हमसे संभलने को कहती धरती

कोई सात हजार वर्ष पुरानी बात है, हमारे ग्रह पर तब हिमयुग समाप्त हुआ ही था, मानव ने खुलकर धूप सेंकना शुरू किया था। इसी धूप से जन्मी प्रकृति या फिर कहें आधुनिक जलवायु। हमने इस जलवायु चक्र की गतिशीलता, सुबह-शाम, मौसम सबका हिसाब बरसों से दर्ज कर रखा है। सदियों से शांत अपनी जगह पर खड़े वृक्षों के तनों की वलयें, ध्रुवों पर जमी बर्फ, समंदर की अतल गहराइयों में जमी मूंगें की चट्टानें सब हमारे बहीखाते हैं। मगर न जाने कैसे यह चक्र गडबड़ाने लगा जनवरी-फरवरी सर्दी, मार्च से मई तक गर्मी, जून से सितंबर तक बारिश, अब नहीं रहती। पता ही नहीं चलता कब कौन सा मौसम आ जाए। कुछ-कुछ हरा, कुछ ज्यादा नीला, कहीं से भूरा और कहीं-कहीं से सफेद रंग में रंगा जो ग्रह अंतरिक्ष से दिखता है, वह पृथ्वी है। मिट्टी, पानी, बर्फ और वनस्पतियों से रंगी अपनी पृथ्वी। यहां माटी में उगते-पनपते पौधे, सूर्य की किरणों से भोजन बनाते हैं और जीवन बांटते हैं। इन पर निर्भर हैं हम सभी प्राणी, यानी जीव-जंतु और मानव। इस धरती का हवा-पानी और प्रकाश, हम सब साझा करते हैं। हम सब मिलकर एक तंत्र बनाते हैं। लेकिन कुछ समय से सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। पिछले कुछ वर्षों से हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है, मौसम बदल रहे हैं, बर्फ पिघल रही हैं, समंदर में पानी बढ़ रहा है और वो तेजी से जमीन को निगलता जा रहा है। कुल मिलाकर हम सभी का अस्तित्व खतरे में है। धरती के गर्म होने की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि कुछ वर्षों बाद आप अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखेंगे तो या तो वहां सेहरा देखेंगे या फिर समंदर।

साल दर साल बढ़ती गर्मी, अब बहुत बढ़ चुकी है। पिछले सौ वर्षों में तापमान कुछ सेंटीग्रेड बढ़ा, जो कि सुनने में मामूली-सा लगता है, किंतु पृथ्वी के इतिहास में यह एक असामान्य घटना है। हिमयुग की समाप्ति पर पृथ्वी 5 से 90 सेंटीग्रेड तक ही ठंडी थी और पिछले सौ सालों में यह तापमान मात्र 0.740 सेंटीग्रेड ही बढ़ा है।

विश्वभर के मौसम और जलवायु विज्ञानी सेंटीग्रेड्स के इस खेल पर कड़ी नजर जमाए हुए हैं। हर साल आंकड़ों और रिपोर्टों के जरिए हमारे सामने वास्तविक स्थिति को लाकर रख रहे हैं। पूरे विश्व के मौसम को देखने वाला विश्व मौसम संगठन कहता है कि साल 2012 विश्व के 10 सबसे गर्म वर्षों की सूची में नवें स्थान पर रहा है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रापिकल मीटिरियोलॉजी के मुताबिक पिछले 50 वर्षों में भारत में हवा 0.40 सेंटीग्रेड तक गर्म हो गई है। यह आंकड़े समस्या के भयावह स्वरूप की ओर संकेत कर रहे हैं।

कोई सात हजार वर्ष पुरानी बात है, हमारे ग्रह पर तब हिमयुग समाप्त हुआ ही था, मानव ने खुलकर धूप सेंकना शुरू किया था। इसी धूप से जन्मी प्रकृति या फिर कहें आधुनिक जलवायु। हमने इस जलवायु चक्र की गतिशीलता, सुबह-शाम, मौसम सबका हिसाब बरसों से दर्ज कर रखा है। सदियों से शांत अपनी जगह पर खड़े वृक्षों के तनों की वलयें, ध्रुवों पर जमी बर्फ, समंदर की अतल गहराइयों में जमी मूंगें की चट्टानें सब हमारे बहीखाते हैं। मगर न जाने कैसे यह चक्र गडबड़ाने लगा जनवरी-फरवरी सर्दी, मार्च से मई तक गर्मी, जून से सितंबर तक बारिश, अब नहीं रहती। पता ही नहीं चलता कब कौन सा मौसम आ जाए। गर्मी की एक रात ओलों की बारिश से कडकड़ा उठे या भरी सर्दी में सूरज अपनी भृकुटियां तान कर तीखे तेवर दिखा दे और अक्टूबर-नवंबर के सुहावने मौसम के बीच किसी तूफान की दस्तक सुनाई देने लगे। अब सब कुछ अनिश्चित है।

