहाड़ की प्रकृति में निरंतर चलने वाली प्रक्रियाएं हैं। बादल फटने की घटना पहले भी हुई हैं, परंतु आजकल आए दिन होती रहती है। फर्क केवल इतना है कि अब हर बार ये तबाही में बदल रही हैं, मगर इसके पीछे कई प्रमुख कारण हैं। हम कितनी निर्दयता से पर्वतों पर घाव पर घाव बना रहे हैं। स्थान-स्थान पर उसे काट रहे हैं। वनों का विनाश कर पर्वतों को नंगा कर रहे हैं। नदी-नालों के अविरल प्रवाह में बाधायें डाल रहे हैं। हमारी इन करतूतों से प्रकृति का आक्रोशित होना स्वाभाविक है और प्रकृति के उस आक्रोश के परिणामों को बाढ़ के रूप में आज झेल रहे हैं। पिछले कुछ साल में हिमालय क्षेत्र के राज्यों में कई बार प्रलयकारी बाढ़ आ चुकी है। कश्मीर घाटी में सितंबर 2014 में विनाशकारी बाढ़ आई थी। उत्तराखंड में जून 2013 में बाढ़ से हजारों लोगों की मौत हुई थी। आज सबसे बढ़ा दुर्भाग्य यह है कि योजनाकारों ने पहाड़ और इसकी प्रकृति को समझने की कोशिश तक नहीं की और न ही कभी इस दिशा में गंभीरता से विचार ही किया। यही कारण है कि आज पहाड़ पर नदी किनारे बसे गांव एवं नगर बाढ़ग्रस्त नदियों का रौद्र रूप देख रहे हैं तथा अधिकाधिक विपदाएँ झेल रहे हैं। इस लेख में हिमालयी नदियों द्वारा बढ़ती तबाही के कारण एवं निवारण का वर्णन किया गया है।
हिमालयी नदियाँ: एक नजर
भारत की नदियां चार समूहों में वर्गीकृत की जा सकती हैं-
- हिमालय की नदियां
- प्रायद्वीपीय नदियां
- तटवर्ती नदियां और
- अंतःस्थलीय प्रवाह क्षेत्र की नदियां।
हिमालय की नदियां बारहमासी है, इनमें वर्षभर निर्बाध प्रवाह बना रहता है। आमतौर पर इन नदियों में बर्फ पिघलने से पानी मिलता है। मानसून के महीने में हिमालय पर भारी वर्षा होती है, जिससे नदियों में पानी बढ़ जाने के कारण अक्सर बाढ़ आ जाती है। सिंधु और गंगा-ब्रह्मपुत्र मेघना नदियों से हिमालय की मुख्य नदी प्रणालियां बनती हैं। सिंधु नदी विश्व की बड़ी नदियों में से एक है। तिब्बत में मानसरोवर के निकट इसका उद्गम स्थल है। भारतीय क्षेत्र में बहने वाली इसकी प्रमुख सहायक नदियों में सतलुज (जिसका उद्गगम तिब्बत में होता है), व्यास, रावी, चेनाब और झेलम हैं। गंगा-ब्रहमपुत्र मेघना अन्य महत्वपूर्ण नदी प्रणाली है और भागीरथी और अलकनंदा जिसकी उप-नदी घाटियां हैं, इनके देवप्रयाग में आपस में मिल जाने से गंगा उत्पन्न होती है। यमुना, रामगंगा, घाघरा, गंडक कोसी, महानंदा और सोन नदियां गंगा की प्रमुख सहायक नदियां हैं। ब्रहमपुत्र का उद्भव तिब्बत में होता है जहां इसे सांगपो के नाम से जाना जाता है और यह लंबी दूरी तय करके भारत में अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है जहां इसे दिहांग नाम मिल जाता है। पासीघाट के निकट दिबांग और लोहित ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती हैं, फिर यह नदी असम से होती हुई धुबरी के बाद बांग्लादेश में प्रवेश कर जाती है। भारत में ब्रहमपुत्र की प्रमुख सहायक नदियों में सुबानसिरी जिया भरेली, धनश्री, पुथीमारी, पगलादीया और मानस हैं मेघना की मुख्य धारा बराक नदी का उद्भव मणिपुर की पहाड़ियों में होता है। इसकी मुख्य सहायक नदियां मक्कू, त्रांग, तुईवई, जिरी, सोनाई, रूकनी, काटाखल, धनेश्वरी, लंगाचीनी, मदुवा और जटिंगा हैं।
