हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड की खदान से बहता जहर, सैंकड़ों किसानों के खेत तबाह, मुआवजे से मुंह फेरा भूजल स्रोतों में फैला प्रदूषण खतरे में कान्हा नेशनल पार्क
एचसीएल की खदान से सर्वाधिक प्रभावित 10 गांवों में यह बात सामने आई कि लोग 55 साल से ज्यादा नहीं जी पा रहे हैं। हैंडपंप का पानी पीकर बच्चों में खुजली, बाल झड़ने की शिकायत है, वहीं रहतम सिंह ने बताया कि इन गांवों में 70 फीसदी लोगों को डायिबटीज की शिकायत है। 50 की उम्र के बाद लकवे का अचानक दौरा पड़ता है और फिर कुछ समय बाद मौत हो जाती है। बोरखेड़ा गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग ही बचे हैं। हैरत की बात यह है कि इन शिकायतों के बाद भी एचसीएल प्रबंधन ने पानी की गुणवत्ता और प्रदूषण के स्तर की आज तक जांच नहीं की। श्याम सिंह के शरीर पर घाव के निशान और चकत्तों को देखकर हिरोशिमा और नागासाकी की परमाणु त्रासदी याद आ जाती है। श्याम सिंह को ये निशान मलांजखंड में तांबे का खनन करने वाले सार्वजनकि क्षेत्र के हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड (एचसीएल) ने दिए हैं। तीन माह पहले वह खदान के पास बने तालाब में फंसे अपने बैल को निकालने गए थे। बैल तो निकल गए लेकिन श्याम के पूरे शरीर में छाले पड़ चुके थे। अगले दो माह तक उनसे मवाद आता रहा। पांच एकड़ बंजर जमीन के मालिक श्याम सिंह कोदवा-गोली पर हर हफ्ते 500 रुपए खर्च करना पड़ता है।
करीब 480 एकड़ में फैली एचसीएल की खुली खदान से रोजाना 70 टन रेत नकिलती है। इस रेत में मैंगनीज, नकिल, जिंक और मॉलिब्डेनम जैसे रसायन मिले होते हैं। खदान के चारों ओर इस रेत को डंप किया जाता है, जबकि बाकी का अवशिष्ट खदान के नजदीक बंजर नदी में बहाया जा रहा है। इसके लिए कंपनी ने विशाल टेलिंग डैम बना रखा है, जहां फ़िलहाल पांच करोड़ टन अवशिष्ट जमा है। खदान में इस्तेमाल किए जा रहे पानी में घुले रसायन 20 किमी के दायरे में तकरीबन सभी जल स्रोतों और भूमिगत जल को प्रदूषित कर चुके हैं। एचसीएल की खदान से फैल रहे प्रदूषण का असर बैगा और गोंड बहुल 134 गांवों पर पड़ा है, लेकिन इसके बिल्कुल नजदीक बसे छिंदीटोला, बोरखेड़ा, सूजी, झिंझोरी, करमसरा, नयाटोला और भिमजोरी जैसे कुल 10 गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। हैरत की बात यह है कि मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण मंडल की टीम को दिसंबर 2010 से फरवरी 2011 तक मलांजखंड का लगातार दौरा करने के बाद प्रदूषण फैलाने के एक भी सुबूत नजर नहीं आए।