शहरी सभ्यता की ओर बढ़ती मानव जाति ने जंगलों को साफ करना शुरू किया, कारखाने लगाए, पक्के घर बनाए, आसमान तक जाती इमारतें बनाईं, सुख-सुविधा के साधन जुटा लिए। उसने मोटरसाइकिल, कार और हवाई जहाज से रफ्तार पकड़ी तो उससे भी दोगुने वेग से कार्बन डाइऑक्साइड दौड़ती नजर आई। इतना ही नहीं जब उसने खेती के परंपरागत तरीकों की बजाय नए तरीके अपनाए, तब कही न कहीं ये गैस उसकी उपजाऊ जमीन को बंजर बनाती रही। प्रकृति की इस कहानी में यह अनिश्चितता ही सबसे बड़ी घटना है, जिसने जीवन को ही धरातल विहीन करने की ठान ली है। पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए ये एक चेतावनी है। अब सोचना है कि कौन है कहानी का खलनायक? कहानी का क्लाइमैक्स ये है कि ये खलनायक कोई और नहीं स्वयं मानव ही है, जिसने अपनी धरती मां को घर में कैद कर रखा है। इस घर का नाम है- ‘ग्रीन हाउस’! सामान्यतः जब धरती पर सूरज की किरणें पड़ती हैं तो उसका कुछ भाग वातावरण की परतें अंतरिक्ष में वापस लौटा देती हैं, बाकी की बची किरणों से पृथ्वी पर जीवन चलता है और उसका तापमान 14 डिग्री सेल्सियस बना रहता है। वातावरण की परतें सूर्य की रश्मियों से हमारी रक्षा करती हैं। उसमें से एक परत ओजोन परत है, यह ओजोन परत सजीवों ने खुद अपनी रक्षा के लिए बनाई। दरअसल जीवन की उत्पत्ति गहरे समंदर में हुई। कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के संयोग से, सूर्य की किरणों की उपस्थिति में क्रिया प्रतिक्रियाओं से पहली वनस्पति कोशिका बनी। इस नव निर्मित कोशिका ने प्रकाश संश्लेषण कर ऑक्सीजन पैदा की। इस ऑक्सीजन ने हवा में जाकर ओजोन बनाई। धीरे-धीरे जीव बढ़े ओजोन बढ़ी, पूरी पृथ्वी ने ओजोन को चादर ओढ़ ली। अब पृथ्वी सुरक्षित हो गई सूर्य की हानिकारक किरणों से, फिर जीवन के अन्य रंग खिले, मौसम बने, प्राणी बने, मानव बने।

प्राणी अपनी क्रियाओं से कुछ गैस उत्सर्जित करने लगे, इन गैसों की वजह से ही मौसम में सामान्य बदलाव आने लगे। इन लगभग 61 गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन और नाइट्रस ऑक्साइड गैसें शामिल हैं। सबसे अधिक मात्रा, करीब 70 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड की होती है, अब यह स्पष्ट है कि इसमें जरा-सा भी उतार-चढ़ाव एक बड़े जलवायु परिवर्तन को जन्म दे सकता है और सच्चाई भी यही है कि गर्माती धरती के ग्रीन हाउस की दीवारें कार्बन डाइऑक्साइड की बनी हैं।

हाल ही में वैज्ञानिकों द्वारा जारी एक रिपोर्ट की ओर रुख करें तो इसकी मात्रा 400 पीपीएम हो गई है, जो सामान्य से करीब 150 पीपीएम ज्यादा है, सरल शब्दों में कहें तो पिछली बार जब ऐसा हुआ होगा तो आर्कटिक महासागर पर घोड़े और ऊंटों की सवारी की जा सकती होगी। (एन.ओ.ए.ए. की रिपोर्ट) 55 वर्षों के अनुसंधान में पहली बार ऐसा हुआ है, यह एक चिंता का विषय है। दरअसल जब पहले कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ती थी तो जल, जमीन, वायु, पेड़ इसे अवशोषित कर लेते थे, किंतु अब 400 पीपीएम की मात्रा उनकी क्षमता से बाहर है।

