हॉर्शू क्रैब्स में छिपी अद्भुत महाशक्ति क्या उन्हें इतना खास बनाती है? इसका नीला रक्त 10 आँखें, मकड़ी, बिच्छुओं से सम्बंध और 450 मिलियन वर्ष पुराना अस्तित्व क्यों उन्हें इतना विशेष बनाता है। इन सभी संदर्भों में छिपा है इसके विशिष्ट होने का सच यह समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
यदि आप दुनिया के सबसे पुराने जीवित जीवाश्म देखना चाहते हैं, तो बसंत के मौसम में आप डेलावेयर खाड़ी (अमेरिका) की यात्रा करें। मई और जून में पूर्ण और नये चंद्रमा तथा उच्च ज्वार के दौरान सैकड़ों ‘जीवित जीवाश्म’ डेलावेयर खाड़ी में पैदा होते हैं। क्या यह आपको आश्चर्यजनक नहीं लगता। जी हाँ, यहाँ हम बात कर रहे हैं एक अति प्राचीन जीव की जो है ‘हॉर्शू क्रैब’। आइये, आपको भी लेकर चलते हैं इन हॉर्शू क्रैब्स की रहस्यमयी दुनिया में।
हॉर्शू क्रैब्स में छिपी अद्भुत महाशक्ति क्या उन्हें इतना खास बनाती है? इसका नीला रक्त 10 आँखें, मकड़ी और बिच्छुओं से सम्बंध और 450 मिलियन वर्ष पुराना अस्तित्व क्यों उन्हें इतना विशेष बनाता है। इन सभी संदर्भों में छिपा है इसके विशिष्ट होने का सच। यह समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन उल्लेखनीय गुणों की खोज के कारण इस समुद्री अद्भुत जीव को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन क्या वर्तमान में संरक्षण के प्रयास पर्याप्त हैं। आइये, एक विश्लेषण करें।
हॉर्शू क्रैब (Horseshoe crab) समुद्री आर्थोपोड है जो जिफोसरा गुण के लिम्यूलिडी कुल में श्रेणीकृत है। ये तटों के पास सागरों व महासागरों के कम गहराई वाले क्षेत्रों में रहते हैं और प्रजनन के लिये बाहर (भूमि पर) आ जाते हैं। समुद्र किनारे ये अपने अण्डे देेते हैं। इनके अण्डे और लार्वा प्रवासी पक्षियों का आहार भी बनते हैं। समुद्री कछुओं के लिये भी ये आहार का साधन हैं। हॉर्शू क्रैब के अण्डों के बिना, तटीय पारिस्थितिक तंत्र का स्थायी रहना मुश्किल है। वहीं वयस्क हॉर्शू क्रैब्स शार्क तथा समुद्री कछुओं का शिकार बनते हैं।
क्रम विकास द्वारा इनकी उत्पत्ति लगभग 45 करोड़ वर्ष पहले हुई थी क्योंकि तब से इनमें बहुत कम बदलाव आया है, अत: इन्हें ‘जीवित जीवाश्म’ कहा जाता है और अपने नाम और रूप के बावजूद ये केकड़ों से कम और मकड़ियों से अधिक आनुवांशिक संबंध रखते हैं।
शारीरिक संरचना
हॉर्शू क्रैब प्रागैतिहासिक केकड़ों की तरह दिखते हैं। इनके शरीर पर एक बाह्य कठोर आवरण होता है। जिसके भीतर 10 पैर, पेट में मेरूदण्ड (काँटेनुमा) तथा एक लंबी पूँछ होती है। इसका शरीर 3 भागों में बँटा होता है। पहला भाग सिर है जिसे ‘प्रोस्कोमा’ कहा जाता है। यह तंत्रिका और जैविक अंगों के साथ लिये शरीर का सबसे बड़ा हिस्सा है। सिर में मस्तिष्क, हृदय, मुँह, तंत्रिका तंत्र और एक बड़ी प्लेट द्वारा संरक्षित ग्रंथियाँ होती हैं। सिर सबसे बड़े आँखों के समूह की रक्षा करता है। जी हाँ, हॉर्शू क्रैब के पूरे शरीर में नौ आँखें तथा पूँछ के पास कई और अधिक प्रकाश रिसेप्टर्स पाये जाते हैं। इसमें से 2 बड़ी आँखें (Compound eyes) अपने संगी को ढ़ूँढ़ने के लिये उपयोगी होते हैं। अन्य आँखें और प्रकाश रिसेप्टर्स गतिविधि में सहायक होते हैं।
शरीर के मध्य भाग को पेट या ‘आॅपिस्टोसोमा’ कहा जाता है। इसमें श्वास लेने के लिये गलफड़े पाये जाते हैं। पेट के नीचे गतिविधि के लिये मांशपेशियाँ पाई जाती हैं। मेरूदण्ड गतिशील होता है और इसकी रक्षा में सहायक है।