भारत में बाढ़ के प्रमुख कारण
जब नदी या जल धाराएं अपने तटबंधों को पार कर जल को आस-पास फैला दें तो उसे बाढ़ कहते हैं। इसका मुख्य कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में वर्षा का होना है। ऐसी स्थिति सर्वाधिक चक्रवातों तूफानों से तटीय क्षेत्रों में वर्षा का होना है। ऐसी स्थिति सर्वाधिक चक्रवातों, तूफानों से तटीय क्षेत्रों में उत्पन्न होती है या अचानक बादल फटने से भी उत्पन्न हो जाती है। यद्यपि बाढ़ के लिए मुख्य रूप से मानसून की प्रकृति ही जिम्मेदार है। इसके निम्न कारण भी हैं-
- नदी घाटियों में अधिक अवसादीकरण
- नदियों के द्वारा मार्ग बदलना
- मानवीय बसावट के कारण नदी घाटियों का संकरा होना
- पहाड़ी ढालों में वनों की अत्यधिक कटाई।
आवृत्ति के अनुसार बाढ़ क्षेत्रों को तीन भागों में बांटा गया है-
- अधिकतम आवृत्ति का क्षेत्रः वह क्षेत्र, जहां प्रत्येक वर्ष बाढ़ आती है। जैसे- ब्रह्मपुत्र घाटी, निम्न गंगा घाटी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, गंडक तथा कोसी नदी घाटी ।
- मध्यम आवृत्ति वाले क्षेत्रः जहां 5 वर्ष या उससे कम अंतराल पर बाढ़ आती है। भारत के अधिकांश बाढ़ क्षेत्र इसी के अंतर्गत आते हैं।
- निम्न आवृत्ति क्षेत्रः वे क्षेत्र जहां वर्षा बहुत कम होती है लेकिन कभी-कभी अचानक बादल फटने से अनियमित जल निकासी के कारण बाढ़ आ जाती है।
फ्लैश फ्लड:
हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र में भारत और चीन सहित कई देश अचानक भारी वर्षा, ग्लेशियर पिघलने या बांध अथवा तटबंध टूटने से आई भयावह बाढ़ का सामना करते रहते हैं। भारत में पिछले वर्ष उत्तराखंड और हाल ही में जम्मू-कश्मीर में ऐसी परिस्थितियां बनी ऐसी बाढ़ को हिमालय क्षेत्र में फ्लैश फ्लड कहा जाता है।
बाढ़ से तबाही के मुख्य कारण:
- युवा पर्वत
- भूस्खलन
- अतिवृष्टि
- बढ़ती मानवीय गतिविधियां
- नदियों में जमी गाद
- जल की निकासी के उपाय नहीं
- योजना विहीन विकास
- वेदिकाओं का अतिक्रमण
- अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप
युवा पर्वत
हिमालय एक पर्वत तन्त्र है जो भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से अलग करता है। यह पर्वत तन्त्र मुख्य रूप से तीन समानांतर श्रेणियों महान हिमालय, मध्य हिमालय और शिवालिक से मिलकर बना है। हिमालय को सबसे युवा (नया) और कच्चा पहाड़ माना जाता है। इसका निर्माण सागर तल के उठने से आज से पांच-छह करोड़ वर्ष पहले हुआ था। हिमालय को अपनी पूरी ऊंचाई प्राप्त करने में 60 से 70 लाख वर्ष लगे।
हिमालय की प्रमुख विशिष्टता इसकी बुलंद ऊंचाइयां खड़े किनारों वाले नुकीले शिखर, घाटियां, पर्वतीय हिमनदियां, अपरदन द्वारा गहरी कटी हुई स्थलाकृति, अथाह नदी घाटियां, जटिल भूगर्भीय संरचना और ऊंची पट्टियों (या क्षेत्रों) की श्रृंखला है, जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ और जलवायु हैं। हिमालय का बड़ा हिस्सा हिमरेखा के नीचे स्थित है। हिमालय की पर्वत-निर्माण प्रक्रिया अब भी क्रियाशील है, जिसमें धाराओं के भारी अपरदन और विशाल भूस्खलन जैसी गतिविधियां भी शामिल हैं। इन पहाड़ों पर भूस्खलन आए दिन होता रहता है और बारिश में वह और भी बढ़ जाता है।
