वर्तमान जल संकट से उबरने का एकमात्र उपाय है वर्षाजल का समुचित प्रबन्धन। वर्षा के जल जो मीठे पानी को बहकर समुद्र में जाने से रोकना एवं भूमिगत जल भण्डार में वृद्धि करना। इसके लिये हम सबको मिलकर खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी गाँव में एवं शहर का पानी शहर में रोकने के उपाय करने होंगे। मानसून में खेत तालाब बनाकर, खेत का पानी खेत में ही रोकने से जहाँ बाढ़ को रोकने में मदद मिलेगी वहीं भूमिगत जल भण्डार भी भरेगा एवं साल भर सिंचाई के लिये जल भी मिलेगा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 28 जून 2015 को “मन की बात” कार्यक्रम में वर्षाजल संग्रहण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मानसून में लोगों से खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी गाँव में एवं शहर का पानी शहर में रोकने हेतु वर्षाजल संग्रह करने की अपील की।
जनता के साथ अपने मन की बात करते हुए प्रधानमंत्री ने हमारे देश में वर्षाजल संग्रहण की परम्परा का उदाहरण देते हुए पोरबन्दर में महात्मा गाँधी जी के घर का जिक्र किया जिसमें आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व भी वर्षाजल संग्रहण हेतु उपाय किये गए थे एवं जल के सुरक्षित संग्रहण हेतु भूमिगत टंकी का निर्माण किया गया था, जिसमें संग्रहित जल का उपयोग वर्षपर्यन्त किया जाता था।
जल संकट पर प्रधानमंत्री की यह चिन्ता, यह अपील बिना वजह नहीं है। प्रधानमन्त्री बनने से पूर्व भी वे जल संकट के प्रति संवेदनशील रहे हैं। श्री नरेन्द्र मोदी जी जब पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे उसके बाद से अति जल संकट से जूझते गुजरात में पेयजल की अनेक योजनाओं का शुभारम्भ हुआ। राज्य में जलस्रोतों का उचित उपयोग करने के लिये “सुजलाम् सुफलाम्” नामक योजना चलाई गई।
गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने नारा दिया - “सेव वाटर, वाटर विल सेव अस।” यह अभियान इतना असरदार रहा कि पूरे गुजरात की जनता ने इसमें अपने सहयोग दिये जिससे जल की बर्बादी पर न केवल विराम लगा बल्कि गुजरात ने अन्य तटवर्ती राज्यों से आगे निकलते हुए जल संकट से उबरने का एक मॉडल प्रस्तुत किया। जिसका अनुसरण कर पूरे देश में जल संकट से उभरा जा सकता है।
अति भूजल दोहन ने देश के अनेक क्षेत्रों में व्यापक जल संकट उत्पन्न कर दिया है। सतही जल के प्रमुख स्रोत हमारी नदियों, तालाबों, झीलों का जल इस कदर प्रदूषित हो गया है कि बिना ट्रीटमेंट के उनका उपयोग अनेक बिमारियों को न्यौता देना है। कम गहराई पर मिलने वाला जल स्रोत भी या तो दोहन के कारण समाप्त हो गया है या खेती में उपयोग किये जाने वाले रसायनों के भूमि में रिसाव के कारण प्रदूषित हो गया है।
अब बचा धरती का सुरक्षित जल भण्डार जो काफी गहराई पर उपलब्ध होता है, वह भी अतिदोहन के कारण दिन प्रतिदिन नीचे जा रहा है एवं खाली हुई जगह में समुद्र के खारे जल के भर जाने से अब यह जल स्रोत भी खारा हो रहा है। अतः उपलब्ध मीठे पानी के प्रमुख स्रोत हमारे देश में अत्यधिक संकटग्रस्त अवस्था में पहुँच चुके हैं।