तीसरा भाग है इसकी पूँछ जिसे ‘टेल्सन’ कहा जाता है। यह लंबी और नुकीली होती है। यह खतरनाक या जहरीली नहीं है। इस पूँछ का प्रयोग ये पलटने में करते हैं।
हॉर्शू क्रैब मादा, नर की अपेक्षा ⅓ गुना बड़ी होती है। मादा 18-19 इंच लंबी तथा नर 14-15 इंच लंबे ही हो सकते हैं। हॉर्शू क्रैब लगभग 10 वर्ष की आयु में यौन परिपक्वता तक पहुँच जाते हैं। हॉर्शू क्रैब विकास चरण के आधार पर विभिन्न विकास स्थानों का उपयोग करते हैं। बसंत के अंत में और गर्मियों में तटीय समुद्र तटों पर अण्डे लाये जाते हैं। अंडे सेने के बाद किशोर हॉर्शू क्रैब्स को समुद्र तटों पर देखा जा सकता है। फिर ये वापस समुद्र में चले जाते हैं तथा गहरे जल में ही ये विकसित होते हैं।
हॉर्शू क्रैब और सार्वजनिक स्वास्थ्य
यदि आपको कभी बुखार या अन्य बीमारी हुई हो या पेस मेकर या अस्थि प्रतिस्थापन या अपने पालतू जानवर को रेवीज टीकाकरण आदि दिया हो, तो आप हॉर्शू क्रैब को धन्यवाद दे सकते हैं। मनुष्य और जानवरों के लिये दवाएं, इंजेक्शन, नसों के समाधान, चिकित्सीय उपकरण इन सभी की जाँच के लिये एक परीक्षण किया जाता है जिसमें हॉर्शू क्रैब का रक्त प्रयोग होता है।
कैसे करता है यह स्वास्थ्य सुरक्षा?
अधिकांशत: मनुष्य जीवाणुओं के संपर्क में आने पर बीमार पड़ते हैं। यह तब अधिक खतरनाक रूप ले लेता है जब एंडोटॉक्सिन्स हमारे शरीर में रक्त में प्रवेश कर जाते हैं। दवाओं और चिकित्सा उपकरणों द्वारा एंडोटॉक्सिन्स के हानिकारक स्तरों की जाँच की जाती है।
अन्य जानवरों की तरह, हॉर्शू क्रैब के शरीर में एक प्रतिरक्षा और रक्त स्कंदन प्रणाली होती है। जो संक्रमण के विरुद्ध कार्य करती है। हॉर्शू क्रैब की रक्त कोशिकाओं में इसकी रक्त का थक्का बनाने वाली प्रोटीन्स (Amebocytes) पायी जाती है। ये प्रोटीन्स आवांछित जीवों जैसे-ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया की उपस्थिति में सक्रिय हो जाते हैं और चोट लगने वाले स्थान पर रक्त का जमाव करते हैं और अन्य हानिकारक प्रभावों से बचाते हैं। हॉर्शू क्रैब के रक्त का रंग नीला होता है क्योंकि इसमें कॉपर-आधारित अॉक्सीजन ग्राही हीमोसाइनिन प्रोटीन होती है।
जलवायु परिवर्तन का हॉर्शू क्रैब पर प्रभाव
हॉर्शू क्रैब की संख्या में जलवायु परिवर्तन के कारण निरंतर गिरावट आयी है। अध्ययनों के अनुसार जीनोमिक्स द्वारा इनकी संख्याओं का मूल्यांकन किया गया था। एक नए रिसर्च से यह भी पता चलता है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के बढ़ते रहने से हॉर्शू क्रैब की संख्या में लगातार गिरावट देखी जाएगी। वहीं यह भी देखने में आया है कि फार्मास्यूटिकल कंपनियों द्वारा प्रलोभन के वश में हॉर्शू क्रैब का अधिक मात्रा में पकड़े जाना भी इस गिरावट का मुख्य कारण है। इसके विपरीत एक नए शोध से यह भी ज्ञात हुआ है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हॉर्शू क्रैब में प्रजनन दर भी बढ़ी है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आखिरी हिमयुग के समान समुद्र स्तर में वृद्धि जल के तापमान में उतार-चढ़ाव तथा उनका अंतर-संबंध सीमित हो सकता है जिससे उनकी स्थानीय और क्षेत्रीय आबादी में गिरावट आ सकती है।