भूस्खलन
भूस्खलन एक भूवैज्ञानिक घटना है तथा यह कई प्रकार के हो सकते हैं। इसमें चट्टान के छोटे-छोटे पत्थरों के गिरने से लेकर बहुत अधिक मात्रा में चट्टान के टुकड़े और मिट्टी का बहाव शामिल हो सकता है। भारी वर्षा तथा बाढ़ या भूकम्प के आने से भू-स्खलन हो सकता है। मूसलाधार वर्षा के सीधे आघात और उफनती नदियों एवम् नालों के कटाव के कारण पर्वतीय ढालें टूट-टूट कर फिसलती और धंसती हैं। विभिन्न मानव गतिवधियों, जैसे कि सड़क किनारे खड़ी चट्टान के काटने, पेड़ों और वनस्पति के हटाने या पानी के पाइपों में रिसाव से भी भू-स्खलन हो सकता है।
भूविज्ञानियों के अनुसार वृहद हिमालय की दक्षिणी ढाल और उससे लगी आबाद लघुहिमालयी अंचल की पट्टी एक नहीं, तीन बड़े भ्रंशों (दरारों) से कटी हुई हैं। ये छुपी हुई दरारें (थ्रस्ट) हिमालय के एक छोर से दूसरे छोर तक सैकड़ों किलोमीटर तक विस्तारित हैं। इन तीन झुकी हुई दरारों को संयुक्त रूप से "मेन सेंट्रल थ्रस्ट जोन' कहते हैं। सेंट्रल थ्रस्ट जोन के नीचे मात्र पचास किलोमीटर चौड़ी पट्टी में जो कि भूकंप की दृष्टि से सक्रिय एवं संवेदनशील है तथा जहां दरारें हैं वहीं पर सक्रियता होती है। जिससे चट्टानें बार-बार आगे-पीछे दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे सरकती हैं। इस प्रकार की घटना के कारण धरती जीर्ण-शीर्ण हो गई है, तथा कमजोर चट्टानों वाली पहाड़ी ढालें अस्थिर हो गई हैं। घनघोर वर्षा की मार पड़ते ही कमजोर चट्टानें टूटती हैं, गिरती हैं, फिसलती हैं; और भूस्खलन शुरू हो जाता है।
सीमित क्षेत्रों में अल्प अवधि में होने वाली अतिवृष्टि ? 'क्लाउड बर्स्ट’ के कारण बृहद हिमालय की तलहटी की पट्टी के हजारों गांव बार-बार प्राकृतिक विपदाओं की त्रासदी झेल रहे हैं। संयोग से यही वह पट्टी है, जो जब-तब भूकंपों से डोलने लगती है, जिस कारण पहाड़ टूटते हैं. ढालें सरकती हैं, और धरती धंसती है। मौसम विज्ञानी ये कह रहे हैं कि जलवायु परिवर्तनों के कारण मानसूनी वर्षा असमान रूप से होगी और अतिवृष्टि और अनावृष्टि का दुष्चक्र चला करेगा। हिमालय के विभिन्न अंचलों में भी पिछले कुछ वर्षों से यही हो रहा है। लंबे-लंबे समय तक सूखा पड़ने के बाद वर्षा होती है तो अविराम मूसलाधार पानी बरसता है। उफनती उमड़ती नदियां विनाशकारी बन जाती हैं।
हिमनद झील
हिमालय हिम एवं बर्फ का सबसे बड़ा संसाधन है तथा इसके हिमनद बारहमासी नदियों के लिए जल का मुख्य स्रोत माने जाते हैं। जलवायु परिवर्तन की प्रतिक्रिया के रूप में हिमनद घटते जा रहे हैं। हिमालय में ग्लेशियरों द्वारा बहा कर लाए हुए मलबे से बनी झीलों (मोरेन डैम्ड) की संभावित संख्या एवं उनका आयतन बढ़ता जा रहा है ये झीलें अस्थायी मोरैन्स के पीछे विकसित होती हैं तथा इनमें भयंकर रूप से प्रस्फुटित होने की क्षमता होती है जिससे हिमनद झीलों के फटने से भयानक बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। यह एक किस्म की विस्फोटक बाढ़ है जो हिमनद झील को रोकने वाला बांध टूट जाने से हो सकता है। हिमनद झीलें तब टूटती हैं जब हिमनद झील के पानी के दबाव में वृद्धि हो, चट्टानें टूट कर झील पर गिरें अथवा भारी हिमपात हो या भूकंप हो। अक्सर ऐसी बाढ़ से जानमाल की अधिक हानि होती है।
