हमें गर्मी के मौसम में गर्मी व सर्दी के मौसम में ठण्ड लगती है। ये सब कुछ मौसम में होने वाले बदलाव के कारण होता है। मौसम, किसी भी स्थान की औसत जलवायु होती है जिसे कुछ समयावधि के लिए वहाँ अनुभव किया जाता है।हमें गर्मी के मौसम में गर्मी व सर्दी के मौसम में ठण्ड लगती है। ये सब कुछ मौसम में होने वाले बदलाव के कारण होता है। मौसम, किसी भी स्थान की औसत जलवायु होती है जिसे कुछ समयावधि के लिए वहाँ अनुभव किया जाता है। इस मौसम को तय करने वाले मानकों में वर्षा, सूर्य प्रकाश, हवा, नमी व तापमान प्रमुख हैं। मौसम में बदलाव काफी जल्दी होता है लेकिन जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है और इसीलिए ये कम दिखाई देते हैं। इस समय पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन हो रहा है और सभी जीवित प्राणियों ने इस बदलाव के साथ सामंजस्य भी बैठा लिया है परन्तु पिछले 150-200 वर्षों में ये जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि प्राणी व वनस्पति जगत को इस बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा पाने में मुश्किल हो रहा है। इस परिवर्तन के लिए एक प्रकार से मानवीय क्रिया-कलाप ही जिम्मेदार है।
जलवायु परिवर्तन के कारणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- प्राकृतिक व मानव निर्मित।
जलवायु परिवर्तन के लिए अनेक प्राकृतिक कारण जिम्मेदार हैं। इनमें से प्रमुख हैं- महाद्वीपों का खिसकना, ज्वालामुखी, समुद्री तरंगें और धरती का घुमाव।
महाद्वीपों का खिसकना
हम आज जिन महाद्वीपों को देख रहे हैं, वे इस धरा की उत्पत्ति के साथ ही बने थे तथा इन पर समुद्र में तैरते रहने के कारण तथा वायु के प्रवाह के कारण इनका खिसकना निरन्तर जारी है। इस प्रकार की हलचल से समुद्र में तरंगें व वायु प्रवाह उत्पन्न होता है। इस प्रकार के बदलावों से जलवायु में परिवर्तन होते हैं। इस प्रकार से महाद्वीपों का खिसकना आज भी जारी है।
ज्वालामुखी
जब भी कोई ज्वालामुखी फूटता है वह काफी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड, पानी, धूलकण और राख के कणों का वातावरण में उत्सर्जन करता है। भले ही ज्वालामुखी थोड़े दिनों तक ही काम करें लेकिन इस दौरान काफी ज्यादा मात्रा में निकली हुई गैसें, जलवायु को लम्बे समय तक प्रभावित कर सकती है। गैस व धूलकण सूर्य की किरणों का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं, फलस्वरूप वातावरण का तापमान कम हो जाता है।
पृथ्वी का झुकाव
धरती 23.5 डिग्री के कोण पर, अपनी कक्षा में झुकी हुई है। इसके इस झुकाव में परिवर्तन से मौसम के क्रम में परिवर्तन होता है। अधिक झुकाव का अर्थ है अधिक गर्मी व अधिक सर्दी और कम झुकाव का अर्थ है कम मात्रा में गर्मी व साधारण सर्दी।
समुद्री तरंगें
समुद्र, जलवायु का एक प्रमुख भाग है। वे पृथ्वी के 71 प्रतिशत भाग पर फैले हुए हैं। समुद्र द्वारा पृथ्वी की सतह की अपेक्षा दुगुनी दर से सूर्य की किरणों का अवशोषण किया जाता है। समुद्री तरंगों के माध्यम से सम्पूर्ण पृथ्वी पर काफी बड़ी मात्रा में ऊष्मा का प्रसार होता है।
ग्रीन हाउस प्रभाव
पृथ्वी द्वारा सूर्य से ऊर्जा ग्रहण की जाती है जिसके चलते धरती की सतह गर्म हो जाती है। जब ये ऊर्जा वातावरण से होकर गुजरती है, तो कुछ मात्रा में, लगभग 30 प्रतिशत ऊर्जा वातावरण में ही रह जाती है। इस ऊर्जा का कुछ भाग धरती की सतह तथा समुद्र के जरिए परावर्तित होकर पुन: वातावरण में चला जाता है। वातावरण की कुछ गैसों द्वारा पूरी पृथ्वी पर एक परत सी बना ली जाती है और वे इस ऊर्जा का कुछ भाग भी सोख लेते हैं। इन गैसों में शामिल होती है कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जलकण, जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम भाग में होते है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें भी कहते हैं। जिस प्रकार से हरे रंग का कांच ऊष्मा को अन्दर आने से रोकता है, कुछ इसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती है। इसी कारण इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।
