‘ग्रीन कमाण्डो’ के नाम से विख्यात वीरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में समूचे कांकेर जिले के स्थानीय विद्यालयों के विद्यार्थी और अब तो कॉलेजों के विद्यार्थी घर-घर जाकर लोगों को पर्यावरण संरक्षण के बारे में समझाते हैं तथा पेड़ों और पानी को बचाने के साथ-साथ अपने घरों के आसपास कूड़ा-कचरा जमा न होने देने के बारे में बताते हैं।छतीसगढ़ में बस्तर का नाम लेते ही एक ऐसे क्षेत्र की छवि उभर कर आती है जो पिछले कई वर्षों से हिंसा, संघर्ष और रक्तपात से जूझता चला आ रहा है। यह राजनीतिक संघर्ष उन नीतिगत प्राथमिकताओं के बारे में ऐसे विचलित करने वाले प्रश्न उठाता है जो स्वतन्त्रता के बाद से इस जनजातीय क्षेत्र में उठाई जाती रही हैं। इस बात को अब शिद्दत से स्वीकार किया जाने लगा है कि विकास के अभाव के कारण ही उन राजनीतिक समूहों का उद्भव हुआ है जो देश में संसदीय लोकतन्त्र के ढाँचे के बारे में सवाल खड़े कर रहे हैं।
इस गहन संघर्ष और उससे जुड़ी बहस में जो बात कहीं खो गई है, वह है बस्तर की अपनी पहचान। यह क्षेत्र कैसा है, यहाँ लोग कैसे रहते हैं और वह कौन-सी बात है जो इसको परिभाषित करती है। दुर्गम और दुरूह रास्ते इसके नैसर्गिक संसाधन थे फिर इसकी सांस्कृतिक और सामाजिक रचनाएँ। यहाँ की जो चीज लोगों को सबसे पहले आकर्षिक करती है, वह है यहाँ के घने जंगल जो मीलों तक खत्म नहीं होते। सदियों से इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों ने जीवन जीने का अपना ही तरीका विकसित किया है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें प्रकृति को पूजा जाता है एवं उसकी रक्षा पहले तो वर्तमान पीढ़ी के लिए, परन्तु वास्तव में भावी पीढ़ियों के लिए किया जाता है।
इस क्षेत्र में सदियों से चले आ रहे जीवन-दर्शन ने ही सम्भवतः वीरेन्द्र सिंह को पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी लेने को प्रेरित किया। बचपन में दुर्ग जिले के अपने कृषक परिवार में रहते हुए भी वे प्रकृति की गोद में खेला करते थे पौधों में नयी कोपलों को निहारने, कटने के लिए खड़ी फसलों को ताकने और झरनों से तेजी से झरते पानी को देखने में उन्हें बहुत आनन्द आता था। जब वे बड़े हुए उन्होंने महसूस किया कि प्रकृति का यह उपहार ही मानव सभ्यता और उसे बनाए रखने का आधार है। इन सबके होते हुए भी यह नश्वर है और यदि हम सब इसकी देखभाल नहीं करेंगे तो यह बिल्कुल ही समाप्त हो जाएगी। बाद के वर्षों में एक विद्यालय-शिक्षक के रूप में उन्हें प्रकृति के आनन्द के रहस्यों को खोलने में असीम सम्भानाएँ नजर आईं। प्रकृति के प्रति खतरों को लेकर भी वे चिन्तित थे। यही सोचकर उन्होंने अपनी यात्रा प्रारम्भ की। पिछले 13 वर्षों से अनवरत जारी इस प्रकृति-यात्रा के कारण वे अब इस क्षेत्र में ‘ग्रीन कमाण्डो’ के नाम से विख्यात हैं।
वह कौन-सी बात थी जिससे प्रेरित होकर उन्होंने यह अतुल्य यात्रा शुरू की जो अब उनके जीवन का ध्येय बन चुकी है। छत्तीसगढ़ को ‘चावल का कटोरा’ कहा जाता है। धान की फसल मुख्यतः जल संसाधन पर निर्भर होती है। अपनी इस हरित यात्रा की शुरुआत वर्ष 1977 में करते समय उनके मन में पारम्परिक जल-स्रोतों, कुओं, तालाबों और छोटे-छोटे झरनों में कम होती जलधारा सबसे अधिक हावी थी। यह सब वर्षा पर निर्भर है और इसके बावजूद वर्षा का अधिकांश जल बेकार बह जाता है। यदि इसे बचाया जा सके तो कैसा रहे? उनके मन में जब जल-संचय का विचार आया तो उसके पीछे विचार का यही कीड़ा उन्हें काट रहा था और फिर वे पारम्परिक जल-स्रोतों को बचाने के अभियान पर निकल पड़े।