जलवायु परिवर्तन
पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ रहा है। कहा जाता है कि पिछले 150 सालों में दुनिया भर में जितना तापमान बढ़ा है उससे ज़्यादा तापमान तिब्बत और हिमालय में बढ़ा है। मतलब ये कि जलवायु परिवर्तन का ज्यादा असर यहीं हो रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है। कि कश्मीर और उत्तराखंड में जो आपदा आई है उन सब में जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा हाथ है।
अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप
पहाड़ी क्षेत्रों में भूवैज्ञानिक एवम् पर्यावरणीय परिस्थितियों का समुचित ध्यान रखने की उचित परवाह किए बिना सड़कें बनीं और बन रही हैं। ढालों के कटाव से उत्पन्न मलबे कि बहुत सी मात्रा को ढालों पर फेंक दिया जाता है तो वे (ढाल) अस्थिर हो जाते हैं इस मलबे के कारण नदी-नालों का प्रवाह भी बाधित हो जाता है या पूर्ण रूप से थम जाता है। ये देखा गया है कि रास्तों के सक्रिय भ्रंशों, खंडित - क्षीण चट्टानों, और ढलानों पर भूस्खलनों के फैलै मलबे के ढेरों को ये सड़कें काटती हुई जाती हैं। सड़कों के लिये पहाड़ों को काटने के फलस्वरूप चट्टानें बेहद कमजोर हो जाती हैं। मलबों के ढेर तो और अधिक अस्थिर हो जाते हैं। सतह पर बहता पानी तो उन्हें काटता ही है, मलबों के अंदर समाये जल के कारण मलबों के ढेर टूट-टूटकर तथा फिसलकर विपदाजनक परिस्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं। सड़कों के निर्माण के दौरान कितना मलबा पैदा होता है, उसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रति एक किलोमीटर की खुदाई से निकले मलबे का परिमाण 40,000 से लेकर 80,000 (औसतन 60,000) क्यूबिक मीटर होता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय हिमालय की 2,10,000 कि.मी. लंबी सड़कों के निर्माण से कितना मलवा निकला होगा? इसके अतिरिक्त भूस्खलनों से प्रतिवर्ष प्रति किलोमीटर 550 क्यूबिक मीटर मलबा बनता है।
यह देखा गया है कि नदी-नालों की वाहिकाओं में बने मलबों के ढेर बांध का काम करते हैं। उनके पीछे क्षणभंगुर जलाशय विकसित हो जाते हैं। जल प्रवाह की वृद्धि के साथ वे टूटते हैं। और बाढ़ की विभीषिका बढ़ा देते हैं रेत-बालू कंकड़ से मिश्रित बाढ़ के पानी की अपरदन (काटने - घिसने) की क्षमता कई गुना बढ़ जाती है।
इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं। अनगिनत विदयुत परियोजनाएं शुरू की गई हैं। बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले उत्तराखंड राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई करीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी ।
नदियों में जमी गाद
