‘हमारे गांव में हम ही सरकार’

महाराष्ट्र के मेंढा गांव का उदाहरण बताता है कि स्वाभिमान और स्वावलंबन के साथ आजीविका का अवसर मिले तो नक्सलवाद से जूझते इलाकों में खुशहाली का नया अध्याय शुरू हो सकता है..

देवाजी टोफा वह शख्स हैं जिन्होंने अधिकारों के लिए इस क्रांति की अलख जगाई थी। अंग्रेजों ने 1927 में भारतीय वन अधिनियम बनाकर एक तरह से जंगल पर निर्भर समाज को उससे बेदखल कर दिया था। 2006 में केंद्र सरकार द्वारा वनाधिकार कानून पास करने के साथ ही यह अधिकार एक बार फिर से बहाल हुआ। लेकिन हक की यह बहाली सिर्फ फाइलों में हुई थी। वन विभाग के अधिकारियों ने मेंढावासियों को उनका हक देने की राह में जमकर रोड़े अटकाए, मेंढा के पास बांस का अकूत भंडार था। इसके अलावा उसके 1,800 हेक्टेयर के जंगलों में चिरौंजी, महुआ, तेंदू पत्ता, हर्र, बरड़ आदि भी खूब होते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरोली की सबसे बड़ी पहचान फिलहाल यही है कि यह नक्सल प्रभावित जिला है। आदिवासी और जंगल की बहुलता वाले इस जिले की धनौरा तहसील में एक गांव है मेंढा। मेंढा और लेखा नाम के दो टोलों का यह गांव देखने में कहीं से भी विशेष नहीं लगता। लेकिन अपनी करनी से इसने वह मिसाल कायम की है जिसमें नक्सलवाद से जूझते देश के कई इलाकों में खुशहाली का एक नया अध्याय कैसे शुरू हो, इसका संकेत छिपा है। मेंढा के नाम दो बड़ी उपलब्धियाँ हैं। यह देश का पहला गांव है जिसने सामुदायिक वनाधिकार हासिल किया और जिसकी ग्राम सभा को ट्रांजिट परमिट (टीपी) रखने का अधिकार मिला। इस अधिकार ने गांववालों को अपने जंगल का बांस अपनी मर्जी से बेचने की आजादी दी है। इससे वे न सिर्फ स्वाभिमान के साथ आजीविका कमा रहे हैं बल्कि वनों की सुरक्षा भी सुनिश्चित कर रहे हैं।

सबल, स्वावलंबी, अपने हित के फैसले खुद ले सकने वाला और स्वाभिमानी, महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की यही आत्मा थी। लेकिन विकास की आधुनिक परिभाषा में गांधी और उनके सिद्धांत पीछे छूटते गए। आज विकास की जो प्रक्रिया है उसमें स्वावलंबन की जगह मजदूरी ने ले ली है (मनरेगा) और स्वाभिमान की जगह ठेकेदारी ने। इसके नतीजे में देश के ज्यादातर हिस्सों में एक असंतोष का भाव है। यह भाव मध्य भारत की आदिवासी पट्टी में कुछ ज्यादा ही मुखर है। यहीं मेंढा एक नई रोशनी फैला रहा है। उसने बस इतना किया है कि गांव की जो संपदा है उसकी देखभाल का ज़िम्मा अपने हाथ में ले लिया है। यानी जंगल, खेत और पानी का ज़िम्मा। अपनी पुरानी मान्यताओं जानकारियों और परंपराओं के मुताबिक, इसी में गांव की भी भलाई है और जग की भी।

मेंढा पहुंचने पर हमें बांस से बने कई कच्चे घर दिखते हैं। गांव के बीचों-बीच ग्रामसभा का दो कमरे वाला एक दफ्तर है। यही दफ्तर मेंढा वालों का संसद भवन, वित्त मंत्रालय सब कुछ है और यहीं बैठकर गांव-समाज के फैसले सबकी सहमति और सबकी अनुमति से लिए जाते हैं। सफलता की इस कहानी के नायक देवाजी टोफा बताते हैं, ‘बड़े से बड़ा अकाल पड़ा पर आदिवासी कभी भीख मांगने या लूटमार करने नहीं निकला, दूर तो छोड़िए यह बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर भी नहीं जाता रोजी-रोटी के लिए क्योंकि जंगल के ऊपर उसका विश्वास अटल है। बुरे से बुरे समय में भी जंगल हमें इतना कुछ दे देता है कि हमारा पेट भर जाता है। जंगल से पैसा बनाना आदिवासी ने सीखा ही नहीं है।’