आनुवांशिक विविधता का प्रयोग करते हुये पिछले और वर्तमान क्रेब्स की संख्या के बीच रूझानों को निर्धारित किया गया और पाया कि इनकी संख्या में गिरावट आयी है जो आखिरी हिमयुग के समान है। हाल ही में मैक्सिको और फ्लोरिडा की पूर्वी खाड़ियों में हॉर्शू क्रैब्स की संख्या में गिरावट पायी गयी है।
आनुवांशिक विविधता जैव विविधता का सबसे मूलभूत स्तर है, जिससे विकासशील प्रक्रियाओं का आधार बनता है जो जनसंख्या को उनके परिवेश के अनुकूल होने का अवसर प्रदान करता है।
एंडोटॉक्सिन परीक्षण : एलएएल और टीएएल
हॉर्शू क्रैब पर हुए शोधों से पता चला है कि इनका रक्त एंडोटॉक्सिन के प्रति बहुत संवेदनशील है। एंडोटॉक्सिन ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया जैसे- ई. कोलाई का एक घटक है। 1960 के दशक में, फ्रेडरिक बैंग और जैक लेविन ने हॉर्शू क्रैब के रक्त से एक परीक्षण किया जिससे एंडोटॉक्सिन की उपस्थिति का पता चला। यह परीक्षण इस तथ्य पर आधारित था कि हॉर्शू क्रैब का रक्त एंडोटॉक्सिन के संपर्क में आते ही जम जाता है। इस परीक्षण को ‘लिम्यूलस अमीबोसाइट’ लाइसेट (एलएएल) कहा जाता है। इसमें लिम्यूलस पॉलीफिमस नामक हॉर्शू क्रैब के रक्त का प्रयोग किया गया। 1970 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका व्यवसायीकरण किया गया। एशिया में इसी प्रकार का एक परीक्षण किया जाता है जिसे टैकीपिलस अमीबोसाइट लाइसेट (टीएएल) मान दिया गया। इसमें क्रैब की एशियाई प्रजाति टैकीपिलस ट्राइडेंटेटस के रक्त का प्रयोग किया गया।
प्रारंभिक दिनों में ही एलएएल और टीएएल परीक्षण उन्नत हुए। जिनका उद्देश्य दवाओं, टीकों, चिकित्सा उपकरणों को सुरक्षित बनाना था। एंडोटॉक्सिन परीक्षण के अलावा हॉर्शू क्रैब के डीएनए का भी उपयोग किया गया है तथा अन्य विकल्प भी खोजे जा रहे हैं जिससे हॉर्शू क्रैब के रक्त का उपयोग कम हो सके।
इसके अलावा एफडीए ने एलएएल परीक्षण के एक संस्करण का कवक संक्रमणों में उपयोगी साबित होना स्पष्ट किया है। इस परीक्षण से सिद्ध होता है कि हॉर्शू क्रैब का रक्त एंडोटॉक्सिस के अलावा स्कंदन तंत्र (1-3) -B- ग्लूकेंस पर भी प्रभावी है। ग्लूकेंस कवक की कोशिका भित्ती घटक हैं। ग्लूकेंस परीक्षण द्वारा कुछ ही घंटों में रोगी के रक्त में कवक की जाँच कर ली जाती है। जिसमें कभी-कभी कई दिन भी लग सकते हैं।
हॉर्शू क्रैब द्वारा रक्त संग्रहण प्रक्रिया
एलएएल तथा टीएएल परीक्षणों का प्रयोग करने वालों को यह भी पता होना चाहिये कि किस प्रकार हॉर्शू क्रैब से रक्त संग्रहण किया जाता है। इस प्रकार यह भी प्रयास किया जा सकता है कि किस प्रकार हॉर्शू क्रैब के कम के कम रक्त का संग्रहण किया जा सके और कैसे हम उनका अस्तित्व बनाये रख सकते हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका में समुद्र के किनारे उथले पानी से हॉर्शू क्रैब्स को एकत्र किया जाता है। इसके बाद इन्हें ठंडे और नम स्थान पर रखा जाता है तथा इनमें से सर्वोत्तम क्रैब्स को छाँटकर अलग किया जाता है। इसके बाद रक्त के स्राव के लिये उन्हें एक रैक में एक ओर झुका कर रखा जाता है। एक सुई के माध्यम से रक्त प्रवाह को कंटेनर में एकत्र किया जाता है जब तक कि रक्त स्वत: ही निकलना बंद न हो जाय। इससे हॉर्शू क्रैब की जान पर कोई खतरा नहीं बनता। वास्तव में लिये गये रक्त की मात्रा बहुत कम होती है। कंटेनर में अधिकतर मात्रा में एंटीकोगुलेंट होता है।