इसके अलावा दुर्ग जिले में स्थित भिलाई इस्पात संयन्त्र (बीएसपी) से निकलने वाले प्रदूषक पदार्थों से तन्दुला बाँध के आसपास का क्षेत्र प्रभावित हो रहा था। पानी की अपनी जरूरतों के लिए अनेक लोग इसी बाँध पर निर्भर थे। आसपास के क्षेत्रों में विचरण/निवास करने वाले पशु-पक्षी इसी बाँध के पानी पर आश्रित थे। उन्होंने यह मुद्दा जिला विकासखण्ड और शहरी निकाय के अधिकारियों के समक्ष उठाया, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया ठण्डी ही रही। इसी से यह विचार आया कि इस मिशन में विद्यालय के बच्चों को भी शामिल किया जाए तो बेहतर होगा। वीरेन्द्र के मार्गदर्शन में समूचे कांकेर जिले के स्थानीय विद्यालयों के विद्यार्थी और अब तो कॉलेजों के विद्यार्थी भी इस मुहिम में शामिल हो गए हैं, घर-घर जाकर लोगों को पर्यावरण संरक्षण के बारे में समझाते हैं तथा पेड़ों और पानी को बचाने के साथ-साथ अपने घरों के आसपास कूड़ा-कचरा जमा न होने देने के बारे में बताते हैं।
इस अभियान में विद्यालय-प्रणाली को शामिल किए जाने से पता चलता है कि वीरेन्द्र स्वतः स्फूर्त पर्यावरण सेवी के रूप में एक कुशल रणनीतिकार भी हैं। विद्यालयों के प्राचार्य इस तरह के प्रासंगिक सामाजिक कार्य के लिए सहर्ष अपने छात्र-छात्राओं को भेजने को तैयार रहते हैं। यह पूछे जाने पर कि वह पर्यावरण जगत में होने वाले परिवर्तनों से किस प्रकार जीवन्त सम्पर्क बनाए रखते हैं, और यह भी कि कार्यरूप में परिणत करने के लिए उन्हें नये-नये विचार कैसे प्राप्त होते हैं, वीरेन्द्र मुस्कुरा कर जवाब देते हैं, 'मुझे पर्यावरण के बारे में पुस्तकें पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। मुझे स्वतः ही पता चल जाता है कि क्या गलत हो रहा है और किस पर ध्यान देने की आवश्यकता है और किस प्रकार बच्चों और युवाओं के मन में इसके बारे में उत्सुकता पैदा की जाए।’’
वीरेन्द्र के इस अभियान में लड़के और लड़कियाँ दोनों शामिल हैं, परन्तु लड़कियाँ ज्यादा आगे आकर काम करती हैं। अभियान के ध्येय और सन्देश के साथ-साथ वे इनसे जुड़ी गतिविधियों में भी पर्याप्त दिलचस्पी लेती हैं। उनके लिए नुक्कड़ नाटक, पोस्टर बनाने, प्रदर्शनी लगाने, विषय-आधारित यात्राएँ निकालने, क्षेत्र का दौरा करने, वृक्षारोपण अभियान और घर-घर जाकर सन्देश पहुँचाने जैसे बहुतेरे काम रहते हैं। इस दल ने अब तक जो अभियान चलाए हैं उनमें से सबसे उल्लेखनीय है गेहूँ की खड़ी फसल को गाजर-घास से बचाना। गाजर-घास के विस्तार के कारण गेहूँ की फसल में समय से पूर्व ही फूल निकल आते थे।
जिन गतिविधियों में स्कूली-छात्र शामिल होते हैं उनमें से अधिकांश दिन के समय की जाती हैं। वे मुख्य रूप से पैदल चलकर आसपास के वातावरण को बारीकी से देखते भर हैं। खाने के लिए भोजन वे अपने घर से लाते हैं। पोस्टर, रंग और ब्रुश जैसी सामग्रियों के लिए वीरेन्द्र अपने वेतन से व्यय वार योगदान करते हैं। परन्तु प्रायः स्थानीय लोग भी भोजन आदि की व्यवस्था करते हैं और अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए सहायता करते रहते हैं। इस प्रकार, एक तरह से यह एक सामुदायिक कार्यक्रम बन गया है। वीरेन्द्र भी इस बात से प्रसन्न हैं कि उन्हें एक निजी कम्पनी गोदावरी रिवर इस्पात लि. में संचार अधिकारी का काम मिल गया है जो