बुन्देलखण्ड का गाँव ग्याजीतपुरा सूखे और मौसम से जीतने में कामयाब रहा लेकिन व्यवस्था के हाथों वह मजबूर है।
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले की मोहनगढ़ तहसील की बहादुरपुरा पंचायत का गाँव ग्याजीतपुरा। पिछले काफी समय से जल संरक्षण के अपने निजी उपायों और पारम्परिक और नगदी फसलों के मिश्रण के जरिए लाभ की खेती के चलते खबरों में बना यह गाँव अब व्यवस्था की मार झेल रहा है। आप प्रकृति से जीत सकते हैं लेकिन सरकारी मशीनरी से आसानी से नहीं।
यह बात ग्याजीतपुरा के निवासियों से ज्यादा भला कौन समझेगा? सूखे को ठेंगा दिखाकर अपनी हरियाली से सूरज को मुँह चिढ़ा रहा यह गाँव बिजली विभाग के हाथों मजबूर हो गया है। महज तीन लाख रुपए के बकाये के चलते न केवल गाँव की बिजली काट दी गई है बल्कि यहाँ का ट्रांसफॉर्मर ही स्थायी रूप से हटा दिया गया है। नतीजा सिंचाई के लिये पानी की कमी और हरी-भरी फसलों के सूखने की शुरुआत।
ग्याजीतपुरा के किसानों ने बारिश के पानी को रोका। उनसे सींचकर अपने खेतों को हरा-भरा बनाया। हरियाली इतनी कि एकबारगी यकीन ही नहीं हो कि यह भी बुन्देलखण्ड ही है। पपीते की लहलहाती फसल उनकी छाया में मिर्च और टमाटर, प्याज और अरबी के पौधे।
बुन्देलखण्ड उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बँटे 13 जिलों का वह हिस्सा जो ऐतिहासिक तौर पर सूखे का शिकार है। मनुष्य तो मनुष्य पशुओं तक को दानापानी मुहैया नहीं है। जहाँ किसान आये दिन आत्महत्या कर रहे हैं। लेकिन इस सहरा में नखलिस्तान की तरह उभरे ग्याजीतपुरा ने बहुत जल्दी मॉडल गाँव की छवि ग्रहण कर ली।
खास बात यह है कि इसमें सरकार का कोई योगदान नहीं था बल्कि यह गाँव वालों की खुद की लगन और उनके चाव का नतीजा था। लेकिन एक कहावत है न कि हर अच्छी चीज को एक-न-एक दिन खत्म होना होता है तो ग्याजीतपुरा की खुशियों को भी शासन व्यवस्था की नजर लग गई।
भले ही राज्य सरकार ने किसानों की बिजली काटने के लिये बकाये को बहाना न बनाने की ताकीद की हो लेकिन जमीनी हकीकत तो कुछ और ही है। तकरीबन 246 परिवारों और 700 की आबादी वाले ग्याजीतपुरा की बिजली इसलिये काट दी गई क्योंकि इस गाँव पर बिजली बिल के 3 लाख रुपए बकाया है। गाँव के अधिकांश परिवार खेती पर निर्भर हैं। ऐसे में बिजली के संकट ने उनके माथे पर चिन्ता की लकीरें डाल दी हैं।
गाँव के एक सफल किसान जयराम अहिरवार कहते हैं कि वे अपनी फसल को लेकर काफी उत्साहित थे लेकिन बिजली विभाग ने अचानक न केवल गाँव की बिजली काट दी बल्कि वह ट्रांसफार्मर भी उखाड़ ले गया। जाहिर है बिजली की वापसी की सारी सम्भावनाएँ इसके साथ ही समाप्त हो गईं।
52 वर्षीय जयराम कहते हैं कि गाँव पर बिल जमा नहीं करने का आरोप बेबुनियाद है। गाँव के कई परिवार जो सूखे के चलते बहुत पहले पलायन कर चुके हैं। उनका ही बिल बकाया है। भला उनका बिल कोई और क्यों जमा करेगा? सरकार को उन घरों की बिजली काटनी चाहिए थी लेकिन इसके बदले पूरे गाँव की बिजली काट दी गई।
कुआँ गाँव वालों के लिये पानी और सिंचाई का साधन था अब वह बेकार साबित हो रहा है क्योंकि हाथ से पानी खींचकर इतने बड़े पैमाने पर सिंचाई करना सम्भव नहीं है। बिजली विभाग के स्थानीय एसडीओ पीएन यादव यह स्वीकार करते हैं कि गाँव पर बिजली का बकाया है इसलिये बिजली काटी गई है। हालांकि वह जिलाधिकारी प्रियंका दास सूखे के दौर में बिजली काटे जाने को अनुचित बताती हैं। उन्होंने कहा है कि वह स्वयं इस प्रकरण को देखेंगी और जल्द निराकरण किया जाएगा।
