ऐसे प्रयासों से उन किसानों तक सही संदेश जायेगा जो फार्मयार्ड व हरी पत्ती वाली खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक कदम उठाने को तैयार हैं। इससे न केवल मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणवत्ता में सुधार होगा बल्कि मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता भी बढ़ेगी।
लगता है हमारी सरकार में न तो अब अपने लोगों को बेहतर भविष्य देने के लिए इच्छाशक्ति बची है और न ही कल्पनाशक्ति। वह जो भी कदम उठा रही है, वे उसे अपने लोगों, अपनी जमीन और उनके हितों से और दूर ले जाते दिख रहे हैं। उदाहरण के लिए केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजट भाषण को ही ले लीजिए जिसमें उन्होंने कहा था: “ खाद्यान्न उपज की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए फसल उपज को अधिकतम करना इस समय सबसे बड़ी जरूरत और चुनौती बन गयी है, हमें कृषि उत्पादकता को भी दीर्घकालीन बनाये रखना है। फसलों के अपशिष्ट पदार्थों को हटाने और रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग की वजह से मिट्टी की सेहत भी खराब हुई है, बेतहाशा बढ़ते मूल्यों ने इसमें और इजाफा किया है….।” खुशी की बात तो यह है कि वित्त मंत्री ने उस समस्या पर गौर किया जो पिछले कुछ समय से विकराल रूप धारण करती जा रही है लेकिन इसके लिए कुछ करने की बजाय उन्होंने उल्टा इसी बजट भाषण में खाद कंपनियों को और अधिक रसायन पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कर दिया। रासायनिक खादें इस देश की मिट्टी का तेज गति से क्षरण कर रही हैं और देर-सबेर हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा भी पैदा कर रही हैं।मीडिया में आई ताजी खबरों के अनुसार सरकार हमारी मिट्टी की गुणवत्ता को और खराब करने के लिए इस साल करीब 67,000 करोड़ रुपए खर्च करने जा रही है। इस हकीकत से सभी वाकिफ है कि रसायनों में न केवल खादें शामिल हैं बल्कि कीटनाशक दवाएं भी शामिल हैं, जो हमारे जल और मिट्टी के लिए विनाशकारी हैं। दुनिया भर के अनुसंधानकर्ता अपने शोधों में मान चुके हैं कि सिन्थेटिक खादें नाजुक मिट्टी की क्रियाओं को अवरूद्ध कर रही हैं। खासतौर से नाइट्रोजनयुक्त खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण तमाम दूसरी समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। इसके अलावा मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता भी घट रही है। सन 2009 में केन्द्रीय बजट की घोषणा करते वक्त वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था, “ देश की खाद्य सुरक्षा को देखते हुए देश में बढ़ते खाद इस्तेमाल के बावजूद कृषि उत्पादन में कमी आना चिंता का विषय है। खादों के संतुलित प्रयोग को सुनिश्चित करने के लिए सरकार वर्तमान उत्पाद मूल्य व्यवस्था के स्थान पर ‘न्यूट्रिएंट बेस्ड सब्सिडी’ की ओर कदम बढ़ाने जा रही है….” और उसके बाद सन 2010 में न्यूट्रिएंट बेस्ड सब्सिडी सिस्टम को प्रभावी बना दिया गया। तब से लेकर अब तक दो फसली सत्र गुजर चुके हैं लेकिन यह नीति कितनी कारगर रही, इसका पता लगाने के लिए कोई आंकलन नहीं कराया गया है। जैसा कि मुखर्जी ने कहा था। क्या यह घटती कृषि उत्पादकता और बढ़ते खाद इस्तेमाल की समस्या से निपटने में सफल हो सकी है? इसके विपरीत सरकार विश्वव्यापी परिस्थितियों से तालमेल बनाने के लिए फिर सब्सिडी बढ़ाने की योजना बना रही है। वित्त मंत्री के कथनानुसार यदि रासायनिक खादों के बढ़ते प्रयोग से खाद्य सुरक्षा में सहयोग नहीं मिल रहा है तो फिर क्यों सरकार खुद को बढ़ते खाद मूल्यों के जाल में फंसा रही है, इस संकट से निकलने का कोई समाधान क्यों नहीं खोजती?
