हिन्दी में विज्ञान लेखन की समस्याएँ

विज्ञान, वैज्ञानिक पद्धति और सोच की बात दार्शनिक सवाल खड़े करती हैं, जिन पर बातें होनी चाहिए, पर इसके लिए व्यापक हिन्दी समाज में कोई तैयारी नहीं दिखती। वैज्ञानिक खोज और नई तक्नोलोजी पर ही लेखन होता रहे तो भी ठीक है। हमने अपनी भाषा और शब्दावली को सचेत रूप से खोया है। आम कामगारों में कारीगरी से जुड़े जो शब्द होते थे, उनका इस्तेमाल न कर कृत्रिम तत्सम शब्द थोपे गए। इससे घोर क्षति हुई है। हम अपने ही खिलाफ षड्यंत्र में शामिल होते रहे हैं। आज तकनीकी शब्दों के लिए अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल का कोई विकल्प नहीं बचा है। इस स्थिति को हमें मानना होगा। हिन्दी भाषियों में विज्ञान में महारत रखने वाले अधिकतर लोग हिन्दी में आदतन नहीं लिखते हैं। चूँकि पेशेवर वैज्ञानिक दिनभर अंग्रेजी में काम कर रहे हैं, अपने शोध परचे आदि अंग्रेजी में लिखकर छापते हैं, उनके पास हिन्दी में लिखने का वक्त कम होता है।

धीरे-धीरे वे हिन्दी में लिखने की क्षमता खो बैठते हैं। हिन्दी में ज्यादातर विज्ञान लेखन उनके द्वारा हो रहा है, जो खुद पेशेवर वैज्ञानिक नहीं हैं। वैज्ञानिकों का लिखा अक्सर अंग्रेजी से अनूदित मिलता है।

आने वाली पीढ़ियों में पढ़े-लिखे लोगों में भारतीय भाषाओं में विज्ञान पढ़ने-लिखने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। अक्सर इन बातों को बदलते वक्त का खेल कह दिया जाता है, पर दरअसल ये राजनैतिक सच्चाइयाँ हैं। विज्ञान की भाषा कैसी हो, इसे अक्सर राष्ट्रवाद, विकास आदि मुहावरों में ढाल कर देखा जाता है। किसका विकास?

यह सवाल उठाया जाए तो हमें बुनियादी तौर पर अलग ढँग से इस मुद्दे पर सोचना पड़ेगा। विज्ञान क्या है, किताबों में क्या लिखा होना चाहिए, कैसी भाषा होनी चाहिए, इन सवालों के जवाब हमें पढ़ने या सीखने वाले को ध्यान में रखकर सोचना चाहिए।

चूँकि अब तक ऐसा नहीं किया गया है, इसलिए अपनी भाषाओं में विज्ञान पढ़ने-लिखने की रुचि लगातार कम होती रही है। जो कुछ होता रहा है, उसे छोड़कर आगे क्या कुछ हो सकता है, उसके बारे में हम चर्चा करें।

यह समझना जरूरी है कि हमें पीछे खींचती तमाम ताकतों के बावजूद आधुनिक तक्नोलोजी हमारे जीवन का अंग बन चुकी है। दूरदराज इलाकों में भी बिजली, पानी से लेकर शिक्षा और मनोरंजन तक हर पहलू में नई तक्नोलोजी हमारे चारों ओर है, हालाँकि विज्ञान या वैज्ञानिक सोच के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

पर नई तक्नोलोजी में आधुनिक विज्ञान की भाषा है। इसलिए अगर हमारी भाषाओं में विज्ञान लेखन नहीं होगा तो ये भाषाएँ जिन्दा नहीं रह पाएँगी। चूँकि विदेशी शब्द अपने इतिहास और संस्कृति में हमसे सीधे तुरन्त नहीं जुड़ते हैं, इसलिए लम्बे समय तक हमारा मानसिक विकास पिछड़ा रहेगा।

इसलिए पहली बात तो यह है कि भाषाओं में विज्ञान लेखन का अनुपात बढ़ना चाहिए। इस वक्त हिन्दी का कोई अखबार विज्ञान पर कोई विशेष पन्ना नहीं निकालता है। यह चिन्ता की बात है कि इसे हमारी भाषा का मसला नहीं मान लिया गया है। सम्पादकों की सोच की यह सीमा बड़ी समस्या है।

शब्दावली को लेकर सवाल


क्या लिखा जाए और कैसी शब्दावली हो? यह दूसरा सवाल है। विज्ञान, वैज्ञानिक पद्धति और सोच की बात दार्शनिक सवाल खड़े करती हैं, जिन पर बातें होनी चाहिए, पर इसके लिए व्यापक हिन्दी समाज में कोई तैयारी नहीं दिखती। वैज्ञानिक खोज और नई तक्नोलोजी पर ही लेखन होता रहे तो भी ठीक है।

