हम नदियों से या नदियाँ हमसे


भारत की लगभग सभी प्रमुख नदियाँ इसकी शिकार है। मौसमी छोटी नदियाँ तो कब की खत्म हो चुकी, बड़ी नदियों में भी पानी नहीं है। नर्मदा का जल-स्तर 2006 में 323 मीटर था जो लगातार नीचे गिर रहा है। बेतवा, केन, चंबल भी खतरे में है। बाँधों के कारण डाउन स्ट्रीम में पानी की कमी होती जा रही है। बाँधों के आस-पास 10-15 किमी नदी क्षेत्र में जलीय जीवन समाप्त हो रहा है। नदियों का स्वयं शुद्धीकरण तंत्र नष्ट हो रहा है। कम वर्षा में जमा अशुद्धियाँ और शहरों के ड्रेनेज का गंदा पानी भी अब स्वतः फ्लश नहीं होता।

नदियाँ, हमेशा पूरी धरती पर सभ्यताओं की पोषक रही हैं। नदियाँ खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक भी रही हैं। यकीनन ये जीवन रेखाएँ थीं। पर अब यही जीवन रेखाएँ या तो विलीन हो रही हैं या गंभीर संकट से जूझ रही है। हमारी संस्कृति में नदियाँ वंदनीय रही हैं। उनकी पूजा हमारी परम्परा है। धरती पर गंगा के अवतरण की कथा युगों-युगों से हमें प्रेरित करती रही हैं और आगे भी भारत की पीढ़ियों को रोमांचित करती रहेंगी। नदियों के बारे में ठीक ही कहा है कि नदी और संत के उद्गम को नहीं पूछना चाहिए, क्योंकि दोनों ही कल्याणकारी होते हैं।

कावेरी नदी के उद्गम का उल्लेख पौराणिक आख्यानों में मिलता है। वह ऋषि अगस्त्य के कमंडल से निकली थीं। चोल साम्राज्य में कला, संगीत और साहित्य की ऊँची परम्पराएँ कावेरी के तटों पर फली और फूलीं। कावेरी के तट पर ही तंजावुर और मैसूर में कर्नाटक संगीत का उद्भव और विकास हुआ। त्यागराज, श्यामा शास्त्री, मुथुस्वामी जैसे महान लोगों द्वारा उत्कृष्ट परम्पराओं का जन्म हुआ। बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले कावेरी तटों पर ही मंदिरों, शिल्पों और संस्कारों की महान परम्पराओं का सृजन हुआ और संरक्षण मिला। मिस्र की महान सभ्यता शायद हमारे सामने इस रूप में न होती, यदि इथोपिया की ताना झील और दक्षिण मिस्र की विक्टोरिया झील के पानी को मिश्र की नील नदी को हिमालय की संकरी कंदराओं से होकर आने से रोक देता? निःसंदेह देश के उत्तर-पूर्वी भाग की शक्ल यह नहीं होती।

भारत ही क्यों, विश्व के अनेक भागों में नदियाँ सभ्यताओं की संरक्षक रही हैं। किसी भी देश के विकास में नदियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सतही जल की विशाल चलती-फिरती जलराशि ये नदियाँ अपने किनारे बसी आबादी, बस्तियों की सुरक्षा, सम्पन्नता और खुशहाली का भरोसा दिलाती है। एक संरक्षित सदानीरा नदी हमेशा जीवनदायिनी होती है। जहाँ भी जीवन में चमक, उत्साह और गति होगी, समझिए आस-पास नदी व्यवस्था होती है। जो वहाँ के भूगोल, भौगोलिक रचनाओं और परिवर्तन के साथ आस-पास के जीवन और पारिस्थितिक तंत्र पर टिकी रहती है। कोई भी परिवर्तन या प्राकृतिक व्यवस्था से छेड़-छाड़ नए संकट पैदा करती है। वर्तमान दौर के विकास ने भी इसी तरह के संकट पैदा किए हैं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भी दुनिया में पानी की स्थिति को बहुत गम्भीर माना है।

एशिया और अमेरिका के घनी आबादीवाले क्षेत्रों में होकर बहने वाली नदियों पर दुनिया की एक तिहाई आबादी जीविका और पेयजल के लिये, निर्भर हैं। 1999 तक 31 देशों के 45 करोड़ लोग पानी को तरसते थे, जल व्यवस्थाओं के प्रति लापरवाह रवैया 2035 तक 43 देशों की एक अरब आबादी के लिये नई मुसीबत बनकर आएगा। 2025 तक भारत सहित 48 देशों में पीने योग्य पानी नहीं होगा। पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता जो 1950 में 6008 घनमीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष थी, अब घटकर 1200-1400 घनमीटर नीचे जा चुकी है। यह क्रिटिकल स्थिति का संकेत है।