देवाजी टोफा वह शख्स हैं जिन्होंने अधिकारों के लिए इस क्रांति की अलख जगाई थी। अंग्रेजों ने 1927 में भारतीय वन अधिनियम बनाकर एक तरह से जंगल पर निर्भर समाज को उससे बेदखल कर दिया था। 2006 में केंद्र सरकार द्वारा वनाधिकार कानून पास करने के साथ ही यह अधिकार एक बार फिर से बहाल हुआ। लेकिन हक की यह बहाली सिर्फ फाइलों में हुई थी। वन विभाग के अधिकारियों ने मेंढावासियों को उनका हक देने की राह में जमकर रोड़े अटकाए, मेंढा के पास बांस का अकूत भंडार था। इसके अलावा उसके 1,800 हेक्टेयर के जंगलों में चिरौंजी, महुआ, तेंदू पत्ता, हर्र, बरड़ आदि भी खूब होते हैं। मूल पैदावार बांस की ही है। वन विभाग का तर्क था कि बांस इमारती लकड़ी है, गौण वनोपज नहीं इसलिए इसे आदिवासियों के हवाले नहीं किया जाए। असल में लंबे समय से जंगलों पर अपने अधिकार के आदि हो चुके विभाग को अपना राज जाता दिख रहा था।

देवाजी और उनके साथियों ने जानकारों की मदद से कानून और स्थिति को समझा और पाया कि बांस इमारती लकड़ी नहीं बल्कि घास का एक प्रकार है और गौण वनोपज के दायरे में आता है। लेकिन वन विभाग अड़ा रहा। देवाजी बताते हैं, ‘विभाग के लोगों ने कहना शुरू किया कि जंगलों को अनपढ़ आदिवासियों के हवाले किया गया तो वे जंगल को बर्बाद कर देंगे।’ यह दुष्प्रचार वे लोग कर रहे थे जिनके अधिकार में देश के जंगल पिछली एक सदी से थे और तब भी हर जगह जंगलों और वन्यजीवन का दायरा सिकुड़ता गया था। असल में अब तक एक ट्रांजिट परमिट (टीपी) व्यवस्था थी जिसके तहत बांस को गढ़चिरोली से बाहर बेचने के लिए वन विभाग इजाज़त देता था। गांव वाले चाहते थे कि यह टीपी उनके हाथ में हो तभी वनाधिकार सही अर्थों में साकार होगा।

लेकिन सालों से वनों का मनमाना इस्तेमाल कर रहे लोग इसे छोड़ने को तैयार न थे। तब मेंढावालों ने दूसरा रास्ता निकाला। उन्होंने दिल्ली स्थित संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की सुनीता नारायण से संपर्क करके अपनी बात को दिल्ली तक पहुंचाने का फैसला किया। नारायण ने मेंढा से एक बांस खरीदा और उसे बाहर ले जाने के लिए टीपी की मांग सीधे तत्कालीन वनमंत्री जयराम रमेश से की। यह एक तरह से गढ़चिरोली के वनविभाग की करतूतों की दिल्ली में शिकायत थी। इस पर रमेश ने खुद मेंढा आने का फैसला किया। वे 27 अप्रैल, 2011 को मेंढा आए और स्वयं ही टीपी पुस्तिका गांववालों को सौंप दी। इस तरह से वनाधिकार वास्तविक रूप से मेंढावालों के पास आ गया।

यहां से मेंढा की चमत्कारिक सफलता की कहानी आगे बढ़ती है। अधिकार तो मिल गया था लेकिन मेंढावालों को इस पर खरा उतरना बाकी था। देवाजी बताते हैं, ‘पिछली कटाई में हमने 33 रुपए प्रति बांस के हिसाब से बिक्री की। 13 रुपया बांस काटने वाले मज़दूर के हिस्से में गया और 20 रुपया गांव समाज सभा के खाते में। हमने करीब एक लाख बांस काटे थे।’ आस-पास के 35 गाँवों से करीब 200 मज़दूरों ने कटाई में हिस्सा लिया था। अपने घर से अकेले बांस काटने वाले सकाराम टोफा कहते हैं, ‘बास की कटाई से हमें 10 हजार के करीब रुपया मिला था।’ ज्यादातर लोगों का औसत इसी रकम के आस-पास है। जिसके घर में चार या पांच मज़दूर हैं, उसके पास साल में एकमुश्त 40 से 50 हजार रु. पहुंच गए, यह दो महीने की कमाई है। इसके बाद मेंढा के लोग किसानी करते हैं। चावल उपजाते हैं, कुछ खुद खाते हैं कुछ हाट में बेच देते हैं। इसके अलावा भी कुछ चीजें हैं जो जंगलों से मेंढावालों को इफरात में मिलती हैं। इनकी लिस्ट फोटो के साथ मेंढा-लेखा ग्रामसभा के दो कमरे वाले दफ्तर के बाहर लगी हुई है। इनमें चिरौंजी, खैर, आंवला, हर्र, तेंदू पत्ता आदि हैं। गांववासी इन उपजों को जंगल से बीनकर सीधे ग्रामसभा को बेच देते हैं। ग्रामसभा इन्हें व्यापारियों को बेचती है। पैसा गांव समाज सभा के खाते में जमा हो जाता है।