बरसात में नदी में केवल पानी नहीं आता है, गाद भी आती है। नदी अपने साथ Glacier Moraine यानी ग्लेशियरों के पीछे हटते वक्त ग्लेशियरों के द्वारा छोड़ा गया भारी मलबा भी लाती है और ये मलबा बड़ा ही खतरनाक साबित होता है। नदी में गाद बिछ जाने से नदी की जलधारण क्षमता अर्थात् जल-प्रवाह की क्षमता उत्तरोत्तर घटती जाती है। अगर गाद खोदकर नदी के किनारे पर रख दी जाए तो अगली बारिश में वह वापस फिर नदी में लौट आएगी। इसलिए नदी को अपनी जगह बनाए रखना एक बड़ा ही दुष्कर का काम है, फिर इतनी मिट्टी हर साल हटाकर डाली कहां जाएगी, यह एक बड़ा सवाल है। कई जगहों पर गाद तथा मलबे के कारण नदियों के फ्लडप्लेन गायब हो चुके हैं। बिहार जैसे मैदानी क्षेत्रों की नदियों में हर साल औसतन कितनी गाद आती है उसका एक अनुमान 1994 की द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट में मिलता है अकेले कोसी नदी में औसतन 9248 हेक्टेयर मीटर गाद हर साल आती है।
जल की निकासी के उपाय नहीं
भूस्खलनों के मलबों से पानी की निकासी के उपाय के लगातार कोई प्रयास नहीं किए जाते हैं। जहां कहीं पहाड़ी ढाल की ओर इकलौती नालियां बनाई भी जाती हैं वे आमतौर पर पत्थर - मिट्टी और कचड़े से भरी रहती हैं। उन्हें साफ करने की कोई कोशिश नहीं होती, वर्षा काल में भी नहीं होती। ढालों पर छोटे-बड़े अनेक नाले-गधेरे देखे जा सकते हैं। इनमें से अनेक केवल बरसात में ही सक्रिय होते हैं। अतिवृष्टि के दौरान ये उफनते नाले-गधेरे विनाश ढाते हैं। कई स्थानों पर सड़कों के किनारे इनके बिछाए मलबों के ऊपर दुकानें खुल गई, होटल खड़े हो गए और घर बन गए हैं जिससे कि लोगों ने जाने-अनजाने नदियों और नालों के मार्गों को अवरूद्ध कर दिया है। इतना तो तय है कि अतिवृष्टि में ये नाले अपने प्राकृतिक रास्ते में पुनः मलवा डालेंगे तथा अपने पथ पर बनाई रचनाओं को हानि भी पहुंचायेंगे। गांवों तथा सड़कों पर ऐसा लगातार देखने को मिल रहा है। ढाल से उतरते नाले, बड़ी मात्रा में मलवा बहाकर लाते हैं और सड़कों पर ढेर लगा देते हैं। इसलिये नदी-नालों पर बने पुलों का स्थान (लंबाई) अधिक से अधिक किया जाना चाहिए, ताकि बाढ़ का पानी निर्बाध बह सके। सड़कों पर बने अधिकतर कलवर्ट मलबों से लदे जल प्रवाह को ले जाने की क्षमता नहीं रखते हैं। इन परिस्थितियों को देखते हुए सड़कों पर कलवटों और रपटों के बजाय चौड़े (स्पान) के पुल बनाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिये।
योजनाविहीन विकास
नदियों के किनारे असुरक्षित, अनियमित, योजनाविहीन ढांचागत विकास और बढ़ती आबादी से बाढ़ का खतरा बढ़ा है। जगह-जगह पर लोगों ने नदी के फ्लड प्लेन को घेर कर नदी के जल निकास मार्ग को संकुचित कर दिया है। इस कारण तेज तथा अधिक बरसात में बाढ़ का खतरा पैदा होता रहता है।
श्रीनगर में मौजूद 50 प्रतिशत से ज्यादा झील और अन्य जलाशय बीती शताब्दी में लुप्त हो गए। ये जलाशय बाढ़ का बहुत सारा पानी अपने अंदर समा सकते थे। ज्यादा नहीं, एक शताब्दी पहले श्रीनगर शहर का बहुत सारा इलाका जलाशयों, झीलों से घिरा हुआ था। बाढ़ के दौरान जलाशयों में रेत खनन के साथ बढ़ते अतिक्रमण, मिट्टी पाटे जाने पौधारोपण, निर्माण कार्य की वजह से श्रीनगर में मौजूद जलाशय लगातार खत्म होते गए। इनके खत्म होने से जो सबसे बड़ी समस्या शहर के सामने आई, वह ड्रेनेज या जल निकासी की समस्या पैदा हुई। कश्मीर की ऊंची घाटियां वादियां हैं। फिर मैदान हैं। झेलम पहले 4 किमी चौड़ी थी, अब आधा कि.मी. चौड़ी बची है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल के सालों में घाटी में दो-तीन दिन की बारिश से झेलम नदी में बाढ़ का खतरा मंडराने लगता है, लेकिन दो-तीन दशक पहले ऐसा नहीं होता था।