एचसीएल के प्रदूषण के खिलाफ प्रभावित गांव के लोगों ने पिछले साल जनवरी में 10 किलोमीटर दूर कान्हा के मुक्की गेट पर लगातार 35 दिन तक धरना प्रदशर्न आयोजित किया था। अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के बैनर तले इस प्रदर्शन के दौरान छिंदी टोला और बोरखेड़ा ग्राम पंचायतों ने प्रस्ताव पारित कर पीने का साफ पानी मुहैया कराने और 10 गांवों के पीड़ित 410 किसानों को मुआवजा देने समेत 10 मांगें रखी थीं। उसके बाद ज़िला प्रशासन ने 110 किसानों के लिए 2006-2008 के बीच फसल नुकसानी का आठ लाख रुपए का मुआवजा स्वीकार किया था। 22 लाख रुपए से घटाकर आठ लाख किएगए इस मुआवजे से अभी भी 300 किसान वंचित हैं। एचसीएल कंपनी के सूत्रों ने बताया कि जबलपुर स्थित क्षेत्रीय विज्ञान प्रयोगशाला के शोधकर्ताओं की टीम ने इसी साल अप्रैल में खदान के आस-पास की जमीन के एसिड प्रभावित होने की पुष्टि करते हुए प्रभावितों को मुआवजा देने की सिफारिश की थी। लेकिन एचसीएल ने रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है।
बोरखेड़ा गांव का श्याम सिंह (45) ने 2007-2009 तक एचसीएल में सिक्योरिटी गार्ड रहा। उसने बताया कि सिर्फ इंसान ही नहीं, बल्कि खदान के पास बने तालाब में पानी पीने वाले मवेशियों का पेट फूल जाता है। जीभ में छाले पड़ जाते हैं और कुछ दिनों के भीतर उनकी मौत हो जाती है। श्याम सिंह के पड़ोस में रहने वाले देवीलाल मरकाम (24) के सिर से बाल गायब हो चुके हैं। इसकी वजह है टेलिंग डैम के नीचे उसके खेत के पास बना तालाब, जहां उसने कई माह तक नहाने की गलती की। बोरखेड़ा गांव के लोगों ने बताया कि तेज हवा चलने पर खदान की रेत उड़कर धूल भरी आंधी का नजारा पेश करती है। आम रेत से पांच गुना महीन इसके कण शरीर से चिपककर खुजली पैदा करते हैं। यही रेत लोगों के खेत, खिलहान, भोजन से लेकर सांस के जिरए फेफड़े में भी घुस रही है।
टेलिंग डैम से प्रदूषित पानी की निकासी के लिए नालियां बनाई गई हैं। ये नालियां गांव के तालाब से जाकर मिलती हैं। यही पानी जमीन में रिस रहा है। इसके अलावा हवा में उड़कर आती रेत आस-पास के पयार्वरण को भी नुकसान पहुंचा रही है। बारिश होने पर रेत में मौजूद खनिज पदार्थ पत्तियों और शाखाओं को गला रहे हैं। रहतम सिंह ने सरपंच रहते हुए इस मामले पर लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन प्रशासन ने कोई सुध नहीं ली। वे कहते हैं, खदान के आस-पास पहले घने जंगल हुआ करते थे, जो रेत के बवंडर में साफ होते जा रहे हैं।
खदान में रोज दोपहर 1:30 बजे एक धमाका होता है। यह समय इसलिए रखा गया है, क्योंकि तब कंपनी का प्रशासनिक तबका लंच पर होता है। धमाके की गूंज 20 किमी के दायरे में सुनाई देती है। इसके प्रभाव से 10 किमी के दायरे में मकानों की दीवारें दरक गई हैं। कंपनी के वरिष्ठ प्रबंधक एसके वर्मा का दावा है कि धमाके से मकानों को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है। अलबत्ता मलांजखंड में खुद एचसीएल के प्रशासनिक भवन की दीवारे दरक चुकी हैं। धमाकों का असर जमीन की गहराइयों तक में होरहा है। रहतम सिंह ने बताया कि गांव में जो पुराने कुंए 1972-73 में गर्मी तक लगभग सूख जाते थे, वहां अब लबालब पानी भरा रहता है। हालांकि, यह पानी अत्यधिक प्रदूषित है।
