हिमालय के गढवाल क्षेत्र की प्राकृतिक आपदाऐं

प्राकृतिक आपदा
प्राकृतिक आपदा

प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन ने हिमालय के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि हिमालय का अपरदन तेज हो रहा है। भूस्खलनों की संख्या बढ़ रही है, बाढ़ों का क्रम तेज हो रहा है। जिससे न सिर्फ हिमालय के निवासियों अपितु मैदानी क्षेत्रों पर भी इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ रहा है। मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ों तथा जल में गाद के घनत्व में अप्रत्याशित वृद्धि ने खेतों, नहरों, व बिजली घरों आदि को तेजी से नुकसान पहुँचाने का कार्य किया है। गंगा यमुना के मैदान हमारी सभ्यता के ही नहीं अपितु आर्थिक विकास के भी आधार रहे हैं। परन्तु हिमालय के बढ़ते संकट से ये मैदान भी संकटग्रस्त हो रहे हैं। गढ़वाल हिमालय क्षेत्र भूकम्पों एवं बाढ़ों से अक्सर प्रभावित रहा है। जो कि भूस्खलन का मुख्य कारण है। पिछले 40 से 50 वर्षों में इस क्षेत्र में अनगिनत भूकम्प, बाढ़ एवं भूस्खलन की घटनायें घटित हुई हैं जिनमें 1970 में अलकनन्दा की प्रलयकारी बाढ़, 1991 का उत्तरकाशी भूकम्प, 1999 काचमोली भूकम्प एवं 16 जून 2013 की केदारघाटी में भूस्खलन की घटना गढ़वाल के इतिहास में भीषणतम श्रासदियों में से एक है।

हिमालय के गढवाल क्षेत्र की धरातलीय दशा

यह सम्पूर्ण अध्ययन क्षेत्र पर्वतीय भूभाग में स्थित है और अनेक हिमनदों द्वारा पोषित नदियों का क्षेत्र है। यहाँ दक्षिणी भाग में शिवालिक श्रेणी उसके उत्तर में मध्य या निम्न हिमालय तथा उसके उत्तर में वृहत्त हिमालय या हिमाद्रि की श्रेणियाँ पश्चिमोत्तर दिशा से दक्षिणी पूर्व दिशा की ओर फैली हुई है। यह श्रेणियाँ अनेक स्थानों पर तीव्र ढालों, बर्फ से ढकी चोटियों, हिमनदों, नदियों के तीव्र प्रवाह लटकती घाटियाँ, गहरी कन्दराएँ, झीलों, गिरिश्रृंग आदि विशेषताओं से युक्त हैं। इन श्रेणियों के दक्षिणी ढाल तीव्र व उत्तरी ढाल अपेक्षाकृत कम तीव्र हैं। इस प्रदेश को धरातलीय दृष्टि से तीन प्रमुख भौतिक प्रदेशों में बाँटा जा सकता है।

(1) हिमाद्रि हिमाचल शिवालिक

हिमालय के गढवाल क्षेत्र की भूगार्मिक संरचना-

हिमालय के अन्य क्षेत्रों के समान ही यहाँ की भौमिकी भी अत्यधिक जटिल है। प्रभाग में पाई जाने वाली भौमिकी मुख्यतः दो केन्द्रीय स्पाट (सेन्ट्रल क्रिस्टलाइन) एवं गढवाल समूह में विभक्त की गयी है। केन्द्रीय स्फाट समूह को गढवाल समूह से मुख्य केन्द्रीय अपभ्रंश (मेन सेंट्रल थ्रस्ट ) हेलंग के समीप कर्मनाशा नाले से विभाजित करता है। केन्द्रीय स्पाट समूह में विभिन्न प्रकार के नीस, निरक्त अभ्रकयुक्त शिल्ट, कायनाइट शिल्ट, क्लोराइट शिल्ट आदि शैल आते हैं। गढवाल समूह में मुख्यतः डोलोमाइट, स्लेट एवं चूना पत्थर पीपलकोटी एवं समीपवर्ती दोनों क्षेत्रों में मिलते हैं तथा क्वार्टजाइट एवं उससे सम्बद्ध बेसिक मेटाबोल्कोनिकस चमोली गोपेश्वर एवं नन्द प्रयाग के आसपास पाये जाते हैं।

हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में वनों और धरातल की जिस प्रकार से दुर्दशा हुई है उससे भू-क्षरण, भूस्खलन और बाढ़ की विभीषिका से विनाश के आंकडे निरन्तर बढते जा रहे है। भूर्गभविदों की दृष्टि में हिमालय विश्व के पर्वतों में सबसे कम उम्र की अत्यन्त संवेदनशील पर्वत श्रृंखला है और आज भी विकासमान स्थिति में है। इसके गर्भ में विद्यमान भ्रंशों ने इसे भूकम्प की दृष्टि से भी अत्यन्त संवेदनशील बनाया हुआ है। मध्य हिमालय में एक बड़ा भ्रंश है जो समय समय पर आने वाले भूकंपों तथा भूगर्भीय हलचलों का मुख्य कारण है। ऋतुक्रिया और अन्य छोटी छोटी गतिविधियों से भी यह क्षेत्र प्रभावित रहता है। यहां बडी संख्या में हिमोड और नये पुराने भूस्खलनों के मलबे के ढेर विद्यमान है। इसकी उपरी संरचना में हिमाच्छादित चोटियां विद्यमान है। इनकी घाटियां हिमानियों से भरी रहती है। यही हिमानियां हिमनदों में भी देखी जा सकती है। इन्हीं हिमनदों के टूटने और रूकावट डालने से अनेकों झीलें और तालों का निर्माण हुआ है। उपरी क्षेत्रों में अनेक जंगल तो पुराने भूस्खलन एवं हिमोड के मलबे में दिखते है। इससे ऐसा लगता है कि यहां वर्षों के अंतराल में भूस्खलन आदि की घटनायें होती रहती है।

हिमालय के गढ़वाल क्षेत्रों में भूकम्प, बाढ एवं भूस्खलन की प्रमुख घटनाएँ :-

यद्यपि मध्य हिमालय में दुर्घटनाओं का इतिहास नया नहीं है। पहाड़ों के टूटनें से झीलों के बनने, उनके टूटने या गाद से पट जाने की घटनायें सदियों से हो रही है। परत दर परत अवसाद इनके अवशेष यत्र-तत्र दिखाई देते हैं लेकिन पिछली दो शताब्दियों में नदियों में पहाड़ के टूटने से बनी झीलों और उनके टूटने की लम्बी सूची है।