ग्रीन हाउस प्रभाव को सबसे पहले फ्रांस के वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट फुरियर ने पहचाना था। इन्होंने ग्रीन हाउस व वातावरण में होने वाले समान कार्य के मध्य सम्बन्ध को दर्शाया था। ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर इसकी उत्पत्ति के समय से है। चूँकि अधिक मानवीय क्रिया-कलापों के कारण इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में छोड़ी जा रही है जिससे ये परत मोटी होती जा रही है व प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है।
कार्बन डाइऑक्साइड तब बनती है जब हम किसी भी प्रकार का ईन्धन जलाते हैं, जैसे- कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि। इसके बाद हम वृक्षों को भी नष्ट कर रहे हैं, ऐसे में वृक्षों में संचित कार्बन डाइऑक्साइड भी वातावरण में जा मिलती है। खेती के कामों में वृद्धि, जमीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई स्रोतों के कारण वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। औद्योगिक कारणों से भी नवीन ग्रीन हाउस प्रभाव की गैसें वातावरण में स्रावित हो रही है, जैसे- क्लोरोफ्लोरोकार्बन, जबकि ऑटोमोबाईल से निकलने वाले धुएँ के कारण ओजोन परत के निर्माण से सम्बद्ध गैसें निकलती है। इस प्रकार के परिवर्तनों से सामान्यत: वैश्विक तापन अथवा जलवायु में परिवर्तन जैसे परिणाम परिलक्षित होते हैं।
1. कोयला, पेट्रोल आदि जीवाश्म ईन्धन का उपयोग कर।
2. अधिक जमीन की चाहत में हम पेड़ों को काटकर।
3. अपघटित न हो सकने वाले समान अर्थात प्लास्टिक का अधिकाधिक उपयोग कर।
4. खेती में उर्वरक व कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग कर।
जलवायु परिवर्तन से मानव पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का सकल तापमान 03 से 06 डिग्री तक बढ़ गया है। ये तापमान में वृद्धि के आँकड़े हमें मामूली लग सकते हैं लेकिन ये आगे चलकर महाविनाश को आकार देंगे।
खेती
बढ़ती जनसंख्या के कारण भोजन की माँग में भी वृद्धि हुई है। इससे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बनता है। जलवायु में परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारियाँ अपने सामान्य तरीके से अलग प्रसारित होंगी। यह भी कहा जा रहा है कि भारत में दलहन का उत्पादन कम हो रहा है। अति जलवायु परिवर्तन जैसे तापमान में वृद्धि के परिमाणस्वरूप आने वाले बाढ़ आदि से खेती का नुकसान बढ़ेगा।
मौसम
गर्म मौसम होने से वर्षा का चक्र प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे का खतरा भी हो सकता है। ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के स्तर में वृद्धि की भी आशंका हो सकती है। पिछले वर्ष के तूफानों व बवण्डरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इसके संकेत दे दिए है।
समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि
जलवायु परिवर्तन का एक और प्रमुख कारक है समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि। समुद्र के गर्म होने, ग्लेशियरों के पिघलने से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाली आधी सदी के भीतर समुद्र के जल-स्तर में लगभग आधे मीटर की वृद्धि होगी। समुद्र के स्तर में वृद्धि होने के अनेकानेक दुष्परिणाम सामने आएँगे जैसे तटीय क्षेत्रों की बर्बादी, जमीन का पानी में जाना, बाढ़, मिट्टी का अपरदन, खारे पानी के दुष्परिणाम आदि। इससे तटीय जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा, खेती, पेयजल, मत्स्य-पालन व मानव बसाव तहस नहस हो जाएगी।
स्वास्थ्य
वैश्विक ताप का मानवीय स्वास्थ्य पर भी सीधा असर होगा, इससे गर्मी से सम्बन्धित बीमारियाँ, निर्जलीकरण, संक्रामक बीमारियों का प्रसार, कुपोषण और मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होगा।
जंगल और वन्य जीवन
