बाहर सलेटी अंधेरे का कम्बल सुबह का उजाला सरका रहा था। ठण्ड बहुत थी।15,000 फीट में सुबह कैसी होती है-एहसास हो रहा था। हाथों की उंगलियाँ नीली पड़ रहीं थीं। दस्ताने थे नहीं। साँस भारी तकलीफ दे रही थी। ठण्ड ऊँचाई, विरल हवा में यह स्वाभाविक था। दवाई का एक कोर्स स्लीपिंग बैग छोड़ने से पहले ही ले लिया। अंधेरे में ही छोटा कैलास की ओर चल पड़े। रास्ता सिनला की ओर ही था। मैं वहाँ चल रहा था जहाँ रास्ता होेने के चिन्ह थे। शेखर ऊपर टीलों से चढ़ना उतरता जा रहा था। गजब का स्टेमिना।
गुंजी से दो रास्ते हैं। एक कैलास पथ, दूसरा हमारे अभीष्ट ज्योलिंगकांग का। रात तय हुआ कि यहाँ तक आए तो एक तुरत-फुरत की विजिट काला पानी तक हो और भट्ट जी साथ चलेंगे। सुबह उठे। सीपाल के माथे पर धूप लिपटी थी। नित्य कर्मों के बाद जोशी जी की बनाई सूजी चाय पर पिल पड़े। फिर चले काली पानी के लिए।गुंजी का विस्तृत मैदान पार किया। कभी मेले की गहमागहमी में मस्त रहने वाला मैदान त्रस्त पड़ा था। एक कोने में मन्दिर था। कुछ शिलाएँ थीं। बताया कि ये शिव शिलाएँ हैं। उनके चारों ओर डिब्बे पड़े थे। ये नाग-नागिन के दूध के लिए हैं। यहाँ नाग-नागिन का जोड़ा है। वो कभी-कभी दिखाई देता है शिवजी के दूत हैं भट्ट जी ने जोड़ा। कभी देखे आपने वो नाग? मैंने पूछा। बाहर निकले तो नहीं पर शिला की दरारों में टार्च की रोशनी डाल कर दर्शन किए हैं वे बोले। हमने दरारों में ताक-झांक की, कुछ नहीं दिखा।
कालापानी का रास्ता काली नदी के किनारे-किनारे हल्की चढ़ाई लिए है। तीन किमी. बाद रास्ता काली के पार। पुल की जगह मात्र दो लट्ठे, नीचे हरहराती काली। हाल की बारिश ने काली के सब पुलों को बहा दिया था। अब ये काम चलाऊ पुल बनाए गए थे।
हाथ पैरों के सहारे चलकर पुल पार किया गया। चन्द्रू ही इतना साहसी और सन्तुलित था कि उसने पुल खड़े-खड़े पार कर लिया। कुछ दूर चले कि पुनः इसी तरह के लट्ठों से पुल पार कर नदी के बाएँ किनारे आ गए। रास्ता सख्त चट्टानों को कुरेद-कुरेद कर बना था साढ़े ग्यारह के आस-पास कालापानी पहुँचे।
पहले कभी प्रतीक मन्दिर रहा होगा। अब फौजियों ने काली का सुन्दर छोटा सा मन्दिर बना दिया है वहाँ जहाँ काली का स्रोत माना जाता है। मन्दिर दो हिस्सों में है एक काली का, एक शिव का। मन्दिर के बाहर पानी का कुंड भी बना दिया गया है।
जितना पानी काली के स्रोत में था उससे कई ज्यादा पानी सीमा से श्यांगचुंग नदी ला रही थी। वहीं पर मिले एक श्रद्धालु सिपाही ने बताया कि काली की दो धाराएँ हैं। एक नेपाल दूसरी भारत में। ये धाराएँ छः-छः महीने के लिए बारी-बारी से नदी का स्रोत बनता है। काला पानी में भी कुमंविनी की कैलास यात्रा का पड़ाव है। वहीं भोजन का इन्तजाम हुआ।
नदी के बाई तरफ चट्टान खड़ी है। एक श्रृंग विचित्र आकृति लिए था। मानो उंगली उठाए किसी को ताकीद दे रहा हो। नेपाल वाले पहाड़ में जूनीपर की झाड़ियाँ थीं। चटक धूप ने बहुत गर्मी कर दी थी। भातिसीपु व एसपीएफ के लोगों से बातचीत कर हम वापस आए। लौटते वक्त मैं भी चन्द्रू की तरह ही खड़े-खड़े पुल पार करता हूँ। पुल मरम्मत करने वाले कुली कहते हैं बहुत हिम्मती हैं आप साहब मैं अकड़कर फूल गया था डर से कांप रहीं टाँगों को संयत करनेे का प्रयास करने लगा।
