बुन्देलखण्ड में लागातर सूखे के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। यहाँ गाँव-के-गाँव वीरान हैं, पानी की कमी के चलते। मनरेगा या अन्य सरकारी योजना में काम करने वाले मजदूर नहीं है, क्योंकि लोग बगैर पानी के महज पैसा लेकर क्या करेंगे। इस ग्रेनाइट संरचना वाले पठारी इलाके का सूखे या अल्प वर्षा से साथ सदियों का है। जाहिर है कि यहाँ ऐसी गतिविधियों को प्राथमिकता दी जानी थी जिसमें पानी का इस्तेमाल कम हो, लेकिन यहाँ खजुराहो के पास 17 करोड़ का एनटीपीसी की बिजली परियोजना पर काम चल रहा है। आजादी के बाद के विकसित भारत के सबसे गम्भीर सूखे से जूझ रहे देश में योजना व घोषणा के नाम पर भले ही खूब कागजी घोड़े दौड़ रहे हो, लेकिन हकीकत के धरातल पर ना तो समाज और ना ही सरकार के नजरिए में कुछ बदलाव आया है। जहाँ पानी है, वहाँ उसे बेहिसाब उड़ाने की प्रवृत्ति यथावत है तो जल संरक्षण के पारम्परिक संसाधनों का क्षणिक स्वार्थ के लिये उजाड़ने में कोई भी पीछे नहीं है। जान लें कि पानी किसी कारखाने में बन नहीं सकता और इसके बगैर धरती का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
पानी की बढ़ती जरूरत को पूरा करने का एकमात्र साधन है कि आकाश से बरसी हर बूँद को कायदे से संरक्षित किया जाये और हर बूँद को किफायत से खर्च किया जाये। सबसे बड़ी बात कि हमारा तंत्र यह तय नहीं कर पा रहा है कि जल संकट से जूझ रहे इलाकों में किस तरह के काम-धंधे, रोजगार या खेती हो।
बुन्देलखण्ड में लागातर सूखे के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। यहाँ गाँव-के-गाँव वीरान हैं, पानी की कमी के चलते। मनरेगा या अन्य सरकारी योजना में काम करने वाले मजदूर नहीं है, क्योंकि लोग बगैर पानी के महज पैसा लेकर क्या करेंगे। इस ग्रेनाइट संरचना वाले पठारी इलाके का सूखे या अल्प वर्षा से साथ सदियों का है।
जाहिर है कि यहाँ ऐसी गतिविधियों को प्राथमिकता दी जानी थी जिसमें पानी का इस्तेमाल कम हो, लेकिन यहाँ खजुराहो के पास 17 करोड़ का एनटीपीसी की बिजली परियोजना पर काम चल रहा है। इसमें 650 मेगावाट के तीन हिस्से हैं, जाहिर है कि कोयला आधारित इस परियोजना में अन्धाधुन्ध पानी की जरूरत होती है। यही नहीं इस्तेमाल के बाद निकला उच्च तापमान वाला दूषित पानी का निबटारा भी एक बड़ा संकट होता है। इसके लिये मझगाँव बाँध और श्यामरी नदी से पानी लेने की योजना है। जाहिर है कि इलाके की जल कुंडली में ‘कंगाली में आटा गीला’ होगा। विडम्बना है कि उच्च स्तर पर बैठे लोगों ने महाराष्ट्र के दाभौल में बन्द हुए एनरॉन परियोजना के बन्द होने के उदाहरण से कुछ सीखा नहीं।
यह तो बानगी है कि हम पानी को लेकर कितने गैरसंवेदनशील हैं। इस साल के बजट में केन्द्र सरकार ने पाँच लाख खेत-तालाब बनाने के लिये बजट का प्रावधान रखा है। प्रधानमंत्री जी के पिछले मन की बात प्रसारण में भी कई लाख तालाब खोदने पर जोर दिया गया था। जाहिर है कि बादल से बरसते पानी को बेकार होने से रोकने के लिये तालाब जैसी संरचनाओं को सहेजना अब अनिवार्यता है। लेकिन हकीकत में हम अभी भी तालाबों को सहेजने के संकल्प को दिल से स्वीकार नहीं कर पाये हैं।
