भारतीय दृष्टि के किसी एक छोटे से अंश को लेकर शेष सबका परित्याग कर देने वाली बुद्धि के प्रयोजन कुछ और होंगे, भारतीयता को समझना उसका उद्देश्य नहीं हो सकता। गंगा या किसी अन्य एक नदी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानने की बात का कोई मतलब तभी निकलता है, जब शेष सब नदियाँ भी महत्वपूर्ण मानी जाएँ। किसी भी भारतीय ग्रंथ में या लोककथा में किसी एक भारतीय नदी को एकमात्र पवित्र नदी नहीं कहा गया है।गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी, ताप्ती और कावेरी तो परम पवित्र हैं ही और उनकी पवित्रता पर बहुत लिखा-कहा गया है। किंतु साथ ही, भारतीय दृष्टि में यह भी बराबर स्पष्ट रहा है कि हमारी दृष्टि, बोध, भावना और कर्म ही इस पवित्रता को बनाये रख सकते हैं। फलत: यह बोध भी सदा जागृत रहा है कि हर नदी अपने-अपने क्षेत्र के लिए गंगा ही है। जैसे कि हर माँ अपनी-अपनी संतानों के लिए परम पवित्र है, जैसे कि हर कुलपति अपने-अपने कुल के लिए, हर ग्राम-प्रधान अपने-अपने गाँव के लिए, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के समान आदरणीय है, जैसे कि हर पंच (आज का सरकारी पंच नहीं, समाज का परम्परागत सहज पंच) अपने विचाराधीन विषय के लिए सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता रहा है, उसी तरह हर नदी गंगा है। जैसे हर स्त्री जगतजननी का अंश है, हर कुमारी कन्या त्रिपुरबाला दुर्गा का अंश है उसी तरह प्रत्येक नदी गंगा है। जिसकी हर नदी के प्रति पवित्र भावना नहीं, उसकी गंगा के प्रति वास्तविक पवित्र भावना संभव नहीं।
गौतम, बौधायन एवं वसिष्ठ धर्मसूत्र में सात तरह के स्थान पुनीत और पाप- नाशक बनाये गये हैं। ये हैं -पर्वत, पवित्र नदियां, सरोवर, तीर्थ-स्थल, ऋषि-निवास, गौशाला एवं देव-मंदिर। पद्मपुराण के भूमिखंड का कथन है कि समस्त नदियां पुनीत हैं, चाहे वे ग्रामों से होकर जाती हों, चाहे वनों से। नदियों के तट तीर्थ हैं। जहाँ उस तट का कोई विशेष तीर्थनाम नहीं भी हो, वहां उसे विष्णुतीर्थ मानना चाहिए।
राजनैतिक दृष्टि नदियों के प्रति दृष्टि को जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि के अंग के रूप में ही समझा जा सकता है। पर्वतों और वनों के प्रति पवित्र दृष्टि, नदियों के प्रति पवित्र दृष्टि की अनिवार्य सहवर्ती है। फिर, एक विशेष बात यह है कि ये पवित्र स्थल किसी की सम्पत्ति नहीं होते। सामाजिक सहमति और व्यवस्था से उनका उचित उपयोग समाज के सभी वर्गों और कुलों के लोग भिन्न-भिन्न रूप में कर सकते हैं। उसमें व्यवस्थात्मक अधिकार का कुछ विभाजन संभव है। किन्तु यह नदी या वन पर अधिकार का पर्याय नहीं है। अत: जिस दिन से ब्रिटिश शासन ने राज्य को देश की समस्त भूमि, जल, वन और खनिज-स्रोतों का स्वामी घोषित किया, उसी समय से भारतीय पवित्र दृष्टि बाधित मानी जाएगी। जब तक नदियों-वनों को राज्य की सम्पत्ति माना जाएगा, राष्ट्र यानी सम्पूर्ण समाज की नहीं, तब तक वास्तविक पवित्र-दृष्टि की प्रतिष्ठा असंभव है।
प्रत्येक विश्व-दृष्टि का एक अनिवार्य अंग होती है, उसमें निहित राजनैतिक दृष्टि। अत: नदियों-वनों आदि को पवित्र मानने वाली भारतीय दृष्टि की अंतर्निहित राजनैतिक दृष्टि है। हर नदी को गंगा मानना, मन चंगा तो कठौती में गंगा मानना, नदियों-वनों को सम्पूर्ण राष्ट्र यानी समाज की सम्पत्ति मानना। उन्हें राज्य के नाम पर राज्यकर्ताओं के स्वेच्छाचारी प्रबंध के अधीन वस्तु नहीं मानना। ब्रिटिश काल से यह राजनैतिक दृष्टि खंडित हुई और आज भी वह अप्रतिष्ठित ही है। इस राजनैतिक दृष्टि के प्रतिष्ठित रहते ही फिर गंगा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कृष्णा, सरस्वती आदि को विशिष्ट महत्व देने की कोई सार्थकता बनती है। इसी पवित्र राजनैतिक दृष्टि के रहते ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि तीर्थ चार प्रकार के हैं- मानुष तीर्थ यानी राजाओं द्वारा समाज की सेवा में बनाये गये तीर्थ, उनसे उत्तम हैं आर्ष तीर्थ जो ऋषियों ने संस्थापित किए, उनमें भी उत्तम हैं आसुर तीर्थ, जो विशिष्ट प्राणशक्ति संपन्न लोगों से संबंधित हैं, सबसे उत्तम हैं देवतीर्थ, जो स्वाभाविक हैं, मनुष्य द्वारा संस्थापित नहीं। इन देवतीर्थों में सर्वाधिक पुनीत हैं 12 नदियाँ। जिनमें से छ: विंध्य के दक्षिण में हैं- गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेणिका, तापी और पयोष्णी तथा ये छ: विंध्य के उत्तर में हैं-गंगा, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशोका एवं वितस्ता।
