प्रकृति का नाम आते ही भूपटल के वृहद पक्षों पर अपने चारों ओर फैले नीले आकाश, हरी-भरी धरती, गहरा- गहरा विशाल समुद्र, सफेद चमकते पर्वत, लहलहाती फसलें, फूलों से लदे वृक्ष, पक्षियों का कलरव, झरनों की मधुर ध्वनि, जंगलों की गहरी गूंज तथा विशाल क्षेत्र में फैले मरुस्थल आदि की कल्पना 'मन में आ जाती है।
पर्यावरण के इन प्रकारों की ओर भी अधिक सटीक अभिव्यक्ति, भौतिक प्रभावों नमी, ताप, पदार्थों के गढ़न इत्यादि की विभिन्नताओं तथा जैविक प्रभावों के रूप में की जा सकती है। मृदा तथा चट्टानों के समान ही दूसरे जीव भी पर्यावरण के ही अंग हैं। इस प्रकार अपने चारों ओर जो कुछ भी हमें परिलक्षित होता है, वायु, जल, मृदा पादप तथा प्राणी सभी सम्मिलित रूप में सुंदर प्रकृति की रचना करते है ।
प्रकृति का यह मनोरम दृश्य आज सफेद कागजों पर लिखी नीली स्याही के समान समय के साथ धीरे- धीरे विलीन होता जा रहा है। मिट्टी की उपजाऊ शक्ति और मिट्टी की बनावट का संरक्षण किए बिना सघन खेती करते रहे तो हरी- भरी जमीनें रेगिस्तानों में बदल जाएंगी। पानी के निकास का प्रबंध किए बिना सिंचाई करते रहे तो मिट्टियां कल्लर या रेतीली हो जाएंगी।
कीटनाशी, फफूंदनाशी और खरपतवारनाशी दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल से जैविक संतुलन बिगड़ जाएगा और कैंसर जैसे अनेक रोग पनप जाएंगे।अगर चिमनियों से निकलने वाले धुओं को प्रतिबंधित नहीं किया गया तो वातावरण में श्वास लेना कठिन हो जाएगा। अगर वनों की अंधाधुंध कटाई जारी रही तो धरती मां नम हो जाएगी, वन्य जीव नष्ट हो जाएंगे और हमारे पास जो अनूठी प्राकृतिक सम्पदा पानी के रूप में बची हुई है, वह भूमिगत पानी के अधिक दोहन के कारण तेजी से समाप्त हो जाएगी। स्थानीय दृष्टि से अनुकूलित असंख्य देशी नस्लों व किस्मों की जगह ज्यादा उपज देने वाली नस्लों और कुछ किस्मों को तेजी से प्रसारित करके हम अपनी स्वयं की अमूल्य पशु शक्ति तथा पौधों की किस्मों के अस्तित्व को खो देंगे, जिसके परिणामस्वरुप आने वाली पीढ़ियों को दूर-दूर तक अपनी स्वयं की प्राकृतिक संपदा नजर नहीं आएगी।
अतः सुख सुविधा व पैदावार बढाने में जो भी परिवर्तन परम्परागत प्राकृतिक स्त्रोतों में किए जा रहे हैं, उनके दूरगामी प्रभावों को समझे बगैर और बुनियादी वैज्ञानिक आधार खड़ा किए बिना हम वर्तमान प्रगति को लंबे समय तक नहीं निभा पाएंगे और आगे चलकर समृद्धि व विकसित राष्ट्र के निर्माण के बजाय एक ऐसे दौर में पहुंच सकते हैं, जहां मानव अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाएगा। अतः आवश्यक है कि जन-जन को अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए और प्रकृति के श्रृंगार में अपनी भागीदारी निभानी चाहिए।
आज और कल के नौजवानों के जीवन को स्वस्थ और सुखी बनाने के लिए हमें एक ऐसे सक्षम समाज की नींव रखनी होगी, जिसमें आधुनिक कृषि, उद्योग, सूचना एवं प्रबंध तकनीकियों को पारिस्थितिक एवं पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अनुकूल स्वरुप में परम्परागत सूझबूझ और कौशल में गूथा गया हो ।
एक ऐसा समाज होगा, जिसका प्रत्येक वर्ग पर्यावरण को संरक्षित रखने में अपनी अहम भूमिका निभाए। ऐसे प्रकृति प्रेमी समाज की बात करना तो बहुत आसान है मगर उसका निर्माण करना इतना सरल नहीं है । जनतांत्रिक समाजों में सरकारी नीतियां दो चुनावों के बीच का दौर गुजरने के काबिल बनती हैं और तानाशाही में तो बस अगले विद्रोह ही जिंदा रहती हैं। अतः केवल जनभावना और जन भागीदारी से ही प्रकृति का श्रृंगार किया जा सकता है। प्रकृति का ही सुंदरतम स्वरुप बचपन अगर उसका श्रृंगार करने लग जाए तो संपूर्ण सृष्टि अति सुंदर बन जाएगी, प्रत्येक देश का भविष्य उस देश के बच्चों पर निर्भर करता है। अतः अगर बच्चों के नाजुक हाथों में देश की प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण का जिम्मा सौंपा जाए तो कम से कम आगे चलकर वे प्राकृतिक सौन्दर्य का क्षरण तो नहीं करेंगे।
स्कूल में पौधे लगाना, प्रदूषण के दुष्प्रभावों की जानकारी देना, प्लास्टिक का उचित व कम से कम उपयोग, बाह्य वातावरण की सफाई तथा प्राकृतिक प्रेम की जन- जागृति में बच्चें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, जिससे समाज द्वारा जाने अनजाने में होने वाले पर्यावरण क्षरण पर रोक लगाई जा सकती है और एक स्वछंद, सुंदर, सुरक्षित प्राकृतिक सौन्दर्य का निर्माण किया जा सकता है।
वर्तमान समय में फूटने वाली परिस्थितिक दावानलों को बच्चों के नन्हें- नन्हें हाथों से बुझाया जा सकता हैं और बचाया जा सकता है धरती के प्राकृतिक सौन्दर्य को आने वाली नई पीढ़ियों के लिए लंबे समय तक हमारी शैक्षिक संस्थाएं ऐसी विचारधारा के विकास पर बल दें, बच्चों और नौजवानों के मन में यह भावना कूट-कूट कर भर दें कि हम अतीत की प्राकृतिक विरासत में नूतन ज्ञान की माला पिरोकर ही भविष्य का स्वागत कर पाएंगे।
संपूर्ण विश्व का कार्यभार प्रत्येक देश के नौजवानों के हाथों में होता है। आज भारत देश को आवश्यकता है प्रकृति से प्रेम करने वाले, दूषित हो रहे पर्यावरण की रक्षा प्रदान करने वाले कर्मवीर सपूतों की आज आवश्यकता है जो खनन के बाद उबड़-खाबड़ हो रही भूमि को पुनः कर हरी-भरी बनाने और वातावरण को जहर रहित कर मनुष्यता की सेवा कर सके।
स्रोत, पर्यावरण डाइजेस्ट सितम्बर 2023
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