हमने अपनी भाषा और शब्दावली को सचेत रूप से खोया है। आम कामगार लोगों में कारीगरी से जुड़े जो शब्द होते थे, उनका इस्तेमाल न कर कृत्रिम तत्सम शब्द थोपे गए। इससे घोर क्षति हुई है। हम अपने ही खिलाफ षड्यंत्र में शामिल होते रहे हैं। आज तकनीकी शब्दों के लिए अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल का कोई विकल्प नहीं बचा है।

इस स्थिति को हमें मानना होगा। साथ-साथ हिन्दी के बहुभाषी समाज में जहाँ कारीगरी के जैसे शब्द चल रहे हैं, उनको वापस विज्ञान की शब्दावली में लाने की कोशिश करनी होगी। कई लोगों में यह गलत समझ भी है कि संस्कृत का हर शब्द हिन्दी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है।

ऐसी सोच हमारे कई वैज्ञानिकों में भी दिखती है। इसका कारण यह हो सकता है कि उनमें से अधिकतर सामाजिक-राजनैतिक चिन्तन से विमुख हैं, और वे ऐसी जातियों से आए हैं, जिनमें संस्कृत का थोड़ा बहुत प्रचलन रहा है।

मानसिक जड़ता के शिकार विद्वान


विद्वानों में यह संशय पैदा नहीं होता कि शब्दावली क्लिष्ट हो रही है। वे एक तरह की सांप्रदायिक और कुछ सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच से जन्मी मानसिक जड़ता के शिकार हैं। सामान्य छात्रों और अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है, और यह बात जगजाहिर होते हुए भी विद्वानों को नहीं दिखती है।

बीसवीं सदी के प्रख्यात भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली जरूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं, और यह बात खास तौर पर हमारे समाज में लागू होती है, जहाँ व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान हौवे की तरह है।

समय था, जब लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोलचाल में आ जाएँगे, पर ऐसा हुआ नहीं है। विरला ही कोई वैज्ञानिक होगा जो अपने काम को हिन्दी में समझा सकता है। अब ग्लोबलाइजेशन के दबाव में सरकारों की जनविरोधी अंग्रेजीपरस्त नीतियों और अन्य कारणों से स्थिति यह है कि भाषाएँ कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है।

जैसे-जैसे सम्पन्न सामंती लोग आधुनिक पूँजीवादी संस्कृति का हिस्सा बनते गए, भाषा के बारे में उनका रुख बदलता रहा है। उनको कोई फर्क पड़ता नहीं कि आम लोगों की भाषा क्या है और किस भाषा में कामकाज से उन्हें सुविधा होगी। उन्होंने पूरी तरह से अंग्रेजी को अपना लिया है।

शब्द महज ध्वनियाँ नहीं होते। हर शब्द का अपना एक संसार होता है। जब वे अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुँचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, हमारे लिए तनाव का कारण भी बन जाते हैं। सही है कि अंग्रेजी में शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई, इसे समझ कर उसका पर्याय हिन्दी में ढूँढा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुँच कर उसे संस्कृत से जोड़कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है-यह सोचने की बात है।

किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए। पर वैज्ञानिक शब्दावली का सरलीकरण आसानी से नहीं होगा। इस दिशा में जनपक्षधर साहित्यकारों को ही पहल करनी पड़ेगी।

देश भर में हजारों समर्पित लोग अपनी भाषाओं में विज्ञान लेखन पर काम कर रहे हैं। इस बारे में जानकारी फैलानी चाहिए। भोपाल की ‘एकलव्य’ संस्था ने पिछले चालीस सालों में बहुत सारी सामग्री हिन्दी में प्रकाशित की है। उनकी पत्रिका ‘चकमक’ इस वक्त हिन्दी में बच्चों के लिए सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली बेहतरीन पत्रिका है।

बहुत सारे लोग अंग्रेजी में आम लोगों के पढ़ने के लिए सामग्री तैयार करने पर अच्छा काम कर रहे हैं, उन्हें सचेत रूप से अपनी भाषाओं में लौटकर काम करना होगा। साहित्य में बांग्ला, मलयालम जैसी भाषाओं की तरह विज्ञान कथा पर सचेत रूप से काम करना होगा। ध्यान रखना चाहिए कि विज्ञान महज नई खोजों के बारे में सूचना नहीं है।

यह इनसानी फितरत है, जो हमें लगातार कुदरत और कुदरत से हमारे संबंधों के बारे में सोचने को मजबूर करती है। हम जो लिखें, उसमें विज्ञान के इस पहलू को उजागर करने की कोशिश होनी चाहिए।

प्रोफेसर, आईआईटी, हैदराबाद

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