भारतीय दृष्टि के किसी एक छोटे से अंश को लेकर शेष सबका परित्याग कर देने वाली बुद्धि के प्रयोजन कुछ और होंगे, भारतीयता को समझना उसका उद्देश्य नहीं हो सकता। गंगा या किसी अन्य एक नदी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानने की बात का कोई मतलब तभी निकलता है, जब शेष सब नदियाँ भी महत्वपूर्ण मानी जाएँ। किसी भी भारतीय ग्रंथ में या लोककथा में किसी एक भारतीय नदी को एकमात्र पवित्र नदी नहीं कहा गया है। सर्वाधिक का कभी भी अर्थ एकमात्र नहीं होता। वह तो एक तुलनात्मक पद है।
करोड़ों तीर्थ - जिस तरह अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग देव-शक्तियाँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं, उसी तरह अलग-अलग नदी शक्तियाँ भी। फलत: भिन्न-भिन्न संदर्भों में भिन्न-भिन्न नदियों की महत्ता विवेचित है। यह भी निर्विवाद है कि गंगा को अत्यधिक महिमामयी माना जाता रहा है। स्वयं आदिकवि वाल्मीकि ने, आद्य शंकराचार्य ने तथा हजारों भारतीय कवियों ने यह कहकर अपना गंगाप्रेम दिखाया है कि गंगा के तट पर पक्षी, मृगया गंगाजल की मछली बनकर भी वे अपने जीवन को धन्य मानेंगे। स्पष्टत: यह एक सांस्कृतिक-राजनैतिक दृष्टि की अभिव्यक्ति है। इसी से इन्हीं महान कवियों ने यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि की भी गंगा जैसी ही स्तुति की है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है-‘स्रोतसामस्यि जाह्नवी’ यानी स्रोतों में मैं गंगा हूँ। इसका एक निहितार्थ यह भी है कि प्रत्येक स्वाभाविक स्रोत में गंगा का अंश अंत: प्रवाहित है। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त हैं। उसी तरह आध्यात्मिक गंगा प्रत्येक स्रोत में अंत:स्थ है। बौद्ध एवं जैन शास्त्रों में भी गंगा समेत विविध नदियों का महत्व मान्य है।
ऋग्वेद, महाभारत के वनपर्व और अनुशासनपर्व, पद्मपुराण, विष्णु, कूर्म, वराह, ब्रह्म, ब्रह्मानंद, भविष्य, गरुड़, नारदीय, स्कंदादि पुराणों में गंगा की महिमा का गान है। इसी तरह शतपथ ब्राह्मण, वनपर्व (महाभारत) तथा मत्स्य कूर्म, पद्य, अग्नि, नारदीय वायु स्कंध आदि पुराणों में नर्मदा की स्तुति है। मत्स्य और पद्म के अनुसार अमरकंटक से नर्मदा सागर तक 10 करोड़ तीर्थ हैं। अग्निपुराण के अनुसार ये तीर्थ 60 करोड़ हैं। नारदीयपुराण के अनुसार साढ़े तीन करोड़ हैं, जिनमें 400 मुख्य हैं। नर्मदा को दर्शन मात्र से पवित्र करने वाली अत: सर्वाधिक पवित्र क्षण कहा गया है। मत्स्य एवं कूर्म पुराण में इसकी लंबाई 100 योजन यानी लगभग 800 मील कही गयी है, जोकि लगभग तेरह सौ किलो मीटर होती है और यह बिल्कुल ठीक वर्णन है।
स्कंद पुराण में एक पूरा खंड ही रेवाखंड नाम से है। गोदावरी का भी वर्णन रामायण, महाभारत एवं पुराणों में वैसे ही आदर के साथ है। ब्रह्मपुराण के अनुसार विंध्य के दक्षिण में जो गंगा है, उसे गोमती यानी गोदावरी कहा जाता है और विंध्य के उत्तर में उसे भागीरथी कहते हैं। अनेक पुराणों में मत्स्य, वायु मार्कण्डेय, ब्रह्म एवं ब्रह्मांड पुराण में गोदावरी के तटवर्ती प्रदेश को तीनों लोकों में सबसे सुंदर कहा गया है। पुराणों के अनुसार गौतम ऋषि ने शिव भगवान की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि पर उतारा। गणेश जी ने इसमें गौतम की सहायता की। यही गंगा गौतमीया गोदावरी के नाम से प्रख्यात है। ब्रह्मपुराण के अनुसार गोदावरी तट पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं। जब बृहस्पति सिंहस्थ होता है, उस समय का गोदावरी-स्नान महापुण्यकारक है। इस समय का केवल एक बार का गोदावरी-स्नान उतना पुण्यफल देता है जितना कि गंगा जी (भागीरथी) में प्रतिदिन नहाते रहने पर आठ हजार वर्षों के स्नान से पुण्य मिलता है।
नदियां तीर्थ हैं। इनके तट पर विशिष्ट तीर्थ भी हैं। स्कंदपुराण के काशीखंड के अनुसार तीर्थ दो प्रकार के हैं : मानस तीर्थ और भौम तीर्थ। मानस तीर्थ कहते हैं उन तपस्वी, ज्ञानी जनों को, जिनके मन शुद्ध हैं और आचरण ऊँचा है, जो समाज की भलाई के लिए ही काम करते हैं। भौम तीर्थ चार तरह के होते है : अर्थ तीर्थ, काम तीर्थ, धर्म तीर्थ और मुक्ति तीर्थ।
नदियों के तट और संगम पर बने बड़े व्यापारिक केंद्र ‘अर्थ तीर्थ’ कहे जाते हैं। कलाओं और सौंदर्य के साधना केंद्रों को ‘काम तीर्थ’ कहते हैं। जहाँ विद्या और धर्म के केंद्र हों, वे ‘धर्म तीर्थ’ होते हैं। जहाँ मुख्यत: पराविद्या एवं साधना के, मोक्ष-साधना के केंद्र हों, वे मोक्ष तीर्थ होते हैं। जहाँ चारों का संगम हो वह है महापुरी। भारतीय राजधानी को अर्थ, काम एवं धर्म तीर्थ बनना चाहिए। तभी वह सच्चे अर्थों में भारतीय राष्ट्र की राजधानी होगी।