वापसी के नौ किमी. हमने सवा घण्टे में तय किए। गुंजी मैदान में साँपो को देखने रुके। मैंने शिला में चढ़कर दरार में झाँकने का प्रयास किया। कुछ दिखा नहीं। तभी बगल में कुछ रेंगा। ऊपर देखा, दो साँप जल्दी-जल्दी दरार में घुस रहे थे। मेरा हृदय धक रह गया। बहुत इन्तजार किया सर्प बाहर नहीं निकले।
गुंजी कैम्प में पहुँचे। वहीं लोकल इंटैलीजैंस के सज्जन मिले। उन्हें पता चला था कि कुछ सरदार इस तरफ आए हैं। सो वे दौड़े-दौड़े आए। मुझे सर में साफा बँधा होने की वजह से सरदार समझ लिया गया था। पंजाब में आतंकवाद जोर पकड़ रहा था, सावधानी स्वाभाविक थी। परिचय के बाद जब उन्हें पता चला कि हम सिनला अभियान पर हैं तो उन्होंने मिर्च-आम के अचार को साथ रखने की सलाह दी। इसी से भूख लगेगी तथा तबीयत ठीक रहेगी। बड़े काम की सलाह निकली ये।
हम भारत तिब्बत सीमा पुलिस के कैम्प की ओर जानकारी लेने पहुँचे। रास्ते में ही डिप्टी कमांडेंट हासिम व डॉ. यदुवंशी मिल गए। उन्हें हमारे अभियान की जानकारी थी। वे दोनों छोटा कैलास व पार्वती ताल गए हैं। उन्होने सलाह दी कि सुबह चल के ही वहाँ पहुँचना। तब ही ताल शान्त मिलेगा तथा कैलास का प्रतिबिम्ब दिखेगी। बाद में हवा चलने से ये सम्भव नहीं होगा।
थोड़ा घमे। गाँव में एक भेड़ की कमर में कपड़ा बाँधकर घुमाया जा रहा था। मृतक के पिण्डदान पर श्राद्ध जैसी कोई परम्परार है। कपड़ा बाद में लोहार को दे दिया जाएगा। ये प्रथा ढोरिंग कहलाती है।
हम सुबह उठे जल्दी। चौकीदार को बता हम एक मास्साब के यहाँ पहुँचे। उनसे कल शाम मुलाकात हुई थी तथा चाय के लिए बुलाया था उन्होंने। चाय पीकर निकले। ढोरिंग वाला भेड़ इस वक्त अकेला बैठा पत्ते चाब रहा था।
सुबह की धूप में नपल्च्यू गाँव शिखर व ग्लेशियर के घुटनों में बैठा चमक रहा था। गाँव के ऊपर भोजपत्र का विशाल जंगल है। बगल में ही नवज्यूंगधारा कुटीयांग्ती में मिलती है। नदी के दाएँ किनारे-किनारे हम कुटी के लिए रवाना हुए जूनीपर के जंगल के बीच से रास्ता। लगभग पन्द्रह मिनट में नाबी पहुँचे। नदी पार ही दूसरा गाँव था रांगकांग। नाबी के पृष्ठ में एक कूबड़ की तरह उभरा हुआ पहाड़ । शिवबेगा कहते हैं इस पहाड़ को। किवदन्ती है कि चालीस करोड़ देवताओं द्वारा लगाया गया पत्थरों का ढेर है ये। खेतों में लम्बी-लम्बी शिलाएँ गाड़ी गयी थीं। इन्हें कुरैला कहते हैं। कुछ को छितम। ये लामाओं द्वारा खेत की शुद्धि के लिए अभिमंत्रित होती हैं। मकानों में झण्डे, बौद्ध धर्म के अवशेष। खूबसूरत खेतों से घिरे नाबी गाँव में शिवबेगा पर्वत से एक झरना भी उतरता है। नपल्च्यू से यहाँ आए शिक्षक खाती जी मिले। मुलाकात के बाद ही नाश्ते की फरमाइश हमने रख दी।
नाबी में भी गर्ब्यांग की तरह लकड़ी की कारीगरी थी। एक नक्काशीदार खिड़की पर बाहरसिंगा के सींग बहुत खूबसूरती से लगाए हुए थे। नाबी 100 परिवारों का गाँव है पर लगभग 5 परिार ही नियमित रूप से गर्मियों में यहाँ लौटते हैं। कारण?
