वैज्ञानिकों का मत है कि जीवन की शुरुआत जल में हुई। यदि पृथ्वी पर जल नहीं होता तो, यह अन्य ग्रहों जैसे जीवन शून्य होती। इस तथ्य की पुष्टि के लिए एक प्रयोग किया गया, जिसमें हाइड्रोजन, जलवाष्प, अमोनिया और मीथेन गैसें एक साथ मिलाकर उनमें विद्युत आवेश तथा पराबैंगनी किरणों प्रवाहित की गईं। बाद में उसमें अनेक कार्बनिक पदार्थ जैसे फैटी एसिड और अमीनों एसिड पाए गए। प्रोटीन जो जीवन के लिए आवश्यक तत्व है, अमीनो एसिड से ही मिलकर बनता है। इस प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला गया कि जीवन की उत्पत्ति भी कुछ इसी प्रकार हुई होगी क्योंकि आरम्भ में पृथ्वी के वायुमंडल में उपरोक्त गैसों की बहुतायत थी।
जल एक ऐसा तत्व है तो प्रायः इतनी आसानी से उपलब्ध हो जाता है कि हम उसका महत्व ही नहीं समझ पाते। सुबह उठकर मुँह धोने से लेकर रात में पैरों को धोकर बिस्तर पर जाने तक, यानी कि हर छोटे-बड़े कार्य के लिए जल की आवश्यकता होती है। शहरों में तो नल खोला और पानी आ गया, लेकिन कई पहाड़ी क्षेत्रों और रेगिस्तानी प्रदेशों में महिलाओं का लगभग आधा दिन मीलों पैदल चलकर जल को इकट्ठा करने में गुजरता है। प्राचीन ऋषि, मुनियों तथा दार्शनिकों ने भी जल के महत्व को समझा। पाश्चात्य विद्वान अरस्तू के अनुसार जल, अग्नि, भूमि और वायु जीवन के लिए आवश्यक हैं। उनके विचार से जीवन भूमि, जल, आग, गगन और वायु से मिलकर बना है और इसी में वह विलीन भी होता है। संस्कृत के पुराने ग्रंथों में जल की महिमा और उपयोग के बारे में बहुत लिखा गया है। ऋग्वेद के कई श्लोकों में जल के महत्व को बताया गया है। चरक और सुश्रुत रचित आयुर्वेद के ग्रंथों में तो जल के दो मुख्य वर्ग- अंतरिक्ष जल और भूमि जल बताए गए हैं।अंतरिक्ष जल को धरम (वर्षा), करम (ओला), तुषारम (हिमपात) और हिमाम (बर्फ) में बाँटा गया है। भूमिजल को नदियों, झीलो, झरनों, तालाब, कुंड, कुएँ और बावड़ियों में विभाजित किया गया है। इन ग्रंथों में जल के उपयोग तथा गुणवत्ता के बारे में भी लिखा गया है। वराहमिहिर रचित वृहत-संहिता में तो जल के शुद्धिकरण के तरीके भी बताए गए हैं। ऐसा नहीं है कि पृथ्वी पर आरम्भ से ही जल विद्यमान था। यह माना जाता है कि पृथ्वी शुरू में आग का एक गोला थी। इसका वायुमंडल भी आज से पूरी तरह भिन्न था। यद्यपि धरती के उद्भव के समय और कारणों के बारे में अनेक मतभेद हैं। तथापि अधिकतर वैज्ञानिकों की राय है कि लगभग 5,000 लाख वर्ष पहले धरती अस्तित्व में आई। तीव्र ज्वालामुखी जैसे विस्फोटों के कारण अनेक गैसें, जलवाष्प और अन्य पदार्थ धरती के गर्भ से निकलकर वायुमंडल में मिलने लगे। अधिक तापमान के कारण जलवाष्प कभी संघनित होकर बूंदों का रूप नहीं ले पाए थे। धरती जैसे-जैसे ठंडी होती गई, वैसे-वैसे जलावाष्प भी संघनित होकर जल का स्वरूप ग्रहण करने लगे। इस प्रक्रिया से धरती की सतह का ताममान आज जैसा हुआ और सागरों तथा महासागरों का जन्म हुआ।