जिसमें से कुछ निम्न प्रकार है:-
  • 1846 में काली नदी तवाघाट के पास भूस्खलन से रूक गई थी।
  • 1857 में मंदाकिनी नदी तीन दिन तक बिसार के पास रूक गई थी।
  • 1857 में बिरही नदी में बने गोड्यार ताल के टूटने से अलकनंदा घाटी में भारी तबाही हुई इस बाढ से 73 लोगों की मृत्यु हुई थी।
  • 1893 में गौवा गांव के उपर की चट्टान टूटने से एक साल तक नदी का प्रवाह रूक गया था और उसमें पांच किमी लम्बी झील बन गई थी यह झील अगस्त 1894 में टूटी जिससे निचली घाटी में भारी तबाही हुई थी।
  • 1930 में अरबा ताल के टूटने से बाढ आई थी और बद्रीनाथ में अलकनंदा का जल स्तर 9 मीटर ऊंचा उठ गया था।
  • 1951 में 'नयार नदी ने भारी तबाही मचाई थी और सतपुली में दर्जनों बसे बह गई थी ।
  • 27 जुलाई 1961 डडुवा गांव भूस्खलन से दब गया था जिसमें 36 लोगों की मृत्यु और दर्जनों पशु मारे गये थे।
  • 1970 में बादल फटने के कारण अलकनंदा में आई प्रलयकारी बाढ व भूस्खलन के मलबे से अलकनंदा अस्थाई रूप से अवरुद्ध हो गई थी जिससे उसका तल 15 से 20 मीटर ऊंचा हो गया जिसके टूटने से कई बस्तियां पूर्णतः नष्ट हो गई। अपार धन जन की हानि हुई। और अपर गंगा नहर सदा के लिए पट गई थी ।
  • 1971 में मासौ, 1972 में मंदाकिनी घाटी, 1973 में सेरा मालकोटी, डूंगर, सिमाल, केड़ा और किणझाणी तथा 1979 में कोंथा की विनाशलीला हुई।
  • 1977 में काली और धौली के संगम पर स्थित तवाघाट खेल पलपला के क्षेत्र में भयंकर भूस्खलन से 48 लोग मारे गये थे।
  • 6 अगस्त 1978 को उत्तरकाशी जिले में भूस्खलन से भागीरथी और कंडोलिया गाड में झीले बन गई थी जिनके टूटने से उत्तरकाशी और टिहरी जिले में भारी तबाही हुई ।
  • 1979 में कोंधा में भूस्खलन की विनाशलीला हुई तो कोंधा भूस्खलन से पूरा नष्ट हो गया था और 40 लोग मारे गये थे।
  • 20 अक्टुबर 1991 की रात्रि 2 बजकर 53 मिनट पर उत्तरकाशी में रिएक्टर पैमाने पर 6.6 की तीव्रता का भूकम्प आया जिसमें विभिन्न स्थानों ( जामक 72 डिडसारी 45 हीना 39 गवाणा 44 रैथल 30 ) पर उनके लोग मारे गये धरती के 40 सैकेण्ड के कंपन ने पृथ्वी के इस भूभाग में कई भौगोलिक परिवर्तनों को प्रेरित किया। इन परिवर्तनों में मुख्यालय स्लिप अवपात, चट्टानों का फटना एवं खण्डित होना, जमीन में दरारों का पडना, पुराने भूस्खलन क्षेत्रों का पुनः सक्रिय होना एवं नये भूस्खलन क्षेत्रों का विकसित होता आदि थे
  • 29 मार्च 1999 रात्रि चमोली में 12.30 बजे पर 6.8 की तीव्रता का भूकम्प आया जिसका प्रभाव उत्तरकाशी, चमोली, टीहरी गढवाल, रूद्रप्रयाग, बागेश्वर पौड़ी गढ़वाल आदि जिलों पर पड़ा। इसके द्वारा भारी भूस्खलन मकानों का गिरना और लोगों का मकानों के मलबे में दबकर मरना आदि घटनाएं घटित हुई तथा अपार धन जन की हानि हुई। अमेरिकी भूगर्भ विज्ञान रौजर विलहैम तथा रूडकी विश्वविद्यालय के भूकम्प वैज्ञानिक डा० रमेश चन्द व डा० वी०के० गहलौत ने इस भूभाग में विनाशकारी महाभूकम्प की सम्भावनाओं के बारे में सचेत किया है।
  • 2005 में रूद्रप्रयाग केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग से सटे अगस्तमुनि और विजयनगर के ऊपर धन्यू के जंगलों में बादल फटने के बाद जमा मलबे से अनेक लोग जिंदा दफन हो गए थे।
  • 2005 में हेमकुंड की यात्रा मार्ग में बादल फटने से 11 लोग मलबे में दबकर मर गए थे।
  • 06 जुलाई 2004 को उत्तराखण्ड के चमोली जिले में बद्रीनाथ क्षेत्र के समीप बादल फटने पर भूस्खलन होने से लगभग 18 लोगों की मौत हुई और 50 से अधिक घायल हुये ।
  • 14 सितम्बर 2012 को उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले में बादल फटने से 40 लोगों की मृत्यु हुई।
  • 16 जून 2013 की उत्तराखण्ड विभीषिका :- गढवाल हिमालय क्षेत्र भूवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त कमजोर और परिस्थितिकी के प्रति बहुत ही संवेदनशील है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष अनेक प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं प्रायः आती ही रहती है। पिछले कुछ दशकों में उत्तराखण्ड राज्य का यह क्षेत्र लगभग हर मानसून सीजन में बाढों एवं भूस्खलन सहित अनेक आपदाओं का मुख्य केन्द्र बिन्दु रहता है। उत्तराखण्ड राज्य की अलकनंदा नदी द्वारा 15-16 जून, 2013 के मध्य लाई गई तबाही जो हाल के इतिहास की भीषणतम मानव त्रासदी है इसी का परिणाम है कि 15 से 17 जून के मध्य कई जगहों पर बादल फटने से 200 से 400 मिली० वर्षा हुई और उसके बाद केदारनाथ चोटी की 6940 मीटर की ढलान पर स्थित चोरबारी हिमनद पर झील के एकाएक टूट जाने के कारण यह आपदा आई। ऐसी घटनाओं को प्रायः हिमनदीय झील आवेग बाढ कहा जाता है। इस त्रासदी के प्रभावों ने हमें प्राकृतिक प्रणालियों पर मनुष्य के बहुत अधिक और अवांछनीय हस्तक्षेपों की याद दिला दी। 16 और 17 जून की रात्रि को भारत के उत्तराखण्ड राज्य की केदारघाटी में आई प्राकृतिक आपदा (बादल फटने से आई बाढ एवं भूस्खलन ) है। जिसने एक बार हम सबकों आईना दिखाया है। जो इशारा करती है कि हमने पिछली आपदाओं से सबक न लेते हुए नई त्रासदी को रच डाला है। जिसके कारण केदारनाथ, गौरीकुण्ड, रामबाडा, हनुमान चट्टी, गोविन्दघाट, रूद्रनाथ, गुप्तकाशी, चन्द्रपुरी, भटवाडी, मनेरी, हर्षिल, लम्बगांव आदि स्थानों में कुछ घण्टों में 7000 से अधिक लोगों की जान चली गई और हजारों की संख्या में  तीर्थयात्री व स्थानीय लोग आज भी लापता है और लाखों की संख्या में लोग बेघर हो गये, जो प्रकृति के साथ अनावश्यक रूप से की गयी छेडछाड़ का ही परिणाम है। केदारघाटी में हुई भीषण त्रासदी के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्न सारिणी से स्पष्ट है ।

