हमने ही आमंत्रित की है यह बाढ़

बाढ़ की मार बढ़ने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, हमारा नदी तट से बढ़ता प्रेम। दूसरा वनों की कटाई। विकास कार्यों के लिए वृक्षों की अंधाधुंध कटाई अब भी जारी है, जिससे लगातार भूस्खलन हो रहे हैं। जिनका मलबा अंततः नदियों से मैदान में ही आता है। अधिक गाद आने से नदियों की धाराएं उथली होती जा रही हैं। नदियों की जल ढोने की क्षमता घट रही है। ऐसे में बाढ़ आना लाजिमी है। तीसरा कारण है, ग्लोबल वार्मिंग। अगस्त-सितंबर का महीना भारत के अनेक क्षेत्रों के लिए कहर बनकर आता है। प्रति वर्ष बाढ़ से घर-बार, ढोर-डंगर, खेतीबारी सब नष्ट हो जाते हैं। क्या ऐसी बाढ़ पहले भी आती थी, या ग्लोबल वार्मिंग की देन है? बाढ़ का वैज्ञानिक रिकार्ड मात्र सौ वर्ष पुराना है। उससे पुरानी बाढ़ का विवरण इतिहास की पुस्तकों में मिलता है या फिर भूवैज्ञानिक व अन्य साक्ष्यों के माध्यम से उसका अंदाज मिलता है। वड़ोदरा की एमएस यूनिवर्सिटी में अल्पा श्रीधर ने पश्चिमी भारत में नर्मदा, मही और तापी नदियों का पिछले 5,000 वर्षों का रिकॉर्ड खंगाला तो पता चला कि आज की शांत दिखने वाली माही 500 वर्ष पूर्व विकराल रूप में थी, उसमें लभग 7,300 घन मीटर प्रति सेकंड की दर से पानी बह रहा था। यानी तब जमकर वर्षा होती थी।
जाहिर है, बाढ़ पहले भी आती थी और अब भी आती है। अंतर सिर्फ इतना है कि पहले आबादी बहुत कम थी, लोग सुरक्षित स्थानों पर घर बनाते थे। अब जमीन की कमी है, इसलिए लोग नदी के एकदम किनारे तक घर बनाने लगे हैं, खेती करने लगे हैं। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में अतिवृष्टि और भयंकर सूखे को टाला नहीं जा सकता। ऐसे में नदी के किनारे बसना खतरा मोल लेना ही है।

इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण गंगा घाटी है। पिछले 25 वर्षों में आबादी में बेतहाशा वृद्धि हुई और नदी के किनारे बसने का चलन भी बढ़ता गया। महानगरों में ‘रिवर साइड-अपार्मेंट फैशन हो गया। हम मान कर चलते हैं कि नदी बांधों से बंध जाएगी। हमें याद रखना चाहिए कि बिहार में कोसी बंधने के बजाय वापस अपनी 1731 वाली धारा में जा समाई। यदि ऐसा कुछ यमुना ने दिल्ली में कर दिखाया, तो शायद फिर से वह कनॉट प्लेस के पास बहने लगेगी।

बाढ़ की मार बढ़ने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, हमारा नदी तट से बढ़ता प्रेम। दूसरा वनों की कटाई। उत्तराखंड में 1803 से 1815 के बीच गोरखा शासन के दौरान मध्य हिमालय में बहुत कटाई हुई। फिर 1962 उसके बाच चीन से हुए युद्ध के कारण सड़क बनाने के लिए बहुत जंगल कटे। विकास कार्यों के लिए वृक्षों का कटना अब भी जारी है, जिससे लगातार भूस्खलन हो रहे हैं। जिनका मलबा अंततः नदियों से मैदान में ही आता है। अधिक गाद आने से नदियों की धाराएं उथली होती जा रही हैं। नदियों की जल ढोने की क्षमता घट रही है। ऐसे में बाढ़ आना लाजिमी है। तीसरा कारण है, ग्लोबल वार्मिंग।

नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वनीकरण और नदियों के किनारे आबादी न बसाने के नियमों पर कड़ाई से अमल किए जाने की आवश्यकता है। पर्वतीय राज्यों को भी ढलानों में बढ़ रहे क्षरण को रोकने के कारगर उपाय करने होंगे। इस तरह का आपदा प्रबंधन ही कुछ हद तक हमें बाढ़ की विभीषिका से बचा सकता है।’

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