प्राणी व पशु, ये प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले हैं और ये जलवायु परिवर्तन के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। यदि जलवायु में परिवर्तन का ये दौर इसी प्रकार से चलता रहा, तो कई जानवर व पौधे समाप्ति की कगार पर पहुँच जाएँगे।
सुरक्षात्मक उपाय
1. जीवाष्म ईन्धन के उपयोग में कमी की जाए।
2. प्राकृतिक ऊर्जा के स्रोतों को अपनाया जाए, जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि।
3. पेड़ों को बचाया जाए व अधिक वृक्षारोपण किया जाए।
4. प्लास्टिक जैसे अपघटन में कठिन व असम्भव पदार्थ का उपयोग न किया जाए।
जलवायु परिवर्तन के कारण
जलवायु परिवर्तन के कारणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- प्राकृतिक व मानव निर्मित।
प्राकृतिक कारण
जलवायु परिवर्तन के लिए अनेक प्राकृतिक कारण जिम्मेदार हैं। इनमें से प्रमुख हैं- महाद्वीपों का खिसकना, ज्वालामुखी, समुद्री तरंगें और धरती का घुमाव।
महाद्वीपों का खिसकना
हम आज जिन महाद्वीपों को देख रहे हैं, वे इस धरा की उत्पत्ति के साथ ही बने थे तथा इन पर समुद्र में तैरते रहने के कारण तथा वायु के प्रवाह के कारण इनका खिसकना निरन्तर जारी है। इस प्रकार की हलचल से समुद्र में तरंगें व वायु प्रवाह उत्पन्न होता है। इस प्रकार के बदलावों से जलवायु में परिवर्तन होते हैं। इस प्रकार से महाद्वीपों का खिसकना आज भी जारी है।
ज्वालामुखी
जब भी कोई ज्वालामुखी फूटता है वह काफी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड, पानी, धूलकण और राख के कणों का वातावरण में उत्सर्जन करता है। भले ही ज्वालामुखी थोड़े दिनों तक ही काम करें लेकिन इस दौरान काफी ज्यादा मात्रा में निकली हुई गैसें, जलवायु को लम्बे समय तक प्रभावित कर सकती है। गैस व धूलकण सूर्य की किरणों का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं, फलस्वरूप वातावरण का तापमान कम हो जाता है।
पृथ्वी का झुकाव
धरती 23.5 डिग्री के कोण पर, अपनी कक्षा में झुकी हुई है। इसके इस झुकाव में परिवर्तन से मौसम के क्रम में परिवर्तन होता है। अधिक झुकाव का अर्थ है अधिक गर्मी व अधिक सर्दी और कम झुकाव का अर्थ है कम मात्रा में गर्मी व साधारण सर्दी।
समुद्री तरंगें
समुद्र, जलवायु का एक प्रमुख भाग है। वे पृथ्वी के 71 प्रतिशत भाग पर फैले हुए हैं। समुद्र द्वारा पृथ्वी की सतह की अपेक्षा दुगुनी दर से सूर्य की किरणों का अवशोषण किया जाता है। समुद्री तरंगों के माध्यम से सम्पूर्ण पृथ्वी पर काफी बड़ी मात्रा में ऊष्मा का प्रसार होता है।
मानवीय कारण
ग्रीन हाउस प्रभाव
पृथ्वी द्वारा सूर्य से ऊर्जा ग्रहण की जाती है जिसके चलते धरती की सतह गर्म हो जाती है। जब ये ऊर्जा वातावरण से होकर गुजरती है, तो कुछ मात्रा में, लगभग 30 प्रतिशत ऊर्जा वातावरण में ही रह जाती है। इस ऊर्जा का कुछ भाग धरती की सतह तथा समुद्र के जरिए परावर्तित होकर पुन: वातावरण में चला जाता है। वातावरण की कुछ गैसों द्वारा पूरी पृथ्वी पर एक परत सी बना ली जाती है और वे इस ऊर्जा का कुछ भाग भी सोख लेते हैं। इन गैसों में शामिल होती है कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जलकण, जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम भाग में होते है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें भी कहते हैं। जिस प्रकार से हरे रंग का कांच ऊष्मा को अन्दर आने से रोकता है, कुछ इसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती है। इसी कारण इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।
ग्रीन हाउस प्रभाव को सबसे पहले फ्रांस के वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट फुरियर ने पहचाना था। इन्होंने ग्रीन हाउस व वातावरण में होने वाले समान कार्य के मध्य सम्बन्ध को दर्शाया था। ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर इसकी उत्पत्ति के समय से है। चूँकि अधिक मानवीय क्रिया-कलापों के कारण इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में छोड़ी जा रही है जिससे ये परत मोटी होती जा रही है व प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है।