यहां एक सहज सवाल उठता है कि बांस की कटाई से जो 15-16 लाख रु. की अतिरिक्त राशि बची, गांव समाज सभा उसका क्या करती है। गांव के पास अपना बैंक खाता, पैन नंबर और टैन नंबर है। मेंढा की गांव समाज सभा बाक़ायदा सारे टैक्स चुकाती है। इसके बाद बचे पैसे का इस्तेमाल होता है। इस आंदोलन में मेंढावासियों के बेहद सक्रिय सहयोगी रहे सामाजिक कार्यकरता मोहन हीराबाई हमें समझाते हैं, ‘बाकी बचे पैसे का 50 फीसदी हिस्सा वन विकास के काम पर ही खर्च होता है। इसके बाद शेष पैसे का 50 फीसदी मेंढावासियों के स्वास्थ्य पर और 50 फीसदी उनकी शिक्षा पर खर्च होता है। इसके अलावा कुछ ऐसे जरूरी कामों पर भी खर्च हो सकता है। जिसके लिए सरकारी अनुदान नहीं मिलता है।

मेंढा ने एक और कदम आगे बढ़ाया है। अब वह अपना बांस बेचने के लिए ई-टेंडर की प्रक्रिया अपनाने जा रहा है। इससे पूरे देश में कहीं भी बांस का ख्वाहिशमंद व्यक्ति मेंढा से बांस खरीद सकता है। ग्रामसभा के खाते में जमा पैसे से गांववालों ने अपने बच्चों को प्रशिक्षण के लिए बाहर भी भेजा है। वे आधुनिक संस्थानों में वन संरक्षण की ट्रेनिंग ले रहे हैं। आदिवासी कल्याण की तमाम सरकारी योजनाएं हैं। लेकिन मेंढा के स्वावलंबन से उपजी सफलता के मुकाबले उनकी कहानी फीकी पड़ जाती है।

मेंढा की सफलता का सिर्फ आर्थिक पक्ष नहीं है। बांस तो पहले भी सरकार बेचती थी, पर उसमें जंगल की दुर्दशा हो जाती थी। पहले जंगल से बांस काटने का अधिकार पास ही की एक पेपर मिल के पास था। सरकार ने उसे यह अधिकार लीज पर दे रखा था। पेपरमिल वाले बांस की अंधाधुंध कटाई करते थे। औने-पौने दामों पर मिले बांस की परवाह मुनाफ़े के लिए काम करने वाली किसी पेपर मिल कंपनी को क्या होती। इसलिए वे बांस के साथ-साथ कच्ची कलगियां और जड़े तक काट ले जाते थे। नतीजा मेंढा के जंगलों के बड़े हिस्से से बांस की विलुप्ति के रूप में सामने आया। पर मेंढा ने बांस की कटाई में अपने पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल किया। आदिवासी जानते थे कि जिस जंगल पर वे निर्भर हैं उसे बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है। इसके लिए उन्हें किसी किताबी ज्ञान की जरूरत नहीं थी। यह काम उनके पुरखे पीढ़ियों से करते आए थे। एक कलगी से बांस के बनने और पकने तक की अवधि तीन साल होती है। मेंढावालों ने तय किया कि वे बांस को जड़ से नहीं काटेंगे, न ही नई कलगियों को काटेंगे, वे सिर्फ पके हुए बांस को काटेंगे, जड़ से दो फुट ऊपर से। इससे नई कलगियों को सहारा मिलता रहेगा और अगले तीन साल में वे फिर से नए बांस में तैयार होते जाएंगे। इस तरह से हर साल नवंबर महीने के अंत से मई महीने के बीच कभी भी गांववाले मिल-बैठकर बांस काट लेते हैं। खरीददार पहले से ही बयाना देकर कटाई का इंतजार करते रहते हैं। टीपी का संकट खत्म होने के बाद यह स्थिति बनी है।

