हिमालय का नूतन अभिषेक करें

हिमालय का नूतन अभिषेक करें
हिमालय का नूतन अभिषेक करें

मैं स्वः पं. गोविन्द वल्लभ जी पंत के प्रति, जिनकी स्मृति में इस व्याख्यान का आयोजन किया गया है, अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। हिमालय में जन्म लेकर उन्होंने देश के लिये जो सेवाएँ की हैं, उससे हिमालय का गौरव बढ़ा है। दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों में आत्म-विश्वास बढ़ा है।

हमारी तरुणाई में और देश में गाँधी की आँधी चलती थी। गाँधी ने आह्वान किया था कि तुम गुलाम पैदा हुए हो, आजादी हासिल करो और हम आजादी की लड़ाई में अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध कूद पड़े। जहाँ सत्ता- धारियों के पास भय और लालच के शस्त्र थे, गाँधी ने हमें त्याग और तपस्या का कवच दिया। इससे हम मजबूत बने । सब प्रकार की कठिनाइयों के बावजूद आगे बढ़ते गये ।

गांधीजी से पहले विश्व में आजादी के लिये जो लड़ाइयाँ लड़ी गई थीं, वे हिंसक थीं। फ्रांस और रूस की राज्य क्रांतियाँ उनमें मुख्य थीं, लेकिन गाँधी ने एक नये ही मार्ग-अहिंसा के मार्ग-का निर्माण किया और मानव जाति के सामने एक नई मिसाल पेश की। इसीलिए आइनस्टाइन ने गांधी के महाप्रयाण के बाद उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि “आने वाली पीढ़ियां इस बात पर आश्चर्य करेंगी कि धरती परहाड़-मांस का ऐसा पुतला चला था। " 

गाँधी अपने सपनों को साकार करने के लिये जिंदा नहीं रहे । वह दिल्ली से चलने नाले एक केन्वित शासन के बजाय एक विकेन्द्रित व्यवस्था कायम करना चाहता थ जिसमें गाँव अपनी बुनियादी आवश्यकताओं में स्वावलंबी हो। केवल अन्न, वस्त्र में ही स्वावलंबी नहीं, बल्कि अपने झगड़ो का निपटारा भी स्वयं करें। पूर्णतमा नशा मुक्त हो।

आज़ादी के बाद हम गाँधी को तो भूल गये और हमने अपने ब्रिटिश शासकों की पार्लियामेंटरी पद्धति को अपनाया। एक भारी-भरकम नौकरशाही शासन चलाने के लिए, जो पहले से ही मौजूद थी, कायम रखी, 'फलतः आज़ादी होने के समय जहाँ इंग्लैंड हमारा कर्जदार था, हम कई छोटे-छोटे देशों के भी कर्जदार हो गये ।

आज हमारे सामने तीन बड़ी समस्याएँ हैं। युद्ध का भय, पर्यावरण प्रदूषण और भूख । हमें अपने ही पड़ोसी से अपनी रक्षा के लिये तैयार रहना पड़ता है। यह अनुत्पादक खर्चा है और इसके बोझ के नीचे हमारी गरीबी बढ़ती जा रही है। संत विनोबा जैसे चिंतकों ने इसके लिये ABC त्रिकोण- अफगानिस्तान, बर्मा और सीलोन (श्री लंका) के बीच के देशों का महासंघ-बनाने का सुझाव दिया था। यूरोप के देशों ने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिये महासंघ बनाया है, पर हम अपने रक्षण के लिए एकजुट नहीं होते हैं। फलतः हमारी गाढ़ी कमाई हथियारों की खरीद में जा रही है।

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या हमारे विकास और शहरीकरण की देन है। शहर धूल, धुंआ और शोर का तोहफा देते हैं। राजधानी दिल्ली के चौराहों पर खड़े होने पर आँखों में आँसू आ जाते हैं। हमारे कृषि प्रधान देश में रसायनिक खादों के उपयोग के कारण मिट्टी ही नशेबाज हो गई है, जिसके फलस्वरूप वह दिन दूर नहीं जब अमेरिका की तरह यहाँ भी धूल की आँधियाँ चलने लगेंगी।

कृषि और नागरिक जीवन के लिये दूसरी समस्या जल संकट की है। एक ओर तो तापमान की वृद्धि के कारण हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। नई बर्फ पड़ती नहीं है। वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है कि गंगा का उद्गम गंगोत्री हिमनद सन् 2030 तक लुप्त हो जायेगा। गोमुख के पास जहाँ से ग्लेशियर पीछे हटा है, एक ठंडा रेगिस्तान बन गया है। बावजूद इसके कि हमारे गोदामों में अन्न भरा पड़ा है। बहुत बड़ी संख्या में लोग कुपोषण और भुखमरी के शिकार हैं। उनके पास अन्न खरीदने के लिये पैसा नहीं है।