गंगा सिंचाई हेतु अतिदोहन के साथ-साथ भीषण प्रदूषण की भी शिकार है, वहीं दूसरी ओर अन्य नदियों पर जलवायु के खतरे हैं। आज गंगा और सिंध सर्वाधिक दस खतरे में पड़ी नदियों में शामिल हैं। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में इन नदियों के किनारे बसी आबादी पर अब आजीविका के संकट बढ़ रहे हैं। गंगा के पानी का 40 प्रतिशत भाग हिमालय के उद्गम पर स्थित ग्लेशियरों के पिघलने से मिलता है, शेष 60 प्रतिशत जल सहायक नदियों सहित अन्य स्रोतों से मिलता है। सूखे मौसम में भी गंगा का बहाव ग्लेशियरों के पिघलने से ही रहता है। मौसम में बदलाव और तापक्रम में वृद्धि के कारण अब ग्लेश्यर तेजी से पिघल रहे हैं। आज इन ग्लेशियरों के पिघलने की दर 21 मीटर प्रतिवर्ष हो चुकी है। खतरा तो यह भी है कि कुछ वर्षों बाद संभव है, गंगा समुद्र तक ही न पहुँचे। कारण साफ है जल का बेइंतहा दोहन और खौफनाक प्रदूषण। गंगा और अन्य बड़ी नदियों के किनारे बसे नगरों का करोड़ों लीटर सीवेज और औद्योगिक कचरे का इन नदियों में मिलना हालात को बिगाड़ रहे हैं। गर्मियों में ग्लेशियर के तेज गति से पिघलने से जल का प्रवाह तो रहेगा, पर प्रश्न है, कब तक? यदि यही हालत रही तो ये नदी रूपी जीवनरेखाएँ विलीन न हो जाएँ?

गंगा जैसी नदियों का 60 प्रतिशत हिस्सा व्यापक स्तर पर सिंचाई के लिये डाइवर्ट हो रहा है। सतही जल तेजी से घट रहा है, भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ रही है। उद्योगों और कर्मकांडों में होने वाले प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता भी समाप्त हो रही है। इसका सीधा असर कृषि, पशुधन और मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। जल जनित बीमारियों से प्रतिवर्ष एक लाख से अधिक मौतें इसका सबूत हैं। गंगा में मौजूद जलीय जीवन नष्ट होने की कगार पर है। एक ओर यदि नदियों पर प्रदूषण की मार है तो दूसरी ओर शहरीकरण, अतिक्रमण, भूक्षरण जंगलों के विनाश से नई समस्याएँ उपजी हैं। नदियाँ भारी मात्रा में कचरा और सिल्ट पटने से उथली हो चुकी है, नतीजा वे पानी संजोने में नाकाम साबित हो रही है। थोड़ी वर्षा में बाढ़ और अवर्षा की स्थिति में सूखा अब आम बात है। देशभर में आने वाले सूखे और बाढ़ इसके जीवंत प्रमाण है। गंगा में 109 प्रकार की मछलियाँ एवं अन्य जलीय जीव अपने विनाश की कगार पर हैं। हिल्सा, पंधास, बाछा, धारी और सोल जैसी अनेक मछलियों की प्रजातियाँ खतरे में है। नदियों में बढ़ता प्रदूषण और घटता पानी इसका मुख्य कारण है। सुंदरवन डेल्टा में प्रवेश करने के बाद गंगा का 90 प्रतिशत पानी निकाल लिया जाता है। सिंधु नदी पर आसन्न खतरा मौसम परिवर्तन से कहीं ज्यादा है।

नदियों की दुर्दशा के लिये हम स्वयं जिम्मेदार हैं। यह आधुनिक विकास के जरिए समूची प्राकृतिक प्रणालियों के तहस-नहस का परिणाम है कि ज्यादातर नदियाँ खतरे में हैं। गंगा का उद्गम पिछले दस वर्षों में 2000 मीटर पिघलकर सिकुड़ रहा है। समूची धरती पर ग्लोबल वॉर्मिंग और मौसम बदलाव के असर गंगोत्री के पास ढाबों पर गहमागहमी और मौजमस्ती के लिये जमा होती भीड़ ठीक नहीं। उद्गम से 400 मीटर के दायरे में जलती भट्टियाँ, हजारों लीटर ईंधन का फूँका जाना, धुआँ, गरमी, हिमखंडों को तेज गति से पिघलाने के लिये काफी है। गोमुख वास्तव में इन सभी क्रियाकलापों से मुक्त होना चाहिए।

