दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात युद्धक सामग्रियों का प्रयोग कृषि कार्य में लेने से कृषि का स्वरूप भी हिंसक हो गया है। हमारे यहां तो अनादिकाल से माना जाता रहा है कि जैसा अन्न खाएंगे वैसा ही मन बनेगा। प्रस्तुत आलेख इसी मान्यता का विस्तार है और यह मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि ‘कृषि’ की वर्तमान स्थिति पर तीखी टिप्पणी करते हुए यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि किस प्रकार हम पुनः जैविक खेती की ओर लौटे और विश्व को शांति की राह दिखाएं। का. सं.
हम जब अपने समय के युद्धों के बारे में सोचते हैं तो हमारा दिमाग इराक और अफगानिस्तान की ओर घूम जाता है। परंतु इससे बड़ा युद्ध तो हमारे ग्रह (पृथ्वी) के खिलाफ चल रहा है। इस युद्ध की जड़ें अर्थव्यवस्था में निहित हैं जो कि पर्यावरणीय और नैतिक सीमाओं, असमानता की सीमाओं, अन्याय की सीमाओं, लालच की सीमाओं और आर्थिक केंद्रीकरण को समझने में असफल हो चुकी है। कुछेक निगम और शक्तिशाली राष्ट्र पृथ्वी के संसाधनों पर नियंत्रण कर इस ग्रह को एक ऐसे ‘सुपर मार्केट’ में तब्दील कर देना चाहते हैं जहां पर कि ‘सबकुछ बिक्री’ के लिए है। वे हमारा पानी, जीन्स, कोशिकाएं, शरीर के अंग, ज्ञान संस्कृति और यहां तक कि हमारे भविष्य को भी बेच देना चाहते है।
अफगानिस्तान और ईराक में निरंतर चल रहे युद्ध केवल ‘तेल के लिए हत्या’ हेतु नहीं है। अब परत दर परत वास्तविकता सामने आ रही है ये ‘भोजन के लिए हत्या’, ‘जीन और जैव विविधता के लिए हत्या’ और ‘पानी के लिए हत्या’ के लिए भी हैं। युद्ध की इस सैन्य औद्योगिक कृषि को मानसेंटो द्वारा बनाए जाने वाले खरपतवारनाशकों के नामों से भलीभांति समझा जा सकता है। इनमें से कुछ के नाम हैं ‘राउण्ड अप’ (हांकना या गिरफ्तारी), मचेट (छुरा) एवं लासो (फाँसा)। अमेरिकन होम प्रोडक्ट जिसका कि मोनसेंटो में विलय हो चुका है, के खरपतवारनाशकों के नाम भी उतने ही आक्रामक, जैसे पेंटागन एवं स्क्वार्डन हैं। ये तो युद्ध की भाषा है और धरती पर सुस्थिरता तो शांति की ही आधारित है।
धरती के खिलाफ युद्ध की शुरुआत वस्तुतः दिमाग से प्रारंभ होती है। हिंसक विचार हिंसक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करते हैं। हिंसक वर्ग ही हिंसक अस्त्र या औजार निर्मित करता है। इसे सर्वाधिक स्पष्टता से औद्योगिक कृषि और भोजन उत्पादन प्रक्रिया में देखा जा सकता है। युद्ध के समय जो कारखाने मनुष्यों को मारने के लिए विस्फोटक और जहर बनाने का कार्य करते थे युद्ध के बाद उन्हें कृषि रसायन बनाने वाले कारखानों में परिवर्तित कर दिया गया। सन् 1984 ने मुझे इस बात को लेकर झकझोर दिया कि हम जिस तरह से अपना भोजन निर्मित करते हैं उसमें जबरदस्त कमियां हैं। पंजाब में हुई हिंसा और भोपाल में हुआ विध्वंस कमोवेश युद्ध जैसा ही तो प्रतीत होता था। यही वह समय था जब मैंने हरित क्रांति की हिंसा के बारे में लिखा और इसीलिए जहर और जहरीले पदार्थों से रहित कृषि हेतु नवधान्य को एक आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया।
