हिमस्खलन आपदा और उससे बचाव के उपाय (Avalanche disaster and its prevention methods in Hindi)

हिमस्खलन
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(A). हिमस्खलन आपदा की भूमिका (Avalanche disaster: a perspective)

हिमालय पर्वत से निकलने वाली अनेकों नदियों का उद्गम, पर्वतों की ऊंचाई पर स्थित छोटे-बड़े हिमनदों से ही है। भारतीय हिमालय के ये हिमनद, स्वच्छ जल के विशाल भंडार भी हैं, जो हिमालय से निकलने वाली नदियों के स्रोत हैं। हिमनदों के क्षरण के कारण ही इन नदियों में निरन्तर जल उपलब्धता बनी रहती है, जिस कारण जल-विद्युत परियोजनायें, कृषि और पेयजल के संसाधनों के रूप में भी इन्हें देखा जा सकता है। अतः हिमनद, स्वच्छ जल के विशेष संसाधन हैं। पृथ्वी के बढ़ते तापमान (ग्लोबल वार्मिग) के कारण ये हिमनद संसाधन अपनी संतुलन अवस्था में नही हैं और इनका निरन्तर क्षरण हो रहा है जिसके फलस्वरुप जल संसाधनों पर भी प्रभाव होना स्वाभाविक प्रक्रिया (चित्र-7.1) है। 

चित्र-7.1, हिमालय क्षेत्र में हिमनद व हिम झील का दृश्य।चित्र-7.1, हिमालय क्षेत्र में हिमनद व हिम झील का दृश्य।

चित्र-7.1, हिमालय क्षेत्र में हिमनद व हिम झील का दृश्य।चित्र-7.1, हिमालय क्षेत्र में हिमनद व हिम झील का दृश्य।

हिमालयी पर्वत श्रृंखला पर स्थित सभी हिमनद अत्यधिक ऊँचाई पर हैं। जिस कारण इनकी भौतिक निगरानी पिघलने की दर तथा समग्र खिसकन का आकलन एक कठिन कार्य है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (2009) ने हिमालयी क्षेत्र में 9575 हिमनद की एक सूची तैयार कर दर्शाया कि हिमनदों की संख्या एवं उनका वितरण प्राकृतिक एवं स्थलानुकृतिक स्थिति पर निर्भर करता है। विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में हिमनदों की उपस्थिति तथा उन पर मौसम संबंधी कारकों का प्रभाव उस क्षेत्र एवं निचले क्षेत्रों में जल उपलब्धता निर्धारित करती है। एक अनुमान के अनुसार हिमालयी नदियों के कुल जल का लगभग एक तिहाई हिस्सा हिमनदों द्वारा निर्गत किया जाता है। जबकि शेष जल हिमाच्छादित पर्वतों पर संचित तुहिन के पिघलने, वर्षा और भूजल आदि से प्राप्त होता हैं। अतः हिमनदों का  संरक्षण एक महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण कार्य है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की हिमनद सूची के आधार पर हिमनदीय संसाधनों का सबसे अधिक भाग जम्मू एवं कश्मीर राज्य में है (5812 हिमनद) जबकि सिक्किम में कुल 449 हिमनद हैं।

हिमनद क्षेत्रों में हिमस्खलन आपदा के खतरों की संभावना हमेशा बनी रहती है। अन्य भूवैज्ञानिक आपदाओं की अपेक्षा हिमस्खलन के बारे में जागरूकता अत्यन्त कम है जिसका कारण इन आपदाओं का सूदूर, उच्च पहाड़ी क्षेत्र में घटित होना है। वर्ष 1979 में हिमालय के लाहौल में होने वाली हिमस्खलन घटना में लगभग 237 लोगों की मृत्यु हुयी, जिससे आपदा के परिदृश्य में एक नया आयाय भी जुड़ गया। विश्व मौसम संगठन (WMO) के एक आकलन द्वारा वर्ष 1947-1980 तक विश्व में लगभग 5000 लोगों की मृत्यु केवल हिमस्खलन द्वारा हुई। 

 

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कुछ हिमनद भागों में अल्पावधि पैमाने पर (मिनट/दिन) हिमस्खलन और हिम-संहारी बाढ़ द्वारा आस-पास के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण भी ग्लेशियर में कुछ स्थानों पर कमी आयी है और उनके पीछे खिसकने से हिम झीलों का निर्माण हुआ और इन झीलों के फटने/टूटने से विनाशकारी ‘ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड’ (जी.एल.ओ.एफ.) की घटनायें होती है।