वेदिकाओं का अतिक्रमण
दो ढालों के बीच नदी की चौड़ी घाटी उसका स्वाभाविक मार्ग है तथा उसे 'फ्लडवे' कहते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि उस प्राकृतिक चौड़े मार्ग पर कभी भी बाढ़ का पानी बह सकता हैं। सौ वर्षों में कम से कम एक बार आने वाली बाढ़ का पानी फ्लडवे पर जल के वेग, फैलाव तथा पानी की गहराई के कारण काफी नुकसान पहुंचाता है। अपने पलडवे या अपने प्राकृतिक मार्ग में नदी अपनी धारा बदलती रहती है वह पुरानी वाहिकाओं को छोड़कर नई वाहिकाएं बना लेती हैं। नदी कभी बाएं किनारे बहती है तो कभी दाएं ओर कभी बीच में बाढ़ की स्थिति में अनेक स्थलों पर नदियां अपना बहाया हुआ मलवा जमा कर देती हैं। अदृढ़ मलबे के अंबार बढ़ते चले जाते हैं। और वेदिकाओं (टैरेस ) में परिणत हो जाती हैं। पहाड़ी बोली में ऐसी वेदिकाओं को 'बगड़' कहते हैं। सपाट सतह वाली ये वेदिकाएं भी नदी के प्राकृतिक पथ ‘फ्लडवे’ का ही भाग हैं, उनसे अलग नहीं हैं।
पहाड़ों पर पुश्तैनी गांव हमेशा नदी के तल से काफी ऊपर चट्टानों पर बनाये गये हैं। नदी किनारे घर नहीं बनाए गये जबकि वहां लोग आसानी से बर्तन धो सकते हैं, कपड़ा धो सकते हैं, नहा सकते हैं, पीने का पानी ला सकते हैं। हमने नहीं सोचा कि नदी नीचे है रास्ता नीचे; फिर भी हमारे पूर्वजों ने मकान ऊंचाई पर क्यों बसाए? वह भी उचित चट्टान देख कर बाढ़ की बारंबारता को देखा जाय तो नदी पर कभी भी भयानक बाढ़ आ सकती है, इसलिए गांव हमेशा ऊपर चट्टानों में बनाते हैं वेदिकाओं या 'बगड़ पर नहीं। यथार्थ की परवाह किए बिना आज हम नदियों के छोड़े हुए उनके परित्यक्त पथों में और उनके किनारों की वेदिकाओं पर घर बना रहे हैं, ऊंचे-ऊंचे होटल खड़े कर रहे हैं, दुकानों की कतारें लगा रहे हैं। दूसरे शब्दों में, हम नदियों के अपने प्राकृतिक मार्गों में अवरोध खड़े कर रहे हैं, उनके प्रवाह में बाधा डाल रहे हैं।
बाढ़ का प्रबंधन एवं समाधान
हिमालयी नदियों में बाढ़ की बारम्बारता एवं तीव्रता, जो कि देश में तेजी से बदल रही है, आजकल चिन्ता का विषय है। यह मुख्यतः बाढ़ क्षेत्र के अधिग्रहण के कारण हो रहा है। मौसम में बदलाव भी काफी हद तक बाढ़ की बारम्बारता व मात्रा को प्रभावित करता है। हिमालयी नदियों में बाढ़ के प्रबन्धन एवं समाधान के लिये निम्न विषयों पर ध्यान देने / कार्य करने की आवश्यकता है।
बाढ़ पूर्वानुमान नेटवर्क
हिमलयी बेसिनों में आज भी एक अच्छे बाढ़ पूर्वानुमान नैटवर्क की कमी है। रेनगेज नैटवर्क भी कम हैं। मौसम रडार वर्षा और ऊर्ध्वाधर संरचना के स्थानिक वितरण का पता लगाने के लिए, बादल, बारिश, बर्फ के अवशोषण के लिये लाभदायक है। हिमालयी बेसिनों में मौसम रडार को लगाने पर जोर दिया जाना चाहिये। मुख्य नदी एवं सहायक नदियों पर गेज लगाए जाने चाहिये। गेज लगने के बाद यह पता चल सकेगा कि कितना पानी किस नदी से आएगा और उससे जलस्तर बढ़कर कितना होगा।
बाढ़ चेतावनी - निगरानी तंत्र
