हरियाली से खुशहाली की अनूठी पहल

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आदिवासियों के अधिकारों के लिए बरसों से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र गढ़वाल कहते हैं, ‘‘पहले जंगल आम, आँवला, बेर, अचार, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्षों से भरा था। लेकिन अब यह फलदार वृक्ष खत्म हो गए हैं। फिर से जंगल को हरा-भरा करना जरूरी है जिससे आदिवासियों को भूख और कुपोषण से बचाया जा सके, उनकी आमदनी बढ़ाई जा सके। बैतूल जिले में एक माह में 25 हजार पौध रोपण करने का लक्ष्य रखा गया है।इन दिनों मध्य प्रदेश के बैतूल और हरदा जिले में भूख, कुपोषण और पर्यावरण सुधार के लिए हरियाली-खुशहाली की अनूठी मुहिम चलाई जा रही है और इसे वन विभाग नहीं, आदिवासी चला रहे हैं। इसके तहत खेत, बाड़ी और जंगल की खाली जमीन पर फलदार और छायादार वृक्ष लगाए जा रहे हैं जिससे कुपोषण से निजात मिल सके, आमदनी बढ़ सके और जंगलों को फिर से हरा-भरा बनाया जा सके, पर्यावरण सुधारा जा सके और जैव-विविधता का संवर्धन और संरक्षण किया जा सके।

बैतूल जिले के चिचौली और शाहपुर विकासखण्ड में आदिवासी इस मुहिम में जुटे हुए हैं। यह मुहिम 24 जुलाई से शुरू हुई है, जो 30 सितम्बर तक चली। इसके तहत चीरापाटला गाँव में 24 जुलाई को, भौंरा में 5 अगस्त को और चूनाहजूरी में 20 अगस्त को सैकड़ों की तादाद में आदिवासी एकत्र हुए। आदिवासियों ने काँवड़ में पौधे सजाकर पूरे बाजार में जुलूस निकाला। हर व्यक्ति के हाथ में दो फलदार पौधे थे। सामूहिक रूप से सैकड़ों पौध रोपण किया गया। यहाँ सक्रिय श्रमिक आदिवासी संगठन और समाजवादी जनपरिषद द्वारा इस मुहिम को चलाया जा रहा है।

आदिवासियों के अधिकारों के लिए बरसों से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र गढ़वाल कहते हैं, ‘‘पहले जंगल आम, आँवला, बेर, अचार, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्षों से भरा था। लेकिन अब यह फलदार वृक्ष खत्म हो गए हैं। फिर से जंगल को हरा-भरा करना जरूरी है जिससे आदिवासियों को भूख और कुपोषण से बचाया जा सके, उनकी आमदनी बढ़ाई जा सके। इसके तहत अपने घरों के बाड़े में, खेत में, गाँव की खाली जमीन पर व जंगल में पेड़ लगाए जा रहे हैं। सामूहिक रूप से आम, इमली, आँवला, बेर, जामुन, सीताफल, मुनगा, कटहल आदि के पेड़ लगाए जा रहे हैं। बैतूल जिले में एक माह में 25 हजार पौध रोपण करने का लक्ष्य रखा गया है।

समाजवादी जनपरिषद की नेत्री शमीम मोदी कहती हैं, ‘‘हम तो हर साल यह मुहिम चलाते हैं लेकिन वन विभाग का सहयोग नहीं मिलता बल्कि वे पेड़ों को ही उखाड़ देते हैं।’’ उन्होंने चिचौली विकास खण्ड के पीपलबर्रा का गाँव का उदाहरण दिया, जहाँ वन विभाग और वन सुरक्षा समिति के लोगों ने पेड़ों में आग लगा दी थी। उनका कहना है अब तक अरबों रुपए की वानिकी परियोजनाएँ भी असफल साबित हुई हैं। अगर लोगों की जरूरत के हिसाब से वृक्षारोपण किया जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे आएँगे।

इसकी तैयारी आदिवासी गर्मी के मौसम से ही शुरू कर देते हैं- बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ-सफाई, भण्डारण, पौधे तैयार करना और फिर जंगल में लगाना। कुछ गाँवों के लोग जंगल या नदी किनारे लगे आम के पेड़ के नीचे उगे छोटे पौधों का वितरण करते हैं। आम के पेड़ ही ज्यादा लगाए जा रहे हैं, क्योंकि उसके पौधे आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं। इसके अलावा चीकू और काजू के पौधों का रोपण भी किया जा रहा है।

समाजवादी जनपरिषद की नेत्री शमीम मोदी कहती हैं, ‘‘हम तो हर साल यह मुहिम चलाते हैं लेकिन वन विभाग का सहयोग नहीं मिलता बल्कि वे पेड़ों को ही उखाड़ देते हैं।’’आदिवासियों का जीवन मौद्रिक नहीं, अमौद्रिक है। वे प्रकृति से सबसे ज्यादा करीब हैं। प्रकृति से उनका माँ-बेटे का रिश्ता है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें जरूरत है। वे पेड़-पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। वे अपनी जिन्दगी में प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर हैं। लेकिन जंगलों में फलदार पेड़ कम होने से उनकी आजीविका और जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उन्हें भूख और अभाव में कठिन दिन गुजारने पड़ रहे हैं। ये फलदार पेड़ और कन्द-मूल उनके भूख के साथी हैं।

इस मुहिम से जुड़े मनाराम, सुखदेव, सन्तोष, रोनू और शंकर कहते हैं कि पहले जंगल से हमें कई तरह के फल-फूल और कन्द-मूल मिलते थे। महुआ, तेन्दू, अचार, मैनर, आँवला आदि कई चीजें मिलती थीं और ये सब निःशुल्क उपलब्ध थीं। लेकिन अब नहीं मिलतीं।

जंगलों में फलदार वृक्ष कम होने के कई कारण हैं। एक तो जंगल में सागौन और बांस लगाए जा रहे हैं। दूसरा, जंगल में कुछ लोग लालचवश फलदार वृक्षों से कच्चे फल तोड़ लेते हैं। उन्हें पकने से पहले ही झाड़ लेते हैं। टहनियाँ भी तोड़कर फेंक देते हैं जिससे तेजी से जंगलों में फलदार वृक्ष कम हो रहे हैं। इन पर रोक लगना ही चाहिए। साथ ही पौधे लगाकर फिर से जंगल को हरा-भरा करना भी जरूरी है।

कुछ वर्ष पहले बोरी अभयारण्य में भी आदिवासियों ने फलदार वृक्षों को बचाने की मुहिम चलाई थी। यह अलग बात है कि अब इन्हीं आदिवासियों को जंगल में शेर पालने के नाम पर उजाड़ा जा रहा है। बहरहाल, इस नयी पहल में न केवल जंगल के पेड़ों को बचाया जा रहा है बल्कि नये पेड़ लगाए जा रहे हैं। इससे पर्यावरण का सुधार और जैव-विविधता का संरक्षण और संवर्द्धन भी होगा। आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी। बहरहाल, यह सकारात्मक व जनोपयोगी पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं और विकास सम्बन्धी मुद्दों पर लिखते हैं।)
ई-मेल : babanayaran@gmail.com

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