इन सब सवालों का उत्तर हिमालय के पास है। हिमालय जो तपस्या की भूमि थी, अब भोग भूमि और सीमा के खतरे की भूमि बन गई है। जिन गुफाओं में ऋषि तपस्या करते थे, वहाँ और उससे भी अधिक ऊँचाई के क्षेत्र में हमारे सैनिक देश की सुरक्षा के लिए डटे हुए हैं। इससे बचा नहीं जा सकता। पीठ के बोझ से मुक्त के लिए यहाँ के लोगों की प्रमुख मांग मोटर सड़कों के निर्माण की थी। मोटर का जाल बिछ गया, पर हम उस जाल में फँस गये, उपजाऊ मिट्टी बह कर नीचे जाने लगी और पानी के स्रोत सूखने लगे ।

हिमालय की हरियाली बनीं रहे, इसके लिये उत्तराखण्ड की महिलाओं ने सन् 1973 से 1981 तक ऐतिहासिक चिपको आन्दोलन चलाया। उन्होंने तथाकथित वैज्ञानिक नारे-

क्या हैं जंगल का उपकार ?

लीसा, लकड़ी और व्यापार ?

को चुनौती देते हुए जिंदा रहने के विज्ञान के मंत्र-

क्या हैं जंगल के उपकार ?

मिट्टी, पानी और बयार ।

मिट्टी, पानी और बयार। जिंदा रहने के आधार ।

का उद्घोष किया। उन्हें विजय प्राप्त हुई और अब दो पर्वतीय राज्यों-उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई के क्षेत्रों में हरे पेड़ों की व्यापारिक कटाई पर पाबन्दी है। अब यह तथ्य सर्वमान्य हो गया है। पिछले वर्ष जब हि.प्र. ने पाबन्दी हटाई तो उच्चतम न्यायालय ने एक समाचार पत्र में प्रकाशित मेरे वक्तव्य को संज्ञान में लेकर, उन्हें कोर्ट में तलब किया और पुनः पाबन्दी लगा दी।

हिमालय को बचाना अब पूरे देश की सुख, समृद्धि के लिए अनिवार्य हो गया है। हिमालय के साथ विकास के नाम पर बाँध और सड़कें बनाकर हुई छेड़छाड़ को बन्द करना होगा। पानी की आपूर्ति होती रहे, इसके लिए पूरे हिमालय को फल, चारा और रेशा देने वाले ऐसे पेड़ों से आच्छादित करना होगा, जिनकी पैदावार तो कष्टफल, खाद्य बीज, तैलीय बीज, फूलों से शहद व मौसमी फलों के रूप में खाद्य के लिए, पत्तियों से पशुओं के चारे के लिये, शहतूत जैसे वृक्षों से रेशम व अन्य रेशम प्रजाति के वृक्षों से उद्योग व पत्तियों की खाद मिल सके। इससे हिमालय की जल संरक्षण करने की क्षमता बढ़ेगी। भूटान में जहाँ घने वन हैं, जाड़े और बरसात के बीच नदियों में पानी के बहाव में 1:7 का अंतर है, जबकि उत्तराखण्ड में यह 1:70 का है।

घाटियों से चोटियों तक यातायात के लिए मोटर सड़कों के स्थान पर विद्युत चालित रज्जू मार्गों का निर्माण करना होगा। इस योजना से देश को जल संकट से मुक्ति मिलेगी,जहाँ कृत्रिम बांधों की जल-भरण की क्षमता गाद भरने के कारण समय बीतने के साथ घटती जाती है, इन प्राकृतिक बाँधों की क्षमता बढ़ती जायेगी।

हिमालय के उपयोगी वृक्षों से आच्छादित होने पर यहाँ के युवकों को घर में ही स्थायी रोजगार मिलेगा और हिमालय क्षेत्र में देश की सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी। पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय हिमालय के पुनर्वास से वृक्ष-खेती की दिशा में उपयोगी शोध कर महत्वपूर्ण भूमिका निभाये और पंत जी के सपनों को साकार करे, ऐसी मेरी प्रार्थना है।

स्रोत- भारत रत्न स्व. पं. गोविन्द वल्लभ पंत स्मृति व्याख्यान, पंत नगर कृषि विश्व विद्यालय, 19 नवम्बर 2008

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Post By: Shivendra
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