पर्वतीय क्षेत्रों के समुचित विकास के लिये आपदा प्रबंधन

1- पर्वतीय दुर्घटनाओं की जानकारी सर्वप्रथम -आवश्यकता इस बात की है कि पर्वतों के स्थानीय लोगों को दुर्घटनाओं के बारे में और उनका समय रहते निवास करने में उचित शिक्षा दी जाए। समुचित प्रशिक्षण वहाँ के लोगों का जीवन सुधारे में सहायक होगा ।
2- दुरूस्त संचार व्यवस्था आकस्मिक संकट की उचित घोषणा ही प्राकृतिक आपदा एवं दुर्घटना प्रबंधन का आवश्यक अंग है। ताकि समय रहते संकट के बारे में उचित व पर्याप्त जानकारी मिल पाए तथा आवश्यक निवारण भी किया जा सके। अतः सूचा प्रौद्योगिकी द्वारा वर्तमान संचार प्रणाली को पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक प्रभावी बनाए जाने की आवश्यकता है।
3- जल निकासी की समुचित व्यवस्था - वर्ष जल की समुचित निकासी जल के आवश्यक दबाव को कम कर भूस्खलन की संभावनाओं को कम करती है। पहाडी क्षेत्रों में सडकों के निर्माण के समय जल निकासी पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में चट्टानों के गिरने का खतरा अधिक रहता है।
4- आवश्यक वनीकरण - पर्वतीय क्षेत्रों में भी जंगलों की निरन्तर कटाई व जंगलों का नष्ट हो जाना पर्यावरण पर दुष्प्रभाव तो डालता ही है साथ ही भूक्षरण, मिट्टी का खिसकना तथा बाढ की सम्भावना को भी बढाता है। अतः वनों का अस्तित्व बनाये रखना होगा और नए सिरे से वृक्षारोपण करना होना, क्योंकि वनों की उपस्थिति जल के बहाव व मिट्टी को खिसकने से रोकती है।
5- आवश्यकता से अधिक निर्माण कार्यो पर प्रतिबन्ध-  जिन क्षेत्रों में पर्वतीय आपदाओं की संभावना अधिक रहती है, उन स्थानों पर निर्माण कार्य करने से पहले भली भांति विवेचना करना आवश्यक है। पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक विकास कार्यों को उत्साही नही
करना चाहिए। 

