नदियों के बिना हम भारतीय संस्कृति की कल्पना ही नहीं कर सकते। जन्म से मृत्यु तक नदियों का हमारे जीवन से गहरा नाता है। अपनी सामाजिक संस्कृति को भी हम गंगा-जमुनी संस्कृति ही कहते हैं।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति में नदियों का खासा महत्त्व रहा है। लेकिन सभ्यता क्या है ? दरअसल, सभ्यता एक निश्चित जगह की होती है। कैसे कोई रहता है ? कैसे वह प्रकृति को देखता है और कैसे उसे जीता है? उसके कर्म और व्यवहार सभ्यता का हिस्सा बनते हैं। और संस्कृति किसे कहेंगे? एक अच्छी सभ्यता से समाज विकसित होता है और वह कुछ सिद्धान्त निर्मित करते हैं। जीवन के इन सिद्धान्तों में अव्वल होते हैं- प्रकृति से उसका लेना-देना, पंचतत्वों से उसका रिश्ता। ये सब मिलकर हमारी संस्कृति का निर्धारण करते हैं।हमारी सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है। हमारी संस्कृति इन्हीं किनारों पर फली-फूली है। इसलिए हम इसे ‘गंगा की सभ्यता’ कहते हैं। इसलिए हम खुद को ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ से जोड़ते हैं। देखा जाए, तो नदी किनारे रहने वाला समाज के, जन्म से मरण तक, जो भी संस्कार होते थे, उससे संस्कृति का निर्माण होता था। इसलिए नदियों का मानव सभ्यता के विकास में अमिट प्रभाव है। इसके बिना सभ्यता और संस्कृति की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। चाहे पुरानी मानव सभ्यताओं का जिक्र कर लें या नए शहरीकरण की बात करें, नदियों के बगैर कुछ भी मुमकिन नहीं है।
भारत में नीर, नारी और नदी, तीनों का गहरा सम्बन्ध और सम्मान था। इन तीनों को हमारे ऋषि-मुनियों ने पोषक माना है। इसलिए नारी और नदी को माँ का दर्जा दिया गया है, और नीर, यानी जल को जन्म से ही जोड़कर देखा जाता है। भारतीय संस्कृति में भी पोषण करनेवालों को ‘माँ’ और शोषण करने वालों को ‘राक्षस’ कहा गया है। देवता और दानव के बीच अन्तर की यह सोच, जो अनादिकाल से चली आ रही है, यहीं से आई है। दरअसल, नदियों के किनारे, नदियों के साथ, जो जैसा व्यवहार करता था, उसी के आधार पर उसे देवता या दानव, मनुष्य बोलने लगते थे। अगर इनसान भी नदियों को पवित्र रखने का काम करता था, तो उसे ‘देवता’, कहा जाता था और अगर उसने उसको गन्दा करने का काम किया, तो उसे ‘दानव’, यानी राक्षस माना जाता।
यह धारणा भी बलवती है कि देवताओं ने राक्षसों के राक्षसीपन को रोकने के लिए उस काल के विद्वानों, राजाओं और जन-सामान्य को (राजा, प्रज्ञा और सन्त) नदियों की गन्दगी और पवित्रता को अलग-अलग रखने हेतु बारह वर्षों पर वैचारिक मन्थन किया करते थे। इनसान ने इसे अपनी बोली-भाषा में ‘कुम्भ’ कहा। यह कुम्भ नदियों के साथ सच्चाई और बुराई का निर्धारण करता था। यह कुम्भ नदियों के साथ नियम और नीति का निर्धारण करता था। इस कुम्भ, कुम्भ मेला या कुम्भ स्नान का स्थान इतना सर्वोपरि था।
लेकिन आज यह कुम्भ एक स्नान भर बनकर रह गया है। इससे बेशक आस्था जुड़ी हुई है, लेकिन इसके साथ इसकी पवित्रता नष्ट हो चुकी है। यह व्यवसाय का रूप ले चुका है, प्रशासनिक तामझाम का हिस्सा बन चुका है। कुम्भ का मौजूदा विकृत रूप ही बता देता है कि नदियों के साथ हमारे व्यवहार में कैसा छल आया है?