(B). हिमनद क्षेत्रों में आपदा (disaster in glacial regions)

जहाँ हिमनदों का अध्ययन विकासशील अर्थव्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, वहीं हिमनदों से सम्बन्धी आपदा के कारण और इनके जोखिम को जानना भी आवश्यक है। विशेषकर वर्तमान काल हिमनदों की दृष्टि से एक अंतराहिमानी (Inter-Glacial) युग है जिसमें हिमनदों का निरंतर पश्चरण हो रहा है। हिमनदों का पुरा हिमनदीय क्षेत्र हिमोढ़ (Moraines) से ढका हुआ है, जो अत्यंत भंकुर, नाजुक और अपक्षरण’  योग्य होते हैं। अतः ऐसे क्षेत्रों में भूस्खलन, भू-कटाव एवं अन्य भूआपदायों की संभावनाएं सर्वदा बनी रहती है। 

अतः ऐसे क्षेत्रों में संरचनात्मक ढाँचा, सड़क मार्ग और अन्य विकास कार्य को सम्पादित करने के लिए एक समग्र भूवैज्ञानिकी आँकलन की आवश्यकता होती है। सामान्यतः किसी बर्फीली ढलान पर एकत्र हुई बर्फ/तुहिन (हिम-पैक) को एक कठोर परत के रूप में जाना जाता है और प्रतिवर्ष उनके आयतन में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। लेकिन कुछ विशेष भू-आकृति और स्व-आकृतिक परिस्थितियों में बर्फ-पैक की सतह, कमजोर हो जाती है और हिम-पैक पर अधिक दबाव होने के कारण, ढलान और वायु गति के अनुरूप स्खलित हो जाती है। यह बहुत तीव्र (कुछ ही सेकेंड में) होनी वाली प्रक्रिया होती है। छोटी हिमस्खलन सामग्री, हिम खंड, तुहिन और वायु मिश्रित होती है जबकि विशाल हिमस्खलनों में चट्टान खंड, हिम खंड, पेड़, तुहिन, मृदा मलवा/ अवसाद आदि होते है।  हिमस्खलन की घटनाएं मुख्यतः शीत काल में तथा वर्षा के समय घटित (चित्र-7.2) होती हैं।

चित्र-7.2, (क) हिमाच्छादित क्षेत्र में हिमस्खलन घटनाचित्र-7.2, (क) हिमाच्छादित क्षेत्र में हिमस्खलन घटना।

उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र के उच्च ऊंचाई वाले हिमआच्छदित क्षेत्र में लगभग हर वर्ष हिमस्खलन की आपदायिक घटनाएं होती है। कुछ घटनाएं अति भयावह व विनाशकारी होती हैं जिन्हे ‘‘व्हाईट डेथ’’ के रूप में भी जाना जाता है। जम्मू-काश्मीर और हिमालय प्रदेश में पूर्व में अनेकों घटनायें हुईं जिससे जान-माल की भारी क्षति हुईं। कई घटनाएं सैनिक कैंपों के निकट हुई, जिसने सेना के जवान और रणनीतिक शिविरों को नष्ट किया। हिमस्खलन की घटनाएं हिमालय पर्वत शृंखला में लगभग प्रतिवर्ष शीतकाल और अति वृष्टि में होती है। यह क्षेत्र हिमस्खलन आपदा के लिए अति संवेदनशील है। उत्तर-पश्चिम हिमालयी क्षेत्र में हिमस्खलन की घटनाओं की आवृत्ति अधिक है, कुछ विशेष क्षेत्र में इनके आपदायिक प्रभाव भी अधिक है जैसे - 

  • (i) जम्मू-कश्मीर के ऊँची पर्वत श्रृंखला (हाई एल्टिट्यूड) क्षेत्र जैसे गुरेज घाटी, कारगिल घाटी एवं लद्दाख क्षेत्र 
  • (ii) हिमालय प्रदेश की चम्बा घाटी, कुल्लू और किनौर क्षेत्र 
  • (iii) उत्तराखंड में टिहरी गढ़वाल और चमोली। सामान्यतः हिमस्खलन प्रवण क्षेत्रों को तीन मुख्य खतरे के भागों में विभाजित कर सकते हैं-
  1. 1. लाल क्षेत्र: जिसमें सबसे अधिक हिमस्खलन हो और जहां इनका प्रभावी दबाव (Impact Pressure) 3 टन प्रति वर्ग मीटर तक हो।
  2. 2. नीले क्षेत्र: जहाँ पर हिमस्खलन की शक्ति 3 टन प्रति वर्ग मीटर से कम हो। इन सभी क्षेत्रों में चेतावनी की दशा में सभीआस-पास निवासियों को क्षेत्र से बाहर जाने की सलाह दी जाती है।
  3. 3. पीले क्षेत्र: इन क्षेत्रों में हिमस्खलन बहुत कम घटित होते हैं।