एचसीएल की खदान से सर्वाधिक प्रभावित 10 गांवों में यह बात सामने आई कि लोग 55 साल से ज्यादा नहीं जी पा रहे हैं। हैंडपंप का पानी पीकर बच्चों में खुजली, बाल झड़ने की शिकायत है, वहीं रहतम सिंह ने बताया कि इन गांवों में 70 फीसदी लोगों को डायिबटीज की शिकायत है। 50 की उम्र के बाद लकवे का अचानक दौरा पड़ता है और फिर कुछ समय बाद मौत हो जाती है। बोरखेड़ा गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग ही बचे हैं। हैरत की बात यह है कि इन शिकायतों के बाद भी एचसीएल प्रबंधन ने पानी की गुणवत्ता और प्रदूषण के स्तर की आज तक जांच नहीं की। एचसीएल मलांजखंड के प्रभारी उप महाप्रबंधक ओएन तिवारी ने कहा कि नागपुर स्थित नेशनल इन्वायरनमेंट इंजिनीयरिंग इंस्टीट्यूट (नीरी) को क्षेत्र में पयार्वरण के असर को जांचने का काम सौंपा गया है, जिसकी रिपोर्ट अक्टूबर तक मिलेगी।
एचसीएल ने प्रभावित गांवों में लोगों के उपचार के लिए चलित अस्पताल का इंतजाम कर रखा है, पर यह बंदोबस्त सिर्फ दिखावेके लिए है। इसे माह में सिर्फ एक बार प्रभावित गांवों में भेजा जाता है। एक डॉक्टर और दो नर्सों का स्टाफ लोगों को सर्दी-जुकाम, बुखार की दवाएं देकर खानापूर्ति कर देता है। खुजली, चर्म रोग, गल घोंटू जैसी शिकायतों के निदान की दवाएं उनके पासनहीं होतीं। भूजल प्रदूषण की शिकायतों को देखते हुए कंपनी प्रबंधन ने 2007 में लोगों को 1200 रुपए कीमत का वॉटरफिल्टर मुफ्त उपलब्ध कराया था। यह पानी को छानकर उसमें से धूल-मिट्टी हटाने का ही काम कर सकता था, सो लोगों के किसी काम न आया और उन्होंने तमाम फिल्टर कंपनी को वापस कर दिए।
एचसीएल की खदान से निकले अवशिष्ट को बंजर और सोन नदी में बहाया जा रहा है। बंजर नदी 20 किलोमीटर दूर स्थित कान्हा टाइगर रिजर्व से होते हुए मंडला में नमर्दा में मिलती है। एचसीएल के वरिष्ठ प्रबंधन एसके वर्मा खुद इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए यह दावा भी करते हैं कि इससे न तो कान्हा को कोई खतरा है, न ही नर्मदा नदी को। यह और बात है कि कंपनी के पास इस दावे के समर्थन में कोई वैज्ञानिक शोध के दस्तावेज नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि इसी बंजर नदी के पानी को इंटेक वेल के जरिए छानकर एचसीएल के कर्मचारियों को पिलाया जा रहा है, जबकि प्रभावित गांवों के बैगा आदिवासियों के लिए ऐसा कोई इंतजाम नहीं है।
मलांजखंड के पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष संजय उइके का दावा है कि एचसीएल ने टेलिंग डैम पर जमा हो रहे दूषित पानी को दोबारा साफ कर उपयोग में लाने के लिए रिसायकल प्लांट तो लगाया है, पर वे उसे चलाते नहीं। वहीं कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि जब जरूरत होती है, तब प्लांट को चलाया जाता है। हालांकि उन्होंने इस ‘जरूरत’ को पुख्ता तौर पर परिभाषित नहीं किया।
