हरित गृह प्रभाव(Green House Effect)

 हरित ग्रह प्रभाव
 हरित ग्रह प्रभाव

अभी तक पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ज्ञात ग्रह है जहां जीवन का अस्तित्व है । इस अनोखे ग्रह पर विद्यमान विभिन्न कारकों के आपसी संतुलनों के परिणामस्वरूप ही यहां जीवन का उद्भव संभव हुआ है। वायुमंडल भी ऐसा ही एक विशिष्ट कारक है जो पृथ्वी को जीवनदायी ग्रह बनाए हुए है। यदि पृथ्वी पर वायुमंडल नहीं होता तो यहां का औसत तापमान शुन्य डिग्री सेल्सियस से भी काफी नीचे (लगभग -15 डिग्री सेल्सियस) होता । वायुमंडल की उपस्थिति के कारण - पृथ्वी ग्रह का औसत तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस बना हुआ है। पृथ्वी पर इस तापमान को बनाए रखने में ग्रीन हाउस प्रभाव यानी हरित ग्रह प्रभाव की महत्वपूर्ण भूमिका है। ग्रीन हाउस गैसें पृथ्वी के चारों और एक ऐसा आवरण बना लेती हैं जिसमें सौर विकिरण प्रवेश तो कर लेते हैं लेकिन वापस नहीं जा पाते, जिससे पृथ्वी और वायुमंडल का तापमान बढ़ता है।

ग्रीन हाउस प्रभाव

ठंडी जलवायु वाले स्थानों में पौधों को गर्माहट देने के लिए बनाए जाने वाले पारदर्शी कांच के पौधा घर यानी ग्रीन हाउस में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प आदि ठीक इसी तरह ऊष्मा को रोक कर ग्रीन हाउस के अंदर गर्माहट बनाए रखते हैं। इसीलिए ऊष्मा को रोकने की इस प्रक्रिया को 'ग्रीन हाउस प्रभाव' नाम दिया गया है और इस प्रभाव को उत्पन्न करने वाली गैसों को ग्रीन हाउस गैसें कहते हैं।

जब हम कार या बस को धूप में खड़ा करते हैं और उसके शीशे बंद हों तब हम ग्रीन हाउस प्रभाव का अनुभव आसानी से कर सकते हैं। ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण कार के अंदर का तापमान बाहर के तापमान की अपेक्षा अधिक हो जाता है। इसी प्रभाव का लाभ उठाने के लिए पहाड़ों पर तथा ठंडी जगहों पर मकान बनाते समय धूप वाली दिशा में शीशे का उपयोग अधिक किया जाता है ताकि मकान के अंदर का तापमान गरम रहे।

प्राकृतिक ग्रीन हाउस - वायुमंडल

ग्रीन हाउस में जिस तरह शीशा या प्लास्टिक उपयोग आता है उसी तरह धरती के संदर्भ में पृथ्वी का वायुमंडल काम करता है। सूरज से आने वाली ऊर्जा का एक बड़ा भाग वायुमंडल को पार कर धरती तक आता है। इस ऊर्जा से धरती की सतह तथा धरती का वायुमंडल गरम हो जाता है। धरती सतह से परावर्तित ऊर्जा जब पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर की ओर जाना चाहती है तो वायुमंडल में उपस्थित कुछ गैसें उसे रोकती हैं। जिसके कारण धरती का औसत तापमान नियत बना रहता है।

ग्रीन हाउस गैसें

सूर्य की किरणें वायुमंडल से गुजर कर जब धरती की सतह पर पहुंचती हैं तब सूर्य की किरणों का कुछ भाग वायुमंडल को गरमाता है और कुछ भाग बादलों व रेतीले और बर्फीले भागों से टकराकर परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में लौट जाता हैं। अंतरिक्ष की ओर लौटती ऊष्मा के कुछ भाग को वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड एवं मीथेन व अन्य ग्रीन हाउस गैसें सोख कर वापस वायुमंडल में छोड़ती हैं। इस प्रकार अंतरिक्ष की ओर जाती ऊष्मा का कुछ भाग वायुमंडल में कैद हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप वायुमंडल में गर्माहट बनी रहती है। ग्रीन हाउस गैसें वायुमंडल में ऐसा आवरण तैयार कर देती हैं जो सूर्य से आने वाली गर्मी को वापस नहीं जाने देती। इन गैसों की मात्रा में वृद्धि से धरती का तापमान बढ़ता है। कार्बन डाइऑक्साइड और कुछ अन्य गैसों द्वारा इस प्रकार ऊष्मा को रोकने की प्रक्रिया को 'ग्रीन हाउस प्रभाव' कहते हैं। वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा इस बात का निर्धारण करेंगी कि आने वाले समय में धरती की जलवायु कैसी होगी।