 

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हिमस्खलन के दो मुख्य कारक होते हैं- 

1. प्राइम (मुख्य) कारक जैसे स्थलाकृति और वनस्पति। भौगोलिक कारकों में ढलान का आकार, अभिविन्यास और स्थान शामिल हैं। वनस्पति कारकों में वनस्पति का कवर, पेड़ों की उँचाई और वनस्पति की मोटाई शामिल है। 

2. उत्तेजनात्मक कारक: मौसम में हिमपात बर्फ की मोटाई, पवन वेग और तापमान शामिल हो सकते हैं। अन्य कारक जैसे भूकम्प या मानवीय गतिविधियों के कारण कम्पन भी हिमस्खलन की संभावनाओं को बढ़ा देते हैं।

भारत में हुए कुछ प्रमुख हिमस्खलन तथा उनके आपदायिक प्रभाव निम्न प्रकार से हैं-

  • 1. फरवरी 2016 को सियाचिन हिमनद में हुए हिमस्खलन से 10 सैनिकों की मृत्यु हुई।
  • 2. फरवरी, 2005 में कश्मीर में हुई हिमस्खलन से अनेकों गाँव प्रभावित हुए और लगभग 278 लोगों की जानें गयी।
  • 3. सितम्बर, 1995 में हिमाचल प्रदेश में आये हिमस्खलन से नीचे आये बर्फ से बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी।
  • 4. मार्च, 1991 में हिमाचल प्रदेश के टिंकू क्षेत्र में हिमस्खलन लगभग प्रतिवर्ष होता है। जिसमें यातायात मार्ग 40 दिनों तक बंद रहा।
  • 5. मार्च 1988 में कश्मीर हिमस्खलन से 70 लोगों की मृत्यु हुई और सड़क यातायात बाधित हुआ।
  • 6. मार्च 1979 में लाहौल (हि.प्र.) में हुए हिमस्खलन में 237 लोगों की मृत्यु हुई और यातायात बाधित रहा।

 

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उक्त सभी घटनाएं हिमस्खलन से होने वाली द्रुतगामी और अति आपदायिक प्रभावों को दर्शाता है। 

हिमस्खलनों को चार रूपों में वर्गीकृत किया गया है -

1. शिथिल हिम (तुहिन) हिमस्खलन:  -इस प्रकार के हिमस्खलन खड़ी पर्वतीय ढलानों में आम होते है, जो ताजी बर्फबारी के बाद ढलान के अनुरूप स्खलित हो जाते हैं। चूंकि तुहिन बर्फ को पूरी तरह जमा तथा कठोर होने का समय ही नहीं होता ।

2. स्लैब हिमस्खलन: बर्फ की स्लैब/कठोर स्लैब के खंडों या पूरी स्लैब का ढलान पर तीव्र गति से खिसकना/गिरना स्लैब हिमस्खलन की श्रेणी में आता है। 

3. मिश्रित हिमस्खलन: शिथिल हिम और हिम-स्लैब का मिश्रण एक विशाल हिमस्खलन जनित कर देता है। इस प्रकार के हिमस्खलन में निचले हिस्से में स्लैब या बर्फ, बर्फ एवं हवा का घना घनत्व होता है, जबकि ऊपरी भाग बर्फ का पाउडर या शिथिल हिम होता है जो कि एक द्रुतगामी हिमस्खलन का रूप ले लेता है। विशेषकर उस स्थिति में जब यह आगे ढलान पर बर्फीली आंधी के वेग के साथ गिरता है। इस प्रकार के हिमस्खलन की गति सामान्यतः 190 मील प्रति घंटा या अधिक हो सकती है और ये बहुत दूर तक बडे़ वेग से आगे बढ़ते हैं।