ज्ञात हो कि हमारे खेतों से बहने वाले रसायनों से नदियां और भूजल प्रदूषित हो रहे है। अब यह महसूस होता है कि किसान भी यह बात अच्छी तरह समझ चुके हैं कि खाद उनकी मिट्टी पर हानिकारक प्रभाव डाल रही है। ग्रीनपीस की तरफ से हाल ही में किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि किसानों को मालूम हो चुका है कि मिट्टी से सूक्ष्म जीव गायब हो रहे हैं। साथ ही वे इसका कारण रसायन पर आधारित खेती को मानते हैं। किसानों ने इस बात पर भी गौर किया है कि मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता पर भी काफी बुरा असर पड़ा है। किसान अच्छी तरह जानते हैं कि रासायनिक खादें उनकी मिट्टी को बीमार बना रही हैं लेकिन वे खुद को असहाय महसूस करते हैं। उनको इस संकट से बाहर निकल पाने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। ज्यादातर किसान रसायनिक खादों का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है। सबसे हास्यास्पद और दुखद पहलू यह है कि हमारी मिट्टी पर “रसायन वार” थम ही नहीं पा रहा है। इस बहस से जो दूसरी चीज उभर कर सामने आयी, वह यह है कि सरकार अपनी सीमित सोच के दायरे से बाहर ही नहीं निकलना चाहती। वह किसी विकल्प पर भी विचार नहीं करना चाहती।
वह रासायनिक खादों और सब्सिडी से ऊपर कुछ सोच ही नहीं सकती। उसने बस एक चीज तय कर रखी है कि यदि विश्व स्तर पर खादों का लागत खर्च बढ़ता है तो हमें भी सब्सिडी बढ़ानी होगी। जबकि हकीकत यह है कि अब समय आ गया है जब हमारी सरकार और अनुसंधान तंत्र को किसानों के पास मौजूद ज्ञान के भंडार पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और उसका लाभ उठाना चाहिए लेकिन सरकार आयातित खादों के विकल्प पर विचार ही नहीं करना चाहती। परंपरागत कृषि ज्ञान, प्रकृति मित्र खाद, आर्गेनिक खेती, फलीदार पौधों के साथ फसली चक्रीकरण व अन्य पर्यावरण मित्र खेती के तरीके जो न केवल मिट्टी को ताकत प्रदान करेंगे बल्कि बराबर पैदावार भी दिलायेंगे व ग्रामीण इलाकों के जीवन स्तर को कई तरह से लाभ भी पहुंचाएंगे। लेकिन ऐसा कैसे संभव होगा? इसकी शुरूआत के लिए सरकार को आर्गेनिक उर्वरता को समर्थन देने के लिए एक ऐसी संस्थागत व्यवस्था बनानी होगी जो किसानों, राज्य सरकारों व स्थानीय संगठनों के साथ नजदीकी से कार्य कर सके। साथ ही रासायनिक खादों में छूट देने के बजाय इस नयी व्यवस्था को प्रोत्साहित करे। ऐसे प्रयासों से उन किसानों तक सही संदेश जायेगा जो फार्मयार्ड व हरी पत्ती वाली खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक कदम उठाने को तैयार हैं। इससे न केवल मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणवत्ता में सुधार होगा बल्कि मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता भी बढ़ेगी।
सरकार और उसका विशाल कृषि विस्तार तंत्र फसलों के चक्रीकरण को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित कर सकता है और मिट्टी की ताकत बढ़ा सकता है। सच्चाई तो यह है कि प्रभावशाली तरीके से लागू करने के लिए मजबूत विचारों और प्रयोगों की कमी नहीं है। लेकिन ये सब करने के लिए सरकार को अपने खाद स्थिरीकरण को कम करना होगा। केन्द्र सरकार ने 2008-09 में रासायनिक खादों को प्रोत्साहित करने के लिए 96,606 करोड़ की भारी धनराशि खर्च की थी जो 2009-10 में सौभाग्य से कम होकर 49,980 करोड़ रह गयी। अब खाद सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखिए सरकार ने उन दूसरे कृषि विकास कार्यक्रमों पर रासायनिक खादों पर खर्च की गई रकम का दसवां हिस्सा यानी मात्र 5,374.72 करोड़ रुपए ही खर्च किया जिनमें पर्यावरण मित्र मिट्टी पोषण को प्रोत्साहित करने वाले तत्व मौजूद थे। सब्सिडी मूल्य में इतने भारी अंतर का कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव होना था जो इस साल भी होता दिख रहा है।
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