बहरहाल, अगर थोड़ी देर के लिये हम इस हालिया संकट को भुला दें तो यह पूरा गाँव अपनी हरियाली से आपको मुग्ध कर देगा। स्थानीय किसान पानी के लिये आत्मनिर्भर हैं और वे अपने खेतों में पूरी तरह जैविक खाद का प्रयोग करते हैं। गेहूँ और सोयाबीन जैसी फसल के अलावा वे फल सब्जियों की नकदी किस्म जैसे कि पपीता, अरबी, मिर्च और टमाटर आदि की खेती करके अच्छी खासी राशि अर्जित करते आये हैं। लेकिन सवाल है कि यह कैसे हुआ? गाँव वालों ने अपने-अपने खेतों में छोटे-छोटे पोखर बना रखे हैं। वे वर्षाजल तथा हर तरह के पानी के संरक्षण की हर कोशिश करते हैं। हालांकि इन गर्मियों में ये पोखरी भी सूख चुकी हैं। मौसम विभाग द्वारा इस साल अच्छी बारिश का अनुमान जताए जाने के बाद सारी उम्मीदें बारिश पर टिक गई हैं।
गाँव के ही एक अन्य किसान जानकी अहिरवार बताते हैं कि दो किस्म की खेती करने का एक फायदा तो यह है कि अगर मुख्य फसल किसी वजह से लड़खड़ा भी जाये तो यह नकदी फसल उनकी आर्थिक स्थिति को थामे रहती है। गाँव के किसान अपने खेतों में भी रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं करते। लेकिन पशुआें की कम संख्या खाद की राह में रोड़ा बनती है।
जयराम बताते हैं कि इस सिलसिले की शुरुआत सन 2012 में हुई थी जब स्वयंसेवी संगठन परमार्थ ने उन्हें मिश्रित खेती के इस प्रारूप और इसके फायदों से अवगत कराया था। तब से गाँव वालों ने इसे आत्मसात किया और पीछे मुड़कर नहीं देखा।
ग्याजीतपुरा की ही 35 वर्षीय रामश्री अहिरवार के पास बहुत अधिक खेत नहीं हैं। रामश्री बताती हैं कि पहले जहाँ पारम्परिक अनाज उगाते हुए उनके सामने यह डर रहता था कि वे अपना पेट भरने लायक अन्न भी उपजा पाएँगे या नहीं वहीं अब नकदी फसल के साथ हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। गाँव में अहिरवार आैर केवल समुदाय के लोग हैं। गाँव में पालतू पशुआें की कमी है। जैविक खेती के लिये गोबर जैसी खाद तक इनको खरीदकर लानी पड़ती है। रामश्री चाहती हैं कि किसी सरकारी योजना के तहत अगर इनको पालतू पशु मिल पाते तो वह दूध के अलावा उसके गोबर का प्रयोग खाद के रूप में कर पातीं।
इन अथक प्रयासों के बाद भी गाँव के लोगों के लिये खेती लाभ का धन्धा तो नहीं बन सकी है लेकिन हाँ, अपनी इस नई खेती की वजह से गाँव के लोग भुखमरी आैर सूखे के संकट से जरूर बचे हुए हैं। अगर यह सिलसिला चलता रहा व शासन का सहयोग मिला तो इसे लाभ का धन्धा बनते देर नहीं लगेगी।
परमार्थ के रवि सिंह तोमर कहते हैं कि यह पूरा इलाका सूखे से बुरी तरह ग्रस्त है। किसानों की आत्महत्या से लेकर रोजगार के लिये पलायन तक यह इलाका देश में इसी वजह से नाम बना रहा है। आजादी के इतने दशक बाद भी सरकारी कोशिशों से यहाँ हालात में कोई बदलाव नहीं आया। लेकिन जिन किसानों ने खेती का अपना तरीका बदला वे निश्चित तौर पर दूसरों के लिये उदाहरण बनकर सामने आये हैं।
खास बात यह है कि नई पीढ़ी भी इस बात को समझ रही है और बेरोजगारी का दंश झेलने की जगह कई युवा खेती में अपने परिजनों का साथ दे रहे हैं। युवाओं के साथ खेती में नए विचार भी शामिल हो रहे हैं। जो अन्तत: सबके हित में है।
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