औद्योगीकरण, कोयले पर आधारित विद्युत तापगृह, तकनीकी तथा परिवहन क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन का दहन, विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, परफ्यूम आदि का वृहद् पैमाने पर उपयोग, कृषि में रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग, धान की खेती के क्षेत्र में वृद्धि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हरितगृह गैसों के उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं।

मिथेन भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो एक प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मिथेन की तापवृद्धि क्षमता 36 गुना है। यह गैस कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में 20 गुना अधिक प्रभावी है। पिछले 100 वर्षों में मिथेन गैस की वातावरण में दुगुनी वृद्धि हुई है। धान की खेती, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नमभूमियां मिथेन गैस के प्रमुख स्रोत हैं। एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मिथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है। इसके अतिरिक्त पशुओं तथा दीमकों में आंतरिक किण्वन भी मिथेन के स्रोत हैं। सन् 1750 की तुलना में मिथेन गैस की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2050 तक मिथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक उष्णता में बीस प्रतिशत का योगदान है। मिथेन उत्सर्जन प्रमुख रूप से जुगाली करने वाले पशुओं के पेट से, रोपण पद्धति से उगाए जाने वाले धान के खेतों व दलदली क्षेत्रों से होता है ।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रूप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थाई होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं। हाइड्रोफ्लोरो कार्बन तथा परफ्लोरो, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन की वातावरण में वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तापवृद्धि क्षमता 14,600 है परफ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत है।पर फ्लोरो कार्बन की वृद्धि दर भी 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है लेकिन इसकी तापवृद्धि क्षमता 17,000 गुनी है । पर फ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धिदर 0.4 प्रतिशत है। हाइड्रो फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तापवृद्धि में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तापवृद्धि में योगदान 12 प्रतिशत है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन  की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि औद्योगीकरण के कारण हुई है।

नाइट्रस ऑक्साइड गैस भी एक प्रमुख हरितगृह गैस है जो कि प्रतिवर्ष 0.3 प्रतिशत की दर से वातावरण में बढ़ रही है। इस गैस की तापवृद्धि क्षमता 140 गुनी है। जीवाश्म ईंधन, जैव ईंधन तथा रासायनिक खादों का कृषि में अत्यधिक उपयोग इसके उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं। मिट्टी में रासायनिक खादों पर सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप नाइट्रस ऑक्साइड का निर्माण होता है। तत्पश्चात इस गैस का वातावरण में उत्सर्जन होता है। वातावरण में इस गैस की वृद्धि के लिए 70 से 80 प्रतिशत तक रासायनिक खाद तथा 20 से 30 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन जिम्मेदार हैं। इस गैस का वैश्विक तापवृद्धि में योगदान 5 प्रतिशत है। नाइट्रस ऑक्साइड ओजोन परत के क्षरण के लिए भी जिम्मेदार है।

क्षोभमंडल में उपस्थित ओजोन गैस भी एक हरितगृह गैस है जो 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। इस गैस की तापवृद्धि क्षमता 430 गुनी है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बस की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। ओजोन गैस का वैश्विक तापवृद्धि में 2 प्रतिशत का योगदान है। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में सल्फर हेक्सा लोराइड को भी एक प्रमुख हरितगृह गैस के रूप में पहचाना गया है। ट्राईफ्लोरो मिथाइल सल्फर पेंटालोराइड भी एक गौण हरितगृह गैस है जिसका उत्सर्जन रक्षा उद्योगों से होता है। इस गैस की ऊष्मा अवशोषण की क्षमता कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 18,000 गुना ज्यादा होती है।

बढ़ती ग्रीन हाउस गैसें

मानवीय क्रियाकलापों के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड और ओजोन आदि ग्रीन हाउस गैसों एवं क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसे हैलो कार्बन पदार्थों की बढ़ती मात्रा से ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि हो रही है। अंधाधुंध वन कटाई से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में कई गुना वृद्धि हुई है। इसके अलावा औद्योगिक युग की शुरूआत से ही पूरी दुनिया में कहीं कम तो कहीं बहुत अधिक संख्या में धुआं उगलने वाले उद्योगों एवं वाहनों की संख्या ने जीवाश्म ईंधनों का बहुत अधिक दोहन किया है जिनके परिणामस्वरूप वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा लगातार बड़ रही है।

