समूचे देश की मिट्टी, पानी और हवा लगातार प्रदूषित हो रही है। औद्योगीकरण की रफ्तार ने प्रदूषण की मात्रा को और बढ़ा दिया है। हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं बल्कि कई छोटे नगरों/कस्बों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित होता जा रहा है। औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोगक्तावादी संस्कृति आधुनिक विकास के ऐसे नमूने हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकट ग्रस्त बना रहे हैं। विश्वबैंक के आर्थिक सलाहकार विलियम समर्स का कहना है कि हमें विकासशील देशों का प्रदूषण; कूड़ा-कचरा निर्यात करना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से एक तो विकसित देशों का पर्यावरण शुद्ध रहेगा, दूसरे, इससे वैश्विक स्तर पर प्रदूषण घातक स्तर के मानक को स्पर्श नहीं कर पाएगा, क्योंकि तीसरी दुनिया के इन गरीब देशों में मनुष्य की कीमत सस्ती है। पूंजीवाद के भौतिक दर्शन का यह क्रूर नवीनतम संस्करण है। भारत में औद्योगीकरण की रफ्तार भूमंडलीकरण के बाद तेज हुई। एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा तो दूसरी तरफ औद्योगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋतु ने दस्तक दी तो वायुमंडल में आर्द्रता छा गई। इस नमी ने धूल और धुएँ के बारीक़ कणों को वायुमंडल में विलय होने से रोक दिया और दिल्ली के ऊपर एकाएक कोहरा आच्छादित हो गया।
वातावरण का यह निर्माण क्यों हुआ, मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पष्ट तार्किक उत्तर नहीं है। वे इसकी वजह तमिलनाडु में गतिमान रही नीलम चक्रवात की तूफ़ानी हवाओं को मान रहे हैं। लेकिन ये हवाएँ तमिलनाडु से चलकर दिल्ली पर ही क्यों केंद्रित हुईं, इसका न तर्कसंगत जवाब है और न ही व्यावहारिक हल। इसका एक कारण बढ़ते वाहन और उनका सह उत्पाद प्रदूषित धुंआ भी बताया गया। लेकिन वाहन तो चेन्नई, मुंबई, बैंग्लुरु, अहमदाबाद और कोलकाता में भी दिल्ली से कम नहीं हैं, लेकिन इन शहरों में धुंध का माहौल नहीं बना? हालांकि हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है। कारों की बढ़ती संख्याओं के कारण दिल्ली ही नहीं लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इंदौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर की सीमा लांघने को तत्पर है। दिल्ली में वायु प्रदूषण मानक स्तर से पांच गुना ज्यादा है। उद्योगों से धुंआ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरा जलाने से दिल्ली की हवा में जहरीले तत्वों की सघनता बढ़ी है।
मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहरों को प्रदूषण की गिरफ़्त में ले लिया है। डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पंपों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित होता जा रहा है। इसकी मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रांति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और केरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे सांस की बीमारी की गिरफ्त में हैं। 20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं। इस खतरनाक हालात से रुबरु होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे।
जिस गुजरात को हम आधुनिक विकास का मॉडल मानकर चल रहे हैं, वहां भी प्रदूषण के हालात भयावह हैं। टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के चार प्रमुख प्रदूषित शहरों में गुजरात का वापी शहर शामिल है। इस नगर में 400 किलोमीटर लंबी औद्योगिक पट्टी है। इन उद्योगों में कामगार और वापी के रहवासी कथित औद्योगिक विकास की बड़ी कीमत चुका रहे हैं। वापी के भूगर्भीय जल में पारे की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से 96 प्रतिशत ज्यादा है। यहां की वायु में धातुओं का संक्रमण जारी है, जो फ़सलों को नुकसान पहुंचा रहा है। कमोबेश ऐसे ही हालात अंकलेश्वर बंदरगाह के हैं। यहां दुनिया के अनुपयोगी जहाजों को तोड़कर नष्ट किया जाता है। इन जहाजों में विषाक्त कचरा भी भरा होता हैं, जो मुफ्त में भारत को निर्यात किया जाता है। इनमें ज्यादातर सोडा की राख, एसिड युक्त बैटरियाँ और तमाम किस्म के घातक रसायन होते हैं। इन घातक तत्वों ने गुजरात के बंदरगाहों को बाजार में तब्दील कर दिया है। लिहाजा प्रदूषित कारोबार पर शीर्ष न्यायालय के निर्देश भी अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में प्रदूषित कचरा भी आयात हो रहा है। इसके लिए बाक़ायदा विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव बनाने के लिए एक परिपत्र जारी किया कि भारत विकसित देशों द्वारा पुनर्निमित वस्तुओं और उनके अपशिष्टों के निर्यात की कानूनी सुविधा दे। पूंजीवादी अवधारणा का जहरीले कचरे को भारत में प्रवेश की छूट देने का यह कौन-सा मानवतावादी तर्क है? अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी इस प्रदूषण को निर्यात करते रहने का बेज़ा दबाव बनाए हुए हैं।
यह विचित्र विडंबना है कि जो देश भोपाल में हुई यूनियन कार्बाइड दुर्घटना के औद्योगिक कचरे को 30 साल बाद भी ठिकाने नहीं लगा पाया वह दुनिया के औद्योगिक कचरे को आयात करने की छूट दे रहा है।
गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का भी बुरा हाल है। बनारस, जहां करोड़ों श्रद्धालु अपना परलोक सुधारने के लिए गंगा में डुबकी लगाते हैं, में प्रति एक सौ मिलीमीटर पानी में फीकल कोलिफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा 60 हजार है। इस लिहाज से जो पानी स्नान के लिए सुरक्षित माना जाता है, उससे यह पानी 120 गुना ज्यादा खतरनाक है। यमुना में इसी बैक्टीरिया की तादाद 10 हजार है। मसलन देश की दोनों पवित्र नदियों को जल प्रदूषण ने अपवित्र बना दिया है। इन सब हालातों से रुबरु होने के बावजूद प्रदूषण से निजात दिलाने की प्राथमिकता न केंद्र सरकार के एजेंडे में शामिल है और न ही राज्य सरकारों के एजेंडे में?
