हमें भी जीने और रहने का अधिकार है

बस्तर और विशेष रूप से बोधघाट परियोजना के क्षेत्र के अध्ययन और प्रभावित होने वाले कुच गाँवों के लोगों से चर्चा करने के बाद अनेक प्रश्न उठते हैं। बोधघाट में इंदिरा सरोवर जलविद्युत परियोजना में विद्युत उत्पादन के अलावा और कोई लक्ष्य नहीं स्वीकारा गया है। यदि यह परियोजना बस्तर क्षेत्र के समग्र विकास से जुड़ी मानी गई है तो इसको बस्तर की समग्र स्थिति से जोड़कर देखा जाना चाहिए। लगता है कि ऐसा नहीं हो सका और उत्पादित की जाने वाली विद्युत जो 500 मेगावाट होगी और औसत में यह उत्पादन और कम होगा और 8-10 साल बाद होगा। आदिवासी प्रधान क्षेत्र बस्तर की बोधघाट परियोजना के बारे में बोधघात संघर्ष समिति के अध्यक्ष ईश्वर सिंह राणा ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि बोधघाट योजना के अंतर्गत पड़ने वाले 43 गाँवों के आदिवासियों को उजड़ने से बचाएँ और हमारी गर्दन पर लटकी हुई बोधघाट परियोजना को रद्द किया जाए। मैं और कुमाऊं विश्वविद्यालय के शेखर पाठक पिछले माह अप्रैल 1989 जब बस्तर के जागरूक पत्रकार शरद चंद्र वर्मा के निमंत्रण पर बोधघाट क्षेत्र की पदयात्रा पर गए थे तो प्रस्तावित बांध स्थल से तीन किलोमीटर दूर हरिकुनेड़ में यह पत्र पढ़ा गया। संघर्ष समिति के लोगों ने आगे लिखा था कि लोग सदियों से इंद्रावती नदी के पास रहते आए हैं। यहां के खेत, नदी नाले हमारे जीवन से जुड़े हैं। आगे कहते हैं कि हम लोग देश के विकास के विरोधी नहीं हैं। लेकिन प्रश्न करते हैं कि यह कैसा विकास है जिसमें हमारे 43 गांवों के आदिवासियों को उजाड़ दिया जाएगा। उन्होंने आगे जोर देकर कहा है कि हम पिछड़े वनवासी ज़रूर हैं लेकिन हमें अपने इलाके मे रहने और जीने का अधिकार है। और अंत में कहा है कि आप हमें और यहां के अपार जंगलों को बचाने की कृपा करेंगे।

वास्तव में हमने देखा कि संघर्ष समिति ने जो कुछ पत्र में लिखा है उससे भी कुछ अधिक उनके मन में था। वे उसे शब्द नहीं दे पा रहे थे। जैसे-जैसे परियोजना की गतिविधि बढ़ रही है वैसे ही उनके मन में एक टीस सी उठती है। उनका मनोबल तो बढ़ा है ही, दृढ़ निश्चयी भी वे लग रहे हैं। हम जिन सैकड़ों परियोजना क्षेत्र के ग्रामीणों से मिले उनसे उनके आक्रोश का पता चलता है। वे अपने इन गाँवों को छोड़ने के लिए किसी प्रलोभन में आकार भी तैयार नहीं है। आज से कुछ वर्ष पूर्व बस्तर के बारे में तब भी हमने चर्चा सुनी थी जब वहां के 20 हजार हेक्टेयर क्षेत्र के प्राकृतिक वनों को काटकर उनके स्थान पर चीड़ और सफेदा लगाने की योजना बनी थी। इसका विरोध शरद चंद्र वर्मा आदि ने किया था और दिवंगत इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप के बाद इस सनकी योजना का अंत हुआ। इस सनकी योजना की चपेट में जो 1400 हेक्टेयर प्राकृतिक वन नष्ट किए गए वहां रोपे गए चीड़ और सफेदा आज भी अजनबी की तरह सकुचाए से दिख रहे हैं। मानो वे कह रहे हैं कि इसमें हमारा क्या दोष है, हमें तो यहां ज़बरदस्ती लाकर थोपा गया है। लेकिन आज बोधघाट के प्राकृतिक जंगलों और उनके बीच रहने वाले लोगों की आवाज़ भले ही बहुत धीमी क्यों न हो और बिजली की चमकाहट से आवाज़ भले ही न दिखे लेकिन उस आवाज़ के इस बोल कि हमे भी अपने ढंग से जीने और रहने का अधिकार है, का उत्तर वे अपने परंपरागत अस्तित्व के लिए चाहते हैं।