एचसीएल खदान की 1973 में स्थापना से पहले ज़िला प्रशासन से हुए करार के तहत कंपनी ने विस्थापित 903 परिवारों के एक-एक व्यक्ति को स्थाई नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन काम मिला 757 परिवारों को। एक-दो साल बाद इन सभी को यह कहते हुए स्वैच्छिक सेवानिवृत दे दी गई कि वे खदान में काम करने के अयोग्य हैं। फिलहाल 450-500 लोग ठेकेदारों के अधीन अस्थाई रूप से काम कर रहे हैं। कहीं इन्हें 100 रुपए तो कहीं 150 रुपए की दिहाड़ी मिलती है। इन मजदूरों को प्रदूषणसे बचाने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए हैं। उइके का आरोप है कि ठेकेदारों के पास लाइसेंस नहीं हैं, इसलिए वे कानूनी झमेलों से बचने के लिए वर्क ऑर्डर को किस्तों में लागू करते हैं, ताकि 20 से कम मजदूर खपाने पड़ें।
खदान से हर रोज जमा हो रहे अवशिष्ट को ठिकाने लगाने के मकसद से कंपनी ने मैंगनीज ओर इंडिया लि. ‘एमआईएल’ से संपर्क साधा था। एमआईएल पूरे अवशिष्ट को खरीदने के लिए तैयार भी था, लेकिन तभी मध्यप्रदेश सरकार ने इस पर 54 फीसदी की भारी-भरकम रॉयल्टी लगा दी। गुजरात में इस तरह के अवशिष्ट पर महज 10 फीसदी रॉयल्टी लगाई जाती है। नतीजतन, मसला फंस गया। अब एचसीएल ने इस अवशिष्ट को मुफ्त में देने का प्रस्ताव भी रखा है, जो विचाराधीन है। चेन्नई की कंपनी स्टार ट्रेस ने इस अवशिष्ट से रासायिनक खाद बनाने का सफल उपयोग किया है। अब कंपनी को राज्य सरकार सेरॉयल्टी कम करने की उम्मीद है।
1. हिंदुस्तान कॉपर ने 1974 से 1977 के बीच ग्राम पंचायत बोरखेड़ा, नगर पालिका मोहगांव के तहत चार गांवों की जमीन का अधिग्रहण कर 1982 से खनन शुरू किया।
2. ओपन पिट माइन के लिए एचसीएल को 30 साल के लिए लीज मिली 1973 में।
3. देश में 70 फीसदी कॉपर यहां है और एचसीएल के कुल कॉपर उत्पादन का 80 फीसदी यहीं से होता है।
4. एचसीएल की खदान में 14 करोड़ टन कॉपर होने का अनुमान है।
5. एचसीएल फिलहाल सालाना 20 लाख मिट्रिक टन कॉपर का उत्पादन कर रही है।
6. मलांजखंड खदान में जमीन के 600 मीटर नीचे तक कॉपर होने का अनुमान है। एचसीएल ने इसी साल सेउत्पादन क्षमता 20 से बढ़ाकर 50 लाख टन सालाना करने की योजना बनाई है।
7. इसके लिए खदान को फैलाकर 725.35 हेक्टेयर तक बढ़ाया जाएगा, जो मौजूदा क्षेत्र से 248.50 हेक्टेयरज्यादा है।
8. इसमें 115 हेक्टेयर में माइिनंग हो रही है, जबकि 133 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में मलबे की डंपिंग की जारही है। इनमें 169 हेक्टेयर वन क्षेत्र में माइिनंग और 556 हेक्टेयर वन भूमि में मिट्टी से कॉपर को धोने आदि के लिए तालाब बनाए गए हैं।
1. एचसीएल खदान से निकले प्रदूषित पानी और बारिश के दौरान जमा होने वाले पानी की निकाली के लिए कोई नाली नहीं बनाई गई है। इससे बरसात के पानी के साथ खदान से निकली रेत का बहकर खेतों तक पहुंचना लाज़िमी है।
2. डंप किए गए मलबे को एक जगह इकट्ठा कर उसे एचसीएल के तालाब में डाला जाता है। जहां से खनिज को आगे की प्रोसेसिंग के लिए भेजा जाता है। इस पानी की निकासी का भी कोई इंतजाम नहीं है।