आज हम नदियों के किनारे जरूर हैं, किन्तु नदियों के करीब नहीं हैं। हमें इन्हें अपनी सभ्यता मानते हैं, किन्तु इनके साथ हम अपना व्यवहार मैला ढोने वाली गाड़ियों-जैसा करते हैं। देखा जाए, तो पहले जो एक दानव या कुछ दानवों की कुचेष्टा थी, आज वह पूरे समाज में व्याप्त हो गई है। आज वह कुचेष्टा पूरे समाज को रोगी बना चुकी है। इससे पहलेे कि नदियों को प्रदूषित कर इनसान शारीरिक व्याधियों का घर बने, नदियों को मैला ढ़ोने वाली गाड़ियाँ बनाने की बुरी सोच ने ही इनसान को मानसिक रोगी बना दिया है। जब यह काम एक पूरा समाज करता है, तो वह नदियों की सभ्यता में आई गिरावट का मानक होता है।
इसलिए आज जब हम अपने आस-पास की नदियों का अवलोकन करते हैं, तो ऐसा लगता है कि हमने अपनी सभ्यता और संस्कृति को ही भुला दिया है। जल हमारा जीवन तो है, लेकिन हम उस जीवन का दोहन करते हैं। नदी और नारी के प्रति सम्मान में भयंकर ह्रास आया है, यानी समाज में ‘माँ’ का स्थान ही संकट में है। इस स्थिति में हम जिस विकासवाद की बातें करते हैं, वे हमें विनाश की ओर ही ले जाएँगे।
आज हम जल-संरक्षण, वर्षा-जल संचयन की लम्बी-लम्बी बातें करते हैं, लेकिन इन सबके मूल में यही है कि प्रकृति की धारा, यानी नदी से हमारा रिश्ता सुधरे और पुराने रूप में आए। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? शायद नहीं। क्योंकि जहाँ एक तरफ लम्बी-चौड़ी योजनाओं का दावा है, वहीं दूसरी तरफ पोल खोलती हकीकत भी है कि गंगा की स्वच्छता, अविरलता के नाम पर करोड़ों रूपये फूँके गए, लेकिन अब भी उसमें कल-कारखानों के कचरे बगैर परिशोधन के गिरते है। दिल्ली जिस नदी के किनारे बसी है, यानी यमुना बेहद प्रदूषित नदियों की गिनती में सबसे ऊपर है। मुम्बई की मीठी नदी का भी हाल बेहाल है।
नदियों के शुद्धिकरण के लिए परियोजनाओं पर जोर है, पर इस दिशा में कितना कुछ काम हो पाता है, यह सही योजना, अटल इरादे और प्रशासनिक नेकनीयती से ही पता चल पाएगा। पहले ऐसे अभियानों को नारे बनकर खत्म होते हमने देखा है। इसलिए प्रशासनिक सतर्कता और सामाजिक जागरूकता, दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। लोगों को भी इस तरह के अभियानों में दिलचस्पी दिखानी चाहिए और अपनी भागीदारी देनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि इस तरह के अभियानों में वैज्ञानिक दृष्टि और आस्था, दोनों का समावेश हो। अक्सर, इन दोनों को अलग-अलग कर और एक-दूसरे के विपरीत रखकर देखा जाता है, जिससे किसी का भी भला नहीं होने वाला। नदियों के प्रति जो हमारी आस्थाएँ हैं, उनके मूल में कहीं-न-कहीं इनको पोषक मानने का भाव है, उनको स्वच्छ, निर्मल और अविरल रखने की सोच है। बेशक आस्था में वे आडम्बर न हों, जिनसे नदियाँ मैली होती हैं। लेकिन नदियों के किनारे जाकर उन्हें पूजने का महत्त्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। इसलिए हम अपनी ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ में आए ह्रास की भरपाई तभी कर सकते हैं, जब हम नदियों से आस्था और वैज्ञानिक समझ के साथ जुड़ेंगे। इसलिए इसमें सबकी भागीदारी को जोड़ना होगा।
(लेखक मशहूर पर्यावरणविद् हैं)
Path Alias
/articles/hamaarai-sabhayataa-sansakartai-aura-nadaiyaan
Post By: Hindi