बस्तर और विशेष रूप से बोधघाट परियोजना के क्षेत्र के अध्ययन और प्रभावित होने वाले कुच गाँवों के लोगों से चर्चा करने के बाद अनेक प्रश्न उठते हैं। बोधघाट में इंदिरा सरोवर जलविद्युत परियोजना में विद्युत उत्पादन के अलावा और कोई लक्ष्य नहीं स्वीकारा गया है। यदि यह परियोजना बस्तर क्षेत्र के समग्र विकास से जुड़ी मानी गई है तो इसको बस्तर की समग्र स्थिति से जोड़कर देखा जाना चाहिए। लगता है कि ऐसा नहीं हो सका और उत्पादित की जाने वाली विद्युत जो 500 मेगावाट होगी और औसत में यह उत्पादन और कम होगा और 8-10 साल बाद होगा। इसके अलावा वन, कृषि और बस्तर के जनजातीय समाज को गंभीरता से समझने का प्रयास नहीं किया गया है।

बस्तर के वनों, वन्य जीवों और समाज का एक गहन अंतर्सबंध है। वनों पर समाज की चौतरफा निर्भरता है। मध्य प्रदेश के वन्यजीव प्रभाग ने तो यहां तक लिख डाला है कि कोई दुर्लभ वन्य जीव प्रजाति यहां नहीं है। परियोजना से संबंधित एक अधिकारी ने उपहास में यहां तक कहा कि तमाम जीव आदिवासियों ने मार-मार कर खा लिए हैं। यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती क्योंकि दर्जनों वन्यजीवों के साथ-साथ यहां जंगली भैसे आज भी हैं। गवर, सांबर, तेंदुआ, लंगूर आदि भी पर्याप्त हैं। हिरन और खरगोश भी हमने देखे। यद्यपि परियोजना की ओर से यह कहा जा रहा है कि वह वैकल्पिक वृक्षारोपण करेगी। इसके लिए पर्यावरण विभाग ने भी निर्देश दिए हैं लेकिन यह तथ्य नहीं महसूस किया गया कि सिर्फ वृक्षारोपण से ऐसा वन्य क्षेत्र तैयार नहीं हो जाता जोकि यहां के प्राकृतिक एवं तथा सामाजिक पर्यावरण के लिए उचित हो। साल के वन को कमतर संख्या और महत्व के लिहाज से माना जा रहा है। एक प्राकृतिक वन और वृक्षारोपण का अंतर समझने में परियोजना वाले बिल्कुल असफल रहे हैं।

इंद्रावती में आने वाली साद की मात्रा पर भी कोई आंकड़े नहीं मिले हैं। इंद्रावती की 1986 की बाढ़ तथा यत्र-तत्र फैले साद को देखकर लगा कि जलग्रहण क्षेत्रों में पर्याप्त वन नष्ट होने के कारण यह प्रक्रिया बढ़ी है और इस पक्ष को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। इंद्रावती की सहायक नदियों, जैसे नारंगी, गोइंडर आदि, में भी साद की दर का अध्ययन होना चाहिए। बस्तर में वनों के जरूरत से ज्यादा दोहन से यह प्रक्रिया बढ़ी है। इंद्रावती नदी में उड़ीसा में भी एक बांध है और गत वर्ष इस बांध को ज्यादा भर जाने पर खोलने के कारण जगदलपुर में इंद्रावती पुल के 10 फुट ऊपर तक पानी चढ़ गया था।

यह भी हमें अनुभेव हुआ है कि बस्तर को दो भागों में बांटने वाली इंद्रावती, जो गोदावरी नदी की सहायक धारा है, उड़ीसा से जन्म लेकर आंध्र में जाने से पूर्व बस्तर क्षेत्र में 250 किलोमीटर से ज्यादा बहती है। यह दरअसल बस्तर की जीवन धारा है। बस्तर के अच्छे कृषि क्षेत्र इसके किनारे हैं। मछली के लिए इस नदी पर समाज निर्भर है। यह तथ्य बताना उचित होगा कि चित्रकोट से लेकर गोदावरी में मिलने तक इस नदी के किनारे एक स्थानीय जनजाति कुडक मिलती है। ये भूमिहीन लोग हैं और मछली पकड़ने के पेशे से जुड़े हैं।