उन्हें पाँच हजार रुपए का बढ़िया वेतन देती है। इसी वेतन के बल पर वह अपने अभियान दल में शामिल बच्चों की मदद करते रहते हैं। जब वे विद्यालय-शिक्षक थे, उन्हें कुल पाँच सौ रुपए वेतन में मिलते थे। परन्तु तब भी वे अपनी प्रिय परियोजनाओं के लिए कुछ-न-कुछ रचनात्मक कार्य कर ही लेते थे। वे सौभाग्यशाली हैं कि उनके अभियान में उनका परिवार और मित्रगण भी सहयोग करते हैं। उनकी माँ अपने बेटे के इस उत्तम कार्य पर बड़ा गर्व अनुभव करती हैं। उनके दो कलाकार मित्र अंकुश, देवांगन और विद्यार्थी प्रदर्शनियों और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
इन सबके बावजूद वीरेन्द्र अपने मौलिक ध्येय, जल-संरक्षण में बड़ी गम्भीरता से जुड़े हुए हैं। उनका मानना है कि पानी पृथ्वी पर सबसे बहुमूल्य संसाधन है और वही सबके केन्द्र में है। अपने इस विचार को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने ‘तिलक होली’ की धारणा प्रस्तुत की है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ सहित देश के अनेक भागों में मनाए जाने वाले आनन्द के त्यौहार होली में पानी में रंग घोलकर नहीं खेला जाता। इस तरह पानी बर्बाद करने के स्थान पर एक-दूसरे के माथे पर गुलाल का तिलक लगाकर होली मनाई जाती है।
यह एक ऐसा विषय है जिसका सरोकार न केवल बस्तर अथवा छत्तीसगढ़ से बल्कि पूरे देश से है। जल बचाने के इस अभियान में उनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए देश के प्रमुख समाचार-पत्र दैनिक भास्कर ने वीरेन्द्र सिंह को ‘दैनिक जल स्टार’ पुरस्कार के लिए चुना। इस वर्ष 13 अप्रैल को दिए गए इस पुरस्कार के लिए वीरेन्द्र का चयन 146 लोगों में से किया गया था। परन्तु पुरस्कारों को लेकर वीरेन्द्र के मन में कोई लालसा नहीं। वे तो बस अपने ध्येय को लेकर समर्पित है। हरा-भरा बस्तर, छत्तीसगढ़ में स्वच्छ पर्यावरण और इन सबसे ऊपर युवाओं का एक जुझारू समूह जो उनके सन्देश को दूर-दूर तक ले जाने को कटिबद्ध हैं, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियाँ हैं। परिवर्तन की यह धरोहर आगे भी लोगों को रास्ता दिखाएगी, यही विश्वास है।
(चरखा फीचर्स)
इस गहन संघर्ष और उससे जुड़ी बहस में जो बात कहीं खो गई है, वह है बस्तर की अपनी पहचान। यह क्षेत्र कैसा है, यहाँ लोग कैसे रहते हैं और वह कौन-सी बात है जो इसको परिभाषित करती है। दुर्गम और दुरूह रास्ते इसके नैसर्गिक संसाधन थे फिर इसकी सांस्कृतिक और सामाजिक रचनाएँ। यहाँ की जो चीज लोगों को सबसे पहले आकर्षिक करती है, वह है यहाँ के घने जंगल जो मीलों तक खत्म नहीं होते। सदियों से इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों ने जीवन जीने का अपना ही तरीका विकसित किया है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें प्रकृति को पूजा जाता है एवं उसकी रक्षा पहले तो वर्तमान पीढ़ी के लिए, परन्तु वास्तव में भावी पीढ़ियों के लिए किया जाता है।