चौखम्भा का पच्चीस किमी लम्बा क्षेत्र है। हिमालय की चौखम्भा समूह की चोटियों से जुड़े हिमनद विश्व के सबसे बड़े हिमनद हैं। 7143 मीटर की ऊँचाई से ये हिमनद शुरू होते हैं और चौखम्भा से गोमुख के नुकीले छोर पर समाप्त होते हैं। ये छोर 4000 मीटर की ऊँचाई पर हैं। यहीं भागीरथी नदी हिमनद के नथुने से निकलती है और यही देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर गंगा का निर्माण करती हैं। भागीरथी गंगा का प्रमुख स्रोत हैं, किंतु जलभराव के निगरानी और डाटा संग्रहण के लिये काम जारी है। हिमनदों पर अंतरराष्ट्रीय आयोग द्वारा अध्ययन में चीन, भारत, पाकिस्तान, नेपाल और अफगानिस्तान के वैज्ञानिक शामिल हैं। उद्गम से लेकर समुद्र तक पहुँचने की नदी यात्राएँ गम्भीर निगरानी और तत्काल सुधार चाहती हैं। इस बात की संभावनाएँ लगातार बढ़ रही हैं कि ये नदियाँ बद से बदतर होंगी। छोटी और मौसमी नदियाँ तो लगभग समाप्त सी हैं, बड़ी नदियों पर आबादी, शहरीकरण उद्योग और भीषण प्रदूषण का दबाव ऐसे ही रहा तो इनके भी बहुत दिन नहीं बचे दिखते।

नदी के विनाश से, पर्यावरण विनाश के साथ सभ्यता और संस्कृति का विनाश होता है। यह गम्भीर सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य समस्याओं के साथ भारी उथल-पुथल का कारण भी बनता है। नदियों के किनारे बसाहट और शहरीकरण रुके। शहरों द्वारा नदियों में सभी तरह के विसर्जन तत्काल बंद हों। नदियों के घोर प्रदूषण से जलहानि बढ़ी है। फार्म हाउस उत्पादों की गुणवत्ता घटी है। आज इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि प्रदूषित पानी को स्वच्छ करने के सस्ते तरीके ढूँढ़े जाएँ। कम लागत की तकनीक विकसित हो। पानी रिसाइकिल होकर पुनः उपयोग लायक बन सके। कचरे के उपयोग भी खोजे जाए। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, नर्मदा के साथ प्रमुख नदियों में प्रदूषण रोककर उनकी सुरक्षा की जाए। गंगा और दूसरी नदियों के एक्शन प्लान का रिव्यू कर राष्ट्रीय नदी संरक्षण को नए सिरे से तैयार किया जाए।

नदियाँ, सिंचाई योजनाओं से जुड़ी हैं पर क्या इन नदियों का सिंचाई हेतु समुचित उपयोग हो पाता है। ‘मोर क्रॉप पर ड्रॉप’ की नीति तस्वीर बदल सकती है। नदी व्यवस्था हजारों साल में बनती है। यह एक कुदरती व्यवस्था है। जरूरी है कि जब भी जल समस्याओं के तर्कपूर्ण हल ढूँढ़े जाएँ तब स्थानीय कारकों को अवश्य ध्यान में रखा जाए। किसी नगर की खुशहाली, विकास और समग्र स्वास्थ्य नदी (जिसके किनारे वह बसा है) से ही होती है। नदियों की दुर्दशा है, सो शहरों और उसके किनारे आबाद बस्तियों का भविष्य आँकना कठिन नहीं। अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी वे जस की तस हैं। पर्याप्त पानी न होने से गंदगी स्वतः फ्लश नहीं हो पाती। केवल मानसूनी बहाव से ही फ्लश होती है। ऐसे में यदि मानसून धोखा दे जाए तब क्या होगा?

समूची दुनिया के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में कहीं वर्षा, कहीं घनघोर वर्षा, अब बदल चुके मौसम चक्र के रूप में सामने है। हम प्रकृति और उसकी व्यवस्थाओं को बिगाड़कर भला क्या पाएँगे? हमारी कोई तैयारी प्रकृति के साथ नहीं है। नतीजे के रूप में कभी प्रलयंकारी बाढ़ तो कहीं सूखा आना तय है। हम हैं, क्योंकि धरती पर पानी है, तो जीवन की सम्भावनाएँ भी दिखती हैं। हमें चाहिए कि अब प्रकृति की विविधताओं के अनुरूप हल ढूँढ़े जाएँ। गलतियों से सीखें। नदियाँ हों या भूमिगत जल, उपयोग के पहले सतर्कता और प्रत्येक सम्भावित खतरे का अध्ययन और आकलन जरूरी है। यूनीसेफ ने पहले हैंडपम्पों को प्रोत्साहन दिया, बाद में इसे बड़ी भूल माना। गंगा-यमुना की सफाई पर 2000 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, पर हालात नहीं सुधरे। पिछले बीस वर्षों में प्रदूषण और अधिक बढ़ा है। सरकार भी मानती है कि अब सफाई के लिये नए सिरे से प्रयास हों। गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी के साथ बेसिन मैनेजमेंट प्लान हेतु नया काम शुरू करने की योजना है।