उत्तर बहुत थे। कूंचा (पूरा घर गृहस्थी का सामान) लाने का खर्चा बढ़ गया है। साधारण परिवार ये खर्चा बर्दाश्त नहीं कर सकते। जो लोग रिजर्वेशन से साहब बन गए, वे वापस आने में बेइज्जती समझते हैं। धारचूला या मैदान में पढ़े नए लड़कों का गाँवों से मोह नहीं। वगैरह-वगैरह।
बातचीत पर पूर्व प्रधान कहते हैं कि संस्कृति तो गरीब लोगों से ही बची है।… कैलास यात्रियों को देखकर अपने दिन याद आते हैं। बुझी आँखों में चमक लाकर एक वृद्ध रणवीर सिंह जी बोले कि वे पहले सर्दियों में धूप सेंकने मालिपा जाते तथा उड़यारों में रहते थे। वहीं से वापस आते थे मालिपा माने वापसी। बड़ा मेला रहता था। छोलिया व छिया गीत गाए जाते। अब यहाँ वो बात। न लोग न कर्चि। उदासी थी स्वर में। एक अन्य बुजुर्ग बताते हैं कि कैलास गरीब आदमी का तीर्थ था। आज समीकरम उलट है। कैलास का आज भी इतना मोह कि अगर कोई आज कहे तकलाकोट चलो, हमारा सामान घोड़े लेकर तो बिना पैस चल देंगे। गुंजी से तिब्बती मंडी तकलाकोट मात्र 26 मील है।
कुछ महिलाएँ दन बना रहीं थी। 20 दिन में दन बनता है। दन बनाने की कला कई पीढ़ी पहले भादू नब्याल कहीं से लेकर आया था। उसी की मेहनत है कि आज ये इलाका दन की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। स्नेह सिक्त विदाई के बाद हम कुटी के लिए रवाना हुए। आगे नदी का पाट चौड़ा हो गया था। यहाँ नदी गम्भीर हो गई थी। सीपाल पर्वत जंगल नदी का चौड़ा पाट तथा अलसायी नदी सब मिलकर बेहद सुन्दर लैण्डस्केप बना रहे थे।
हमें बताया गया था कि नौंवे किमी. पर गैंग हट मिलेगा। हमें मिला पर बहुत परेशान करने के बाद। वहाँ पर कुटी से आ रही वृद्धा व उसकी दो युवा नातिनें मिलीं। गैंग हट में दरवाजा खुला था। बर्तन रखे थे। कोई भी आए इस्तेमाल करे। सतयुग का माहौल। हमने मैगी नूडल्स बनाए।
गैंग हट के बगल में ही नाफा ग्लेशियर से आने वाली नाफा गाड़ थी। ढाई बजे हम कुटी की तरफ बढ़े। रास्ता थोड़ा संकरा था। कहीं पर ग्लेशियरों की बर्फ थी। लगभग तीन किमी. पहले से ही कुटी दिखने लगा। मानो अभी पहुँचे पर लगे पूरे दो घण्टे। कुटी से पूर्व ही एक बुग्याल लेटा हुआ मिला। विस्तृत बुग्याल में हजारों पुष्प अधखिले खड़े थे इन्तजार में कि अगस्त आते ही खिलखिला उठेंगे। अभी तो जुलाई में दबी मुस्कान ही दिख रही थी।
बाईं तरफ शाम की नारंगी धूप में एक हिमशिखर हमें ताक रहा था। नाम पता नहीं। बुग्याल के दाहिनी तरफ पुरानी ताँबे तथा नमक की खान के अवशेष हैं। थोड़ा आगे एक टीला, जिस पर मन्दिर है कुन्ती किला कहलाता है। पाण्डवों ने स्वर्गारोहण से पूर्व अन्तिम विश्राम यहीं किया, ऐसा मानते हैं स्थानीय लोग।
गाँव में हमारा स्वादत बच्चों ने घेर कर किया। लक्ष्मण के दीदी-जीजाजी यहीं रहते हैं। उनसे मिले चाय पी। फिर हम भातिसीपु कैम्प गए, वॉलीबॉल खेल रहे गुसाईं जी से मुलाकात हुई। गुसाईं जी ने हमारा रहने का प्रबन्ध कर दिया। पैर धोने के लिए नमक पानी गर्म कर दिया। गुसाईं जी को पिछले साल राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अब वे लेह जाने वाले थे।
यह इलाका भी अस्थिर ही है। बगल के स्पेशल पुलिस फोर्स के स्थाई लोहे टिन के बने शिविर को ग्लेशियर ने कागज की तरह तोड़-मरोड़ दिया है। वहाँ पर सरिया गर्डर ऐसे पड़े हैं मानो बच्चे ने धागे उलझा दिए हों। ये थी ग्लेशियर की शक्ति पर कमेंटरी व उनके रास्ते में आने का नतीजा।