आज समय की मांग है कि बाढ़ चेतावनी- निगरानी तंत्र विकसित होना चाहिए। ऐसा नहीं हैं कि अचानक आने वाली बाढ़ के खतरे को भांपा नहीं जा सकता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी कह रहा है कि अचानक आने वाली बाढ़ के लिए पूर्व चेतावनी का तंत्र विकसित होना चाहिए। पर यह अभी तक हो नहीं पाया है। ‘फ्लैश फ्लड’ से निपटने के लिए गैर संरचनात्मक तरीके जैसे विशेष चेतावनी प्रणाली प्लेटफार्म, स्वचालित जलस्तर निगरानी प्रणालियां, जीएसएम/ जीपीआरएस का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त फ्लैश फ्लड की जानकारी और प्रशिक्षण देने के लिए बैठकों, रेडियो प्रसारण, टीवी, वेबसाइट, समाचार-पत्रों, बिलबोर्ड, इश्तहार, सीडी तथा कार्ड की सहायता ली जाती है। फ्लैश फ्लड की पूर्व चेतावनी का तंत्र अभी तक हिमालय बेसिन में विकसित नहीं हुआ है। अभी तक सारा ध्यान केवल मौसम विभाग पर टिकाहुआ है। मौसम विभाग भी भारी बरसात की चेतावनी देकर रह जाता है। फ्लैश फ्लड की निगरानी का तंत्र उनके पास नहीं है। हालांकि अब फ्लैश फ्लड की पूर्व चेतावनी का तंत्र विकसित करने की बात की जा रही है। यह फिलहाल साफ नहीं है कि इस तैयारी में कितना वक्त लगेगा।
हिमालय क्षेत्र की विकास नीति
हिमालय क्षेत्र की विकास नीति को नए सिरे से तैयार करना बहुत जरूरी है ताकि इस तरह की आपदाओं की आशंकाओं को यथासंभव कम किया जा सके, साथ ही जनहित के अनुकूल टिकाऊ विकास हो। हिमालय हमारे देश का अत्यधिक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है। इसके संतुलित व सतत विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए।
वनों के प्रति जो व्यापारिक रूझान अपनाया गया उससे गंभीर क्षति हुई है। कई क्षेत्रों में यह इस रूप में प्रकट हुई कि चौड़ी पत्ती के पेड़ कम होते गए व चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ बढ़ते गए। वन-नीति का यह प्रयास होना चाहिए कि वन अपनी प्राकृतिक स्थिति के नजदीक हो यानी मिश्रित वन हो, जिसमें चौड़ी पत्ती के तरह-तरह के पेड़ भी हों और शंकुधारी भी यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएंगे तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और ये पेड़ भी हलके से आंधी-तूफान में भी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि हो भी रहा है। हिमालय को पेड़ों से ढककर ही जल, जंगल और जमीन की रक्षा की जा सकती है। यह कहना है चिपको आंदोलन के नेता और पर्यावरणविद् पद्मभूषण सुंदरलाल बहुगुणा का।
हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है। व खेती-किसानी की भी इस खनन ने अनेक स्थानों पर भूस्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है और अनेक गांवों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। वन कटान, खनन, निर्माण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की जमीन अस्त-व्यस्त होती है।
जन समुदाय को तैयार करना
जन समुदाय को तैयार करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। इसके लिए खतरों का विश्लेषण, प्रबन्धन प्लानों में भागीदारी, डाटा इकट्ठा करने के लिए ढाँचा तैयार करना, संचार साधनों को सुनिश्चित करना, जनसमुदाय की भागीदारी को बढ़ाना जनसमुदाय के लिए प्रशिक्षण कार्यशाला आयोजित करना बनाये गये प्लानों को बाढ़ के समय क्रियान्वित करना तथा बाढ़ के बाद के आवश्यक कदमों को सुचारू रूप से क्रियानिवत करना शामिल है।