सभी नदियों के तट पर अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष तीर्थ रहे हैं। हरिद्वार, प्रयाग, बनारस, उज्जैन, नासिक जैसे तीर्थ महापुरियां रहे हैं। इसी तरह समुद्र-तटवर्ती जगन्नाथपुरी, द्वारिका, रामेश्वरम आदि भी हैं। प्रयाग, काशी और गया को त्रिस्थली कहा गया है। प्रथम दो गंगा-तट और अंतिम फल्गु नदी के तट पर हैं। यदि सिर्फ प्रख्यात धर्मशास्त्रों तक ही दृष्टि रखें तब भी भारत के प्राय: हर क्षेत्र की मुख्य नदियाँ तीर्थमय हैं।
काबुल और कश्मीर की सुवास्तु, गौरी, कुहू, कुभा (काबुल नदी), कमु (कुर्रम), वर्णु नदियाँ तथा कश्मीर-पंजाब की सिंधु, असिक्नी (चिनाव), परुष्णी (रावी), विपाशा (व्यास), अश्मन्वती, शतद्रु या शुतुद्रि (सतलुज), दृषद्वती, वितस्ता (झेलम) नदियाँ तो वैदिक साहित्य में गरिमा-मंडित हैं ही, बाद के धर्मशास्त्रों में भी सुपूजित हैं। धर्मशास्त्रों, पुराणों में बाद में चिनाव को चन्द्रभागा और रावी को इरावती कहा है। इसके साथ ही अचला, देविका, आपगा, कनकवाहिनी, कालोदका, मधुमती, विशोका आदि पवित्र नदियाँ और अक्षवाल, अच्छोदक, चन्द्रपुर, अनंतहृद, गोपाद्रि, जयवन, जयपुर (अंदरकोट), ज्येष्ठेश्वर, तक्षकनाग, नंदिकुंड, नंदिक्षेत्र, नन्दीश, मार्तण्ड, नरसिंहाश्रम, नीलनाग, वितस्तात्र आदि पवित्र जलस्रोत और उनसे जुड़े तीर्थ धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। यों तो सम्पूर्ण कश्मीर ही उमा का देश कहा गया है और स्वर्गिक वितस्ता उनका सीमंत (सिर की मांग) है। प्रसंगवश यह भी स्मरणीय है कि कश्मीर के बारहवीं शताब्दी के महान कवि कल्हण ने अपनी अमर कृति राजतरंगिणी की तुलना दक्षिण भारतीय पवित्र सरिता गोदावरी की तीव्र धारा से की है।
ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना के क्षेत्र की तो बात ही क्या की जाये। यहाँ की लगभग प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी और हजारों पवित्र स्थलों का पुराणों-धर्मशास्त्रों में गौरवगान है। स्पष्ट है कि इन नदियों और स्थलों को स्वच्छ, सुंदर और जीवंत रखने को उनके तट के वासी, देशवासी सदा सजग-सक्रिय रहते थे। लेकिन जब स्वयं लोगों का ही जीवन आक्रमणों और पराजयों से जर्जर-विखंडित और करुण हो जाए, तब उनसे नदी की रक्षा की अपेक्षा तो क्रूरता ही होगी। तब भी इस दौर में भी वे जितना करते रहे हैं, वह आश्चर्यप्रद ही है।
गंगा और यमुना तथा लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) के प्रति पुराणों एवं महाभारत में गहरा श्रद्धा-भाव है। महान कवियों ने इनकी महिमा कही है। गंगा-यमुना के संगम का वेद-पुराण, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत और समस्त धर्मशास्त्रों में बखान है। गंगा और यमुना की सभी प्रमुख सहायक, उपसहायक नदियों- सरयू यानी घाघरा, गोमती, सदानीरा इक्षुमती, कोसी, गंडकी, चर्मण्वती (चम्बल), काली सिंधु, महान शोणभद्र, तमसा, वेत्रवती (बेतवा), दशार्णा (बेतवा की सहायक धसान नदी) आदि की पवित्रता का जो गहरा बोध इस क्षेत्र के लोगों में रहा है, वही धर्मशास्त्रों में प्रतिसंवेदित है। असम, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, मध्य-प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल का क्षेत्र इस ब्रह्मपुत्र-गंगा-यमुना क्षेत्र में आता है। इसके साथ ही राजस्थान की पर्णाशा (बनास), विंध्य क्षेत्र की पार्वती, सुरसा, माही, बिहार की पुनपुन, फल्गु, कनकन्दा, उड़ीसा की सुवर्ण रेखा जैसी नदियाँ भी धर्मशास्त्रों में परम पवित्र कही गयी है। सरयू नदी का तो इतना महत्व रहा है कि उसके जल को एक विशेष नाम ही दिया गया- ‘सारव’। सरयू तट पर अनेक बौद्ध तीर्थ भी है। गंडकी के उद्गमस्थल शालिग्राम की महत्ता भी सुविदित है यहाँ के शालिग्राम पत्थर, विष्णु की मूर्ति कहे गये हैं।
मानसरोवर, गंगोत्री, यमनोत्री, बदरिकाश्रम, ब्रह्मकपाल, केदारधाम, देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, विष्णुप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, साकेत (अयोध्या), कुरुक्षेत्र, श्रृंगवेरपुर, मथुरा-वृन्दावन-राजापुर, सूकरतीर्थ, नैमिष, प्रयाग, काशी आदि धर्मतीर्थ एवं मोक्षतीर्थ तथा देहरादून, प्रागज्योतिषपुर, पानीपत, इन्द्रप्रस्थ, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद (प्रयाग), पाटलिपुत्र एवं बनारस (काशी), हस्तिनापुर आदि कामतीर्थ एवं अर्थतीर्थ इन नदियों के तट पर हैं। अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की सतत साधना देशवासी इन क्षेत्रों में करते रहे हैं।