हमारे पूर्वजों ने जल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया था। ऋग्वेद के अध्वर्यु सूक्त में, अध्वर्यु को राष्ट्र के योजनाकार के रूप में जिन दस कर्तव्यों का निर्देश दिया गया है, उनमें दूसरा कर्तव्य वर्षाजल का संरक्षण है। वर्षा के जल को सबसे शुद्ध माना जाता है। सामान्यतया लोग जल के दो ही स्रोत जानते हैं - एक, धरती का सतही जल एवं दूसरा, धरती के भीतर का जल। परन्तु राजस्थान के लोगों को बहुत पहले से यह ज्ञात है कि जल के तीन स्रोत हैं - पहला, पालर पानी (वर्षा जल)। जल के जितने भी सतही स्रोत हैं, जैसे नदियाँ, तालाब आदि उनका मूल स्रोत वर्षा का जल ही होता है। दूसरा, रेजाणी पानी - यह भूमि के 5-6 फीट नीचे स्थित खड़िया पत्थरों (जिप्सम) की पट्टी पर जमा होता है। इस पानी को संकरे एवं कम गहराई के कुओं के माध्यम से इकट्ठा किया जाता है। इन कुओं में रेत की नमी धीरे-धीरे पानी की बूँदों में बदल कर जमा होती है। यह विशेषकर उन इलाकों में बनाए जाते हैं जहाँ भूमिगत जल खारा होता है। इस प्रकार रेजाणी पानी, खड़िया पत्थरों के कारण नीचे रिस कर खारे पानी में मिलने से बच जाता है एवं जनउपयोगी बना रहता है। यह भण्डार भी प्रत्येक बरसात में पुनः भर जाता था। तीसरा, पाताल पानी - जो धरती के अन्दर गहराई में होता है।
पहले राजस्थान के लोग यह जानते थे कि पाताल पानी का उपयोग केवल अत्यन्त संकट की अवस्था में करना चाहिए, परन्तु आज सबसे अधिक इसी भूमिगत जल का दोहन किया जा रहा है। पहले वर्षाजल को दो प्रकार से संग्रह किया जाता था- पहला, वर्षा के जल को बहाव के मार्ग पर तेजी से बहने से रोक कर (वृक्षों, घास, झाड़, मेड़ बनाकर अथवा अन्य अवरोधों के माध्यम से रोक कर) भूगर्भ जल का भण्डार भरा जाता था एवं दूसरा, इसके बाद प्रवाहित जल को पत्थर की नालियों द्वारा एक जगह ले जाकर पत्थर से निर्मित ऐसे कुण्डों में संग्रहित किया जाता था जिनमें एकत्र जल भूमि में रिसकर न जा सके अथवा सूरज के सीधे सम्पर्क से वाष्पीकृत न हो सके।
इस जल का उपयोग पूरे साल किया जाता था एवं अगली वर्षा में फिर से भर दिया जाता था। इस प्रकार बहुत श्रम करके जल का संरक्षण किया जाता था। जो इस बात का प्रतीक था कि जल बहुत परिश्रम से मिलता है एवं इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। जल प्रबन्धन में पेयजल की अलग व्यवस्था थी, अन्य कार्यों के लिये जल की अलग व्यवस्था थी।
अब हम बिना श्रम के बिजली के पम्पों से जल प्राप्त करने लगे हैं, इसलिये अत्यधिक गहराई से भी बिना परिश्रम के जल प्राप्त करते हैं। अतः पेयजल एवं अन्य कार्यों के लिये अलग-अलग जल का प्रयोग भूल गए। पेयजल का उपयोग टॉयलेट में बहाने तक के लिये कर रहे हैं एवं वर्षाजल का संग्रह करने की परम्परा भी भूलने लगे, वर्षाजल का संग्रह करना हमने बन्द कर दिया है, घरों का सीवर नदियों में बहाकर नदियों को हमने प्रदूषित कर दिया एवं भूमिगत जल के अति दोहन को आत्मसात किया जिससे धरती में जमा सुरक्षित जल भण्डार पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।
