हर घर में एक कुआँ : रावुर गाँव की कथा

पिछले दशक में कुछ कुएँ गर्मियों में सूखने लगे। लेकिन गाँव इस बात के लिये सचेत है कि कठोर और नियमित रखरखाव से कुओं की दीर्घजीविता बढ़ सकती है। इसलिये लोग अपने कुओं के रखरखाव के उपाय करने लगे। यह सुनिश्चित करने के प्रयास चल रहे हैं कि कुओं की सावधानी से देखभाल की जाए और वर्षा का पानी बेकार न जाए। इससे जलस्तर स्थिर रह सकता है। पास के इलाके में एक फ़ैक्टरी होने के कारण उसका उच्छिष्ट रावुर के कुछ गाँवों को प्रदूषित कर रहा है।

भारत के हर गाँव में खुले कुएँ आमतौर पर दिखाई पड़ते हैं। रोचक तथ्य यह है कि उत्तरी कर्नाटक के रावुर गाँव के तकरीबन हर घर में एक कुआँ है। इन कुओं को साल भर अच्छी तरह से रखा जाता है और उनकी हिफाज़त की जाती है। वे न सिर्फ उस परिवार के लिये पीने के पानी का स्रोत होते हैं बल्कि पूरे गाँव के लिये उनका उपयोग होता है।

पिछले कुछ दशकों में बोरिंग के आविष्कार और उनके व्यापक इस्तेमाल के कारण खुले कुओं का महत्त्व और मूल्य घट गया है। इससे खुले कुओं की स्थिति में गिरावट आई है। तमाम जगहों पर खुले कुएँ कचरा डालने की जगह या बेकार चीजों को इकट्ठा करने के स्थल बन गए हैं। बोरिंग के अन्धाधुन्ध प्रयोग के कारण भूजल का स्तर गिरा है और कुछ दशकों के दौरान स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि जिन कुओं में 20-30 फुट पानी जमा रहता था वहाँ अब महज आधा फुट पानी मिलता है।

यह सिलसिला पूरे कर्नाटक राज्य में दिखता है। उत्तरी कर्नाटक में स्थिति बहुत खतरनाक है क्योंकि यहाँ बारिश होती बहुत कम है और पानी का संकट आमतौर पर साल भर रहता है। दुर्भाग्य से यह स्थिति कर्नाटक के तटवर्ती इलाके मलनाड में भी दिखाई देता है, जहाँ हाल के वर्षों में भारी बारिश के बावजूद जो कुएँ साल भर मुँह तक भरे रहते थे वे गर्मियों में सूख जाते हैं।

इस परिदृश्य में रावुर गाँव की स्थिति को नखलिस्तान जैसा समझा जाना चाहिए। उत्तरी कर्नाटक के गुलबर्गा जिले में स्थित रावुर गाँव एक विशिष्ट तस्वीर प्रस्तुत करता है जो कि बाकी राज्यों से एकदम अलग है। शुष्क और कम बारिश वाले इलाके में स्थित और अपने जला देने वाले तापमान के लिये मशहूर इस गाँव के खुले कुएँ साल भर अच्छी स्थिति में रहते हैं। कुओं का पानी साफ रहता है, हालांकि कुछ का जलस्तर सौ फुट तक चला जाता है। अन्य मामलों में कुएँ पानी के ऊँचे स्तर से, गर्मियों के दिनों में भी भरे होते हैं। यह कुएँ समुदाय के लिये पानी के प्रमुख स्रोत के तौर पर काम करते हैं।

एक गाँव में 360 कुएँ


यह एक जगजाहिर तथ्य है कि ऐतिहासिक तौर पर मन्दिरों का निर्माण जलस्रोतों के निकट ही होता रहा है। रावुर गाँव में किसी इमारत के निर्माण करते समय मन्दिर या मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं तो गाँव वालों का दृढ़ विश्वास होता है कि यहाँ पास में कहीं जल स्रोत रहा होगा। इलाके में तमाम मन्दिरों के अवशेष मिलने से यह संकेत मिलता है कि यहाँ पानी अच्छी मात्रा में उपलब्ध रहेगा।