कीटनाशक, जो कि युद्धक रसायन के रूप में विकसित हुए थे, के माध्यम से कीटों पर रोक असफल सिद्ध हो गई। जेनेटिक इंजीनियरिंग से उम्मीद थी कि वह जहरीले रसायनों का विकल्प प्रस्तुत करेगी लेकिन इसके बजाए उसने तो कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल में वृद्धि कर जैसे किसानों के खिलाफ युद्ध ही छेड़ दिया। अत्यधिक लागत वाले बीजों और रसायनों ने किसानों को उधारी के जाल में जकड़ दिया और वे आत्महत्या करने को मजबूर हो गए। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देखें तो सन् 1997 से अब तक 2 लाख से अधिक भारतीय किसान आत्महत्या कर चुके हैं। धरती के साथ शांति से रहना हमेशा ही नैतिक एवं पर्यावरणीय अनिवार्यता रही है। परंतु अब तो हमारी कई प्रजातियां जिंदा रह पाने की राह ढूंढती नजर आ रहीं हैं।
मिट्टी, जैव विविधता, वातावरण, कृषि और किसानों के विरुद्ध हो रही हिंसा के फलस्वरूप युद्ध सदृष्य ऐसी खाद्य प्रणाली बन गई है जो कि लोगों की भूख शांत नहीं कर पा रही है। आज एक अरब लोग भूखे हैं और दो अरब लोग भोजन से संबंधित बीमारियों जैसे मोटापा, डाईबिटीज, उच्च रक्तचाप और केंसर से पीड़ित हैं।
अस्थिर विकास में तीन स्तरों पर हिंसा का समावेश होता है। पहली है धरती के खिलाफ हिंसा, जिसकी अभिव्यक्ति पर्यावरणीय संकट के रूप में होती है। दूसरी तरह की हिंसा व्यक्तियों के खिलाफ होती है जिसे हम गरीबी, अभाव और विस्थापन के रूप में देख सकते हैं। तीसरी तरह की हिंसा युद्ध और संघर्ष के रूप में सामने आती है जिसमें कि शक्तिशाली अपने अंतहीन लालच के चलते उन संसाधनों पर कब्जा करने का प्रयास करते है जो कि दूसरे समुदाय या राष्ट्रों के होते हैं। जब जीवन का प्रत्येक आयाम ही व्यावसायिक हो जाता है तो भले ही लोग एक डॉलर प्रतिदिन से अधिक भी कमाएं तो भी वे गरीब ही बने रहते हैं।
वहीं दूसरी ओर लोग इस मौद्रिक अर्थव्यव्स्था के बिना भी समृद्ध हो सकते है। यदि उनकी पहुंच भूमि तक हो, उनकी मिट्टी उपजाऊ हो, उनकी नदियां साफ-सुथरे रूप में बहती हो, उनकी संस्कृति समृद्ध हो और उनकी सुंदर घर और वस्त्र तथा सुस्वाद भोजन बनाने की परम्परा कायम हो। इसी के साथ उनमें सामाजिक सदभाव, एकता और सामुदायिक भावना बनी हुई हो।
बाजार के शीर्ष पर बैठने और समाजों को संगठित रखने के सर्वाधिक ऊँचे स्थान के रूप में मुद्रा के मानव निर्मित पूंजी के रूप में स्थापित हो जाने से प्रकृति के सान्निध्य में सुस्थिर जीवन बने रहने की प्रक्रिया को कमतर समझा जाने लगा। हम जैसे-जैसे अमीर बनते जाते हैं वैसे-वैसे हम सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी के संदर्भ में गरीब भी होते जाते हैं। धन में आंकी गई वृद्धि हमें भौतिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय और आध्यात्मिक स्तर पर गरीबी की ओर ढकेल देती है।