कार्बन डाइऑक्साइड तब बनती है जब हम किसी भी प्रकार का ईन्धन जलाते हैं, जैसे- कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि। इसके बाद हम वृक्षों को भी नष्ट कर रहे हैं, ऐसे में वृक्षों में संचित कार्बन डाइऑक्साइड भी वातावरण में जा मिलती है। खेती के कामों में वृद्धि, जमीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई स्रोतों के कारण वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। औद्योगिक कारणों से भी नवीन ग्रीन हाउस प्रभाव की गैसें वातावरण में स्रावित हो रही है, जैसे- क्लोरोफ्लोरोकार्बन, जबकि ऑटोमोबाईल से निकलने वाले धुएँ के कारण ओजोन परत के निर्माण से सम्बद्ध गैसें निकलती है। इस प्रकार के परिवर्तनों से सामान्यत: वैश्विक तापन अथवा जलवायु में परिवर्तन जैसे परिणाम परिलक्षित होते हैं।
ग्रीन हाउस गैसों में हमारा योगदान
1. कोयला, पेट्रोल आदि जीवाश्म ईन्धन का उपयोग कर।
2. अधिक जमीन की चाहत में हम पेड़ों को काटकर।
3. अपघटित न हो सकने वाले समान अर्थात प्लास्टिक का अधिकाधिक उपयोग कर।
4. खेती में उर्वरक व कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग कर।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
जलवायु परिवर्तन से मानव पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का सकल तापमान 03 से 06 डिग्री तक बढ़ गया है। ये तापमान में वृद्धि के आँकड़े हमें मामूली लग सकते हैं लेकिन ये आगे चलकर महाविनाश को आकार देंगे।
खेती
बढ़ती जनसंख्या के कारण भोजन की माँग में भी वृद्धि हुई है। इससे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बनता है। जलवायु में परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारियाँ अपने सामान्य तरीके से अलग प्रसारित होंगी। यह भी कहा जा रहा है कि भारत में दलहन का उत्पादन कम हो रहा है। अति जलवायु परिवर्तन जैसे तापमान में वृद्धि के परिमाणस्वरूप आने वाले बाढ़ आदि से खेती का नुकसान बढ़ेगा।
मौसम
गर्म मौसम होने से वर्षा का चक्र प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे का खतरा भी हो सकता है। ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के स्तर में वृद्धि की भी आशंका हो सकती है। पिछले वर्ष के तूफानों व बवण्डरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इसके संकेत दे दिए है।
समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि
जलवायु परिवर्तन का एक और प्रमुख कारक है समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि। समुद्र के गर्म होने, ग्लेशियरों के पिघलने से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाली आधी सदी के भीतर समुद्र के जल-स्तर में लगभग आधे मीटर की वृद्धि होगी। समुद्र के स्तर में वृद्धि होने के अनेकानेक दुष्परिणाम सामने आएँगे जैसे तटीय क्षेत्रों की बर्बादी, जमीन का पानी में जाना, बाढ़, मिट्टी का अपरदन, खारे पानी के दुष्परिणाम आदि। इससे तटीय जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा, खेती, पेयजल, मत्स्य-पालन व मानव बसाव तहस नहस हो जाएगी।
स्वास्थ्य
वैश्विक ताप का मानवीय स्वास्थ्य पर भी सीधा असर होगा, इससे गर्मी से सम्बन्धित बीमारियाँ, निर्जलीकरण, संक्रामक बीमारियों का प्रसार, कुपोषण और मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होगा।
जंगल और वन्य जीवन
प्राणी व पशु, ये प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले हैं और ये जलवायु परिवर्तन के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। यदि जलवायु में परिवर्तन का ये दौर इसी प्रकार से चलता रहा, तो कई जानवर व पौधे समाप्ति की कगार पर पहुँच जाएँगे।
सुरक्षात्मक उपाय
1. जीवाष्म ईन्धन के उपयोग में कमी की जाए।
2. प्राकृतिक ऊर्जा के स्रोतों को अपनाया जाए, जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि।
3. पेड़ों को बचाया जाए व अधिक वृक्षारोपण किया जाए।
4. प्लास्टिक जैसे अपघटन में कठिन व असम्भव पदार्थ का उपयोग न किया जाए।
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