हर चार कुपोषितों में एक भारतीय

ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में कई बार देखा गया है कि जिस स्थान पर वर्षों से कूड़ा फेंका जाता रहा है, वहीं एक दिन हैण्डपंप लगा दिया जाता है। मानक के अनुसार कूड़ा आबादी से बाहर फेंका जाना चाहिए और जिस स्थान पर कूड़ा फेंका जाता रहा हो वहां पर कम-से-कम 15 वर्षों तक कोई आबादी नहीं बसानी चाहिए। कूड़े द्वारा उस स्थान के जल में विषले तत्व पर्याप्त मात्रा में घुल जाते हैं। इस पानी को पीने का अर्थ है, तमाम जानलेवा बीमारियों की चपेट में अपने आप को आसानी से ढकेल देना। देश के बच्चे कुपोषण की चपेट में बहुत तेजी से आ रहे हैं। पूरे विश्व में प्रत्येक चार कुपोषित बच्चों में एक भारतीय बच्चा शामिल है। सर्वे के अनुसार देश में कुल कुपोषित बच्चों की संख्या 21.30 करोड़ बताई जा रही है। एक निजी कंपनी के सर्वे के अनुसार 2012 में 14 लाख ऐसे बच्चे हुए जो जीवन का पांचवां बसंत नहीं देख सके।

केंद्र सरकार एवं प्रदेश की सरकारें बाल विकास एवं पुष्टाहार के लिए कई योजनाएं संचालित कर रही हैं, लेकिन इसके बावजूद कुपोषण की चपेट में आने वाले बच्चों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। नवजात शिशुओं की भांति प्रसव काल के दौरान लगभग 50000 प्रसूताएं काल कवलित हो रही हैं।

महिलाएं भी कुपोषण के चलते ही असमय काल के गाल में समा रही हैं। गर्भकाल के समय यदि इन महिलाओं को पूर्ण रूप से संतुलित आहार दिया जाता तो बच्चा एवं जच्चा दोनों इस खूबसूरत दुनिया को देखने के लिए जीवित रहते।

कुपोषित एवं प्रसव काल के दौरान मौत को प्राप्त हो चुकी महिलाओं में ज्यादातर रक्ताल्पता की शिकार बताई जाती हैं। इन महिलाओं में रक्त की भारी कमी चिकित्सकों द्वारा बताई जाती है। जबकि गर्भकाल प्रारंभ होने के दो माह बाद से गर्भवती महिला को आयरन की समुचित मात्रा की आवश्यकता होती है, जिसके अभाव में वह दम तोड़ देती हैं।

चिकित्सकों के अनुसार प्रसव के बाद भी जब तक बच्चा मां का दूध पीता रहे उसे पर्याप्त आयरन की आवश्यकता होती है, नहीं तो रक्ताल्पता की शिकार होने में विलंब नहीं होता है। खान-पान के अतिरिक्त कुपोषण के कई पर्याप्त कारण बताए जा रहे हैं।

देश में लगभग 62 करोड़ लोग अपने घरों का कूड़ा बाहर फेंकते हैं, जिससे वहीं कूड़ा सड़गल के वहीं के लोगों को संक्रमित करता है। नवजात शिशु जिसमें अभी रोग प्रतिरोधक शक्ति का संचय पर्याप्त नहीं हो पाया है, वही बच्चा इस संक्रमण का शिकार हो जाता है। बच्चे को तमाम संक्रामक बीमारियां अपनी चपेट में जकड़ लेती हैं, लेकिन घर के लोग इस बात से बिल्कुल अनजान रहते हुए बच्चे के इलाज में जुट जाते हैं।

जाने क्यों लोगों को इस बात का भान नहीं रहता है कि जो कूड़ा बाहर फेंक रहे हैं, वह हमें ही नुकसान पहुंचाएगा। इसी कूड़े के कारण एचआईवी से भी लोग अनजाने में संक्रमित हो रहे हैं, क्योंकि एचआईवी संक्रमित लोग अपनी सुई सिरिंज भी इसी कूड़े में फेंक देते हैं। सुई दूसरे लोगों को चुभ जाती है, जो संक्रमण का कारण बनती है।

जिस प्रकार से स्वयंसेवी संस्थाएं एचआईवी, कैंसर आदि के लिए जागरूकता शिविर आयोजित करती हैं, उसी तर्ज पर घरेलू कूड़े के बारे में भी जागरूकता प्रदान करने की आवश्यकता है।

लोगों को इस कूड़े की भयानकता का आभास नहीं होता है। बरसात के दिनों में यह कूड़ा कभी-कभी महामारी फैलाने की भी जिम्मेदारी का निर्वहन करता है। जिसके लिए कितने लोग काल कवलित भी हो जाते हैं। इसी कारण चिकित्सकों द्वारा यह राय दी जाती है कि साफ-सफाई का पर्याप्त ध्यान रखा जाए। कुपोषण का एक और मूक एवं महत्वपूर्ण कारण है, खुले आसमान के नीचे शौच करना। विश्व में खुले में शौच करने की श्रेणी में हमारे देश को प्रथम स्थान प्राप्त है।

सर्वे के अनुसार पूरे विश्व में एक अरब लोग इस शैली के शिकार हैं। खुले में शौच करने से संक्रामक बीमारियां पनपती हैं, जिसकी चपेट में सर्वाधिक बच्चे ही आते हैं। इसी प्रकार स्वच्छ पेयजल के अभाव में भी कुपोषण बढ़ता है। देश के आधी आबादी प्रदूषित पेयजल का प्रयोग कर रही है, जिसके लिए उन्हें संसाधन एवं जागरूकता दोनों की आवश्यकता है।

ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में कई बार देखा गया है कि जिस स्थान पर वर्षों से कूड़ा फेंका जाता रहा है, वहीं एक दिन हैण्डपंप लगा दिया जाता है। मानक के अनुसार कूड़ा आबादी से बाहर फेंका जाना चाहिए और जिस स्थान पर कूड़ा फेंका जाता रहा हो वहां पर कम-से-कम 15 वर्षों तक कोई आबादी नहीं बसानी चाहिए। कूड़े द्वारा उस स्थान के जल में विषले तत्व पर्याप्त मात्रा में घुल जाते हैं। इस पानी को पीने का अर्थ है, तमाम जानलेवा बीमारियों की चपेट में अपने आप को आसानी से ढकेल देना।

भारत में कुल 5161 नगर हैं, जिनमें 35 महानगर, 393 प्रथम श्रेणी के नगर एवं 401 द्वितीय श्रेणी के दर्जा प्राप्त नगर हैं। इसके अतिरिक्त 3894 नगर नियोजित किए गए हैं और जिनमें नियोजन वाली नगर पालिकाएं भी हैं, लेकिन इन सभी नगरों में मानक के अनुसार कूड़े फेंकने एवं उठाने की कमी देखी जा रही है। कहीं पर यह कमी चरम पर दिखाई दे रही है तो कहीं पर इसकी कमी नजरअंदाज करने लायक देखी जा रही है। बच्चों के कुपोषित होने में इन सभी कारकों का महत्वपूर्ण योगदान है।

कुपोषण का मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्हें भूखा रखा जा रहा है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि संतुलित आहार पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिए जाने के कारण कुपोषण को बढ़ावा मिल रहा है। देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। 17 करोड़ हेक्टेयर भूमि में यहां खेती की जा रही है, जिससे पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादित हो रहा है। देश में अन्न के पर्याप्त भंडार भी हैं फिर भी कुपोषण की संख्या सर्वाधिक हमारे देश में है यह चिंतनीय है।

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