एचसीएल की खदान से सर्वाधिक प्रभावित 10 गांवों में यह बात सामने आई कि लोग 55 साल से ज्यादा नहीं जी पा रहे हैं। हैंडपंप का पानी पीकर बच्चों में खुजली, बाल झड़ने की शिकायत है, वहीं रहतम सिंह ने बताया कि इन गांवों में 70 फीसदी लोगों को डायिबटीज की शिकायत है। 50 की उम्र के बाद लकवे का अचानक दौरा पड़ता है और फिर कुछ समय बाद मौत हो जाती है। बोरखेड़ा गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग ही बचे हैं। हैरत की बात यह है कि इन शिकायतों के बाद भी एचसीएल प्रबंधन ने पानी की गुणवत्ता और प्रदूषण के स्तर की आज तक जांच नहीं की। श्याम सिंह के शरीर पर घाव के निशान और चकत्तों को देखकर हिरोशिमा और नागासाकी की परमाणु त्रासदी याद आ जाती है। श्याम सिंह को ये निशान मलांजखंड में तांबे का खनन करने वाले सार्वजनकि क्षेत्र के हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड (एचसीएल) ने दिए हैं। तीन माह पहले वह खदान के पास बने तालाब में फंसे अपने बैल को निकालने गए थे। बैल तो निकल गए लेकिन श्याम के पूरे शरीर में छाले पड़ चुके थे। अगले दो माह तक उनसे मवाद आता रहा। पांच एकड़ बंजर जमीन के मालिक श्याम सिंह कोदवा-गोली पर हर हफ्ते 500 रुपए खर्च करना पड़ता है।
करीब 480 एकड़ में फैली एचसीएल की खुली खदान से रोजाना 70 टन रेत नकिलती है। इस रेत में मैंगनीज, नकिल, जिंक और मॉलिब्डेनम जैसे रसायन मिले होते हैं। खदान के चारों ओर इस रेत को डंप किया जाता है, जबकि बाकी का अवशिष्ट खदान के नजदीक बंजर नदी में बहाया जा रहा है। इसके लिए कंपनी ने विशाल टेलिंग डैम बना रखा है, जहां फ़िलहाल पांच करोड़ टन अवशिष्ट जमा है। खदान में इस्तेमाल किए जा रहे पानी में घुले रसायन 20 किमी के दायरे में तकरीबन सभी जल स्रोतों और भूमिगत जल को प्रदूषित कर चुके हैं। एचसीएल की खदान से फैल रहे प्रदूषण का असर बैगा और गोंड बहुल 134 गांवों पर पड़ा है, लेकिन इसके बिल्कुल नजदीक बसे छिंदीटोला, बोरखेड़ा, सूजी, झिंझोरी, करमसरा, नयाटोला और भिमजोरी जैसे कुल 10 गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। हैरत की बात यह है कि मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण मंडल की टीम को दिसंबर 2010 से फरवरी 2011 तक मलांजखंड का लगातार दौरा करने के बाद प्रदूषण फैलाने के एक भी सुबूत नजर नहीं आए।
एचसीएल के प्रदूषण के खिलाफ प्रभावित गांव के लोगों ने पिछले साल जनवरी में 10 किलोमीटर दूर कान्हा के मुक्की गेट पर लगातार 35 दिन तक धरना प्रदशर्न आयोजित किया था। अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के बैनर तले इस प्रदर्शन के दौरान छिंदी टोला और बोरखेड़ा ग्राम पंचायतों ने प्रस्ताव पारित कर पीने का साफ पानी मुहैया कराने और 10 गांवों के पीड़ित 410 किसानों को मुआवजा देने समेत 10 मांगें रखी थीं। उसके बाद ज़िला प्रशासन ने 110 किसानों के लिए 2006-2008 के बीच फसल नुकसानी का आठ लाख रुपए का मुआवजा स्वीकार किया था। 22 लाख रुपए से घटाकर आठ लाख किएगए इस मुआवजे से अभी भी 300 किसान वंचित हैं। एचसीएल कंपनी के सूत्रों ने बताया कि जबलपुर स्थित क्षेत्रीय विज्ञान प्रयोगशाला के शोधकर्ताओं की टीम ने इसी साल अप्रैल में खदान के आस-पास की जमीन के एसिड प्रभावित होने की पुष्टि करते हुए प्रभावितों को मुआवजा देने की सिफारिश की थी। लेकिन एचसीएल ने रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है।