इलाके के गाँवों की तरह ही कुटी की भी तस्वीर है- ढहता हुआ गाँव। नए मकान नहीं बन रहे। पुराने मरम्मत के मोहताज। खेतों में आलू होता है पर खपत के लिए बाजार नहीं। धारचूला तक ढोने पर इतना किराया कि आलू बिकें नहीं। शान्ति देवी कुटयाल से मुलाकात हुई। शान्ति दी हर साल कुटी आती हैं धारचूला से। उनका सपना है कि ज्योलिंगकांग यानी छोटा कैलास प्रसिद्ध तीर्थ बन जाए उनकी जिन्दगी में ही। उन्होंने महिलाओं को संगठित कर वहाँ एक छोटा सा मन्दिर बनवा दिया है। सर पर पत्थर सामान ढोकर। अब धर्मशाला बनाएगी। नाश्ते में तिब्बती ज्या (चाय) के साथ बात होती है। शान्ति दी के ससुर गोपाल कुटियाल बड़े व्यापारी थे। कुटी वाले तिब्बत के साथ विकरच्यू मंडी से व्यापार करते थे व्हीलसा, रारब व जमाती पड़ाव होते हुए।
गाँव में कुल एक सौ पन्द्रह परिवार, कुल सैंतालीस ही इस बार आए हैं और इन परिवारों के भी एक दो सदस्य ही आए हैं। मकानों को ‘हवा-पानी’ दिखाने। नाश्ता भातिसीपु के शिविर से कर आए थे। शान्ति दी ने रास्ते के लिए रोटियाँ बाँध दी। लक्ष्मण के जीजा जी ने उबले अण्डे दिए। जाने को हुए तो शान्ति दी ने कहा कि उसके झप्पू आज ज्योलिंगकांग जा रहे हैं रास्ता बता देंगे।
झप्पू, याक तथा गाय के संकरम से पैदा होता है। वरदान है इस इलाके के लिए। एक झप्पू एक क्विंटल तक वजन ढो लेता है।16-17000 फीट से ऊपर तक संकरे बर्फीले रास्तों में आसाम से चलता है। इसकी एक खासियत ये है कि ये ग्लेशियरों या बर्फ के रास्तों में सूंघकर (?) छिपी दरारों को भांप लेता है तथा रास्ता बदलता है। बेहतर मार्गदर्शक है ये। मादा झप्पू दूध भी देती है। पर झप्पू बच्चे पैदा नहीं कर सकते। इसके लिए मादा झप्पू का याक से ही योग कराना होता है। कुटी गाँव वालों ने एक सामूहिक याक खरीदा हुआ है।
सूबेदार साहब से विदाई ले हम शान्ति दी की झप्पू पल्टन के पीछे लग लिए। कुटी से आगे का रास्ता दुर्गम था। कहीं तो रास्ता ही कुटीयांग्ती ने बहाया हुआ था, कहीं ग्लेशियरों से ढका था। करीब चार-पाँच किमी. के बाद लकड़ी के पुल को पार कर हम नदी के दाहिनी या अपने बाईं ओर आ गए। चढ़ाई शुरू हुई तथा सफेद बुरांश के दर्शन हुए। यहाँ जुलाई में भी फूल खिले हुए थे।
अगली चढ़ाई थी हुड़क्याधार की। चढ़ाई से थके, हिम्मत टूटने से पहले ही एक बुग्याल ने हमसे सुस्ताने का आग्रह किया। पानी भी था, सब लेट गए। थकान से ध्यान हटाकर बाएँ देखा तो पाया कि छोटा कैलास दो पहाड़ों के कंधों के बीच से हमें देखकर मुस्करा रहा है। सम्मोहित होकर इसे देखने लगा। थकान जाने कहाँ रिस गयी। सामने दूर ज्योलिंगकांग के शिविर दिखने लगे। मंजिल सामने थी, पर समय काफी लगेगा पहुँचने में, यह भी ध्यान था। एक अन्य घोड़े वाला हमारे साथ चल रहा था। उसी से भूगोल पूछ रहे थे हम।
सुस्ता कर आगे बढ़े। एक अन्य मैदान मिला। घोड़े वाले ने बताया यही निकरच्यू का मैदान है। छोटी सी पानी की धारा भी थी इसमें। व्यापार के समय इस इलाके की यह महत्त्वपूर्ण मंडी व पड़ाव था। आज सिर्फ घोड़ों के चरने की जगह। पुराने अवशेष हैं। सामान रखने की चारदीवारी या क्रम से रखे पत्थर वगैरह। तब कितने उत्साह से रखे गए होंगे पर अब वीरानी है।
आगे बढ़े। पैरों की माँस-पेशियों में थकान ने जबर्दस्त घुसपैट कर ली है। कुटीयांग्ती के हम बगल में मगर उससे काफी ऊपर आ गए थे। पहाड़ों ने रंग बदल दिए थे। पेंटिंग्स के रंग। लगभग चार बजे हम ज्योलिंगकांग पहुँचे। भातिसीपु के दो-तीन लोग हमारे स्वागत में आए। उन्हें हमारे पहुँचने की सूचना थी। दुआ सलाम के बाद पहला सवाल सिनला दर्रे के बारे में। वे कहते हैं कि इस वर्ष बर्फ बहुत है। अभी किसी ने पार नहीं किया। वे हमारा उत्साह बढ़ाने के लिए कहते हैं, कोशिश करना।
हमें आराम करने के लिए एक स्नो टैंट दे दिया गया। चाय-नाश्ता आया। शिविर के सूबेदार साहब रैकी से कल तक आने वाले थे। तय किया कि कल छोटा कैलास देखने जाएँगे। फिर सिनला की सोचेंगे। अभी हम बात कर ही रहे थे कि बाहर बकरियों के आने का शोर हुआ। मैं बाहर आया तो एक सिपाही ने बताया कि ये बकरी वाले सिनला पार कर आए हैं। मैं दौड़कर टैंट के अन्दर गया तथा यह खुशखबरी सबको बताई। सभी लपक कर बाहर आए और बकरी वाले वृद्ध को घेर लिया। उनसे पता चला कि सिनला के रास्ते में अभी कमर-कमर तक बर्फ है।