रक्त संग्रहण के बाद इन्हें वापस इनके स्थान पर छोड़ दिया जाता है। छोड़ने से पहले उन्हें चिन्हित किया जाता है जिससे उन्हें एक वर्ष के भीतर रक्त संग्रहण के लिये पकड़ा न जाए।
यू. एस. में अटलांटिक स्टेट्स मरीन फिशरीज कमीशन (ASMFC, www. asmfc. org) हॉर्शू क्रैब प्रबंधन योजना पर कार्य कर रही है जिससे इस प्राकृतिक संसाधन की स्थिरता को बनाए रखा जा सके।
कहाँ तक सीमित है रक्त संग्रहण
जैसे-जैसे जनसंख्या और लोगों की आयु बढ़ रही है, दवाओं, चिकित्सा उपकरणों और डायलिसिस आदि में वृद्धि हुई है। इसका अर्थ है कि इन सभी उत्पादों की सुरक्षा के लिये एलएएल तथा टीएएल परीक्षणों की भी उतनी ही अधिक आवश्यकता होगी। अत: हॉर्शू क्रैब्स की आवश्यकता भी उतनी ही अधिक होगी।
क्या हमें वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता है? इंजेक्शन, फार्मास्यूटिकल उपकरणों, मेडिकल उपकरणों का उपयोग जारी रखने के लिये हमें वैकल्पिक साधनों तथा कुशल संसाधनों के उपयोग की आवश्यकता है। ये तरीके एशिया और अमेरिका की कंपनियों द्वारा अपना लिये जाने चाहिये इससे पहले कि हॉर्शू क्रैब्स के लिये बहुत देर हो जाए। एलएएल और टीएएल परीक्षणों में हॉर्शू क्रैब्स का प्रयोग कम करके संरक्षण किया जा सकता है। यह समय है हॉर्शू क्रैब्स को एंडोटॉक्सिन परीक्षण से रिटायर करने का। यह सिद्ध करेगा कि हमारे स्वास्थ्य के लिये जिन उत्पादों की आवश्यकता होती है वह हमारे पास हैं और कई समय तक हमें हॉर्शू क्रैब की आवश्यकता नहीं होगी। अत: इनका अस्तित्व भी लंबे समय तक बना रहेगा।
हॉर्शू क्रैब का उर्वरक के रूप में प्रयोग
मनुष्य ने हॉर्शू क्रैब का उपयोग न सिर्फ स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं में लिया है बल्कि इसका प्रयोग उर्वरक के रूप में भी किया जा चुका है। आधुनिक दौर में हॉर्शू क्रैब के रक्त का प्रयोग विषमताओं एवं पर्यावरणीय प्रभाव दोनों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। वहीं 1603 में फ्रांसीसी खोजकर्ता सॅम्यूल द चैम्पलेन ने पाया कि अमेरिकी लोगों ने मृत हॉर्शू क्रैब्स का प्रयोग मक्का के खेतोंं में उर्वरक के रूप में किया और इसका अवलोकन किया। बाद में 19वीं शताब्दी में अमेरिकी कंपनियों ने इस विचार को बड़े व्यवसाय में बदलने का फैसला किया।
हॉर्शू क्रैब्स को समुद्र के किनारे एक ढेर के रूप में इकट्ठा किया जाता था। फिर उन्हें एक प्रसंस्कर संयंत्र में पहुँचाकर उसका पाउडर बनाया जाता था। इस उर्वरक का नाम दिया गया ‘कैंसराइन’ (Cancerine)। 1970 के दशक में कृमिक उर्वरकों से पिछले कई हॉर्शू क्रैब्स की मृत्यु हो जाती थी। लेकिन अब, हॉर्शू क्रैब्स के रक्त के प्रयोग से फिर से इन्हें बचाया जा सकता है। साथ ही साथ कई बायोटिक कंपनियाँ यह भी प्रयास कर रही हैं कि कैसे हॉर्शू क्रैब्स के रक्त संग्रहण को कम किया जा सके और इसके अन्य विकल्प खोजे जा सकें।
हॉर्शू क्रैब का संरक्षण