बोरखेड़ा गांव का श्याम सिंह (45) ने 2007-2009 तक एचसीएल में सिक्योरिटी गार्ड रहा। उसने बताया कि सिर्फ इंसान ही नहीं, बल्कि खदान के पास बने तालाब में पानी पीने वाले मवेशियों का पेट फूल जाता है। जीभ में छाले पड़ जाते हैं और कुछ दिनों के भीतर उनकी मौत हो जाती है। श्याम सिंह के पड़ोस में रहने वाले देवीलाल मरकाम (24) के सिर से बाल गायब हो चुके हैं। इसकी वजह है टेलिंग डैम के नीचे उसके खेत के पास बना तालाब, जहां उसने कई माह तक नहाने की गलती की। बोरखेड़ा गांव के लोगों ने बताया कि तेज हवा चलने पर खदान की रेत उड़कर धूल भरी आंधी का नजारा पेश करती है। आम रेत से पांच गुना महीन इसके कण शरीर से चिपककर खुजली पैदा करते हैं। यही रेत लोगों के खेत, खिलहान, भोजन से लेकर सांस के जिरए फेफड़े में भी घुस रही है।
खेत हुए जहरीले
एचसीएल की खदान से लगे 10 गांवों के खेतों में दो फीट की ऊंचाई तक रेत फैल चुकी है। कुछ खेत पूरी तरह से दल-दल बन चुके हैं। छिंदीटोला गांव की अमरवती का खेत भी दलदल में तब्दील हो चुका है। पहले वह 15 से 20 क्विंटल धान उगा लेती थीं, लेकिन दलदल बने खेत में उतरना भी खतरे से खाली नहीं है। अमरवती ने बताया कि जैसे-जैसे रेत का पहाड़ ऊंचा हो रहा है, तब से समस्या गहराती जा रही है। गांव के किसान प्रति एकड़ 3-5 क्विंटल धान उगा पा रहे हैं। इस लिए भी उन्हें यूरिया, डीएपी काज्यादा इस्तेमाल करना पड़ रहा है। गांव से आधे किलोमीटर दूर बने एचसीएल के टेलिंग डैम का पानी लगातार खेतों में रिसता है। यहां तक कि खोदे गए कुंओं का पानी भी प्रदूषित है। छिंदीटोला के पूर्व सरपंच रहतम सिंह मिराई ने बताया कि कुंए का पानी रातभर में नीला हो जाता है। यही हाल हैंडपंप के पानी का भी है। इस पानी को रोज पीने पर शरीर में भारीपन, बुखार और शरीर में खुजली की शिकायत होती है। वहीं मवेशियों में गलघोंटू की बीमारी आम है।खतरे में पयार्वरण
टेलिंग डैम से प्रदूषित पानी की निकासी के लिए नालियां बनाई गई हैं। ये नालियां गांव के तालाब से जाकर मिलती हैं। यही पानी जमीन में रिस रहा है। इसके अलावा हवा में उड़कर आती रेत आस-पास के पयार्वरण को भी नुकसान पहुंचा रही है। बारिश होने पर रेत में मौजूद खनिज पदार्थ पत्तियों और शाखाओं को गला रहे हैं। रहतम सिंह ने सरपंच रहते हुए इस मामले पर लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन प्रशासन ने कोई सुध नहीं ली। वे कहते हैं, खदान के आस-पास पहले घने जंगल हुआ करते थे, जो रेत के बवंडर में साफ होते जा रहे हैं।
ब्लास्ट से मकानों में दरारें