इंद्रावती में आने वाली साद की मात्रा पर भी कोई आंकड़े नहीं मिले हैं। इंद्रावती की 1986 की बाढ़ तथा यत्र-तत्र फैले साद को देखकर लगा कि जलग्रहण क्षेत्रों में पर्याप्त वन नष्ट होने के कारण यह प्रक्रिया बढ़ी है और इस पक्ष को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। इंद्रावती की सहायक नदियों, जैसे नारंगी, गोइंडर आदि, में भी साद की दर का अध्ययन होना चाहिए। बस्तर में वनों के जरूरत से ज्यादा दोहन से यह प्रक्रिया बढ़ी है। इंद्रावती नदी में उड़ीसा में भी एक बांध है और गत वर्ष इस बांध को ज्यादा भर जाने पर खोलने के कारण जगदलपुर में इंद्रावती पुल के 10 फुट ऊपर तक पानी चढ़ गया था। बाद में गोदावरी की बाढ़ भी इस से बढ़ी थी। यह आश्चर्यजनक है। बाढ़ को रोकने हेतु बने कहे जाने वाले बांध, बाढ़ के कारण बन रहे हैं।

हमें यह देखकर तब बहुत सदमा लगा जब दंतावाड़ा के पास शंखनी और डंकनी नदियों को देखा, इन नदियों का पानी अयस्क घुलने के कारण लाल हो गया था। बताया गया कि बेला जिला में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम द्वारा लोह अयस्क का खदान किया जा रहा है, जिसका मलबा इन नदियों में बहकर लाल हो गया है। काला लोहा जम जाता है। यहां के लोगों एवं इनके पशुओं को इस पानी को पीने के अलावा दूसरा स्रोत नहीं है।

ईश्वर सिंह बताता है कि इस सबसे न केवल हमारे पानी के स्रोत गड़बड़ा रहे हैं अपितु जिन वृक्षों के कंद मूल पर हमारा जीवन निर्भर है वह भी नष्ट हो रहे हैं। महुआ के पेड़ से हुए कई प्रकार की उपायदेयता प्राप्त होता है। इसके अलावा जंगली आम, हरदा बेड़ा, आंबला के पेड़ हैं जो हमारी आकिवी एवं खाद्य है। कंद मूल में तिखूर, वचू कांदा, किव कांदा, चुरंदा कांदा, पिर कांदा बिमारियों के लिए दवा भी जंगल से प्राप्त होता है। गोंद और शहद भी जंगल से प्राप्त होता है।

बस्तर प्राकृतिक रूप से संपन्न क्षेत्र है। निरंतर तीव्र दोहन की प्रक्रिया के बावजूद भी यहां वन्य आवरण बचा है। यहां के आदिवासी अत्यंत सरल, भोले और वनों तथा स्थानीय परिवेश से अपने संबंधों को समझते हैं लेकिन वे संगठित नहीं हैं। क्षेत्र, प्रदेश या देश की राजनीति में उनका स्वर मुखर होना संभव नहीं है। 43 गाँवों की दस हजार से अधिक जनसंख्या, जो पूरी तरह जनजातीय समाज व्यवस्था है, पर इस परियोजना का सीधा प्रहार है। हमें यह पता चला है कि अनेक पर्यावरणविद और पत्रकार ही नहीं अरविंद नेताम, विद्याचरण शुक्ल जैसे क्षेत्र के नेता और स्थानीय विधायक ने भी इस परियोजना का विरोध किया है।

अगर ऐसा नहीं भी होता तब भी उक्त स्थानों पर कार्यरत राजनेताओं, वैज्ञानिकों, प्रशासकों को यह देखना ही होगा कि बस्तर के शांत, चुप और शर्मीले समाज के अस्तित्व की कीमत पर तथाकथित विकास का काम नहीं थोपा जाना चाहिए।

हम जिन बस्तरवासियों से मिले उनसे बात करते हुए लगातार यह अनुभव होता रहा है कि जिस जनजातीय बस्तर समाज को हम आज तक स्कूल, सड़क, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे सके हैं, उन्हें विस्थापित करके भी हम शायद ही उन्हें कुछ दे सकें। लेकिन जो कुछ उन्होंने सैकड़ों सालों में जनजातीय सामाजिक परंपरा के अंतर्गत जोड़ा है, हम उसमें तो कम से कम खलल न डालें। यह किसी सरकार, विभाग, अंतरराष्ट्रीय संगठन, राजनैतिक दल अथवा ठेका कंपनी को अधिकार नहीं हो सकता है कि जनजाति को उजाड़ने-उखाड़ने की पहल करे।

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