प्रत्येक परम्परानिष्ठ भारतीय अपनी नदियों को माँ ही मानता रहा है, और मानता है। गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्र -सिंधु और सप्तसिंधु, कश्मीर आदि की तरह विंध्य, विदर्भ, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु आदि सभी क्षत्रों में नदियों के प्रति यही भाव है। गोदावरी और नर्मदा का माहात्म्य गंगा की ही तरह है। विदिशा, पूर्णा, तापी या ताप्ती, पयस्विनी, मन्दाकिनी, चित्रकूटा, श्रृपा, निर्विन्ध्या जैसी मध्य भारत-विन्ध्य -विदर्भ की नदियाँ सपूजित हैं अमरकंटक, त्रिपुरी, माहिष्मती, ओंकार- मान्धाता, अंकलेश्वर भृगुतीर्थ, जामदग्न्य तीर्थ, कबीरबड़, भृगुकच्छ या भरूकच्छ जैसे तीर्थ और मंडला, होशंगाबाद जैसे शहर नर्मदा तट पर हैं। क्षिप्रा तट पर महाकाल की नगरी उज्जयिनी है। उत्तरापथ और दक्षिणापथ की सीमारेखा है भगवती नर्मदा। इसीलिए इस पवित्र कुमारी की परिक्रमा या परिकम्मा का बहुत महत्व शास्त्रों में विस्तार से प्रतिपादित है। विभिन्न शिला- लेखों में भी नर्मदा का सादर उल्लेख है। मन्दाकिनी के तट पर परम पवित्र चित्रकूट धाम है। चित्रकूट और मन्दाकिनी दोनों ऋक्षपर्वत से भी निकली हैं। विन्ध्य से निकली महानदी का एक नाम चित्रोपला या चित्रोत्पला भी है। जैन- गंगा (वेणा) का भी महत्व ब्रह्मांड, मत्स्य आदि पुराणों में वर्णित है।
गंगा-गोदावरी की तरह ही कृष्णा, कृष्ण-वेणा, वेण्या, तुंगा, तुंगभद्रा, ताम्रपर्णी, फेना, पम्मा, प्रवरा पापघ्नी, चित्रावती और कावेरी भी परम पवित्र, शास्त्र सुपूजित हैं। सह्याद्रि पर्वत से निकली हुई ये पाँच नदियाँ पंचगंगा कही गयी हैं- कृष्णा, वेणी, कुकुदमती (कोयना), सावित्री और गायत्री। कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र की नदी है। महाबलेश्वर, श्रीपर्वत, वाई, विजयवाड़ा सांगली, सतारा (माहुली) जैसे प्रसिद्ध स्थल कृष्णातट पर हैं। पवित्र भीमा नदी (भीमरथी) की पुराणों में प्रचुर प्रशस्ति है। इसके निकास-स्थल पर भीमशंकर हैं, जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। पवित्र पंढरपुर इसी भीमरथी के तट पर है। गुजरात की साभ्रमती (साबरमती) नदी की भी पुराणों में महिमा गायी गयी है। पद्मपुराण के अनुसार इसकी सात धाराएँ हैं- साभ्रमती, सेटीका, बकुला, हिरण्मयी, हस्ति- मती (हाथीमती), वेत्रवती (वात्रक) एवं भद्रमुखी। इस पुराण के चालीस अध्यायों में साभ्रमती के उपतीर्थों का विस्तार से वर्णन है। प्रत्येक महत्वपूर्ण नदी की तरह हजारों ऋषि-मुनि यहाँ भी तपस्या कर चुके हैं। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी की भी यह तपस्थली रही है। अग्नितीर्थ, कर्दनाल, कापोतक तीर्थ, काश्यप तीर्थ, धवलेश्वर, निम्बार्क तीर्थ, चन्द्रेश्वर, आदित्य तीर्थ, पालेश्वर, ब्रह्मवल्ली तीर्थ, रूद्रमहालय तीर्थ आदि साभ्रमती के तटवर्ती प्रमुख तीर्थ हैं। पवित्र ज्योतिर्लिंग प्रभास तीर्थ उस स्थल पर है जहाँ सरस्वती समुद्र में मिली। द्वारकापुरी गोमती के तट पर और समुद्रतटवर्ती है। पहले वह कुशस्थली नाम से विख्यात थी। उत्तराध्ययन सूत्र आदि जैन ग्रंथों में तथा बौद्ध जातकों में भी द्वारका एवं रैव तक (गिरनार) का उल्लेख है।
महानदी, सुवर्णरेखा, वैतरणी, कपिशा और विरजा उड़ीसा की प्रसिद्ध नदियाँ हैं। वैतरणी तट पर विरज तीर्थ है। नदियों की ही तरह समुद्र भी हमारे यहाँ पूज्य-पवित्र रहा है। पवित्र पुरूषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथ धाम, द्वारका धाम एवं रामेश्वर धाम प्रख्यात हैं। पुरूषोत्तम तीर्थ जगन्नाथ को धर्मशास्त्रों में महान मोक्ष-तीर्थ कहा है। यहाँ का महाप्रसाद अत्यंत पवित्र माना जाता है।
पवित्र गोदावरी या गोमती के तट पर पंचवटी, नासिक, जनस्थान, प्रवरा- संगम, वंजरा-संगम, गोवर्धनतीर्थ, आत्मतीर्थ, आत्रेयतीर्थ, आपस्तम्बतीर्थ, इंद्र - तीर्थ, इलातीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, कपिलतीर्थ, कोटितीर्थ गोविंदतीर्थ, चक्षुस्तीर्थ, छिन्नपापक्षेत्र, नन्दीतट, नागतीर्थ, नीलगंगा, पुरूरवस्तीर्थ, प्रतिष्ठान या पैठन, पैशाचतीर्थ, पौलस्त्यतीर्थ, फेना-संगम, बार्हस्पत्यतीर्थ, मन्युतीर्थ, मातृतीर्थ यमतीर्थ, श्वेततीर्थ, सिद्धतीर्थ आदि हैं। गोदावरी जहाँ समुद्र में सात मुखों से मिलती है, वहाँ सप्तगोदावर क्षेत्र हैं। ये सातों प्रवाह सात ऋषियों के नाम पर प्रसिद्ध हैं।
इसी तरह जहाँ से गोदावरी निकलती है, वहाँ पवित्र त्र्यम्बकेश्वर धाम है। भद्राचलम और राजमहेंद्री भी गोदावरी तट पर ही हैं। कावेरी भी महाभारत एवं पुराणों में सादर वर्णित है। इसे भी गोदावरी की तरह दक्षिणी-गंगा कहा गया है।
