हवा में जहर

आजकल उत्तरी भारत में स्कूल और कॉलेजों में गर्मी की छुट्टियां चल रही हैं। कोई नई बात नहीं, पचास साल पहले भी यही होता था, तो आज कौन सी निराली बात हो गई। तेज धूप और लू मई-जून में नहीं होगी तो फिर कब होगी? लेकिन कितनी तेज? तेज इतनी कि खाल पर पड़े तो जैसे जल ही जाए। धूल भरी गर्म हवा ऐसी कि मानो सांस तक लेना दूभर हो जाए। प्राचीन काल से मौसम अपने अंदर थोड़ा बहुत परिवर्तन तो करता रहा है, लेकिन हाल के दशकों में यह स्थिति बदतर हुई है। विश्व भर में तापमान बढ़ रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं। हमारी धरती को संजो कर रखने वाली ओजोन परत में छेद हो गया है। हमारी वायु तक साफ नहीं है। परवाह किसको है?

जहां तक वायु प्रदूषण का सवाल है, यह खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। दिल्ली में और आस-पास, काले-भूरे रंग का धूआं उगलती और तीखी-बदबूदार भिन्न-भिन्न प्रकार की गैस छोड़ती करीब सौ धौकनियां महानगर में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण बनी हुई हैं। शहर में चालू भस्मक (इनसिनेरेटर) वास्तव में कितने हैं? इसका सही-सही ब्योरा उपलब्ध नहीं है। लेकिन, ऐसा ही एक विशाल भस्मक निजी स्वामित्व के एक सुपरस्पेशियलिटी अस्पताल के बगल में सरिता विहार, सुखदेव विहार और दक्षिण दिल्ली के पॉश आवासीय कालोनियों के बीच जनवरी 2012 में लगाया गया था।

भस्मक से निकलने वाली गैसों और राख में निहित जहरीले प्रदूषण की वजह से दिल्ली और नोएडा एक बड़ी आबादी के स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो गया है। आमतौर पर माना जाता है कि भस्मक हर प्रकार के कूड़े वगैरह को जला देता है और वह गायब हो जाता है। वास्तव में, जला कूड़ा, राख और गैस में तब्दील हो जाता है। इन रासायनिक प्रतिक्रियाओं के कारण, सैकड़ों नए यौगिकों का गठन हो जाता है, जिनमें से कुछ बहुत विषैले होते हैं। अब तक, वैज्ञानिकों ने खतरनाक माने जाने वाले सौ पदार्थों की पहचान की है। चालू भस्मक मानव जाति के लिए प्रदूषण के स्रोत हैं। ऐसे प्रदूषण सांस के जरिए मानव शरीर में कैंसर उत्पन्न कर सकते हैं। चिमनी से निकल रही गैसों का साफ दिखने का मतलब यह नहीं है कि वे हानिकारक नहीं हैं। अदृश्य सूक्ष्म कण मानव स्वास्थ्य को धीमे जहर की तरह खोखला कर देते हैं।

धूल और धुएं के जरिए जहरीले सूक्ष्मकण श्वसनतंत्र को प्रभावित करते हैं और हृदय को भी क्षति पहुंचाते हैं। इससे गंभीर अस्थमा हो जाता है। भस्मक से उत्सर्जन को लेकर ब्रिटेन, स्वीडन, इटली जैसे भिन्न देशों में अध्ययन हुए हैं। इनमें पाया गया है कि इससे निकलने वाली गैसों का मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव होता है। इससे निकलने वाली अम्लीय गैसें और कण मानव शरीर के लिए भारी खतरा हैं। अगर हमें स्वस्थ जीवन व्यतीत करना है तो इसका विकल्प जल्द तलाशना होगा।

प्रदूषित वातावरण तो दिल्ली और उसके आसपास की पहचान बनता जा रहा है। प्राकृतिक संरक्षण के नाम पर हास्यास्पद उदाहरण देखने को मिलते हैं। दिल्ली शहर का उदाहरण ही ले लें, जहां पचास सालों में अनगिनत गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो गई हैं।

हरे भरे दरख्तों को धराशायी कर दिया गया है। सैकड़ों वृक्षों को काट कर उनकी जगह और इमारतों के मुख्य द्वार के समीप किसी नीम या पीपल या बरगद के वृक्ष को इस प्रकार लगाया जाता है कि मानो धरती का कर्ज चुकाया जा रहा हो। हजारों पेड़ कटने के बाद भरपाई के लिए कुछ सौ पौधे लगा कर इतिश्री कर ली जाती है। यह बात तो हमें बचपन में बता दी जाती है कि पेड़ पौधे हमारे जीवन के लिए अनिवार्य हैं। हम जीवित रहने की लिए ऑक्सीजन सांस से खींचते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं। पेड़ पौधे हमारे जीवन के लिए अनिवार्य ऑक्सीजन बनाते हैं। सब कुछ जानते बूझते कुछ व्यक्ति लालच में आ कर जीवन के मूल्यों का ही सौदा कर बैठते हैं। विश्वव्यापी प्रकृति की बर्बादी ने संयुक्त राष्ट्र का ध्यान आकृष्ट किया। संयुक्त ने विश्व प्रकृति घोषणा पत्र जारी करके कहा है कि सभी का यह दायित्व है कि वह प्रकृति का संरक्षण करे।

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