जीवन की सही ‘मुद्रा’ तो जीवन स्वयं ही है और इसी से यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि हम इस विश्व में स्वयं को किस तरह देखते हैं? मनुष्य किस लिए है? क्या हम महज धन बनाने वाली और संसाधनों को हड़प जाने वाली मशीन भर हैं? या कि हमारा कुछ उच्च उद्देश्य या उच्च लक्ष्य भी है? मेरा विश्वास है कि पृथ्वी का लोकतंत्र हमारी सोच को विस्तार देता है और वह एक ऐसा जीवंत लोकतंत्र निर्मित करता है जो कि सभी प्रजातियों की जटिल संरचना पर आधारित है और मानता है कि सभी व्यक्तियों, सभी संस्कृतियों का पृथ्वी के महत्वपूर्ण संसाधनों पर न केवल न्यायोचित व बराबरी का अधिकर है बल्कि उन्हें पृथ्वी के इन संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर निर्णयों को भी साझा करना चाहिए।
पृथ्वी का लोकतंत्र उस पर्यावरणीय प्रक्रिया की सुरक्षा करता है जो कि जीवन चलाने के लिए आवश्यक है। इतना ही नहीं वह मनुष्य के जीवित रहने के मौलिक अधिकार की भी रक्षा करता है जिसमें कि पानी, भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और जीविका के अधिकार भी शामिल हैं।
अब हमें चुनाव करना होगा कि हम कारपोरेट लालच के हित में बनाए गए बाजार के कानूनों का पालन करेंगे या पृथ्वी के इकोसिस्टम और इसकी जैवविविधता बनाए रखने वाले प्राकृतिक सिद्धांतों का अनुपालन करेंगे? व्यक्तियों की भोजन और पानी की आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जबकि हम प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले भोजन व पानी की क्षमता की रक्षा कर पाएगें। मृत या निर्जीव मिट्टी और मृत नदियां हमें भोजन और पानी नहीं दे सकतीं। अतएव अपनी धरती माँ के अधिकारों की रक्षा करना हमारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानवाधिकार और सामाजिक न्याय संघर्ष है। यह हमारे समय का सबसे व्यापक सामाजिक आंदोलन भी है। (सप्रेस-थर्ड वल्र्ड नेटवर्क फीचर्स)
हम जब अपने समय के युद्धों के बारे में सोचते हैं तो हमारा दिमाग इराक और अफगानिस्तान की ओर घूम जाता है। परंतु इससे बड़ा युद्ध तो हमारे ग्रह (पृथ्वी) के खिलाफ चल रहा है। इस युद्ध की जड़ें अर्थव्यवस्था में निहित हैं जो कि पर्यावरणीय और नैतिक सीमाओं, असमानता की सीमाओं, अन्याय की सीमाओं, लालच की सीमाओं और आर्थिक केंद्रीकरण को समझने में असफल हो चुकी है। कुछेक निगम और शक्तिशाली राष्ट्र पृथ्वी के संसाधनों पर नियंत्रण कर इस ग्रह को एक ऐसे ‘सुपर मार्केट’ में तब्दील कर देना चाहते हैं जहां पर कि ‘सबकुछ बिक्री’ के लिए है। वे हमारा पानी, जीन्स, कोशिकाएं, शरीर के अंग, ज्ञान संस्कृति और यहां तक कि हमारे भविष्य को भी बेच देना चाहते है।
अफगानिस्तान और ईराक में निरंतर चल रहे युद्ध केवल ‘तेल के लिए हत्या’ हेतु नहीं है। अब परत दर परत वास्तविकता सामने आ रही है ये ‘भोजन के लिए हत्या’, ‘जीन और जैव विविधता के लिए हत्या’ और ‘पानी के लिए हत्या’ के लिए भी हैं। युद्ध की इस सैन्य औद्योगिक कृषि को मानसेंटो द्वारा बनाए जाने वाले खरपतवारनाशकों के नामों से भलीभांति समझा जा सकता है। इनमें से कुछ के नाम हैं ‘राउण्ड अप’ (हांकना या गिरफ्तारी), मचेट (छुरा) एवं लासो (फाँसा)। अमेरिकन होम प्रोडक्ट जिसका कि मोनसेंटो में विलय हो चुका है, के खरपतवारनाशकों के नाम भी उतने ही आक्रामक, जैसे पेंटागन एवं स्क्वार्डन हैं। ये तो युद्ध की भाषा है और धरती पर सुस्थिरता तो शांति की ही आधारित है।