तुंगा और भद्रा कूडली के पास मिलकर तुंगभद्रा होती है। तुंगा के तट पर प्रसिद्ध श्रृंगेरिमठ है। महान विजयनगर राज्य चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में तुंगभद्रा के ही तट पर उभरा-फैला और सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वार्द्ध तक कायम रहा। तुंगभद्रा तट पर ही पुराण- प्रशंसित पवित्र हरिहर क्षेत्र है। अलमपुर (रायचूर जिला) में तुंगभद्रा कृष्णा से मिलती है। एक अन्य पुराण-पूजित नदी वेगवती है, जिसके दक्षिणी तट पर मदुरा स्थित है। मदुरा पाण्ड्यों की राजधानी रही है। यह विद्या, कला और धर्म का एक महान केंद्र थी। यानी अर्थतीर्थ, कामतीर्थ और धर्मतीर्थ तीनों थी। इसी तरह महान पल्लव राज्य भी पेन्नार नदी के तट पर फैला था जो उत्तर में उड़ीसा तक विस्तृत था। प्रसिद्ध कांची तीर्थ पल्लवों की राजधानी था। इतिहास साक्षी है कि इन सभी तीर्थों को ,पवित्र नदियों को सदा स्वच्छ, सुदर, प्रवहमान, प्राणवान एवं धर्ममय रखा जाता रहा है। नदी-तटों पर युद्ध भी हुए, लाशें भी बहीं, पर उस पवित्र जीवन-दृष्टि द्वारा संरक्षित-पोषित प्रवाह में वे आकस्मिक अपशेष जलचर- जीवों का आहार बन जाते थे और प्रवाह अबाधित रहता था।
पर्यावरण कक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
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राजनैतिक दृष्टि नदियों के प्रति दृष्टि को जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि के अंग के रूप में ही समझा जा सकता है। पर्वतों और वनों के प्रति पवित्र दृष्टि, नदियों के प्रति पवित्र दृष्टि की अनिवार्य सहवर्ती है। फिर, एक विशेष बात यह है कि ये पवित्र स्थल किसी की सम्पत्ति नहीं होते। सामाजिक सहमति और व्यवस्था से उनका उचित उपयोग समाज के सभी वर्गों और कुलों के लोग भिन्न-भिन्न रूप में कर सकते हैं। उसमें व्यवस्थात्मक अधिकार का कुछ विभाजन संभव है। किन्तु यह नदी या वन पर अधिकार का पर्याय नहीं है। अत: जिस दिन से ब्रिटिश शासन ने राज्य को देश की समस्त भूमि, जल, वन और खनिज-स्रोतों का स्वामी घोषित किया, उसी समय से भारतीय पवित्र दृष्टि बाधित मानी जाएगी। जब तक नदियों-वनों को राज्य की सम्पत्ति माना जाएगा, राष्ट्र यानी सम्पूर्ण समाज की नहीं, तब तक वास्तविक पवित्र-दृष्टि की प्रतिष्ठा असंभव है।
प्रत्येक विश्व-दृष्टि का एक अनिवार्य अंग होती है, उसमें निहित राजनैतिक दृष्टि। अत: नदियों-वनों आदि को पवित्र मानने वाली भारतीय दृष्टि की अंतर्निहित राजनैतिक दृष्टि है। हर नदी को गंगा मानना, मन चंगा तो कठौती में गंगा मानना, नदियों-वनों को सम्पूर्ण राष्ट्र यानी समाज की सम्पत्ति मानना। उन्हें राज्य के नाम पर राज्यकर्ताओं के स्वेच्छाचारी प्रबंध के अधीन वस्तु नहीं मानना। ब्रिटिश काल से यह राजनैतिक दृष्टि खंडित हुई और आज भी वह अप्रतिष्ठित ही है। इस राजनैतिक दृष्टि के प्रतिष्ठित रहते ही फिर गंगा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कृष्णा, सरस्वती आदि को विशिष्ट महत्व देने की कोई सार्थकता बनती है। इसी पवित्र राजनैतिक दृष्टि के रहते ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि तीर्थ चार प्रकार के हैं- मानुष तीर्थ यानी राजाओं द्वारा समाज की सेवा में बनाये गये तीर्थ, उनसे उत्तम हैं आर्ष तीर्थ जो ऋषियों ने संस्थापित किए, उनमें भी उत्तम हैं आसुर तीर्थ, जो विशिष्ट प्राणशक्ति संपन्न लोगों से संबंधित हैं, सबसे उत्तम हैं देवतीर्थ, जो स्वाभाविक हैं, मनुष्य द्वारा संस्थापित नहीं। इन देवतीर्थों में सर्वाधिक पुनीत हैं 12 नदियाँ। जिनमें से छ: विंध्य के दक्षिण में हैं- गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेणिका, तापी और पयोष्णी तथा ये छ: विंध्य के उत्तर में हैं-गंगा, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशोका एवं वितस्ता।
भारतीय दृष्टि के किसी एक छोटे से अंश को लेकर शेष सबका परित्याग कर देने वाली बुद्धि के प्रयोजन कुछ और होंगे, भारतीयता को समझना उसका उद्देश्य नहीं हो सकता। गंगा या किसी अन्य एक नदी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानने की बात का कोई मतलब तभी निकलता है, जब शेष सब नदियाँ भी महत्वपूर्ण मानी जाएँ। किसी भी भारतीय ग्रंथ में या लोककथा में किसी एक भारतीय नदी को एकमात्र पवित्र नदी नहीं कहा गया है। सर्वाधिक का कभी भी अर्थ एकमात्र नहीं होता। वह तो एक तुलनात्मक पद है।