क्या आप वापस भी सिनला से जाओगे? हमने पूछा। हाँ। सुनते ही हमारे दिल बल्लियों उछलने लगे पहली बार सिनला पार करने की सम्भावना दिखाई दे रही थी। उनसे पता चला कि दो-तीन दिन बाद जाएँगे वापस पर तब तक हम क्या करेंगे। यह समस्या हो गई थी। अब हमने वृद्ध जवाहर सिंह तथा उनके युवा साथी की अनुनय विनय की कि परसों चलों तो हम भी आपके साथ सिनला पार कर लेंगे। हमारी अनुनय विनय कातर आँखे देखकर उन्होंने कातिल मुस्काराहट के साथ हाँ कर दी। हमने तुरन्त जवाहर बुड़ज्यू की जय के नारे लगाए। पाँच बजे शाम सीटी सुनकर हम बाहर आए तो पता चला कि भातिसीपु तथा बगल के स्पेपुफो की टीमों के बीच वॉलीबॉल मैच है। हममें से शेेखर दोनों टीमों के साथ खेला तथा जिस बार जिस टीम से खेला उस टीम के हारने में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
स्पेपुफोर्स के सूबेदार जुयाल जी ने चाय पिलाई तथा अगली शाम खाने का निमंत्रण दिया। गानों का दौर चला। हिमालयी, हरियाणवी, पहाड़ी गाने गाए गए। हमने अपने क्रम में कोरस गायाः
हम होंगे सिनला पास एक दिन
हम होंगे कामयाब एक दिन
पिछले दिन से जुकाम तथा दमे के साथ सिरदर्द परेशान कर रहा था। सम्भवतः दवा की मात्रा बढ़ने की वजह से। देर रात टैंट में जमकर सोए।
5 जुलाई। पाँच बजे सुबह उठे। बाहर सलेटी अंधेरे का कम्बल सुबह का उजाला सरका रहा था। ठण्ड बहुत थी।15,000 फीट में सुबह कैसी होती है-एहसास हो रहा था। हाथों की उंगलियाँ नीली पड़ रहीं थीं। दस्ताने थे नहीं। साँस भारी तकलीफ दे रही थी। ठण्ड ऊँचाई, विरल हवा में यह स्वाभाविक था। दवाई का एक कोर्स स्लीपिंग बैग छोड़ने से पहले ही ले लिया। अंधेरे में ही छोटा कैलास की ओर चल पड़े। रास्ता सिनला की ओर ही था। मैं वहाँ चल रहा था जहाँ रास्ता होेने के चिन्ह थे। शेखर ऊपर टीलों से चढ़ना उतरता जा रहा था। गजब का स्टेमिना।
शिखरों पर धूप पैर जमाने लगी थी। हवा शान्त थी। तुरन्त पार्वतीताल पहुँचना चाहते थे ताकि कैलास को उसमें निहार सकें। रास्ते में ज्यादा दुरूहता नहीं थी। कुटीयांग्ती के किनारे-किनारे। एक छोटी नदी पार की और ऊपर आया तो एक मन्दिर शिखर का सिल्यूट दिखाई दिया। शेखर को उस नदी को पार करने की जगह नहीं मिली तो उसे नीचे उतरना पड़ा।
छः बजकर दो मिनट में मैं ताल के समीप पहुँचा। मन्दिर के बगल से एक झबरा भोटिया कुत्ता दौड़कर पूँछ हिलाता मेरे पास आया तथा मेरे सीने में पैर टिका कर खड़ा हो गया मानो उसे मेरा इन्तजार हो। कुत्ते को हटाकर चारों ओर देखता हूँ। अवर्णनीय था। सामने छोटा कैलास सुबह की धूप में तरोताजा खड़ा था। धूूप ने हिमशिखर को स्वर्णमंडित किया हुआ था। तस्वीरों में कैलास पर्वत जैसा लगता है, लगभग वैसा ही है। जिसने भी इसका नाम छोटा कैलास रखा, जाँच परख कर ही रखा। मानो कैलास के बचपन का फोटो हो। पास में ही पार्वतीताल लेटा हुआ था शान्त। दर्पण की भूमिका में पार्वतीताल कैलास को उसकी भव्यता प्रतिबिम्बित कर दिखा रहा था। आस-पास अन्य पर्वत इस दृश्य में खोए थे। मैंने जल्दी-जल्दी में कुछ फोटो उतारी-तभी शेखर भी पहुँचा।
अद्भुत यही पहला सम्बोधन था शेखर का। शेखर के पहुँचने के कुछ ही क्षणों बाद चन्द्रू, लक्ष्मण तथा ललित भी पहुँच गए। कैलास के बगल में बैंगनी व भूरे रंगों के कई शेड लिए चट्टानी पहाड़ थे। कैलास के बाएँ कंधे पर सिनला दर्रा पूरा बर्फ से ढका हुआ था। दाहिनी तरफ पृष्ठभूमि में तिब्बत के पहाड़ मैकमोहन रेखा के पार कतारबद्ध खड़े थे- फौजियों की तरह। सामने गहरे नीले भूरे रंग की कुटी की घाटी। हम सब के बीच मन्द-मन्द मुस्काता कैलास तथा नीचे गम्भीर पार्वतीताल। सारा वातावरण स्पंदित था। ये मेरा स्पंदन था। बिल्कुल मायावी संसार दृश्य से सारी यात्रा के दुख हरच गए।