धरती के खिलाफ युद्ध की शुरुआत वस्तुतः दिमाग से प्रारंभ होती है। हिंसक विचार हिंसक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करते हैं। हिंसक वर्ग ही हिंसक अस्त्र या औजार निर्मित करता है। इसे सर्वाधिक स्पष्टता से औद्योगिक कृषि और भोजन उत्पादन प्रक्रिया में देखा जा सकता है। युद्ध के समय जो कारखाने मनुष्यों को मारने के लिए विस्फोटक और जहर बनाने का कार्य करते थे युद्ध के बाद उन्हें कृषि रसायन बनाने वाले कारखानों में परिवर्तित कर दिया गया। सन् 1984 ने मुझे इस बात को लेकर झकझोर दिया कि हम जिस तरह से अपना भोजन निर्मित करते हैं उसमें जबरदस्त कमियां हैं। पंजाब में हुई हिंसा और भोपाल में हुआ विध्वंस कमोवेश युद्ध जैसा ही तो प्रतीत होता था। यही वह समय था जब मैंने हरित क्रांति की हिंसा के बारे में लिखा और इसीलिए जहर और जहरीले पदार्थों से रहित कृषि हेतु नवधान्य को एक आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया।
कीटनाशक, जो कि युद्धक रसायन के रूप में विकसित हुए थे, के माध्यम से कीटों पर रोक असफल सिद्ध हो गई। जेनेटिक इंजीनियरिंग से उम्मीद थी कि वह जहरीले रसायनों का विकल्प प्रस्तुत करेगी लेकिन इसके बजाए उसने तो कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल में वृद्धि कर जैसे किसानों के खिलाफ युद्ध ही छेड़ दिया। अत्यधिक लागत वाले बीजों और रसायनों ने किसानों को उधारी के जाल में जकड़ दिया और वे आत्महत्या करने को मजबूर हो गए। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देखें तो सन् 1997 से अब तक 2 लाख से अधिक भारतीय किसान आत्महत्या कर चुके हैं। धरती के साथ शांति से रहना हमेशा ही नैतिक एवं पर्यावरणीय अनिवार्यता रही है। परंतु अब तो हमारी कई प्रजातियां जिंदा रह पाने की राह ढूंढती नजर आ रहीं हैं।
मिट्टी, जैव विविधता, वातावरण, कृषि और किसानों के विरुद्ध हो रही हिंसा के फलस्वरूप युद्ध सदृष्य ऐसी खाद्य प्रणाली बन गई है जो कि लोगों की भूख शांत नहीं कर पा रही है। आज एक अरब लोग भूखे हैं और दो अरब लोग भोजन से संबंधित बीमारियों जैसे मोटापा, डाईबिटीज, उच्च रक्तचाप और केंसर से पीड़ित हैं।
अस्थिर विकास में तीन स्तरों पर हिंसा का समावेश होता है। पहली है धरती के खिलाफ हिंसा, जिसकी अभिव्यक्ति पर्यावरणीय संकट के रूप में होती है। दूसरी तरह की हिंसा व्यक्तियों के खिलाफ होती है जिसे हम गरीबी, अभाव और विस्थापन के रूप में देख सकते हैं। तीसरी तरह की हिंसा युद्ध और संघर्ष के रूप में सामने आती है जिसमें कि शक्तिशाली अपने अंतहीन लालच के चलते उन संसाधनों पर कब्जा करने का प्रयास करते है जो कि दूसरे समुदाय या राष्ट्रों के होते हैं। जब जीवन का प्रत्येक आयाम ही व्यावसायिक हो जाता है तो भले ही लोग एक डॉलर प्रतिदिन से अधिक भी कमाएं तो भी वे गरीब ही बने रहते हैं।