सन 1919 के बाद से, वेटलैंड इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों द्वारा डेलावेयर खाड़ी में हॉर्शू क्रैब्स की आबादी पर अध्ययन किया है। ये गणनाएँ मई और जून में की गईं जोकि इस संदर्भ में उपयुक्त समय है। डेलावेयर खाड़ी का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जीव ‘हॉर्शू क्रैब’ है जोकि पारिस्थितिक तंत्र में भाग लेने वाले कई जीव प्रजातियों पर बहुत निर्भर है। प्रवासी पक्षी जैसे- रेड नॉट (Calidris canutus), रूडी टर्नस्टोन (Arenaria interpres) तथा सेंडर्लिंग (Calidris alba) डेलावेयर खाड़ी के किनारों पर स्थित हॉर्शू क्रैब के अण्डों और लार्वा पर निर्भर होते हैं। इनमें से कुछ प्रवासी पक्षी 9000 मील की दूरी पर, जिसमें उनका प्रजनन क्षेत्र सम्मिलित होता है, तय करके डेलावेयर के तट पर विश्राम करते हैं और अपना भरण-पोषण करते हैं। लगभग 2 हफ्तों का समय यहाँ बिताने के बाद और अपना वजन 2 गुना करने के बाद वे आगे की यात्रा के लिये भोजन सामग्री जुटा लेते हैं।
दुर्भाग्य से यह प्राकृतिक घटना खतरे में हैं क्योंकि डेलावेयर खाड़ी में इनकी संख्या नाटकीय रूप से कम हो गई है।
वास्तव में पिछले 15 वर्षों में आवास अवगति और अधिक मात्रा में पकड़े जाने के कारण इनकी संख्या में 90% गिरावट आयी है। जैसे-जैसे हॉर्शू क्रैब्स की संख्या घटी है वैसे-वैसे प्रवासी पक्षियों की संख्या भी कम हो रही है। ‘रेड नॉट’ प्रवासी पक्षी को तो न्यू जर्सी की लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में रखा गया है और अन्य कई प्रवासी पक्षियों को इस सूची में रखे जाने का खतरा बना हुआ है।
हॉर्शू क्रैब्स का स्थिति को ध्यान में रखते हुए, वेटलैंड इंस्टीट्यूट ने न्यू जर्सी में हॉर्शू क्रैब्स के संरक्षण का समर्थन करते हुए एक राज्यव्यापी साझेदारी परियोजना का कार्य शुरू किया है। इस हिस्सेदारी के अंतर्गत, वेटलैंड इंस्टीट्यूट उचित मापदण्डों के आधार पर किनारों पर से हॉर्शू क्रैब्स के अण्डे एकत्र करता है और एक संरक्षित एवं नियंत्रित वातावरण में अण्डों को एक माह तक रखा जाता है। इस प्रकार नए जन्मे हॉर्शू क्रैब्स को एक सुरक्षित वातावरण में सुरक्षित रखा जाता है। किशोर अवस्था में पहुँचने के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है।
दुनिया का प्राचीनतम ‘जीवित जीवाश्म’ यूँ तो कई परीक्षणों/खोजों का आधार बना। परन्तु हमें यह सोचना होगा कि यदि इसी प्रकार ये परीक्षण चलते रहे तो न तो इस रहस्यमयी जीव की दुनिया बचेगी और न ही इसका अस्तित्व।
कई जीवों का आहार एक दिन स्वयं ही किसी का आहार न बन जाए। अत: आवश्यकता है पारिस्थितिक तंत्र के इस महत्त्वपूर्ण घटक को बचाने की और चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसके अन्य विकल्प ढूंढे जाने की, वरन इस जीवित जीवाश्म की रहस्यमयी दुनिया किताबों में ही खोकर रह जाएगी।
प्राचीनतम हॉर्शू क्रैब की खोज
कनाडा के वैज्ञानिकों के एक दल ने मध्य और उत्तरी मैनिटोबा में 445 मिलियन पुरानी चट्टान में से सबसे प्राचीन हॉर्शू क्रैब की खोज की जो कि पहले से ही 100 मिलियन वर्ष पुराना था। राॅयल ओंटेरियो म्यूजियम से जीवाश्म विज्ञानी डेव रुड्किन, मैनिटोबा संग्रहालय से डॉ. ग्राहम यंग तथा कनाडा के भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के डॉ. गॉडफ्रे नॉलेन ने इस जीवाश्म को लूनाटेस्पिस औरोरा (Lunataspis aurora) नाम दिया जिसका शाब्दिक अर्थ था सुबह के चंद्रमा की ढाल। यह नाम इस जीवाश्म की भूवैज्ञानिक आयु, आकार तथा खोज स्थान के आधार पर रखा गया है।
सुश्री शुभदा कपिल
59, पटेल नगर, नई मण्डी, मुजफ्फरनगर 251001 (उ.प्र.), ई-मेल : kapil.shubhada88@gmail.com
Path Alias
/articles/haorasauu-karaaiba-kai-rahasayamayai-daunaiyaa
Post By: Hindi