हमारे पहुँचने के दस मिनट बाद ही हवा चलने लगी। पार्वती ताल का दर्पण टूट कर बिखर गया। ललित ने पुनः करामात दिखाई। साथ लाए सूजी चने प्रकट किए। ताल के नजदीक बैठकर खाए गए। हमें बताया गया था कि आस-पास छोटी झीलें हैं। मैं तथा शेखर उनकी खोज में निकले पर हमें कुछ झीलों के अवशेष ही मिले। पार्वतीताल को ऊपर से देखने पर लगा कि ये भी कभी बहुत बड़ा ताल रहा होगा। अब ग्लेशियर साद से भरने लगा है। चारों तरफ जितना घूम सकते थे घूमे। वापस आए तो देखा कि ललित, चन्द्रू के साथ भातिसीपु के सूबेदार साहब बैठे थे। वे रैकी में हैं। सुबह हमें जो कुत्ता मिला था इन्हीं के साथ था। सूबेदार साहब के साथ ही हम वापस ज्योलिंगकांग लौटे। साथियों ने खाना बनाया था। खाने के बाद कैरम के दौर चले। खुद तो हम गोटियाँ डाल नहीं सके पर बनी-बनाई गोटियाँ भी बिगाड़ते रहे।
शाम को जब हमने भातिसीपु के साथियों को बताया कि हमने स्पेपुफोर्स के कैम्प में खाना खाने जाना है तो उनके मुँह उतर गए। पता चला कि उन्होंने हमारी दावत के लिए एक बकरा काटा था। दूसरी तरफ स्पेपुफोर्स के सिपाही दो बार खाने की याद दिला गए थे कि वे बाट जोह रहे हैं हमारी।
एकाकी प्रदेश में अजनबी भी कितने महत्त्वपूर्ण तथा अपने हो जाते हैं, महसूस हुआ। खैर हमें तो स्पेपुफोर्स के कैंप ही जाना था। शिविर में इंस्पेक्टर नेगी जी ने हमारा स्वागत किया। सब जवान एक ही तम्बू में बैठे थे। फौजी परम्परानुसार हमें पहले रम सर्व करने की बात हुई, हमने मना कर दिया। कुछ जवान जो सोच रहे थे कि हमारी रम पीने से उनको भी रम सर्व होगी थोड़ा निराश हो गए। नेगी जी ने अपने एकाकी तथा कठिन जीवन के किस्से सुनाए। फिर कई किस्तों में खाना आया, दो किस्म के तो सूप ही थे। कीमा-कलेजी, तरह-तरह की सब्जियाँ बनाई हुई थीं। लगभग जो कुछ बना सकते थे बनाया हुआ था। हम चाहते थे कि सब लोग साथ खाएँ पर जवानों ने कहा कि वे पहले अतिथियों को खिलाकर ही खाएँगे। हमारे साथ सिर्फ नेगी जी ने ही खाना खाया, सारे जवान भक्तिभाव से हमें निहारते रहे। उनकी जिद पर हाथ भी हमें थाली में ही धोने पड़े।
धन्यवाद देकर हम विदा हुए तथा भातिसीपु के शिविर में आए तो पता चला कि वे लोग भी हमारा इन्तजार कर रहे हैं कि कम-से-कम एक-एक रोटी तो खाएँ हम। पेट ठसाठस होने के बावजूद आग्रह व स्नेह के आगे हम झुक गए तथा थोड़ा-थोड़ा गोश्त चखा। तभी हम सोने जा सके।
तय किया था कि सुबह चार बजे सिनला की ओर रवाना हो जाएँगे। ये भातिसीपु के साथियों को पता था। उन्होंने हमारे टैंट में अचार की बोतल फलों का डिब्बा तथा परांठे रात को ही रख दिए थे। संतरी ने हमें कहा कि हमें सुबह चाय पिला देगें। उनके स्नेह तथा केयर से हम द्रवित थे।
बकरी वाले रात को ही सिनला के पास मैदान में ले गए थे। हमें यह कहकर कि वे लोग रात दो बजे ही सिनला की ओर धीरे-धीरे बढ़ेगें बकरियों के साथ। हम उन्हीं के पीछे चले आएँ। बकरी वालों ने हमारा अतिरिक्त सामान भी ले लिया था।
व्यक्तिगत तौर पर अगला दिन मेरे लिए संघर्षपूर्ण होने वाला था। 18,900 फीट चढ़ना था। दमा था पर दवाईयों का सहारा था। हिम्मत थी पर कब कहाँ पर ये साथ छोड़े, थोड़ी बहुत शंका थी। रात दो बजे ही उठा-दवा खाल ली। चाहिए था कि पहले कोई बिस्कुट लूँ पर अति सावधानी कई चीजें भुला देती है न! कशमकश में रात भर नींद ही कहाँ आयी थी। दवाई खाकर पेशाब करने बाहर आया। शेखर भी उठा बाहर आ गया। उसका भी हाल यही था। शाम को तो कोहरा था पर अब सारा आकाश बादलों से घिरा था। घम्म बिल्कुल। दिल डूब गया, क्या ऐसे मौसम में पार कर पाएँगे सिनला?