रावुर में तमाम तरह के कुएँ पाए जाते हैं। यहाँ डेढ़ फुट चौड़े कुओं से लेकर 10 फुट चौड़े कुएँ तक पाए जाते हैं। गाँव के एक निवासी रंगप्पा के अनुसार, “कभी यह माना जाता था कि हमारे गाँव में 360 कुएँ हैं। उनमें से तमाम अभी भी हैं।’’

गाँव के हर घर में कुओं की उपस्थिति बड़े पैमाने पर उसके दावों की पुष्टि करती है। रावुर गाँव में कुओं को कितना महत्त्व दिया जाता है यह इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि हर घर के अगवाड़े, पिछवाड़े, प्रवेश द्वार या अगल-बगल एक कुआँ मौजूद है।

गौधारा भावी


गाँव के प्रमुख व्यक्ति गौड़ा के घर में एक छोटा सा कुआँ है जो कि दो फुट लम्बा और दो फुट चौड़ा है। इसे गौधारा भावी कहते हैं। परिवार के मुखिया का मानना है कि कुएँ में सौ फुट पानी रहता है और यह कभी सूखता नहीं। यह आसपास के कई घरों के लिये पानी का स्रोत भी है।

यह गौड़ा के घर में स्थित दो कुओं में से एक है। दूसरा कुआँ बहुत बड़ा है और अब वह पाटा जा रहा है ताकि बन्द किया जा सके। घर की महिला प्रभावती कहती हैं कि , “हमें छोटे कुएँ से पर्याप्त पानी मिलता है और हमें बड़े कुएँ की जरूरत नहीं होती। कुआँ इतना बड़ा है कि इसमें बड़ी मात्रा में मिट्टी और पत्थर डालने के बावजूद हम अभी इसे भर नहीं सके हैं।’’

जोशी का कुआँ


एक विशिष्ट किस्म का कुआँ जोशी के घर के पिछवाड़े में स्थित है। डेढ़ सौ साल पहले बने इस कुएँ का व्यास तीन फुट का है और गहराई 40 फुट है। मानसून के समय कुएँ का पानी धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और इसमें इकट्ठा हुआ पानी जनवरी के महीने तक रहता है। शंकर भट्ट जोशी कहते हैं, “चूँकि कुआँ हमारे पिछवाड़े है इसलिये हम इसकी अच्छी तरह देखभाल करने के लिये सतर्क रहते हैं। जब गर्मियों में पानी का स्तर घटता है तो हम उसकी सुरक्षा के लिये एक पत्थर से मुँह ढक देते हैं।’’

वे कहते हैं, “हाल के वर्षों तक कुआँ पूरे साल चलता था लेकिन आज पानी का स्तर धीरे-धीरे घट रहा है। हम अपने घर में वर्षाजल के संचयन के बारे में सोच रहे हैं ताकि पूरे साल पानी की आपूर्ति बनी रहे।’’

कट्टालू भावी


कट्टालू भावी रावुर गाँव का सबसे बड़ा कुआँ है। यह गाँव की 75 प्रतिशत आबादी को पानी देता है। पानी 15 फुट की गहराई पर उपलब्ध है और साल भर रहता है। इस कुएँ में पानी उस गर्मी के महीने में भी रहता है जब गाँव के अन्य कुओं में पानी घट जाता है या खत्म हो जाता है।

मूल रूप से कट्टालू भावी के चारों ओर जगत यानी चबूतरा नहीं बना था। पानी तक पहुँचने के लिये इसमें कई सीढ़ियाँ हैं। साठ के दशक में सरकार ने कुओं के चारों ओर जगत या चबूतरा बनाने का काम शुरू किया ताकि पानी को प्रदूषण से दूर साफ रखा जा सके। कट्टालू भावी का पानी बहुत मीठा है और इसे खाना बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। कभी-कभी इसके पानी का इस्तेमाल कपड़ा धोने, मवेशियों को पिलाने और नहाने के लिये भी किया जाता है लेकिन यह काम कुएँ के घेर से बाहर किया जाता है।

आजकल कुएँ पर लगी आठ घिरनियों से पानी खींचा जाता है। यह समुदाय के लोगों के जमा होने का स्थल भी हो गया है और यहाँ महिलाओं और बच्चों के हँसने की आवाज़ गूँजती रहती है।