वहीं दूसरी ओर लोग इस मौद्रिक अर्थव्यव्स्था के बिना भी समृद्ध हो सकते है। यदि उनकी पहुंच भूमि तक हो, उनकी मिट्टी उपजाऊ हो, उनकी नदियां साफ-सुथरे रूप में बहती हो, उनकी संस्कृति समृद्ध हो और उनकी सुंदर घर और वस्त्र तथा सुस्वाद भोजन बनाने की परम्परा कायम हो। इसी के साथ उनमें सामाजिक सदभाव, एकता और सामुदायिक भावना बनी हुई हो।
बाजार के शीर्ष पर बैठने और समाजों को संगठित रखने के सर्वाधिक ऊँचे स्थान के रूप में मुद्रा के मानव निर्मित पूंजी के रूप में स्थापित हो जाने से प्रकृति के सान्निध्य में सुस्थिर जीवन बने रहने की प्रक्रिया को कमतर समझा जाने लगा। हम जैसे-जैसे अमीर बनते जाते हैं वैसे-वैसे हम सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी के संदर्भ में गरीब भी होते जाते हैं। धन में आंकी गई वृद्धि हमें भौतिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय और आध्यात्मिक स्तर पर गरीबी की ओर ढकेल देती है।
जीवन की सही ‘मुद्रा’ तो जीवन स्वयं ही है और इसी से यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि हम इस विश्व में स्वयं को किस तरह देखते हैं? मनुष्य किस लिए है? क्या हम महज धन बनाने वाली और संसाधनों को हड़प जाने वाली मशीन भर हैं? या कि हमारा कुछ उच्च उद्देश्य या उच्च लक्ष्य भी है? मेरा विश्वास है कि पृथ्वी का लोकतंत्र हमारी सोच को विस्तार देता है और वह एक ऐसा जीवंत लोकतंत्र निर्मित करता है जो कि सभी प्रजातियों की जटिल संरचना पर आधारित है और मानता है कि सभी व्यक्तियों, सभी संस्कृतियों का पृथ्वी के महत्वपूर्ण संसाधनों पर न केवल न्यायोचित व बराबरी का अधिकर है बल्कि उन्हें पृथ्वी के इन संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर निर्णयों को भी साझा करना चाहिए।
पृथ्वी का लोकतंत्र उस पर्यावरणीय प्रक्रिया की सुरक्षा करता है जो कि जीवन चलाने के लिए आवश्यक है। इतना ही नहीं वह मनुष्य के जीवित रहने के मौलिक अधिकार की भी रक्षा करता है जिसमें कि पानी, भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और जीविका के अधिकार भी शामिल हैं।
अब हमें चुनाव करना होगा कि हम कारपोरेट लालच के हित में बनाए गए बाजार के कानूनों का पालन करेंगे या पृथ्वी के इकोसिस्टम और इसकी जैवविविधता बनाए रखने वाले प्राकृतिक सिद्धांतों का अनुपालन करेंगे? व्यक्तियों की भोजन और पानी की आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जबकि हम प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले भोजन व पानी की क्षमता की रक्षा कर पाएगें। मृत या निर्जीव मिट्टी और मृत नदियां हमें भोजन और पानी नहीं दे सकतीं। अतएव अपनी धरती माँ के अधिकारों की रक्षा करना हमारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानवाधिकार और सामाजिक न्याय संघर्ष है। यह हमारे समय का सबसे व्यापक सामाजिक आंदोलन भी है। (सप्रेस-थर्ड वल्र्ड नेटवर्क फीचर्स)
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