इस क्षेत्र में सदियों से चले आ रहे जीवन-दर्शन ने ही सम्भवतः वीरेन्द्र सिंह को पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी लेने को प्रेरित किया। बचपन में दुर्ग जिले के अपने कृषक परिवार में रहते हुए भी वे प्रकृति की गोद में खेला करते थे पौधों में नयी कोपलों को निहारने, कटने के लिए खड़ी फसलों को ताकने और झरनों से तेजी से झरते पानी को देखने में उन्हें बहुत आनन्द आता था। जब वे बड़े हुए उन्होंने महसूस किया कि प्रकृति का यह उपहार ही मानव सभ्यता और उसे बनाए रखने का आधार है। इन सबके होते हुए भी यह नश्वर है और यदि हम सब इसकी देखभाल नहीं करेंगे तो यह बिल्कुल ही समाप्त हो जाएगी। बाद के वर्षों में एक विद्यालय-शिक्षक के रूप में उन्हें प्रकृति के आनन्द के रहस्यों को खोलने में असीम सम्भानाएँ नजर आईं। प्रकृति के प्रति खतरों को लेकर भी वे चिन्तित थे। यही सोचकर उन्होंने अपनी यात्रा प्रारम्भ की। पिछले 13 वर्षों से अनवरत जारी इस प्रकृति-यात्रा के कारण वे अब इस क्षेत्र में ‘ग्रीन कमाण्डो’ के नाम से विख्यात हैं।
वह कौन-सी बात थी जिससे प्रेरित होकर उन्होंने यह अतुल्य यात्रा शुरू की जो अब उनके जीवन का ध्येय बन चुकी है। छत्तीसगढ़ को ‘चावल का कटोरा’ कहा जाता है। धान की फसल मुख्यतः जल संसाधन पर निर्भर होती है। अपनी इस हरित यात्रा की शुरुआत वर्ष 1977 में करते समय उनके मन में पारम्परिक जल-स्रोतों, कुओं, तालाबों और छोटे-छोटे झरनों में कम होती जलधारा सबसे अधिक हावी थी। यह सब वर्षा पर निर्भर है और इसके बावजूद वर्षा का अधिकांश जल बेकार बह जाता है। यदि इसे बचाया जा सके तो कैसा रहे? उनके मन में जब जल-संचय का विचार आया तो उसके पीछे विचार का यही कीड़ा उन्हें काट रहा था और फिर वे पारम्परिक जल-स्रोतों को बचाने के अभियान पर निकल पड़े।
इसके अलावा दुर्ग जिले में स्थित भिलाई इस्पात संयन्त्र (बीएसपी) से निकलने वाले प्रदूषक पदार्थों से तन्दुला बाँध के आसपास का क्षेत्र प्रभावित हो रहा था। पानी की अपनी जरूरतों के लिए अनेक लोग इसी बाँध पर निर्भर थे। आसपास के क्षेत्रों में विचरण/निवास करने वाले पशु-पक्षी इसी बाँध के पानी पर आश्रित थे। उन्होंने यह मुद्दा जिला विकासखण्ड और शहरी निकाय के अधिकारियों के समक्ष उठाया, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया ठण्डी ही रही। इसी से यह विचार आया कि इस मिशन में विद्यालय के बच्चों को भी शामिल किया जाए तो बेहतर होगा। वीरेन्द्र के मार्गदर्शन में समूचे कांकेर जिले के स्थानीय विद्यालयों के विद्यार्थी और अब तो कॉलेजों के विद्यार्थी भी इस मुहिम में शामिल हो गए हैं, घर-घर जाकर लोगों को पर्यावरण संरक्षण के बारे में समझाते हैं तथा पेड़ों और पानी को बचाने के साथ-साथ अपने घरों के आसपास कूड़ा-कचरा जमा न होने देने के बारे में बताते हैं।
इस अभियान में विद्यालय-प्रणाली को शामिल किए जाने से पता चलता है कि वीरेन्द्र स्वतः स्फूर्त पर्यावरण सेवी के रूप में एक कुशल रणनीतिकार भी हैं। विद्यालयों के प्राचार्य इस तरह के प्रासंगिक सामाजिक कार्य के लिए सहर्ष अपने छात्र-छात्राओं को भेजने को तैयार रहते हैं। यह पूछे जाने पर कि वह पर्यावरण जगत में होने वाले परिवर्तनों से किस प्रकार जीवन्त सम्पर्क बनाए रखते हैं, और यह भी कि कार्यरूप में परिणत करने के लिए उन्हें नये-नये विचार कैसे प्राप्त होते हैं, वीरेन्द्र मुस्कुरा कर जवाब देते हैं, 'मुझे पर्यावरण के बारे में पुस्तकें पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। मुझे स्वतः ही पता चल जाता है कि क्या गलत हो रहा है और किस पर ध्यान देने की आवश्यकता है और किस प्रकार बच्चों और युवाओं के मन में इसके बारे में उत्सुकता पैदा की जाए।’’