सुबह चार बजे संतरी जी चाय ले आए। चाय के साथ पुनः दवाई। ललित ने टोका कि इतनी दवाई क्यो ले रहे हो? क्या कहता? चाय पीकर चल दिए सिनला पार करने। संतरी जी को खूब गले लगाया। पौ फटने से पहले हम सिनला की जड़ तक पहुँच गए थे। दूर बर्फ में सिनला के रास्ते में चीटियाँ सी रेंगती दिखाई दीं। बकरी और बकरीवाले थे वो। रास्ता कोई था नहीं। भेड़, बकरी आदमी रास्ता खोजते-बनाते जा रहे थे।
ग्लेशियर के ऊपर की धार-धार हम भी बढ़े। ठण्ड थी पर अब चढ़ने से पसीना भी आने लगा। ऊँचाई में थकान भी लगती है बहुत। ऑक्सीजन कम जो होती है पेट में अजीब उल्टी का सा एहसास हुआ। तब याद आया कि दवाई खाली पेट नहीं खानी थी। उल्टी हो नहीं रही थी बस एहसास था, फिर सिरदर्द भी होने लगा। एहसास होने पर मैंने पिट्ठू से अचार की बोतल निकाली तथा एक टुकड़ा टपाने लगा। फिर तो सभी एक-एक टुकड़ा चबाने लगे। तीन-चार किमी. चढ़ने के बाद बर्फ क्षेत्र शुरू हुआ। बर्फ भेड़ों के चलने से नर्म हो गई थी। सीधे जाँघ तक बर्फ में धंस गए। ढाल इतना कि रास्ता बदल सकते नहीं थे। फिसलते तो सीधे एक डेढ़ किमी. नीचे ही रुकते। वो भी वन-पीस नहीं। नीचे एक अन्य ताल बर्फ से घिरा था। बर्फ ज्यादा गलने से बिल्कुल वैसा ही लगता होगा जैसे ज्यूंरागी से रूपकुण्ड। सभी फिसल रहे थे। एक जगह मैं भी फिसला बड़ी जोर से। संभला, नीचे देखकर डर लगा। डरा क्यों? अगर फिसल कर मरा तो कोई बात नहीं पर जिन्दा रहे तो कैसे इस चढ़ाई पर दोबारा चढ़ पाऊँगा? यो हद थी थकान की।
अतिरिक्त सावधानी या डर जो भी कहें उस वजह से पैर जमा-जमाकर चल रहे थे और इसी चक्कर में नर्म बर्फ गल जा रही थी और हम फिसल रहे थे। बादल थे पर काला घाम (धूप का ताप) तो था ही, नर्म बर्फ फिसल जा रही थी। एक कदम में मुश्किल से सात-आठ इंच आगे जा पा रहे थे। एक जगह पर तो लक्ष्मण कमर तक बर्फ में धंस गया। बर्फ में चलने को बकरी वालों ने हमारे हाथ अपनी लाठियाँ पकड़ा दी थीं। उन्हीं के सहारे चल रहे थे। थकान से एक-एक कदम टन भर का हो गया था। सत्तर डिग्री के ढलान पर बर्फ में हम आडें तिरछे रास्ते से चढ़ाई कर रहे थे।
बर्फ के बाद एक सीधी चट्टान पर चढ़ना था। रास्ता था नहीं, केवल हाथ पैरों से चट्टान के नुकीले बाहर निकले टुकड़ों को पकड़कर गुरिल्ला स्टाइल से चढ़ना था। चढने में हाथ छिलने लगे पर आशा थी कि इस सीधी 20-25 मीटर की कठिन चढ़ाई के बाद सिनला की सीध में होंगे तथा रास्ता सरल हो जाएगा। चढ़ना कठिन हो रहा था। हाथ ठण्ड से काम नहीं कर रहे थे। बदन में पसीना। बिल्कुल विरोधाभास। कई बार तो जिन टुकड़ों को पकड़कर चढ़ना चाह रहे थे। हाथ में आ गए। चन्द्रू सबसे आगे, फिर मैं, फिर लक्ष्मण, ललित। आखिर में शेखर सबको थकेलता हुआ।
चट्टान की चढ़ाई पूरी हुई। सन्तोष हुआ पर सन्तोष कुछ ही क्षणों का था। सिनला अभी आधा किमी. था और बीच में कमर-कमर तक बर्फ। वैसे तो आधा किमी. कुछ नहीं पर उस वक्त जो हालत थी उससे ये भी असम्भव सी लग रही थी। बकरी वाले ऊपर चट्टान पर बैठे थे। हमें ऊपर चढ़ते देखकर बोले तुम लोग पीछे आना और वे चल दिए।