अतः वर्तमान जल संकट से उबरने का एकमात्र उपाय है वर्षाजल का समुचित प्रबन्धन। वर्षा के जल जो मीठे पानी (पीने योग्य शुद्ध जल) को बहकर समुद्र में जाने से रोकना एवं भूमिगत जल भण्डार में वृद्धि करना। इसके लिये हम सबको मिलकर खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी गाँव में एवं शहर का पानी शहर में रोकने के उपाय करने होंगे। मानसून में खेत तालाब बनाकर, खेत का पानी खेत में ही रोकने से जहाँ बाढ़ को रोकने में मदद मिलेगी वहीं भूमिगत जल भण्डार भी भरेगा एवं साल भर सिंचाई के लिये जल भी मिलेगा।
राजस्थान में जयपुर के पास लापोड़िया गाँव के कर्मयोगी श्री लक्ष्मण सिंह जी ने चौका तकनीकी के तहत तालाबों की शृंखला बनाकर खेतों को हरा-भरा कर दिया है। उनके इस कार्य हेतु उन्हें वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल द्वारा जल संग्रहण पुरस्कार प्रदान किया गया। खेत तालाब बनाने के साथ ही गाँवों का पानी भी नदियों के माध्यम से बह जाने से रोकने के लिये गाँवों में तालाबों को खुदवाना एवं उनका संरक्षण करना आवश्यक है, जिससे वर्षा का जल रोका जा सके एवं वर्ष पर्यन्त उपयोगी बना रहे।
इसी प्रकार शहरों में भी सभी इमारतों एवं मकानों के लिये रेनवाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य किया जाना आवश्यक है। नगरों में सभी स्थानों को कंक्रीट का जंगल बनाने के बजाय पार्कों एवं खाली स्थानों को घास एवं पेड़ पौधों से सुसज्जित करने से हरियाली दिखेगी, मन को सुकून मिलेगा एवं वर्षा का जल भी भूमिगत जल को रिचार्ज करने में सहायक बनेगा।
एक कहावत है - ‘जब जागे तभी सवेरा’, अर्थात जल संकट के प्रति अब हम जागृत हो रहे हैं, अपनी नदियों, तालाबों के प्रति पुनः सचेत हो रहे हैं, उनके प्रदूषण मुक्ति हेतु प्रयास कर रहे हैं, परन्तु इसमें कुछ समय लगेगा। जबकि इस मानसून से ही वर्षा जल संग्रह की प्रवृत्ति अपनाने से भूमिजल भण्डार में वृद्धि भी होगी एवं जल संकट से राहत भी मिलेगी।
जनता के साथ अपने मन की बात करते हुए प्रधानमंत्री ने हमारे देश में वर्षाजल संग्रहण की परम्परा का उदाहरण देते हुए पोरबन्दर में महात्मा गाँधी जी के घर का जिक्र किया जिसमें आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व भी वर्षाजल संग्रहण हेतु उपाय किये गए थे एवं जल के सुरक्षित संग्रहण हेतु भूमिगत टंकी का निर्माण किया गया था, जिसमें संग्रहित जल का उपयोग वर्षपर्यन्त किया जाता था।
जल संकट पर प्रधानमंत्री की यह चिन्ता, यह अपील बिना वजह नहीं है। प्रधानमन्त्री बनने से पूर्व भी वे जल संकट के प्रति संवेदनशील रहे हैं। श्री नरेन्द्र मोदी जी जब पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे उसके बाद से अति जल संकट से जूझते गुजरात में पेयजल की अनेक योजनाओं का शुभारम्भ हुआ। राज्य में जलस्रोतों का उचित उपयोग करने के लिये “सुजलाम् सुफलाम्” नामक योजना चलाई गई।
गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने नारा दिया - “सेव वाटर, वाटर विल सेव अस।” यह अभियान इतना असरदार रहा कि पूरे गुजरात की जनता ने इसमें अपने सहयोग दिये जिससे जल की बर्बादी पर न केवल विराम लगा बल्कि गुजरात ने अन्य तटवर्ती राज्यों से आगे निकलते हुए जल संकट से उबरने का एक मॉडल प्रस्तुत किया। जिसका अनुसरण कर पूरे देश में जल संकट से उभरा जा सकता है।
अति भूजल दोहन ने देश के अनेक क्षेत्रों में व्यापक जल संकट उत्पन्न कर दिया है। सतही जल के प्रमुख स्रोत हमारी नदियों, तालाबों, झीलों का जल इस कदर प्रदूषित हो गया है कि बिना ट्रीटमेंट के उनका उपयोग अनेक बिमारियों को न्यौता देना है। कम गहराई पर मिलने वाला जल स्रोत भी या तो दोहन के कारण समाप्त हो गया है या खेती में उपयोग किये जाने वाले रसायनों के भूमि में रिसाव के कारण प्रदूषित हो गया है।
अब बचा धरती का सुरक्षित जल भण्डार जो काफी गहराई पर उपलब्ध होता है, वह भी अतिदोहन के कारण दिन प्रतिदिन नीचे जा रहा है एवं खाली हुई जगह में समुद्र के खारे जल के भर जाने से अब यह जल स्रोत भी खारा हो रहा है। अतः उपलब्ध मीठे पानी के प्रमुख स्रोत हमारे देश में अत्यधिक संकटग्रस्त अवस्था में पहुँच चुके हैं।
हमारे पूर्वजों ने जल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया था। ऋग्वेद के अध्वर्यु सूक्त में, अध्वर्यु को राष्ट्र के योजनाकार के रूप में जिन दस कर्तव्यों का निर्देश दिया गया है, उनमें दूसरा कर्तव्य वर्षाजल का संरक्षण है। वर्षा के जल को सबसे शुद्ध माना जाता है। सामान्यतया लोग जल के दो ही स्रोत जानते हैं - एक, धरती का सतही जल एवं दूसरा, धरती के भीतर का जल। परन्तु राजस्थान के लोगों को बहुत पहले से यह ज्ञात है कि जल के तीन स्रोत हैं - पहला, पालर पानी (वर्षा जल)। जल के जितने भी सतही स्रोत हैं, जैसे नदियाँ, तालाब आदि उनका मूल स्रोत वर्षा का जल ही होता है। दूसरा, रेजाणी पानी - यह भूमि के 5-6 फीट नीचे स्थित खड़िया पत्थरों (जिप्सम) की पट्टी पर जमा होता है। इस पानी को संकरे एवं कम गहराई के कुओं के माध्यम से इकट्ठा किया जाता है। इन कुओं में रेत की नमी धीरे-धीरे पानी की बूँदों में बदल कर जमा होती है। यह विशेषकर उन इलाकों में बनाए जाते हैं जहाँ भूमिगत जल खारा होता है। इस प्रकार रेजाणी पानी, खड़िया पत्थरों के कारण नीचे रिस कर खारे पानी में मिलने से बच जाता है एवं जनउपयोगी बना रहता है। यह भण्डार भी प्रत्येक बरसात में पुनः भर जाता था। तीसरा, पाताल पानी - जो धरती के अन्दर गहराई में होता है।
पहले राजस्थान के लोग यह जानते थे कि पाताल पानी का उपयोग केवल अत्यन्त संकट की अवस्था में करना चाहिए, परन्तु आज सबसे अधिक इसी भूमिगत जल का दोहन किया जा रहा है। पहले वर्षाजल को दो प्रकार से संग्रह किया जाता था- पहला, वर्षा के जल को बहाव के मार्ग पर तेजी से बहने से रोक कर (वृक्षों, घास, झाड़, मेड़ बनाकर अथवा अन्य अवरोधों के माध्यम से रोक कर) भूगर्भ जल का भण्डार भरा जाता था एवं दूसरा, इसके बाद प्रवाहित जल को पत्थर की नालियों द्वारा एक जगह ले जाकर पत्थर से निर्मित ऐसे कुण्डों में संग्रहित किया जाता था जिनमें एकत्र जल भूमि में रिसकर न जा सके अथवा सूरज के सीधे सम्पर्क से वाष्पीकृत न हो सके।