विभागों में सहयोग
विभिन्न विभागों जैसे राज्य जल संसाधन विभाग, केंद्रीय जल आयोग, भारतीय मौसम विभाग आदि में अच्छा तालमेल होना चाहिए इसमें दूसरे राज्यों में विभागों के साथ डाटा बाँटना एवं आवश्यक दस्तावेजों का बाढ़ प्रबन्धन के लिये आदान प्रदान हो सके।
सारांश
प्राकृतिक संसाधनों के लगातार दोहन की वजह से जलवायु में आ रहा परिवर्तन इस तरह की आपदाओं को बल प्रदान करता है। पहाड़ों को जोड़े रखने वाले पेड़ों की कटाई सारे नियम कायदों को ताक पर रख कर धड़ल्ले से हो रही है। नदियों के किनारों पर गैर कानूनी निर्माण हो गये हैं, पहाड़ी वास्तु का ख्याल रखना बिल्कुल छोड़ दिया गया है। हिमालय में जो नदी बहती हैं वो अपने साथ गाद लेकर आती हैं इस कारण यहां नालों तथा छोटी नदियों का निश्चित मार्ग नहीं है, वो अक्सर अपना रास्ता बदलते हैं। इसलिए यह प्राकृतिक आपदाओं मसलन बादल फटने, भूस्लखन, फ्लैश फ्लड, ग्लेशियर झीलों के फटने और भूकंप के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। पर्यावरण अनुकूल विकास से प्राकृतिक त्रासदी टाली जा सकती है। पहाड़ों पर विकास करते समय सावधानी बरती जानी चाहिए। पहाड़ों की बनावट के साथ स्पष्ट होना चाहिए कि मकान नदियों के किनारे से दूर होने चाहिए। पहाड़ के किनारे को काट कर सड़क बनाने से उसकी ढलान कमजोर हो जाती है। यदि उसकी बनावट का ध्यान नहीं रखा जाए तो भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 110 साल में देश में प्राकृतिक आपदाओं का सालाना औसत करीब 140 गुना बढ़ा है। जरूरी है कि सभी जरूरी एजेंसियों को मिलाकर एक ऐसा एकीकृत सिस्टम बनाया जाए जो पहाड़ों में विकास को पर्यावरण हितैषी बनाए। प्राकृतिक आपदाओं को तभी कम किया जा सकता है जब पहाड़ क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर गंभीरता से गौर किया जाएगा।
संरचनात्मक साधन बाढ़ को रोकने के लिए अपर्याप्त हैं। साथ ही असंरचनात्मक साधनों को और अधिक आधुनिक बनाने की आवश्यकता है। बाढ़ की बारम्बारता एवं तीव्रता लगातार बढ़ रही है। बाढ़ भूमि का अधिग्रहण दिन-प्रतिदिन हो रहा है अपवाह क्षेत्र में मौसम की वर्षा व बादल फटने जैसी घटनायें लगातार बढ़ रही हैं। इसीलिए अब जनता की जान माल को बचाना एक चिन्ता का विषय है। अब बाढ़ नियन्त्रण मॉडल के निर्माण की तुरंत आवश्यकता है। जलप्रवाह के क्षेत्र की क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए साथ ही असंरचनात्मक साधन जैसे बाढ़ पूर्वानुमान, बाढ़ भूमि को चिन्हित करना, बाढ़ के खतरों का मान चित्रण, बाढ़ पूर्वानुमान मॉडल, तथा जनसमुदाय को तैयार करना आदि पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। जनसमुदाय, सरकार व बाहरी विभागों में सहयोग हिमालय में बाढ़ से होने वाली क्षति को काफी कम कर सकता है।
स्रोत - प्रवाहिनी अंक 22 (2015), राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
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