धरती को गर्माने के संबंध में जहां तक जलवाष्प का प्रश्न है तो धरती के आस-पास के वायुमंडल में इसकी मात्रा में लगभग 1,60,000 वर्षों के दौरान कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव इतनी तीव्रता से बढ़ता रहा तो प्रति वर्ष 5 लाख से अधिक लोग अकाल मौत का शिकार हो सकते हैं।

कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा

औद्योगिक क्रांति के बाद मानवीय गतिविधियों ने वायुमंडल में इतनी कार्बन डाइऑक्साइड झोंक दी है कि जीवन को पोष रही यह गैस अब जीवन के लिए खतरा बनती जा रही है। वैसे तो गर्माहट बढ़ाने के मामले में मीथेन व अन्य गैसें कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कई गुणा अधिक तेज हैं लेकिन सबसे ज्यादा मात्रा में उत्सर्जन के कारण कार्बन डाइऑक्साइड गैस को ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि के लिए अकेली कार्बन डाइऑक्साइड गैस 60 प्रतिशत तक जिम्मेदार है। वर्तमान में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पिछले 65,000 वर्षों के दौरान रहे किसी भी स्तर से 27 प्रतिशत अधिक है। धरती के वायुमंडल में नाइट्रोजन (78.9 प्रतिशत) और ऑक्सीजन (20.95 प्रतिशत) की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बहुत ही कम लगभग 0.03 प्रतिशत है। लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड की इस मात्रा के घटने या बढ़ने से 'ग्रीन हाउस प्रभाव' पर व्यापक असर होता है और ग्रीन हाउस प्रभाव के बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ता है ।
आज वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगभग 380 भाग प्रति दस लाख भाग ( पीपीएम) है, जो औद्योगिक क्रांति के आरंभिक काल में 280 पीपीएम थी। आज यह प्रयास किए जा रहे हैं कि सन् 2050 तक यह मात्रा 440 पीपीएम तक थम जाए यानी मौजूद मात्रा में 80 पीपीएम ही और बढ़ पाए। यदि हम उत्सर्जन को 440 पीपीएम तक रोक सकें तो भी तापमान में औद्योगिक क्रांति से पहले के तापमान के मुकाबले में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तो होकर रहेगी ।

वर्तमान में मानवीय गतिविधियों द्वारा वायुमंडल में प्रतिवर्ष 36 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड पहुंच रही है। कार्बन डाइऑक्साइड की इस मात्रा में से 29 अरब टन मात्रा जीवाश्म ईंधनों की खपत तथा औद्योगिक गतिविधियों के द्वारा पहुंच रही है और करीबन 7 अरब टन उष्णकटिबंधीय वनों के कटने से पहुंच रही है। वर्ष 2007 में अन्तर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत सन् 2015 तक विश्व में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में तीसरा सबसे बड़ा देश बन जाएगा।

भारत का प्रति व्यक्ति हरित गृह गैस उत्सर्जन

"इंडियन जी.एच.जी. इमिशन प्रोफाइल: रिजल्ट्स ऑफ फाइव क्लाइमेट मॉडलिंग स्टडीज" के अनुसार भारत का प्रति व्यक्ति हरति गृह उत्सर्जन 2031 में भी वर्ष 2005 के वैश्विक स्तर से कम रहेगा। वर्ष 2005 में वैश्विक औसत 4.22 टन कार्बनडाइऑक्साइड के समतुल्य था । विश्व विकास रिपोर्ट 2009 के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन 1.2 मीट्रिक टन है।

अति सदैव बुरी होती है

लगभग सौ वर्ष पहले गणितज्ञ ज्यां फूरियल ने यह बताया था कि धरती के तापमान को बनाए रखने में ग्रीन हाउस प्रभाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वैसे अगर ग्रीन हाउस प्रभाव नहीं होता तो धरती इतनी अधिक ठंडी होती कि यहां जीवन की संभावना न के बराबर होती । इसलिए एक तरफ ग्रीन हाउस प्रभाव पृथ्वी पर जीवन के लिए वरदान भी है (लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी चीज की अति सदैव बुरी होती है) तो दूसरी तरफ ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण भी है।

वरदान बना अभिशाप

वैसे यदि धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड ने गर्मी को रोकने की भूमिका न निभाई होती तो हमारा पृथ्वी ग्रह एक ठंडा ग्रह होता। इस बात से यह स्पष्ट है कि ग्रीन हाउस प्रभाव धरती के जीवन के लिए वरदान है। लेकिन यह विडंबना ही है कि मानव अपनी कारगुजारियों से इस वरदान को भी अभिशाप में बदलने का कार्य कर रहा है जिसके परिणामस्वरूप आज पृथ्वी अपने जीवनदायी रूप से मुंह मोड़ रही है।

स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार

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Post By: Shivendra
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