करोड़ों तीर्थ - जिस तरह अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग देव-शक्तियाँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं, उसी तरह अलग-अलग नदी शक्तियाँ भी। फलत: भिन्न-भिन्न संदर्भों में भिन्न-भिन्न नदियों की महत्ता विवेचित है। यह भी निर्विवाद है कि गंगा को अत्यधिक महिमामयी माना जाता रहा है। स्वयं आदिकवि वाल्मीकि ने, आद्य शंकराचार्य ने तथा हजारों भारतीय कवियों ने यह कहकर अपना गंगाप्रेम दिखाया है कि गंगा के तट पर पक्षी, मृगया गंगाजल की मछली बनकर भी वे अपने जीवन को धन्य मानेंगे। स्पष्टत: यह एक सांस्कृतिक-राजनैतिक दृष्टि की अभिव्यक्ति है। इसी से इन्हीं महान कवियों ने यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि की भी गंगा जैसी ही स्तुति की है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है-‘स्रोतसामस्यि जाह्नवी’ यानी स्रोतों में मैं गंगा हूँ। इसका एक निहितार्थ यह भी है कि प्रत्येक स्वाभाविक स्रोत में गंगा का अंश अंत: प्रवाहित है। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त हैं। उसी तरह आध्यात्मिक गंगा प्रत्येक स्रोत में अंत:स्थ है। बौद्ध एवं जैन शास्त्रों में भी गंगा समेत विविध नदियों का महत्व मान्य है।
ऋग्वेद, महाभारत के वनपर्व और अनुशासनपर्व, पद्मपुराण, विष्णु, कूर्म, वराह, ब्रह्म, ब्रह्मानंद, भविष्य, गरुड़, नारदीय, स्कंदादि पुराणों में गंगा की महिमा का गान है। इसी तरह शतपथ ब्राह्मण, वनपर्व (महाभारत) तथा मत्स्य कूर्म, पद्य, अग्नि, नारदीय वायु स्कंध आदि पुराणों में नर्मदा की स्तुति है। मत्स्य और पद्म के अनुसार अमरकंटक से नर्मदा सागर तक 10 करोड़ तीर्थ हैं। अग्निपुराण के अनुसार ये तीर्थ 60 करोड़ हैं। नारदीयपुराण के अनुसार साढ़े तीन करोड़ हैं, जिनमें 400 मुख्य हैं। नर्मदा को दर्शन मात्र से पवित्र करने वाली अत: सर्वाधिक पवित्र क्षण कहा गया है। मत्स्य एवं कूर्म पुराण में इसकी लंबाई 100 योजन यानी लगभग 800 मील कही गयी है, जोकि लगभग तेरह सौ किलो मीटर होती है और यह बिल्कुल ठीक वर्णन है।
स्कंद पुराण में एक पूरा खंड ही रेवाखंड नाम से है। गोदावरी का भी वर्णन रामायण, महाभारत एवं पुराणों में वैसे ही आदर के साथ है। ब्रह्मपुराण के अनुसार विंध्य के दक्षिण में जो गंगा है, उसे गोमती यानी गोदावरी कहा जाता है और विंध्य के उत्तर में उसे भागीरथी कहते हैं। अनेक पुराणों में मत्स्य, वायु मार्कण्डेय, ब्रह्म एवं ब्रह्मांड पुराण में गोदावरी के तटवर्ती प्रदेश को तीनों लोकों में सबसे सुंदर कहा गया है। पुराणों के अनुसार गौतम ऋषि ने शिव भगवान की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि पर उतारा। गणेश जी ने इसमें गौतम की सहायता की। यही गंगा गौतमीया गोदावरी के नाम से प्रख्यात है। ब्रह्मपुराण के अनुसार गोदावरी तट पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं। जब बृहस्पति सिंहस्थ होता है, उस समय का गोदावरी-स्नान महापुण्यकारक है। इस समय का केवल एक बार का गोदावरी-स्नान उतना पुण्यफल देता है जितना कि गंगा जी (भागीरथी) में प्रतिदिन नहाते रहने पर आठ हजार वर्षों के स्नान से पुण्य मिलता है।
मानस और भौम तीर्थ
नदियां तीर्थ हैं। इनके तट पर विशिष्ट तीर्थ भी हैं। स्कंदपुराण के काशीखंड के अनुसार तीर्थ दो प्रकार के हैं : मानस तीर्थ और भौम तीर्थ। मानस तीर्थ कहते हैं उन तपस्वी, ज्ञानी जनों को, जिनके मन शुद्ध हैं और आचरण ऊँचा है, जो समाज की भलाई के लिए ही काम करते हैं। भौम तीर्थ चार तरह के होते है : अर्थ तीर्थ, काम तीर्थ, धर्म तीर्थ और मुक्ति तीर्थ।
नदियों के तट और संगम पर बने बड़े व्यापारिक केंद्र ‘अर्थ तीर्थ’ कहे जाते हैं। कलाओं और सौंदर्य के साधना केंद्रों को ‘काम तीर्थ’ कहते हैं। जहाँ विद्या और धर्म के केंद्र हों, वे ‘धर्म तीर्थ’ होते हैं। जहाँ मुख्यत: पराविद्या एवं साधना के, मोक्ष-साधना के केंद्र हों, वे मोक्ष तीर्थ होते हैं। जहाँ चारों का संगम हो वह है महापुरी। भारतीय राजधानी को अर्थ, काम एवं धर्म तीर्थ बनना चाहिए। तभी वह सच्चे अर्थों में भारतीय राष्ट्र की राजधानी होगी।
सभी नदियों के तट पर अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष तीर्थ रहे हैं। हरिद्वार, प्रयाग, बनारस, उज्जैन, नासिक जैसे तीर्थ महापुरियां रहे हैं। इसी तरह समुद्र-तटवर्ती जगन्नाथपुरी, द्वारिका, रामेश्वरम आदि भी हैं। प्रयाग, काशी और गया को त्रिस्थली कहा गया है। प्रथम दो गंगा-तट और अंतिम फल्गु नदी के तट पर हैं। यदि सिर्फ प्रख्यात धर्मशास्त्रों तक ही दृष्टि रखें तब भी भारत के प्राय: हर क्षेत्र की मुख्य नदियाँ तीर्थमय हैं।
हर नदी गंगा है (भाग-2)
काबुल और कश्मीर की सुवास्तु, गौरी, कुहू, कुभा (काबुल नदी), कमु (कुर्रम), वर्णु नदियाँ तथा कश्मीर-पंजाब की सिंधु, असिक्नी (चिनाव), परुष्णी (रावी), विपाशा (व्यास), अश्मन्वती, शतद्रु या शुतुद्रि (सतलुज), दृषद्वती, वितस्ता (झेलम) नदियाँ तो वैदिक साहित्य में गरिमा-मंडित हैं ही, बाद के धर्मशास्त्रों में भी सुपूजित हैं। धर्मशास्त्रों, पुराणों में बाद में चिनाव को चन्द्रभागा और रावी को इरावती कहा है। इसके साथ ही अचला, देविका, आपगा, कनकवाहिनी, कालोदका, मधुमती, विशोका आदि पवित्र नदियाँ और अक्षवाल, अच्छोदक, चन्द्रपुर, अनंतहृद, गोपाद्रि, जयवन, जयपुर (अंदरकोट), ज्येष्ठेश्वर, तक्षकनाग, नंदिकुंड, नंदिक्षेत्र, नन्दीश, मार्तण्ड, नरसिंहाश्रम, नीलनाग, वितस्तात्र आदि पवित्र जलस्रोत और उनसे जुड़े तीर्थ धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। यों तो सम्पूर्ण कश्मीर ही उमा का देश कहा गया है और स्वर्गिक वितस्ता उनका सीमंत (सिर की मांग) है। प्रसंगवश यह भी स्मरणीय है कि कश्मीर के बारहवीं शताब्दी के महान कवि कल्हण ने अपनी अमर कृति राजतरंगिणी की तुलना दक्षिण भारतीय पवित्र सरिता गोदावरी की तीव्र धारा से की है।
ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना के क्षेत्र की तो बात ही क्या की जाये। यहाँ की लगभग प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी और हजारों पवित्र स्थलों का पुराणों-धर्मशास्त्रों में गौरवगान है। स्पष्ट है कि इन नदियों और स्थलों को स्वच्छ, सुंदर और जीवंत रखने को उनके तट के वासी, देशवासी सदा सजग-सक्रिय रहते थे। लेकिन जब स्वयं लोगों का ही जीवन आक्रमणों और पराजयों से जर्जर-विखंडित और करुण हो जाए, तब उनसे नदी की रक्षा की अपेक्षा तो क्रूरता ही होगी। तब भी इस दौर में भी वे जितना करते रहे हैं, वह आश्चर्यप्रद ही है।
गंगा और यमुना तथा लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) के प्रति पुराणों एवं महाभारत में गहरा श्रद्धा-भाव है। महान कवियों ने इनकी महिमा कही है। गंगा-यमुना के संगम का वेद-पुराण, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत और समस्त धर्मशास्त्रों में बखान है। गंगा और यमुना की सभी प्रमुख सहायक, उपसहायक नदियों- सरयू यानी घाघरा, गोमती, सदानीरा इक्षुमती, कोसी, गंडकी, चर्मण्वती (चम्बल), काली सिंधु, महान शोणभद्र, तमसा, वेत्रवती (बेतवा), दशार्णा (बेतवा की सहायक धसान नदी) आदि की पवित्रता का जो गहरा बोध इस क्षेत्र के लोगों में रहा है, वही धर्मशास्त्रों में प्रतिसंवेदित है। असम, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, मध्य-प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल का क्षेत्र इस ब्रह्मपुत्र-गंगा-यमुना क्षेत्र में आता है। इसके साथ ही राजस्थान की पर्णाशा (बनास), विंध्य क्षेत्र की पार्वती, सुरसा, माही, बिहार की पुनपुन, फल्गु, कनकन्दा, उड़ीसा की सुवर्ण रेखा जैसी नदियाँ भी धर्मशास्त्रों में परम पवित्र कही गयी है। सरयू नदी का तो इतना महत्व रहा है कि उसके जल को एक विशेष नाम ही दिया गया- ‘सारव’। सरयू तट पर अनेक बौद्ध तीर्थ भी है। गंडकी के उद्गमस्थल शालिग्राम की महत्ता भी सुविदित है यहाँ के शालिग्राम पत्थर, विष्णु की मूर्ति कहे गये हैं।
मानसरोवर, गंगोत्री, यमनोत्री, बदरिकाश्रम, ब्रह्मकपाल, केदारधाम, देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, विष्णुप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, साकेत (अयोध्या), कुरुक्षेत्र, श्रृंगवेरपुर, मथुरा-वृन्दावन-राजापुर, सूकरतीर्थ, नैमिष, प्रयाग, काशी आदि धर्मतीर्थ एवं मोक्षतीर्थ तथा देहरादून, प्रागज्योतिषपुर, पानीपत, इन्द्रप्रस्थ, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद (प्रयाग), पाटलिपुत्र एवं बनारस (काशी), हस्तिनापुर आदि कामतीर्थ एवं अर्थतीर्थ इन नदियों के तट पर हैं। अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की सतत साधना देशवासी इन क्षेत्रों में करते रहे हैं।
नदियाँ माँ हैं
प्रत्येक परम्परानिष्ठ भारतीय अपनी नदियों को माँ ही मानता रहा है, और मानता है। गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्र -सिंधु और सप्तसिंधु, कश्मीर आदि की तरह विंध्य, विदर्भ, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु आदि सभी क्षत्रों में नदियों के प्रति यही भाव है। गोदावरी और नर्मदा का माहात्म्य गंगा की ही तरह है। विदिशा, पूर्णा, तापी या ताप्ती, पयस्विनी, मन्दाकिनी, चित्रकूटा, श्रृपा, निर्विन्ध्या जैसी मध्य भारत-विन्ध्य -विदर्भ की नदियाँ सपूजित हैं अमरकंटक, त्रिपुरी, माहिष्मती, ओंकार- मान्धाता, अंकलेश्वर भृगुतीर्थ, जामदग्न्य तीर्थ, कबीरबड़, भृगुकच्छ या भरूकच्छ जैसे तीर्थ और मंडला, होशंगाबाद जैसे शहर नर्मदा तट पर हैं। क्षिप्रा तट पर महाकाल की नगरी उज्जयिनी है। उत्तरापथ और दक्षिणापथ की सीमारेखा है भगवती नर्मदा। इसीलिए इस पवित्र कुमारी की परिक्रमा या परिकम्मा का बहुत महत्व शास्त्रों में विस्तार से प्रतिपादित है। विभिन्न शिला- लेखों में भी नर्मदा का सादर उल्लेख है। मन्दाकिनी के तट पर परम पवित्र चित्रकूट धाम है। चित्रकूट और मन्दाकिनी दोनों ऋक्षपर्वत से भी निकली हैं। विन्ध्य से निकली महानदी का एक नाम चित्रोपला या चित्रोत्पला भी है। जैन- गंगा (वेणा) का भी महत्व ब्रह्मांड, मत्स्य आदि पुराणों में वर्णित है।