वातावरण का यह निर्माण क्यों हुआ, मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पष्ट तार्किक उत्तर नहीं है। वे इसकी वजह तमिलनाडु में गतिमान रही नीलम चक्रवात की तूफ़ानी हवाओं को मान रहे हैं। लेकिन ये हवाएँ तमिलनाडु से चलकर दिल्ली पर ही क्यों केंद्रित हुईं, इसका न तर्कसंगत जवाब है और न ही व्यावहारिक हल। इसका एक कारण बढ़ते वाहन और उनका सह उत्पाद प्रदूषित धुंआ भी बताया गया। लेकिन वाहन तो चेन्नई, मुंबई, बैंग्लुरु, अहमदाबाद और कोलकाता में भी दिल्ली से कम नहीं हैं, लेकिन इन शहरों में धुंध का माहौल नहीं बना? हालांकि हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है। कारों की बढ़ती संख्याओं के कारण दिल्ली ही नहीं लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इंदौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर की सीमा लांघने को तत्पर है। दिल्ली में वायु प्रदूषण मानक स्तर से पांच गुना ज्यादा है। उद्योगों से धुंआ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरा जलाने से दिल्ली की हवा में जहरीले तत्वों की सघनता बढ़ी है।
मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहरों को प्रदूषण की गिरफ़्त में ले लिया है। डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पंपों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित होता जा रहा है। इसकी मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रांति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और केरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे सांस की बीमारी की गिरफ्त में हैं। 20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं। इस खतरनाक हालात से रुबरु होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे।
जिस गुजरात को हम आधुनिक विकास का मॉडल मानकर चल रहे हैं, वहां भी प्रदूषण के हालात भयावह हैं। टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के चार प्रमुख प्रदूषित शहरों में गुजरात का वापी शहर शामिल है। इस नगर में 400 किलोमीटर लंबी औद्योगिक पट्टी है। इन उद्योगों में कामगार और वापी के रहवासी कथित औद्योगिक विकास की बड़ी कीमत चुका रहे हैं। वापी के भूगर्भीय जल में पारे की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से 96 प्रतिशत ज्यादा है। यहां की वायु में धातुओं का संक्रमण जारी है, जो फ़सलों को नुकसान पहुंचा रहा है। कमोबेश ऐसे ही हालात अंकलेश्वर बंदरगाह के हैं। यहां दुनिया के अनुपयोगी जहाजों को तोड़कर नष्ट किया जाता है। इन जहाजों में विषाक्त कचरा भी भरा होता हैं, जो मुफ्त में भारत को निर्यात किया जाता है। इनमें ज्यादातर सोडा की राख, एसिड युक्त बैटरियाँ और तमाम किस्म के घातक रसायन होते हैं। इन घातक तत्वों ने गुजरात के बंदरगाहों को बाजार में तब्दील कर दिया है। लिहाजा प्रदूषित कारोबार पर शीर्ष न्यायालय के निर्देश भी अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में प्रदूषित कचरा भी आयात हो रहा है। इसके लिए बाक़ायदा विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव बनाने के लिए एक परिपत्र जारी किया कि भारत विकसित देशों द्वारा पुनर्निमित वस्तुओं और उनके अपशिष्टों के निर्यात की कानूनी सुविधा दे। पूंजीवादी अवधारणा का जहरीले कचरे को भारत में प्रवेश की छूट देने का यह कौन-सा मानवतावादी तर्क है? अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी इस प्रदूषण को निर्यात करते रहने का बेज़ा दबाव बनाए हुए हैं।
यह विचित्र विडंबना है कि जो देश भोपाल में हुई यूनियन कार्बाइड दुर्घटना के औद्योगिक कचरे को 30 साल बाद भी ठिकाने नहीं लगा पाया वह दुनिया के औद्योगिक कचरे को आयात करने की छूट दे रहा है।
गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का भी बुरा हाल है। बनारस, जहां करोड़ों श्रद्धालु अपना परलोक सुधारने के लिए गंगा में डुबकी लगाते हैं, में प्रति एक सौ मिलीमीटर पानी में फीकल कोलिफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा 60 हजार है। इस लिहाज से जो पानी स्नान के लिए सुरक्षित माना जाता है, उससे यह पानी 120 गुना ज्यादा खतरनाक है। यमुना में इसी बैक्टीरिया की तादाद 10 हजार है। मसलन देश की दोनों पवित्र नदियों को जल प्रदूषण ने अपवित्र बना दिया है। इन सब हालातों से रुबरु होने के बावजूद प्रदूषण से निजात दिलाने की प्राथमिकता न केंद्र सरकार के एजेंडे में शामिल है और न ही राज्य सरकारों के एजेंडे में?
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