इस जल का उपयोग पूरे साल किया जाता था एवं अगली वर्षा में फिर से भर दिया जाता था। इस प्रकार बहुत श्रम करके जल का संरक्षण किया जाता था। जो इस बात का प्रतीक था कि जल बहुत परिश्रम से मिलता है एवं इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। जल प्रबन्धन में पेयजल की अलग व्यवस्था थी, अन्य कार्यों के लिये जल की अलग व्यवस्था थी।
अब हम बिना श्रम के बिजली के पम्पों से जल प्राप्त करने लगे हैं, इसलिये अत्यधिक गहराई से भी बिना परिश्रम के जल प्राप्त करते हैं। अतः पेयजल एवं अन्य कार्यों के लिये अलग-अलग जल का प्रयोग भूल गए। पेयजल का उपयोग टॉयलेट में बहाने तक के लिये कर रहे हैं एवं वर्षाजल का संग्रह करने की परम्परा भी भूलने लगे, वर्षाजल का संग्रह करना हमने बन्द कर दिया है, घरों का सीवर नदियों में बहाकर नदियों को हमने प्रदूषित कर दिया एवं भूमिगत जल के अति दोहन को आत्मसात किया जिससे धरती में जमा सुरक्षित जल भण्डार पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।
अतः वर्तमान जल संकट से उबरने का एकमात्र उपाय है वर्षाजल का समुचित प्रबन्धन। वर्षा के जल जो मीठे पानी (पीने योग्य शुद्ध जल) को बहकर समुद्र में जाने से रोकना एवं भूमिगत जल भण्डार में वृद्धि करना। इसके लिये हम सबको मिलकर खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी गाँव में एवं शहर का पानी शहर में रोकने के उपाय करने होंगे। मानसून में खेत तालाब बनाकर, खेत का पानी खेत में ही रोकने से जहाँ बाढ़ को रोकने में मदद मिलेगी वहीं भूमिगत जल भण्डार भी भरेगा एवं साल भर सिंचाई के लिये जल भी मिलेगा।
राजस्थान में जयपुर के पास लापोड़िया गाँव के कर्मयोगी श्री लक्ष्मण सिंह जी ने चौका तकनीकी के तहत तालाबों की शृंखला बनाकर खेतों को हरा-भरा कर दिया है। उनके इस कार्य हेतु उन्हें वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल द्वारा जल संग्रहण पुरस्कार प्रदान किया गया। खेत तालाब बनाने के साथ ही गाँवों का पानी भी नदियों के माध्यम से बह जाने से रोकने के लिये गाँवों में तालाबों को खुदवाना एवं उनका संरक्षण करना आवश्यक है, जिससे वर्षा का जल रोका जा सके एवं वर्ष पर्यन्त उपयोगी बना रहे।
इसी प्रकार शहरों में भी सभी इमारतों एवं मकानों के लिये रेनवाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य किया जाना आवश्यक है। नगरों में सभी स्थानों को कंक्रीट का जंगल बनाने के बजाय पार्कों एवं खाली स्थानों को घास एवं पेड़ पौधों से सुसज्जित करने से हरियाली दिखेगी, मन को सुकून मिलेगा एवं वर्षा का जल भी भूमिगत जल को रिचार्ज करने में सहायक बनेगा।
एक कहावत है - ‘जब जागे तभी सवेरा’, अर्थात जल संकट के प्रति अब हम जागृत हो रहे हैं, अपनी नदियों, तालाबों के प्रति पुनः सचेत हो रहे हैं, उनके प्रदूषण मुक्ति हेतु प्रयास कर रहे हैं, परन्तु इसमें कुछ समय लगेगा। जबकि इस मानसून से ही वर्षा जल संग्रह की प्रवृत्ति अपनाने से भूमिजल भण्डार में वृद्धि भी होगी एवं जल संकट से राहत भी मिलेगी।
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Post By: RuralWater