इटावा के प्राचीन तालाब को वहाँ की नगर पालिका टाइल्स लगवाकर पक्का कर रही है। शायद यह जाने बगैर कि इससे एकबारगी तालाब सुन्दर तो दिखने लगेगा, लेकिन उसके बाद वह तालाब नहीं रह जाएगा और उसमें पानी भी बाहरी स्त्रोत से भरना होगा। इसके पक्का होने के बाद ना तो मिट्टी की नमी बरकरार रहेगी और ना ही पर्यावरणीय तंत्र। ज्यादा दूर क्या जाएँ, दिल्ली से सटे गाजियाबाद में ही पिछले साल नगर निगम के बजट में पारम्परिक तालाबों को सहेजने के लिये पचास लाख के बजट का प्रावधान था, लेकिन उसमें से एक छदाम भी खर्च नहीं की गई। यहाँ वार्ड क्रमांक छह के बहरामपुर गाँव के पुराने तालाब को हाल ही में मशीनों से समतल कर बिजलीघर बनाने के लिये दे दिया गया।
सरकारी अभिलेख में यह स्थान जोहड़ की जमीन के तौर पर 2910 हेक्टेयर क्षेत्र में दर्ज है। इससे पहले यहाँ सामुदायिक भवन बनाने की योजना भी थी।
बुन्देलखण्ड के टीकमगढ़ जिले में सूखे की सबसे तगड़ी मार है और यहाँ की साठ फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है। गौरतलब है कि टीकमगढ़ जिले में साठ के दशक तक एक हजार से अधिक तालाब हुआ करते थे जोकि यहाँ के खेतों व कंठ की प्यास बुझाने में सक्षम थे।
देखते-ही-देखते तीन-चौथाई तालाब कालोनी या खेतों के नाम पर सपाट कर दिये गए। ‘सरोवर हमारी धरोहर’, जलाभिषेक और ऐसी ही लुभावने नाम वाली परियोजनाएँ संचालित होती रहीं, बजट खपता रहा लेकिन तालाब गुम होते रहे। हाल ही में यहाँ जिला मुख्यालय के बीस एकड़ में फैले वृंदावन तालाब में जेसीबी मशीने लगाकर खुदाई का मामला सामने आया। पता चला कि महज कुछ निर्माण कार्यों में भराई के लिये यहाँ से मिट्टी खोदने का काम चल रहा है।
कहने को तालाब की निगरानी के लिये एक सरकारी चौकीदार भी है लेकिन वह दबंग लोगों के सामने असहाय है। तालाब के जल ग्रहण क्षेत्र को इस बुरी तरह से खोद दिया गया है कि वह खदान सा दिख रहा है और जाहिर है कि उसमें जल आने और अतिरिक्त पानी के बाहर निकलने के रास्ते पूरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिये गए हैं। आने वाले बारिश के मौसम में जब इसमें पानी भरेगा नहीं तो अगला कदम इसकी जमीन पर कब्जा करना ही होगा।
बस्तर के सम्भागीय मुख्यालय जगदलपुर में जल संकट का स्थायी डेरा हैं लेकिन यहाँ के कोई चार सौ साल पुराने दलपत सागर पर कब्जे, सुखाने व कालोनी बनाने में किसी को कोई झिझक नहीं है। इस तालाब का विस्तार तीन सौ एकड़ में था और इसमें शहर की दो लाख से अधिक आबादी की जल-माँग पूरा करने की क्षमता हुआ करती थी।
इसके संरक्षण का मामला एनजीटी में गया, कई आदेश भी हुए और इसकी जमीन पर कब्जा कर कालोनी काटने वालों व कतिपय अफसरों पर मुकदमें भी हुए। फिर उन कलेक्टर का तबादला हो गया जो दलपत सागर को बचाना चाहते थे। आज भरी गर्मी में इस विशाल झील में शहर की गन्दी नालियों की बदबू आ रही है और हर दिन इसका कुछ हिस्सा संकरा हो जाता है।
यह तो महज बानगी हैं, असल में पूरे देश में सार्वजनिक जल संसाधनों - कुएँ, बावड़ी, तालाब आदि के प्रति उपेक्षा के भाव की कहानियाँ लगभग एक जैसी हैं। पानी के मुख्य स्रोत नदियों की पवित्रता आँकने के लिये इस तथ्य पर गौर करना होगा कि देश के शहरी इलाकों से हर रोज 6200 करोड़ लीटर गन्दा पानी निकलता है, जबकि देश में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की कुल क्षमता 2,327 करोड़ लीटर से ज्यादा नहीं है। स्पष्ट है कि अस्सी फीसदी सीवेज सीधे नदियों में बह रहा है और इससे नदियाँ जीवनदायी नहीं दुखदायी बन गई है। जल संसाधनों के प्रति उपेक्षा व कोताही का खामियाजा हम अभी भी भुगत रहे हैं और आने वाले दिनों में इसके परिणाम और घातक होंगे।
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Post By: RuralWater