मेंढा की इस जीत के कुछ अदृश्य पक्ष हैं, यह सामूहिकता की अवधारणा को फिर से परिभाषित कर रहा है। यहां कोई मालिक नहीं है। सबकी सहमति के बिना कोई फैसला गांव समाज सभा भी नहीं ले सकती। चौथी पास देवाजी कहते हैं, बहुमत से सारे फैसले नहीं हो सकते। बहुमत में फिर भी कुछ लोग नाराज़ छूट सकते हैं। हमारा विचार है सर्व सहमति से फैसला। एक भी व्यक्ति असंतुष्ट नहीं होना चाहिए, ये सारे लोग अनपढ़ हैं, लेकिन पता है कि जिन जंगलों पर इन्हें अधिकार मिला है उन्हें कैसे संजोना है। वरना विरोध करने वाले अभी भी कम नहीं हुए हैं। गढ़चिरोली की एक पहचान नक्सल प्रभावित इलाके के रूप में भी है। खबरें ये भी आई थीं कि नक्सलियों ने मेंढा के इस अधिकार का विरोध किया है और वे मेंढावालों को वनोपज पर अधिकार नहीं हासिल करने देंगे। लेकिन देवाजी स्पष्ट कहते हैं कि आज तक किसी भी नक्सली ने हमारा विरोध नहीं किया है। यह बात उन लोगों ने उड़ाई थी जो अब तक वन विभाग के साथ सांठ-गांठ करके हमारी वन संपदा की लूटमार करते थे।

देवाजी टोफामेंढा को बांस का अधिकार मिले तो अभी दो साल हुए हैं लेकिन इसकी नींव मेंढावासियों ने गांव समाज सभा के माध्यम से काफी पहले डाल दी थी। गांव समाज सभा का मूलमंत्र है – दिल्ली-बंबई में हमारी सरकार और हमारे गांव में हम ही सरकार जमाने से निस्तार का अधिकार नाम का एक कानून सरकारी फाइलों में धूल खा रहा था। 1956 में बना यह कानून वनों पर निर्भर समाज को अपने इस्तेमाल के लिए वनोपज के इस्तेमाल की छूट देता था। यह गौण और गैरगौण वनोपज दोनों पर लागू होता था। आज़ादी के पहले भी यह परंपरा के रूप में मान्य था। लेकिन वन विभाग के कुटिल रवैये के चलते लोग वनों से दूर होते गए, वनों से कुछ भी लेना अपराध घोषित था। ऐसा करने पर पुलिस कार्रवाई करती थी। 1987-88 में वृक्षमित्र संस्था के माध्यम से मेंढावालों को इस अधिकार की जानकारी मिली। अधिकार की एक शर्त यह थी कि यह व्यक्ति को नहीं बल्कि समुदाय को मिलता था। ऐसा समुदाय या गांव-समाज जो आम सहमति से अपने फैसले ले सकता हो और सामूहिक रूप से वनोपज का आपस में बँटवारा कर सकता हो।

मेंढा में सामूहिक निर्णय की परंपरा तो जमाने से थी लेकिन इसका कोई सांस्थानिक स्वरूप नहीं था। यहां से देवाजी के मन में गांव समाज सभा का विचार आया। वृक्षमित्र संस्था ने गांव समाज सभा खड़ा करने में सक्रिय सहयोग दिया। गांव समाज सभा के कुछ स्पष्ट और सब पर लागू होने वाले विधान हैं। इसके तहत जंगलों में पेड़ काटने की बंदिश है, सिर्फ पेड़ के उत्पाद ही इस्तेमाल में लिए जा सकते हैं। किसी भी पेड़ को जड़ से नहीं काटा जा सकता। किसी भी तरह के विवाद का निपटारा उसी तर्ज पर गांव समाज सभा द्वारा किया जाता है। जिस तर्ज पर जंगल के संसाधनों का बँटवारा। कोई गांव समाज सभा की अनुमति के बिना कोर्ट-कचहरी या पुलिस में नहीं जा सकता। यह सर्वसहमति की एक और मिसाल है। इस तरह से 1987 में शुरू मेंढा की गली सरकार 2011 में जंगल के पूरे अधिकार तक पहुंच गई है।

यह नारीवादी आंदोलनों का जमाना है। हमारी लोकसभाएं और विधानसभाएं अभी तक महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने को लेकर मगजमारी कर रही हैं। मेंढा उनके लिए भी आदर्श है। 84 घरों का गांव है मेंढा और लेखा। गांव समाज सभा का ढाँचा एकदम सीधा है। हर घर से एक महिला और एक पुरुष इस सभा का सदस्य होगा। आज मेंढा गांव समाज सभा में 84 महिलाएं और 82 पुरुष हैं।

मेंढा की इस सफलता पर अगल-बगल के साठ सत्तर दूसरे गाँवों ने भी करवट लेनी शुरू कर दी है। गली की यह सरकार भारत के बाकी साढ़े छह लाख गाँवों को भी कुछ तो सिखा ही सकती है। यह सुशासन का भी विकल्प है, स्वरोजगार का भी और स्वावलंबन का भी।

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