इस कुएँ के बारे में कई किंवदन्तियाँ हैं। कन्नड़ में कट्टालू को अंधेरा कहते हैं। सत्तर साल की हजरत बी कट्टालू भावी के नामकरण के बारे में रोचक कहानी सुनाती हैं, “कुआँ खोदा ही जा रहा था और तब तक पानी नहीं मिला था। मोहर्रम के दौरान खटाल की रात थी। सारी रात नाच करने वाले प्यासे थे और पानी ढूँढ रहे थे। जब जुलूस कुएँ के पास पहुँचा तो उससे पानी रिसने लगा। वह पानी इतना था कि जुलूस के सारे सदस्यों को पीने के लिये पानी मिल गया और उनकी प्यास बुझ गई। चूँकि यह घटना खटाल की रात हुई थी कुएँ का नाम उसी पर रखा गया। जो लोग कहानी से वाक़िफ़ नहीं हैं वे इसे कट्टालू भावी कहते हैं। लेकिन इस घटना के कारण रावुर में रोशनी आई।’’

गाँव की एक और बूढ़ी महिला महबूब बी इसकी एक और कहानी सुनाती हैं। कुछ साल पहले कुएँ से पानी ज्यादा अच्छी तरह से निकालने के लिये उसमें बिजली का मोटर फिट करने की कोशिश हुई। लेकिन इस विचार को बाद में छोड़ दिया गया। “जब पम्प और नल फिट किए गए तो कुएँ का जलस्तर अचानक गिर गया। उसका कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं था। हम मानते हैं कि यह अल्लाह का कुआँ है और हमें इसमें से पानी बर्तन डुबो कर ही हाथ से खींचना चाहिए। इसलिये हमने मोटर और नल निकाल दिए।’’

हो सकता है कि पानी का स्तर गिरने के ज्यादा वैज्ञानिक कारण हों, लेकिन ईश्वर के नाम पर पारम्परिक कुओं को अतिउपयोग से वंचित रखा गया है।

रामा भावी


गाँव के बाहर स्थित रामा भावी कुआँ भगवान रामलिंगेश्वर के मन्दिर पास बना है। उसके साथ एक आकर्षक शिला मंतपा और छाया देने वाला बड़ा पेड़ है। गाँव के बाग और बगीचों की सिंचाई के लिये कुएँ से दो पम्पों के माध्यम से भारी मात्रा में पानी खींचा जाता है और कुएँ के भीतर पानी उतना ही बना रहता है। समुदाय की मान्यता है कि यह उनके लिये प्रकृति का वरदान है। यह भी मान्यता है कि इसके पानी के नहाने से बीमारी ठीक हो जाती है।

हालांकि कुएँ की मौजूदा स्थिति चिन्ताजनक है। कुएँ के पास कपड़े धोए जाते हैं। पास में कूड़े और कचरे का ढेर जमा रहता है। लेकिन समुदाय समस्या के बारे में जागरूक है और इस स्थिति को ठीक करने का तरीका ढूँढ रहा है।

घर के भीतर के कुएँ


रावुर में कुछ विशिष्ट किस्म के कुएँ हैं जो मकान के भीतर बने हैं। दरअसल यह कुएँ पहली नजर में दिखाई नहीं पड़ते बल्कि आसानी से नजर से ओझल रहते हैं। घर के भीतर बने कुएँ तक जाने के लिये एक संकरा रास्ता है। यह रास्ता आमतौर पर मुख्य द्वार के दाएँ या बाएँ होता है। कुआँ आमतौर पर बहुत गहरा होता है और इसका मुँह काफी संकरा होता है। कुएँ के मुँह के पास बस इतनी जगह होती है कि वहाँ एक व्यक्ति ही खड़ा होकर बर्तन से पानी खींच सकता है।

समुदाय के एक सदस्य दत्तात्रेय जोशी बताते हैं कि इस तरह के कुएँ क्यों बनाए जाते थे, “पहले संयुक्त परिवार होते थे और पानी की काफी माँग होती थी। उस समय पानी की जरूरत आने पर महिलाओं के लिये बाहर जाना सम्भव नहीं होता था। इसलिये कुएँ घर के भीतर बनाए जाते थे।’’