वीरेन्द्र के इस अभियान में लड़के और लड़कियाँ दोनों शामिल हैं, परन्तु लड़कियाँ ज्यादा आगे आकर काम करती हैं। अभियान के ध्येय और सन्देश के साथ-साथ वे इनसे जुड़ी गतिविधियों में भी पर्याप्त दिलचस्पी लेती हैं। उनके लिए नुक्कड़ नाटक, पोस्टर बनाने, प्रदर्शनी लगाने, विषय-आधारित यात्राएँ निकालने, क्षेत्र का दौरा करने, वृक्षारोपण अभियान और घर-घर जाकर सन्देश पहुँचाने जैसे बहुतेरे काम रहते हैं। इस दल ने अब तक जो अभियान चलाए हैं उनमें से सबसे उल्लेखनीय है गेहूँ की खड़ी फसल को गाजर-घास से बचाना। गाजर-घास के विस्तार के कारण गेहूँ की फसल में समय से पूर्व ही फूल निकल आते थे।
जिन गतिविधियों में स्कूली-छात्र शामिल होते हैं उनमें से अधिकांश दिन के समय की जाती हैं। वे मुख्य रूप से पैदल चलकर आसपास के वातावरण को बारीकी से देखते भर हैं। खाने के लिए भोजन वे अपने घर से लाते हैं। पोस्टर, रंग और ब्रुश जैसी सामग्रियों के लिए वीरेन्द्र अपने वेतन से व्यय वार योगदान करते हैं। परन्तु प्रायः स्थानीय लोग भी भोजन आदि की व्यवस्था करते हैं और अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए सहायता करते रहते हैं। इस प्रकार, एक तरह से यह एक सामुदायिक कार्यक्रम बन गया है। वीरेन्द्र भी इस बात से प्रसन्न हैं कि उन्हें एक निजी कम्पनी गोदावरी रिवर इस्पात लि. में संचार अधिकारी का काम मिल गया है जो उन्हें पाँच हजार रुपए का बढ़िया वेतन देती है। इसी वेतन के बल पर वह अपने अभियान दल में शामिल बच्चों की मदद करते रहते हैं। जब वे विद्यालय-शिक्षक थे, उन्हें कुल पाँच सौ रुपए वेतन में मिलते थे। परन्तु तब भी वे अपनी प्रिय परियोजनाओं के लिए कुछ-न-कुछ रचनात्मक कार्य कर ही लेते थे। वे सौभाग्यशाली हैं कि उनके अभियान में उनका परिवार और मित्रगण भी सहयोग करते हैं। उनकी माँ अपने बेटे के इस उत्तम कार्य पर बड़ा गर्व अनुभव करती हैं। उनके दो कलाकार मित्र अंकुश, देवांगन और विद्यार्थी प्रदर्शनियों और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
इन सबके बावजूद वीरेन्द्र अपने मौलिक ध्येय, जल-संरक्षण में बड़ी गम्भीरता से जुड़े हुए हैं। उनका मानना है कि पानी पृथ्वी पर सबसे बहुमूल्य संसाधन है और वही सबके केन्द्र में है। अपने इस विचार को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने ‘तिलक होली’ की धारणा प्रस्तुत की है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ सहित देश के अनेक भागों में मनाए जाने वाले आनन्द के त्यौहार होली में पानी में रंग घोलकर नहीं खेला जाता। इस तरह पानी बर्बाद करने के स्थान पर एक-दूसरे के माथे पर गुलाल का तिलक लगाकर होली मनाई जाती है।
यह एक ऐसा विषय है जिसका सरोकार न केवल बस्तर अथवा छत्तीसगढ़ से बल्कि पूरे देश से है। जल बचाने के इस अभियान में उनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए देश के प्रमुख समाचार-पत्र दैनिक भास्कर ने वीरेन्द्र सिंह को ‘दैनिक जल स्टार’ पुरस्कार के लिए चुना। इस वर्ष 13 अप्रैल को दिए गए इस पुरस्कार के लिए वीरेन्द्र का चयन 146 लोगों में से किया गया था। परन्तु पुरस्कारों को लेकर वीरेन्द्र के मन में कोई लालसा नहीं। वे तो बस अपने ध्येय को लेकर समर्पित है। हरा-भरा बस्तर, छत्तीसगढ़ में स्वच्छ पर्यावरण और इन सबसे ऊपर युवाओं का एक जुझारू समूह जो उनके सन्देश को दूर-दूर तक ले जाने को कटिबद्ध हैं, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियाँ हैं। परिवर्तन की यह धरोहर आगे भी लोगों को रास्ता दिखाएगी, यही विश्वास है।
(चरखा फीचर्स)
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Post By: birendrakrgupta