विरल ऑक्सीजन की वजह से थकान दूर करने वाली शरीर की व्यवस्था गड़बड़ हो जाती है। माँस-पेशियों के बीच अवशिष्ट पदार्थो की उपस्थिति से थकान का असहनीय एहसास होता है। एक-एक कदम उठाना कष्टसाध्य हो जाता है। एक बकरीवाले को तो हमने साथ चलने के लिए रोक ही लिया भलमानस ने मेरा व ललित का पिट्ठू भी टांग लिया। हम उसके पीछे-पीछे चले। बर्फ ज्यादा गहरी थी। रास्ता सीधा पर ज्यादा विकट। कदम उठाना कठिन से कठिनतर हो रहा था। सिरदर्द, उल्टी के एहसास का क्रम पुनः परेशान करने लगा। सिनला पहुँचने के अन्तिम कुछ मीटर पार करने में सारी आत्मशक्ति लगानी पड़ी। चन्द्रू पहले ही सिनला पहुँचा हुआ था। पहुँचकर बैठा सिर थाम कर मैं। कुछ ही क्षणों में लक्ष्मण तथा ललित। पीछे से शेखर भी पहुँचा। ललित के चेहरे में भीषण थकान थी, पर आँखों में सिनला तक पहुँचने की चमक। शेखर के पास अब भी इतनी शक्ति बची थी कि उसने आते ही नारा लगायाः
हम सिनला पास पहुँचे आज के दिन
हो-हो मन में था विश्वास
हम होंगे सिनला पास आज के दिन
मैंने भी मिमियाती आवाज में कोरस में साथ दिया-ललित भी जुड़ गया। बकरी वाले हँसने लगे। मैंने बकरी वाले से कहा, तुम लोग रोज आते हो, हमारा ये हाल है। इस पर वह बोला कि बर्फ न हो तो रास्ता कठिन नहीं पर इस बर्फ से हमें भी बहुत परेशान हुई। तुम लोगों ने इसे इतनी बर्फ में पार कर लिया ये हिम्मत का काम है।
इस उत्साह के बाद अब चारों ओर देखा। सामने पंचचूली दिखी। पर वो कुछ अजीब थी। फिर शेखर ने खुलासा किया कि हम पंचचूली पर्वत शिखर को पीछे की ओर से देख रहे हैं। बड़े-बड़े ग्लेशियर पंचचूली से उतर कर नदियों की रचना कर रहे थे। ग्लेशियरों से मिट्टी चट्टान टूटकर नदी में आ रही थी। लगा कि हिमालय के योजनाकारों को यहाँ जरूर भेजा जाना चाहिए जिससे वे वे हिमालय के असली स्वरूप को समझ सकें। पीछे से मैकमोहन लाइन के पनढाल थे। उसके पीछे शिखरों का जंगल। बाईं तरफ कैलास का साइड फेस दिख रहा था।
भातिसीपु के साथियों के दिए पराठे तथा अचार बकरीवालों के साथ मिलकर खाए। बकरी वालें हमें उतरने की दिशा बता कर चल दिए। किसी ने बताया था कि यहाँ फासिल्स (जीवाश्म) मिलते हैं। खोज की। घोंघे के जीवाश्म मिले। सम्भाले। चन्द्रू को पता चला कि हम 18,900 फीट पर हैं तो वह 19,000 फीट पूरे करने के लिए पास की चट्टान पर चढ़ने लगा। गजब है चन्द्रू। सिनला के एक ओर धवल चट्टान है। इसी से इसका नाम (सिन-सफेद ला दर्रा) पड़ा है।
मौसम ने बेहद साथ दिया। बारिश होती तो चढ़ नहीं पाते। धूप होती तो अब तक काले चश्मे के अभाव में स्नो-ब्लाइंड हो जाते। बर्फ से परावर्तित धूप की अल्ट्रा वाइलेट किरणों से आँखों में घाव हो जाते हैं। जैसी की जवाहर बुड़ज्यू की हो रही थी। बादल ही थे और यहाँ पंचचूली के दर्शन भी हो गए।
कोहरा आया। हमें घेर कर खड़ा हो गया। सिनला दर्रे में हम खड़े थे। ऊँचाई की तरह हमारा उत्साह भी ऊँचा था। मनोबल बढ़ा हुआ। यहाँ हम सबसे दूर प्रकृति के सबसे करीब थे। प्रकृति के हर स्पंदन को महसूस करते हुए। लग रहा था ये शिलाएँ, पर्वत, बर्फ और तो और करोड़ों वर्ष पहले जिन्दा और अब पत्थर बने ये जीवाश्म हमे महसूस कर रहे हैं, बात कर रहे हैं। कोहरा हमें घेरे हुए कंधे में थपकी देकर यहाँ पहुँचने की बधाई दे रहा था।
मैंने अपनी फटी आवाज में कोरस शुरू किया हम सिनला पास हैं आज के दिन। सब लोग धुन मिलाने लगे।
इस अध्ययन यात्रा में कमल जोशी के साथ थे-चन्द्र सिंह सीपाल लक्ष्मण मार्छाल, ललित पन्त तथा शेकर पाठक। यह यात्रा 1985 में की गई थी। इसका पहला भाग पहाड़ 12 में प्रकाशित हुआ था।
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