शहरी सभ्यता की ओर बढ़ती मानव जाति ने जंगलों को साफ करना शुरू किया, कारखाने लगाए, पक्के घर बनाए, आसमान तक जाती इमारतें बनाईं, सुख-सुविधा के साधन जुटा लिए। उसने मोटरसाइकिल, कार और हवाई जहाज से रफ्तार पकड़ी तो उससे भी दोगुने वेग से कार्बन डाइऑक्साइड दौड़ती नजर आई। इतना ही नहीं जब उसने खेती के परंपरागत तरीकों की बजाय नए तरीके अपनाए, तब कही न कहीं ये गैस उसकी उपजाऊ जमीन को बंजर बनाती रही। उसने विज्ञान और तकनीक के जरिए दुनिया को ‘ग्लोबल विलेज’ बनाया तो कार्बन डाइऑक्साइड का जवाब ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के रूप में सामने आया, जिसने दुनिया को कई हिस्सों में बांट दिया। विकसित और विकासशील देशों के वैज्ञानिक आमने-सामने आ गए हैं औऱ बदलते मौसम के लिए आपस में खींचतान शुरू हो गई है।

हालांकि वैज्ञानिकों ने 150 साल पहले ही कार्बन डाइऑक्साइड के दुष्प्रभावों को भांप लिया था भौतिक विज्ञानी जॉन टिण्डेल ने 1860 में ही ये चेतावनी दे दी थी कि ये गैस कुछ भी गलत कर सकती है, लेकिन औद्योगिक क्रांति ने पूंजी का ढेर लगाना शुरू कर दिया था। इस समृद्धि को नकारना आसान नहीं था। यह जलवायु अस्थिरता हमारे साथ-साथ 21वीं सदी तक चली आई है। साथ लाई है, बढ़ती बाढ़, बढ़ते अकाल, बढ़ती गर्मी और अपनी सीमाओं को लांघते समुद्र। कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो इस विकराल संकट को नजदीक से जान पाएंगे।

विश्व की सभी बड़ी पर्वत मालाएं आल्प्स, एंडीज, रॉकीज, अलास्का, हिमालय बर्फ विहीन हो रही हैं। भारत में हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट से करीब 13 प्रतिशत तक बर्फ सिकुड़ चुकी है। अनुमान के मुताबिक साल 2035 तक हिमालय से सभी ग्लेशियर गायब हो जाएंगे। (IPCC की रिपोर्ट) हमेशा बर्फ से ढके ग्रीन लैंड और अंटार्कटिका 150 से 200 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ हर साल खो रहे हैं। (वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनीटरिंग सर्विस रिपोर्ट) आर्कटिक महासागर पर हर सर्दियों में बनने वाली बर्फ के पिघलने ने तो पिछले साल सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। तेजी से पिघलते हिमनदों की इतनी ज्यादा चिंता के दो बड़े कारण हैं एक कि यह ग्लेशियर ताजा जल के सबसे बड़े भंडारण हैं और दूसरा इनके पिघलने से समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है, जो कि तटीय इलाकों के लिए बड़ा खतरा है।

पहली बार 1992 में पृथ्वी को बचाने के लिए पृथ्वी शिखर सम्मेलन, रियो डी जेनेरियों में हुआ। 5 साल बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल आया जो कि सभी देशों के लिए बनाया गहया एक शपथपूर्ण समझौता था, इसके तहत विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन, दी गई सीमा तक नहीं घटाने पर जुर्माना लगाया जना था। विकसित देश विरोध करते रहे पर 2005 में मान गए। फिर उत्सर्जन घटाने को लेकर इसकी पहली समझौता अवधि 2008 से 2012, 4 वर्ष तक रही, दूसरी समझौता अवधि इस साल जनवरी से प्रभावी हो गई है, ये 2020 तक चलेगी। रिपोर्ट कहती है कि समुद्र के पानी का स्तर औसतन लगभग 17 सेमी तक ऊपर उठ गया है। एक ओर जहां जमीन को डुबोते महासागरों में वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड घुलकर, इन्हें अम्लीय बना रही है, वहीं बढ़ता पारा इनकी सतहों को गर्म कर रहा है। समंदर के बढ़ते तापमान व अम्लीकरण से इनमें रह रहे जीवों के प्राण संकट में हैं। समुद्री खजाने के रूप में जानी जाने वाली मूंगे की चट्टानें तो इतनी संवेदनशील हैं कि यदि वर्ष 2030 तक ये तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो ये बनना बंद हो जाएंगी।