खदान में रोज दोपहर 1:30 बजे एक धमाका होता है। यह समय इसलिए रखा गया है, क्योंकि तब कंपनी का प्रशासनिक तबका लंच पर होता है। धमाके की गूंज 20 किमी के दायरे में सुनाई देती है। इसके प्रभाव से 10 किमी के दायरे में मकानों की दीवारें दरक गई हैं। कंपनी के वरिष्ठ प्रबंधक एसके वर्मा का दावा है कि धमाके से मकानों को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है। अलबत्ता मलांजखंड में खुद एचसीएल के प्रशासनिक भवन की दीवारे दरक चुकी हैं। धमाकों का असर जमीन की गहराइयों तक में होरहा है। रहतम सिंह ने बताया कि गांव में जो पुराने कुंए 1972-73 में गर्मी तक लगभग सूख जाते थे, वहां अब लबालब पानी भरा रहता है। हालांकि, यह पानी अत्यधिक प्रदूषित है।
खुजली, डायिबटीज, लकवे की बीमारी
एचसीएल की खदान से सर्वाधिक प्रभावित 10 गांवों में यह बात सामने आई कि लोग 55 साल से ज्यादा नहीं जी पा रहे हैं। हैंडपंप का पानी पीकर बच्चों में खुजली, बाल झड़ने की शिकायत है, वहीं रहतम सिंह ने बताया कि इन गांवों में 70 फीसदी लोगों को डायिबटीज की शिकायत है। 50 की उम्र के बाद लकवे का अचानक दौरा पड़ता है और फिर कुछ समय बाद मौत हो जाती है। बोरखेड़ा गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग ही बचे हैं। हैरत की बात यह है कि इन शिकायतों के बाद भी एचसीएल प्रबंधन ने पानी की गुणवत्ता और प्रदूषण के स्तर की आज तक जांच नहीं की। एचसीएल मलांजखंड के प्रभारी उप महाप्रबंधक ओएन तिवारी ने कहा कि नागपुर स्थित नेशनल इन्वायरनमेंट इंजिनीयरिंग इंस्टीट्यूट (नीरी) को क्षेत्र में पयार्वरण के असर को जांचने का काम सौंपा गया है, जिसकी रिपोर्ट अक्टूबर तक मिलेगी।
दिखावे के लिए चलित अस्पताल
एचसीएल ने प्रभावित गांवों में लोगों के उपचार के लिए चलित अस्पताल का इंतजाम कर रखा है, पर यह बंदोबस्त सिर्फ दिखावेके लिए है। इसे माह में सिर्फ एक बार प्रभावित गांवों में भेजा जाता है। एक डॉक्टर और दो नर्सों का स्टाफ लोगों को सर्दी-जुकाम, बुखार की दवाएं देकर खानापूर्ति कर देता है। खुजली, चर्म रोग, गल घोंटू जैसी शिकायतों के निदान की दवाएं उनके पासनहीं होतीं। भूजल प्रदूषण की शिकायतों को देखते हुए कंपनी प्रबंधन ने 2007 में लोगों को 1200 रुपए कीमत का वॉटरफिल्टर मुफ्त उपलब्ध कराया था। यह पानी को छानकर उसमें से धूल-मिट्टी हटाने का ही काम कर सकता था, सो लोगों के किसी काम न आया और उन्होंने तमाम फिल्टर कंपनी को वापस कर दिए।
कान्हा को खतरा
एचसीएल की खदान से निकले अवशिष्ट को बंजर और सोन नदी में बहाया जा रहा है। बंजर नदी 20 किलोमीटर दूर स्थित कान्हा टाइगर रिजर्व से होते हुए मंडला में नमर्दा में मिलती है। एचसीएल के वरिष्ठ प्रबंधन एसके वर्मा खुद इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए यह दावा भी करते हैं कि इससे न तो कान्हा को कोई खतरा है, न ही नर्मदा नदी को। यह और बात है कि कंपनी के पास इस दावे के समर्थन में कोई वैज्ञानिक शोध के दस्तावेज नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि इसी बंजर नदी के पानी को इंटेक वेल के जरिए छानकर एचसीएल के कर्मचारियों को पिलाया जा रहा है, जबकि प्रभावित गांवों के बैगा आदिवासियों के लिए ऐसा कोई इंतजाम नहीं है।
वेस्ट रिसायकल प्लांट चालू नहीं!
