हरिद्वार की गंगा में खनन अब पूरी तरह बंद

नैनीताल उच्चन्यायालय ने भी माना कि स्टोन क्रशर से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है


बेलगाम खनन का एक दृश्यबेलगाम खनन का एक दृश्यमातृसदन ने अंततः लड़ाई जीत ली। हरिद्वार की गंगा में अवैध खनन के खिलाफ पिछले 12 सालों से चल रहा संघर्ष अब अपने मुकाम पर पहुँच गया है। 26 मई को नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि क्रशर को वर्तमान स्थान पर बंद कर देने के सरकारी आदेश को बहाल किया जाता है। इसके साथ ही सरकार के क्रशर बंद करने के आदेश के खिलाफ रिट-पिटीशन को खारिज किया जाता है।

मातृसदन के संतों ने पिछले 12 सालों में 11 बार हरिद्वार में खनन की प्रक्रिया बंद करने के लिए आमरण अनशन किए। अलग-अलग समय पर अलग-अलग संतों ने आमरण अनशन में भागीदारी की। यह अनशन कई बार तो 70 से भी ज्यादा दिन तक किया गया। इन लंबे अनशनों की वजह से कई संतों के स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव पड़ा। संत निगमानंद लंबे अनशन की वजह से अभी भी कोमा में हैं और जौलीग्रांट हिमालयन इंस्टीट्यूट में उनका इलाज चल रहा है।

मातृसदन ने जब 1997 में स्टोन क्रेशरों के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका था। तब हरिद्वार के चारों तरफ स्टोन क्रेशरों की भरमार थी। दिन रात गंगा की छाती को खोदकर निकाले गए पत्थरों को चूरा बनाने का व्यापार काफी लाभकारी था। स्टोन क्रेशर के मालिकों के कमरे नोटों की गडिडयों से भर हुए थे और सारा आकाश पत्थरों की धूल (सिलिका) से भरा होता था। लालच के साथ स्टोन क्रेशरों की भूख भी बढ़ने लगी तो गंगा में जेसीबी मशीन भी उतर गयीं। बीस-बीस फुट गहरे गड्ढे खोद दिए। जब आश्रम को संतों ने स्टोन क्रेशर मालिकों से बात करने की कोशिश की तो वे संतों को डराने और आतंकित करने पर ऊतारू हो गये। तभी संतों ने तय किया कि गंगा के लिए कुछ करना है।

लेकिन लगातार संघर्ष की वजह से लगभग सभी स्टोन क्रेशर मालिक अपना धंधा बंद कर चुके थे। पर हिमालय स्टोन क्रशर के मालिक ज्ञानेश अग्रवाल लगातार हिमालय स्टोन क्रशर का काम करते रहे। इतना ही नहीं वे तो उत्तराखंड सरकार के खनन बंद करने के आदेश खिलाफ रिट-पिटीशन संख्या 2137, 2010 डालकर ‘स्टे आर्डर’ भी ले लिया था जिसको नैनीताल उच्च न्यायालय ने अब खारिज कर दिया है।

 

 

नैनीताल उच्च न्यायालय के आदेश की कुछ महत्वपूर्ण बातें


हिमालय स्टोन क्रशर प्रा. लि. हरिद्वार के बाहरी हिस्से में बहने वाली गंगा की धारा से अपना क्रशर का कारोबार कई सालों से कर रहा है। हालांकि यह इलाका कुंभ मेला का इलाका तो नहीं है लेकिन फिर भी यहां काफी बड़ी जनसंख्या निवास करती है और उसके करीब ही आसपास के कई गांव और राजाजी नेशनल पार्क मौजूद हैं फिर भी इस क्रशर ने येन-केन प्रकारेण गंगा की धारा से क्रशिंग का व्यवसाय चलाने का लाइसेंस भी प्राप्त कर लिया और यहां तक की एम.सी. मेहता बनाम भारतीय संघ और अन्य (1992) 2, 256 मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस निर्णय की भी अनदेखी कर दी जिसमें स्टोन क्रशिंग के कारण होने वाले पर्यावरण के प्रदूषण संबंधी क्रियाओं के बारे में कहा गया थाः

“हालांकि देश में औद्योगिक विकास के चलते पर्यावरण में बदलाव को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन हवा पानी और जमीन आदि को इस कदर प्रदूषित करके कि लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़े, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।”

क्रशर एक ऐसे इको-फ्रेजाइल जोन को नुकसान पहुँचा रहा है जो कि पर्यावरण के लिहाज से बहुत ही संवेदनशील है साथ ही जो लाइसेंस उसे दिया गया है उसने उसी के शर्तों का उलंघन किया है इसलिए उसे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के मद्देनजर इस क्षेत्र में पर्यावरण को कोई भी क्षति पहुँचाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

नैनीताल उच्चन्यायालय का पूरा आदेश यहां संलग्न है। पढ़ने के लिए कृपया डाउनलोड करें।

 

 

 

 

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