मौसम की मार का एक अन्य विद्रूप रूप है चक्रवाती तूफान, बाढ़ और सूखा। यद्यपि जलवायु विज्ञानी मानते हैं कि समुद्री तूफानों का आना एक सामान्य प्राकृतिक क्रिया है, लेकिन इनकी बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता को जलवायु परिवर्तन की देन मानने से उन्हें कोई एतराज नहीं है। पिछले साल अमेरिका में तूफान ‘सैंडी’ तथा फिलीपींस में आए प्रचंड तूफान ‘भोपा’ की त्रासदी हम देख ही चुके हैं।

यह असामान्य जलवायु और समुद्र का बढ़ता स्तर तुआलु (एलि आइलैंड) जैसे देश के अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा। प्रशांत महासागर में स्थित यह देश लगातार समंदर में समाता जा रहा है। धरती के तापमान में थोड़ी सी भी वृद्धि तुआलु के लोगों को बेघर कर देगी। बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को नहीं घटाया गया तो भविष्य के लिए एक बड़ी चेतावनी होगी।

पहली बार 1992 में पृथ्वी को बचाने के लिए पृथ्वी शिखर सम्मेलन, रियो डी जेनेरियों में हुआ। 5 साल बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल आया जो कि सभी देशों के लिए बनाया गहया एक शपथपूर्ण समझौता था, इसके तहत विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन, दी गई सीमा तक नहीं घटाने पर जुर्माना लगाया जना था। विकसित देश विरोध करते रहे पर 2005 में मान गए। फिर उत्सर्जन घटाने को लेकर इसकी पहली समझौता अवधि 2008 से 2012, 4 वर्ष तक रही, दूसरी समझौता अवधि इस साल जनवरी से प्रभावी हो गई है, ये 2020 तक चलेगी।

संयुक्त राष्ट्र की संधि के तहत हर साल के अंत में सभी सदस्य राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में बातचीत और आपसी समझौते करते हैं। 2012 के दोहा जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की बात करें तो जानेंगे कि विकसित राष्ट्रों ने इस बात पर अपनी सहमति दे दी है कि वे गरीब देशों को अपने बढ़ते कार्बन उत्सर्जन से हो रहे जलवायु परिवर्तन की कीमत अदा करेंगे। संयुक्त अरब अमीरात ने अबुधाबी के पास जीरो कार्बन सिटी बनाई है। नाम है-मसदर। मसदर शहर ने दुनिया से प्रदूषण नहीं करने का वादा किया है। यह शहर पूरी तरह प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल शहर है। मानव ने ऐसे ही प्रयास कर अपनी गलती को सुधारना शुरू कर दिया है। धरती का तापमान कम से कम 2 डिग्री से. तक घटाने के लिए विश्वभर के लोग सामूहिक प्रयास कर रहे हैं। 2 डिग्री से. के लक्ष्य तक पहुंचने की राह थोड़ी कठिन जरूर है किंतु साथ मिलकर सफर तय करेंगे तो सारी दूरियां पाटी जा सकती हैं और यदि ऐसी अंतरिक्ष यात्रा करने को मिले तो कहने ही क्या। अंतरिक्ष की इस सैर से हम जान पाए कि हमें अपनी धरती से कितना प्यार है और हमें उसे बहुत जतन से सहेज कर रखना है। अब यात्रा का समय समापत् होता है। हम फिर से धरती पर हैं, यात्रा में हुई मानसिक थकान के बावजूद आप रविवार की दोपहर का लुत्फ उठा सकते हैं।

(लेखिका आकाशवाणी जयपुर में समाचार वाचिका मास कम्यूनिकेशन में अध्यापन)

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