गंगा-गोदावरी की तरह ही कृष्णा, कृष्ण-वेणा, वेण्या, तुंगा, तुंगभद्रा, ताम्रपर्णी, फेना, पम्मा, प्रवरा पापघ्नी, चित्रावती और कावेरी भी परम पवित्र, शास्त्र सुपूजित हैं। सह्याद्रि पर्वत से निकली हुई ये पाँच नदियाँ पंचगंगा कही गयी हैं- कृष्णा, वेणी, कुकुदमती (कोयना), सावित्री और गायत्री। कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र की नदी है। महाबलेश्वर, श्रीपर्वत, वाई, विजयवाड़ा सांगली, सतारा (माहुली) जैसे प्रसिद्ध स्थल कृष्णातट पर हैं। पवित्र भीमा नदी (भीमरथी) की पुराणों में प्रचुर प्रशस्ति है। इसके निकास-स्थल पर भीमशंकर हैं, जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। पवित्र पंढरपुर इसी भीमरथी के तट पर है। गुजरात की साभ्रमती (साबरमती) नदी की भी पुराणों में महिमा गायी गयी है। पद्मपुराण के अनुसार इसकी सात धाराएँ हैं- साभ्रमती, सेटीका, बकुला, हिरण्मयी, हस्ति- मती (हाथीमती), वेत्रवती (वात्रक) एवं भद्रमुखी। इस पुराण के चालीस अध्यायों में साभ्रमती के उपतीर्थों का विस्तार से वर्णन है। प्रत्येक महत्वपूर्ण नदी की तरह हजारों ऋषि-मुनि यहाँ भी तपस्या कर चुके हैं। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी की भी यह तपस्थली रही है। अग्नितीर्थ, कर्दनाल, कापोतक तीर्थ, काश्यप तीर्थ, धवलेश्वर, निम्बार्क तीर्थ, चन्द्रेश्वर, आदित्य तीर्थ, पालेश्वर, ब्रह्मवल्ली तीर्थ, रूद्रमहालय तीर्थ आदि साभ्रमती के तटवर्ती प्रमुख तीर्थ हैं। पवित्र ज्योतिर्लिंग प्रभास तीर्थ उस स्थल पर है जहाँ सरस्वती समुद्र में मिली। द्वारकापुरी गोमती के तट पर और समुद्रतटवर्ती है। पहले वह कुशस्थली नाम से विख्यात थी। उत्तराध्ययन सूत्र आदि जैन ग्रंथों में तथा बौद्ध जातकों में भी द्वारका एवं रैव तक (गिरनार) का उल्लेख है।
महानदी, सुवर्णरेखा, वैतरणी, कपिशा और विरजा उड़ीसा की प्रसिद्ध नदियाँ हैं। वैतरणी तट पर विरज तीर्थ है। नदियों की ही तरह समुद्र भी हमारे यहाँ पूज्य-पवित्र रहा है। पवित्र पुरूषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथ धाम, द्वारका धाम एवं रामेश्वर धाम प्रख्यात हैं। पुरूषोत्तम तीर्थ जगन्नाथ को धर्मशास्त्रों में महान मोक्ष-तीर्थ कहा है। यहाँ का महाप्रसाद अत्यंत पवित्र माना जाता है।
पवित्र गोदावरी या गोमती के तट पर पंचवटी, नासिक, जनस्थान, प्रवरा- संगम, वंजरा-संगम, गोवर्धनतीर्थ, आत्मतीर्थ, आत्रेयतीर्थ, आपस्तम्बतीर्थ, इंद्र - तीर्थ, इलातीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, कपिलतीर्थ, कोटितीर्थ गोविंदतीर्थ, चक्षुस्तीर्थ, छिन्नपापक्षेत्र, नन्दीतट, नागतीर्थ, नीलगंगा, पुरूरवस्तीर्थ, प्रतिष्ठान या पैठन, पैशाचतीर्थ, पौलस्त्यतीर्थ, फेना-संगम, बार्हस्पत्यतीर्थ, मन्युतीर्थ, मातृतीर्थ यमतीर्थ, श्वेततीर्थ, सिद्धतीर्थ आदि हैं। गोदावरी जहाँ समुद्र में सात मुखों से मिलती है, वहाँ सप्तगोदावर क्षेत्र हैं। ये सातों प्रवाह सात ऋषियों के नाम पर प्रसिद्ध हैं।
इसी तरह जहाँ से गोदावरी निकलती है, वहाँ पवित्र त्र्यम्बकेश्वर धाम है। भद्राचलम और राजमहेंद्री भी गोदावरी तट पर ही हैं। कावेरी भी महाभारत एवं पुराणों में सादर वर्णित है। इसे भी गोदावरी की तरह दक्षिणी-गंगा कहा गया है।
तुंगा और भद्रा कूडली के पास मिलकर तुंगभद्रा होती है। तुंगा के तट पर प्रसिद्ध श्रृंगेरिमठ है। महान विजयनगर राज्य चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में तुंगभद्रा के ही तट पर उभरा-फैला और सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वार्द्ध तक कायम रहा। तुंगभद्रा तट पर ही पुराण- प्रशंसित पवित्र हरिहर क्षेत्र है। अलमपुर (रायचूर जिला) में तुंगभद्रा कृष्णा से मिलती है। एक अन्य पुराण-पूजित नदी वेगवती है, जिसके दक्षिणी तट पर मदुरा स्थित है। मदुरा पाण्ड्यों की राजधानी रही है। यह विद्या, कला और धर्म का एक महान केंद्र थी। यानी अर्थतीर्थ, कामतीर्थ और धर्मतीर्थ तीनों थी। इसी तरह महान पल्लव राज्य भी पेन्नार नदी के तट पर फैला था जो उत्तर में उड़ीसा तक विस्तृत था। प्रसिद्ध कांची तीर्थ पल्लवों की राजधानी था। इतिहास साक्षी है कि इन सभी तीर्थों को ,पवित्र नदियों को सदा स्वच्छ, सुदर, प्रवहमान, प्राणवान एवं धर्ममय रखा जाता रहा है। नदी-तटों पर युद्ध भी हुए, लाशें भी बहीं, पर उस पवित्र जीवन-दृष्टि द्वारा संरक्षित-पोषित प्रवाह में वे आकस्मिक अपशेष जलचर- जीवों का आहार बन जाते थे और प्रवाह अबाधित रहता था।
पर्यावरण कक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
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