मध्य प्रदेश की बात हो और नदियों की बात हो तो नर्मदा की बात होना लाजिमी है। नर्मदा नदी पर अनेक अध्ययनों के नतीजे चौंकाने और चिंता में डालने वाले हैं। नर्मदा के लगातार प्रवाह में ठहराव आ रहा है। कठोरता के साथ प्रदूषण बढ़ रहा है। इसके जल का पी.एच. कुछ स्थानों पर नौ से ऊपर हो चुका है। वहीं क्षारीयता 400 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है। घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा घट रही है। अन्य नदियों की तरह इसमें भी बड़ी मात्रा में सीवेज और फैक्ट्रियों के अवशिष्ट मिलकर इसे जहरीला बना रहे हैं। इसका जलीय जीवन खतरे में हैं। कई जलीय जीव लुप्त हो चुके हैं। शेष पर खतरे बढ़े हैं। इन जीवों द्वारा पानी के प्राकृतिक शुद्धीकरण में बड़ी भूमिका होती है। मछलियों की 146 प्रजातियों में 106 बची हैं। नदियों के पारिस्थितिकी व्यवस्था तथा संतुलन के खतरे बढ़े हैं। नर्मदा पर बँधे बाँधों द्वारा बिजली और सिंचाई के जरिए विकास की बातें होती हैं पर नदी के मूल अस्तित्व और प्राकृतिक स्वरूप में बिगाड़ से उपजे दुष्परिणामों पर भी चिंता और अध्ययन होना चाहिए। नर्मदा का पौराणिक महत्त्व है, नर्मदा पर सैकड़ों जनश्रुतियों, किंवदंतियों और लोककथाएँ प्रचलित हैं। गंगा, यमुना के साथ नर्मदा हमेशा वंदनीय रही है। अमरकंटक में मैकाल पर्वत के उद्गम से लेकर अरब सागर में सम्भात की खाड़ी तक की यात्रा में यह 41 नदियों के साथ मिलकर प्रवाहित होती है। मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से बहते हुए इसकी यात्रा पूरी होती है। इसके तट निःसंदेह सुंदर हैं। इसके किनारे जंगल, पहाड़, प्राचीन दर्शनीय स्थल, धार्मिक स्थल मनोहारी हैं। यह सबसे अलग पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।

कुल मिलाकर नदियाँ घोर संकट में हैं। कटते जंगल, घटती बारिश, अतिक्रमण और तेजी से बन रहे बाँधों ने हालात बिगाड़े हैं। नदियों का कैचमेन्ट क्षेत्र घट रहा है। जल-स्तर नीचे गिर रहा है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर की 227 बड़ी नदियों में से 136 नदियों में पानी का बहाव थम रहा है। इसका मुख्य कारण इन नदियों पर बनने वाले बड़े-बड़े बाँध तथा दूसरे निर्माण हैं। नदियों के बहाव में चिंतनीय गिरावट का कारण बहाव मार्ग में भारी मात्रा में गाद का पटाव तथा ढेरों गतिविधियाँ हैं। इससे पानी की गुणवत्ता घटने के साथ नदियों का इकोसिस्टम चौपट हो रहा है। भारत की लगभग सभी प्रमुख नदियाँ इसकी शिकार है। मौसमी छोटी नदियाँ तो कब की खत्म हो चुकी, बड़ी नदियों में भी पानी नहीं है। नर्मदा का जल-स्तर 2006 में 323 मीटर था जो लगातार नीचे गिर रहा है। बेतवा, केन, चंबल भी खतरे में है। बाँधों के कारण डाउन स्ट्रीम में पानी की कमी होती जा रही है। बाँधों के आस-पास 10-15 किमी नदी क्षेत्र में जलीय जीवन समाप्त हो रहा है। नदियों का स्वयं शुद्धीकरण तंत्र नष्ट हो रहा है। कम वर्षा में जमा अशुद्धियाँ और शहरों के ड्रेनेज का गंदा पानी भी अब स्वतः फ्लश नहीं होता।

नदियाँ कचराघर तो नहीं। सबके साझा प्रयास उनको जीवन और सुरक्षा दे सकते हैं। लंदन की टेम्स और वाडले अगर जी सकती हैं, तो भारत की नदियाँ भी बचाई जा सकती हैं। नदियों का भी एक इकोसिस्टम होता है। बहाव के बिना नदी मर जाती है। हमारी नदियाँ भी जलभराव और बहाव के बिना मर रही हैं। जल का सतत प्रवाह नदी में ऑक्सीजन बनाए रखता है। यदि नदी जीवित रही तो वह आबाद बस्तियों को भी जीवन देगी। सुरक्षित भविष्य की आशा जिंदा रखेगी।

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