रावुर में हर परिवार के साथ एक कुआँ जुड़ा हुआ है। इसलिये उन्हें आमतौर पर रणगणपुर का कुआँ, जोशी का कुआँ, सिद्दागुंडा का कुआँ, बगीचे का कुआँ, तंबूरी का कुआँ, मठ का कुआँ, कोली का कुआँ, उपाध्याय का कुआँ जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है। कुछ कुओं को अलग-अलग समुदायों के लिये भी आरक्षित कर दिया गया है जैसे कि धोबी का कुआँ, बढ़ई का कुआँ वगैरह।

सामुदायिक विवेक


राज्य की एक पारम्परिक उक्ति है कि, “हर घर में एक कुआँ होने से बरक्कत होती है।’’ इस उक्ति की भावना का पालन मलनाड में भी होता है जहाँ कि बहुत वर्षा होती है। हालांकि यह चलन अन्य इलाकों में नहीं है जहाँ कि पूरे गाँव में चार या पाँच खुले कुएँ हैं। रावुर सम्भवतः उत्तरी कर्नाटक में अकेला जिला है जहाँ पर कथन और आचरण का विवेक एक जैसा है। यहाँ एक स्थानीय कहावत है कि नवविवाहिता लाचार होकर कुएँ के पास आती है और यहीं पर लोग अपने सुख-दुख कहते हैं। कुएँ महत्त्वपूर्ण स्थल हैं और महिलाओं की मित्रता के लिये मुकम्मल माहौल प्रदान करते हैं।

लेकिन बोरिंग के आक्रमण से न सिर्फ लोगों की यह जगह छिन गई बल्कि इससे पानी का स्तर तेजी से गिरा है। पारम्परिक रूप से कुएँ कचरे फेंकने के गड्ढे बन गए हैं। इस सन्दर्भ में पारम्परिक कुओं के साथ टिके रह कर रावुर के लोग एक दूरदृष्टि वाले समुदाय के तौर पर उभरे हैं।

इस समय बोरिंग पूरे राज्य में व्यापक तौर पर इस्तेमाल होती है। संसाधन के अतिप्रयोग के कारण भूजल का क्षरण हुआ है। इसकी तुलना में रावुर के समुदाय का विवेक ने जिसके कारण उनके कुएँ अच्छी स्थिति में बने हुए हैं, उन्हें सकारात्मक लाभ दिया है। उन्हें निर्बाध रूप से पानी की आपूर्ति मिलती है। हालांकि सरकार ने उनके गाँव को बोरिंगें दी है लेकिन यह देखकर खुशी होती है कि समुदाय पारम्परिक कुओं को वरीयता देता है।

हालांकि पिछले दशक में कुछ कुएँ गर्मियों में सूखने लगे। लेकिन गाँव इस बात के लिये सचेत है कि कठोर और नियमित रखरखाव से कुओं की दीर्घजीविता बढ़ सकती है। इसलिये लोग अपने कुओं के रखरखाव के उपाय करने लगे। यह सुनिश्चित करने के प्रयास चल रहे हैं कि कुओं की सावधानी से देखभाल की जाए और वर्षा का पानी बेकार न जाए। इससे जलस्तर स्थिर रह सकता है।

पास के इलाके में एक फ़ैक्टरी होने के कारण उसका उच्छिष्ट रावुर के कुछ गाँवों को प्रदूषित कर रहा है। समुदाय का एक सदस्य निराश तरीके से कहता है कि , “वह एक बड़ी फ़ैक्टरी है और हम गरीब लोग हैं। हमें नौकरी की जरूरत है। हम कर क्या सकते हैं?’’

एक ओर यहाँ विशिष्ट जल प्रणाली है तो दूसरी ओर एक आधुनिक फ़ैक्टरी है। दोनों का समुदाय के लिये महत्त्व है। फिर भी ऐसे तरीके हैं जिनसे प्रदूषण को कम किया जा सकता है और रावुर के पारम्परिक कुओं को नुकसान होने से रोका जा सकता है। अगर हम सदियों पुरानी जल संस्कृति को खो देंगे तो क्या उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है?

आनंद तीर्थ प्याति कन्नड़ दैनिक प्रजावाणी में गुलबर्गा केन्द्र के रिपोर्टर हैं। उनकी जलसम्बन्धी मुद्दों में गहरी रुचि है।

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