6-सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना प्रणाली का अनुप्रयोग - आज दूरसंवेदन विज्ञान ने हमें ऐसे उपकरण प्रदान कर दिये हैं जो दृश्य प्रकाश के तरंग दैर्ध्य से कहीं बड़े तरंग दैयों पर ब्रहमान्ड को देख सकते है। इन उपकरणों को वायुयानों एवं कृत्रिम उपग्रहों में प्रयोग करके लिये गये पृथ्वी के प्रतिबिम्बों का विश्लेषण करके अनेक विषयों से सम्बंधित सूचनाएं प्राप्त की जा सकती है। इन विषयों में ग्लोवीय वातावरण, अनवीकरणीय संसाधन, आपदा संकट तथा भूविज्ञान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कृत्रिम उपग्रह से प्राप्त आंकडे एवं भौतिक सूचनाओं की कम्प्यूटर आधारित प्रणाली द्वारा प्राप्त चित्रों के आधार पर मैप एवं भौगोलिक सूचनाएं पर्वतीय संकट को स्पष्ट रूप से चित्रित कर हिमालय में गढ़वाल क्षेत्र के निवासियों, पर्वतारोही अभियानों, तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों को सहायता प्रदान कर सकते है गढवाल हिमालय में दूर संवेदन की मदद से टिहरी बांध के आस पास के क्षेत्रों में 71 संवेदनशील क्षेत्रों को इंगित किया गया है। जहां पर भूस्खलन की अधिक संभावनाएं है। हाल ही में भारत ने अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के एक ऐसे क्षेत्र में पांव बढ़ा दिए हैं, जो हमारी सेनाओं को किसी भी युद्ध में अजेय बना सकती है। सात कृत्रिम उपग्रहों की एक प्रणाली आई०आर०एन०एस०एस० का पहला उपग्रह 1 जुलाई 2013 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया।

अगले साल तक पूरी होने वाली यह प्रणाली न सिर्फ गढ़वाल हिमालय अपितु सम्पूर्ण भारत के लिए एक अवैध कवच की भूमिका निभाएगी। आई0आर0एन0एस0एस0 की विशेषता यह होगी कि इसके द्वारा अंतरिक्ष से भारत के धरातल पर 10-10 मीटर और भारत के चारों और 15000 किमी0 की परिधी में 20-20 मीटर के क्षेत्र में होने वाली किसी भी गतिविधि पर चौबीसों घंटे नजर रखी जा सकेगी। यद्यपि अंतिम रूप से सारी घटना कम्प्यूटरों की विशलेषण क्षमता (जी०आई०एस० ) और इनका प्रभ संभालनें संश्लेषण वालों की सर्तकता पर निर्भर करेगा। यह मौसम के त्वरित बदलावों जैसे बादल फटने की जानकारी देने एवं जलयानों और वाहनों तक को जी०पी०एस० सुविधाएं उपलब्ध कराने में काम आयेगा ।
भूगोल की दृष्टि से देखने पर एक बात तो स्पष्ट है कि आपदा के समय और इसके बाद अगर कोई हमें राहत पहुंचाने वाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण तकनीक है तो वह है सुदूर संवेदन, जी०आई०एस० और जी०पी०एस० तकनीक एवं उसका अनुप्रयोग। हमारे भोजन, रहने से लेकर हमें घर तक सुरक्षित पहुँचाने में विज्ञान एवं तकनीकी की इस विद्या का प्रयोग सपष्ट नजर आता है। प्राकृतिक आपदाओं के समय हमें अधिक से अधिक तकनीकी सुविधाओं का उपयोग कर जान माल की हानि को कम करने का प्रयत्न करना चाहिए।
साथ ही यह तकनीक आपदाओं के बाद लोगों की परेशानियों को कम करने में भी सहायक हो सकती है।
7- मौसम का सटीक पूर्वानुमान - प्राकृतिक घटनायें किसी व्यक्ति विशेष या स्थान विशेष से सम्बन्धित नहीं होती यह कहीं भी और कभी भी घटित हो सकती है। ऐसे में यह मौसम विभाग का दायित्व है कि वो इनके आने की पूर्व सूचना उपग्रहों व दूसरी प्रौद्योगिकी के माध्यम से हम तक पहुंचाए ताकि उस जानकारी की मदद से आपदा के समय होने वाली भारी जान माल के नुकसान से बचा जा सके। जिसमें अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका संचार व्यवस्था की होती है। जिससे मौसम पूर्वानुमानों को शीघ्र अति शीघ्र गंभीरता से लिया जा सके।
8- प्राकृतिक आपदाएं और भावी प्रबन्धन - वास्तव में प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए संचार व्यवस्था को पुख्ता करना, इसके लिए उपग्रहों को प्रक्षेपित करना एवं मौसम की सभी जानकारी होना आवश्यक है। आज ऐसे उपग्रहों की आवश्यकता है जो पल पल की मौसम पर निगरानी रखे और किसी भावी संकट से हमें सावधान कर सकें। मौसम के पूर्वानुमान और मजबूत संचार तंत्र हमें प्राकृति आपदा से सामना करने का साहस प्रदान करता है।
9- आपदा घटित होने पर कार्यवाही करना - कोई भी प्राकृतिक आपदा घटित होने पर तत्काल बचाव की तैयारी नहीं करने पर एक और जहाँ अधिक धनजन की हानि होती है वहीं अनेक प्रकार की अन्य समस्याऐं जैसे बीमारियां, महामारी आदि उत्पन्न हो जाती है।
10- आपदा राहत एवं पुर्नवास कार्यक्रम - जब भी किसी क्षेत्र में आपदा घटित हो जाये तो उस क्षेत्र में आपदा के स्वरूप तथा आपदा बर्दाश्त करने की क्षमता के अनुसार राहत एवं पुर्नवास कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए सहायता की आवश्यकता सहायता के प्रकार एंव मात्रा तथा अवधि का निर्धारण करके राहत एवं पुर्नवास को बल प्रदान किया जा सकता है।

हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प आदि आपदाओं के प्राकृतिक एवं मानवनिर्मित स्वरूपों की रोकथाम के लिए उपाय अलग अलग - किस्म के हो सकते है परन्तु इस तरह की अतिवृष्टि किस तरह इतनी बड़ी आपदा बन जाती है। इसके लिए हमें विकास की मौजूदा सोच को समझना पडेगा। उपभोक्तावादी दृष्टिकोण और बाजारवाद प्रकृति के साथ छेडखानी कर ऐसी घटनाओं को जन्म देते है। इसलिए पहाडी जनता ने इस तरह के विकास को खारिज कर जंगल और जीमन पर अपना अधिकार मांगा था। (उत्तराखण्ड राज्य का गठन ) तब यह उम्मीद थी कि इन पहाडी ढलानों पर हरियाली होगी जिनसे जंगलों के निवासियों को ईंधन, चारा और पानी की आवश्यकता पूरी होगी। लेकिन अभी तक इस राज्य के बेहद नाजुक पर्यावरण तंत्र की अवहेलना करते हुए यहां कायम नीतियों ने प्राकृतिक संसाधनों से पैसा कमाने को ही विकास का एक मात्र साधन माना और वह पैसा भी कुछ विशिष्ट व्यक्तियों तक पहुंचा। लेकिन प्रकृतिक की छेड़छाड़ का परिणाम व्यापक पर्वतीय समाज को भोगना पड़ा।
अतः आवश्यकता है कि हम प्रकृति के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करें तथा उसे उपयोग की वस्तु न मानकर उसके जीवन मय रूप को संवारें तथा क्षेत्र की पर्यावरणिक एवं सामाजिक आर्थिक समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए इन सभी मुद्दों की खुले दिमाग से और व्यापक परामर्श के साथ समीक्षा करें।

संदर्भ :-

  • बसंल एस०सी० - पर्यटन से सिद्धान्त एवं प्रबंधन, मीनाक्षी प्रकाशन मेरठ, 2012
  • सेठी, प्रवीन नेचर एण्ड स्कोप ऑफ टूरिज्म, - दिल्ली, 1999
  • सिंह रणदीप दूरिज्म मार्केटिंग, कृष्णा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2005
  • बसंल एस०सी० - भारत का वृहत भूगोल, मीनाक्षी प्रकाशन मेरठ, 2013
  • चौनियाल - सुदूर संवेदन तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली नई दिल्ली, 2012
  • पत्र पत्रिकायें - भूगोल और आप विज्ञान प्रगति, अविष्कार, हिन्दूस्तान, दैनिक जागरण 2013
  • Kumar and Chauhan /Vol. V [2] 2014 /74-80

स्रोत: ESSENCE - International Journal for Environmental Rehabilitation and Conservation
Volume V: No. 2 2014 [74-80] [ISSN 0975-6272] ESSENCE [www.essence-journal.com]

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