मलांजखंड के पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष संजय उइके का दावा है कि एचसीएल ने टेलिंग डैम पर जमा हो रहे दूषित पानी को दोबारा साफ कर उपयोग में लाने के लिए रिसायकल प्लांट तो लगाया है, पर वे उसे चलाते नहीं। वहीं कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि जब जरूरत होती है, तब प्लांट को चलाया जाता है। हालांकि उन्होंने इस ‘जरूरत’ को पुख्ता तौर पर परिभाषित नहीं किया।
ठेके पर चल रहा है काम
एचसीएल खदान की 1973 में स्थापना से पहले ज़िला प्रशासन से हुए करार के तहत कंपनी ने विस्थापित 903 परिवारों के एक-एक व्यक्ति को स्थाई नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन काम मिला 757 परिवारों को। एक-दो साल बाद इन सभी को यह कहते हुए स्वैच्छिक सेवानिवृत दे दी गई कि वे खदान में काम करने के अयोग्य हैं। फिलहाल 450-500 लोग ठेकेदारों के अधीन अस्थाई रूप से काम कर रहे हैं। कहीं इन्हें 100 रुपए तो कहीं 150 रुपए की दिहाड़ी मिलती है। इन मजदूरों को प्रदूषणसे बचाने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए हैं। उइके का आरोप है कि ठेकेदारों के पास लाइसेंस नहीं हैं, इसलिए वे कानूनी झमेलों से बचने के लिए वर्क ऑर्डर को किस्तों में लागू करते हैं, ताकि 20 से कम मजदूर खपाने पड़ें।
रॉयल्टी का मामला फंसा
खदान से हर रोज जमा हो रहे अवशिष्ट को ठिकाने लगाने के मकसद से कंपनी ने मैंगनीज ओर इंडिया लि. ‘एमआईएल’ से संपर्क साधा था। एमआईएल पूरे अवशिष्ट को खरीदने के लिए तैयार भी था, लेकिन तभी मध्यप्रदेश सरकार ने इस पर 54 फीसदी की भारी-भरकम रॉयल्टी लगा दी। गुजरात में इस तरह के अवशिष्ट पर महज 10 फीसदी रॉयल्टी लगाई जाती है। नतीजतन, मसला फंस गया। अब एचसीएल ने इस अवशिष्ट को मुफ्त में देने का प्रस्ताव भी रखा है, जो विचाराधीन है। चेन्नई की कंपनी स्टार ट्रेस ने इस अवशिष्ट से रासायिनक खाद बनाने का सफल उपयोग किया है। अब कंपनी को राज्य सरकार सेरॉयल्टी कम करने की उम्मीद है।
एचसीएल के बारे में -
1. हिंदुस्तान कॉपर ने 1974 से 1977 के बीच ग्राम पंचायत बोरखेड़ा, नगर पालिका मोहगांव के तहत चार गांवों की जमीन का अधिग्रहण कर 1982 से खनन शुरू किया।
2. ओपन पिट माइन के लिए एचसीएल को 30 साल के लिए लीज मिली 1973 में।
3. देश में 70 फीसदी कॉपर यहां है और एचसीएल के कुल कॉपर उत्पादन का 80 फीसदी यहीं से होता है।
4. एचसीएल की खदान में 14 करोड़ टन कॉपर होने का अनुमान है।
5. एचसीएल फिलहाल सालाना 20 लाख मिट्रिक टन कॉपर का उत्पादन कर रही है।
6. मलांजखंड खदान में जमीन के 600 मीटर नीचे तक कॉपर होने का अनुमान है। एचसीएल ने इसी साल सेउत्पादन क्षमता 20 से बढ़ाकर 50 लाख टन सालाना करने की योजना बनाई है।
7. इसके लिए खदान को फैलाकर 725.35 हेक्टेयर तक बढ़ाया जाएगा, जो मौजूदा क्षेत्र से 248.50 हेक्टेयरज्यादा है।
8. इसमें 115 हेक्टेयर में माइिनंग हो रही है, जबकि 133 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में मलबे की डंपिंग की जारही है। इनमें 169 हेक्टेयर वन क्षेत्र में माइिनंग और 556 हेक्टेयर वन भूमि में मिट्टी से कॉपर को धोने आदि के लिए तालाब बनाए गए हैं।
मप्र प्रदूषण निवारण मंडल ने गिनाई खामियां -
1. एचसीएल खदान से निकले प्रदूषित पानी और बारिश के दौरान जमा होने वाले पानी की निकाली के लिए कोई नाली नहीं बनाई गई है। इससे बरसात के पानी के साथ खदान से निकली रेत का बहकर खेतों तक पहुंचना लाज़िमी है।
2. डंप किए गए मलबे को एक जगह इकट्ठा कर उसे एचसीएल के तालाब में डाला जाता है। जहां से खनिज को आगे की प्रोसेसिंग के लिए भेजा जाता है। इस पानी की निकासी का भी कोई इंतजाम नहीं है।
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