शुरू में पृथ्वी पर जीवन का कोई चिह्न नहीं था। वैज्ञानिकों का मत है कि जीवन की शुरुआत जल में हुई। यदि पृथ्वी पर जल नहीं होता तो, यह अन्य ग्रहों जैसे जीवन शून्य होती। इस तथ्य की पुष्टि के लिए एक प्रयोग किया गया, जिसमें हाइड्रोजन, जलवाष्प, अमोनिया और मीथेन गैसें एक साथ मिलाकर उनमें विद्युत आवेश तथा पराबैंगनी किरणों प्रवाहित की गईं। बाद में उसमें अनेक कार्बनिक पदार्थ जैसे फैटी एसिड और अमीनों एसिड पाए गए। प्रोटीन जो जीवन के लिए आवश्यक तत्व है, अमीनो एसिड से ही मिलकर बनता है। इस प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला गया कि जीवन की उत्पत्ति भी कुछ इसी प्रकार हुई होगी क्योंकि आरम्भ में पृथ्वी के वायुमंडल में उपरोक्त गैसों की बहुतायत थी। इसी प्रकार धीरे-धीरे फास्फेट, न्यूक्लिक एसिड और एन्जाइम का विकास हुआ होगा। न्यूक्लिक एसिड ही आनुवांशिक गुणों और संरचना का स्रोत है।
जीवन के मूल में जितनी भी प्रतिक्रियाएँ हैं, वे सभी एन्जाइम द्वारा संचालित होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जीवन की उत्पत्ति जैविक-कार्बनिक पदार्थों से बने जल के शोरबा में हुई। विकास के क्रम में जीवन के लिए आवश्यक कार्बनिक पदार्थ, झिल्लियों से घिर गए और कोशिका की उत्पत्ति हुई। शुरू में एक कोशीय जीवाणुओं का विकास हुआ जिन्होंने जल में अपने आस-पास मौजूद मुक्त कार्बनिक पदार्थों पर पलना शुरू किया। सम्भवतः इन कार्बनिक पदार्थों की समाप्ति पर कुछ जीवाणुओं ने रासायनिक ऊर्जा की मदद से और अन्य जीवाणुओं ने, जिनमें पर्णहरिम थे, और सौर ऊर्जा की मदद से बढ़ना शुरू किया। पर्णहरिम वाले जीवाणु विकास के दौर में बहुत आगे बढ़ गए।
इस प्रक्रिया से ही वायुमंडल में ऑक्सीजन गैस का समावेश हुआ और यह पृथ्वी जीवन धारण करने लायक बनी। ऑक्सीजन के तीन परमाणु मिलकर ओजोन गैस बनाते हैं। वायुमंडल के ऊपर पर्त में ओजोन की उपस्थिति के कारण ही पराबैंगनी किरणों तक पहुंचना बंद हुआ। पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में धरती पर जीवन लगभग असम्भव रहता। लगभग 2,500 लाख वर्ष केवल जल में ही जीवन सीमित रहा और उसका विकास होता रहा। करीब 500 लाख वर्ष पूर्व जल से बाहर भूमि पर जीवन आया। शुरू में कुछ उभयचर (ऐम्फिबिअन) पौधे और जानवर विकसित हुए, जो अपने जीवन-चक्र काकुछ भाग जल में और शेष भूमि पर पूरा करते थे। पर जीवन के विकास के दौर में कोई भी ऐसा जीवित पदार्थ नहीं पनपा, जिसे जल की कभी आवश्यकता नहीं होती हो।
पृथ्वी पर हमें विभिन्न प्रकार के जानवर, कीट-पतंगे और पेड़-पौधे दीखते हैं, पर सागरों, नदियों और महासागरों में इनसे भी अधिक जीव-जन्तु रहते हैं। पौधे पर्णहरिम की मदद से प्रकाश-संश्लेषण करते हैं और अनेक उपयोगी वस्तुओं के साथ ऑक्सीजन भी उत्पन्न करते हैं। पूरे विश्व के भू-भाग में जितनी ऑक्सीजन बनती है, उससे कई गुणा अधिक महासागरों के जल में छोटे-छोटे शैवालों द्वारा उत्पन्न होती है। शैवाल से फर्न तक की श्रेणी के पौधों तथा जानवरों में उभय कुल तक प्रजनन के लिए आवश्यक है। जल के महत्व को हर एक सभ्यता में स्थान मिला है। प्राचीन सभ्यता के तीन प्रमुख केंद्रों –ग्रीस, मिस्र और सिन्धु घाटी की सभ्यता का विकास भी क्रमशः टाइबर, नील, और सिन्धु के किनारे हुआ। हमारे देश के पुराने शहर वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, ऋषिकेश, पुणे, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र, मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, वृंदावन और मैसूर नदियों के किनारे ही बसे हैं। आजकल के कई महानगर भी नदियों के तट पर ही हैं- यमुना के किनारे दिल्ली, गंगा के किनारे कानपुर, इलाहाबाद, गोमती के किनारे लखनऊ, हुगली के किनारे कलकत्ता, साबरमती के किनारे अहमदाबाद इत्यादि।
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