4. गीले हिमपात हिमस्खलन: ये सबसे अधिक खतरनाक प्रकार के होते है क्योंकि शुरू में धीरे-धीरे खिसकते हैं और अपने साथ हिम-पथ पर मलबा, चट्टान और अवसाद एकत्र करते रहते हैं, किन्तु अनुरूप भौगोलिक स्थिति, ढलान और बर्फीली आंधी में एका-एक अति तीव्र गति से घटित होते है। इस प्रकार के हिमस्खलन सबसे अधिक आपदायिक होते है और इनका आपदा पथ भी काफी दूर तक होता है । 

चित्र-7.3, एक हिमस्खलन के विभिन्न भागचित्र-7.3, एक हिमस्खलन के विभिन्न भाग।

सभी प्रकार के हिमस्खलन, एक निश्चित हिम मार्ग का अनुसरण करते हैं जो ढलान, बर्फ की मात्रा व प्रकार पर निर्भर करता है। एक हिमस्खलन की उत्पत्ति स्थल को ‘प्रारंभिक बिन्दु’ कहा जाता है जो सामान्यतः 30°-45° के ढलान पर होता है। जिस मार्ग पर हिमस्खलन होता हैं उसे ‘‘ट्रैक’’ या हिम मार्ग कहते है, जिसका सामान्य ढलान लगभग 20°- 30° होता है। हिमस्खलन अपनी गति के कारण जिस मार्ग से गुजरता है, वह ‘रन-आउट’ जोन कहलाता है जिसका ढलान सामान्यतः 20° से कम होता है। ढलान कोण प्रत्येक स्थान व हिमस्खलन के लिए भिन्न-भिन्न (चित्र-7.3) हो सकता है।

(C). हिमस्खलन के कारण, रोकथाम/उपचारात्मक उपाय (Causes of Avalanche, Prevention/Remedial Measures)

हिमस्खलन का कोई एक कारण नहीं होता है। अचानक या धीरे-धीरे हिम/तुहीन/ हिम खंडो का अधिकाधिक भार और हिम-पैक की बीच सतह का कमजोर होना ढलान की ओर झुकाव और बर्फीली आंधी की स्थिति में हिमस्खलन होता है। कुछ भू-पर्यावरणीय कारण भी हिमस्खलन घटनाओं की स्थिति के लिए उत्तरदायी होते है, जैसे-

  • 1. बर्फीले तूफान और वायु वेग दिशा।
  • 2. अधिक बर्फबारी: ऊँचे पर्वतीय ढलानों पर अप्रत्याशित बर्फबारी, हिम-पैक पर अधिक भार और अति-वर्षा द्वारा भी हिमस्खलन घटित होते है।
  • 3 मानवीय क्रियाकलाप: ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षों की अंधाधुंध कटान, भू-कटान से पर्वतीय ढलान पर स्थायित्व की समस्या भी हिमस्खलन का कारण हो सकता है।
  • 4. पर्वतीय क्षेत्र में मानव जनित अथवा प्राकृतिक कम्पन (भूकम्प) भी हिमस्खलन के कारण होते है।

 

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पर्वतीय शहर, सड़क मार्ग, रेल मार्ग और सैनिक शिवरों के आस-पास जहाँ हिमस्खलन के जोखिम अधिक रहते हों, कुछ रोकथाम के उपायों द्वारा हिमस्खलन के आपदायिक प्रभावों को कम किया जा सकता (चित्र-7.4) है । हिमस्खलनों से निपटने के लिए अनेकों उपचारात्मक प्रयोग किये जा सकते है, लेकिन इससे पूर्व हिमस्खलनों के क्षेत्रों की पहचान, हिमस्खलन पथ तथा ‘‘रन-आउट’’ की पूर्व जानकारी आवश्यक है।

हिमस्खलन को उनकी आपदा शक्ति और विनाश को कम करने के कई तरीके है, जैसे- 

(क) सक्रिय रोकथाम उपाय: इस प्रकार के उपायों में बर्फ के ढेर और उसकी संरचना को बाधित कर हिमस्खलन की संभावनओं और आकार को कम कर दिया जाता है। मशीनों, स्की- कटिंग या बूट पैकिंग द्वारा हिम को दबाकर या काटकर स्थायित्व प्रदान करने की प्रक्रिया होती है। छोटे हिमखंडों को ट्रिगर करके या विस्फोटकों का सीमित प्रयोग करके हटाया जाता है । इसके अतिरिक्त हिम पैक की अस्थिरता को बाधित करना तथा अत्यधिक भार को हटाना भी हिमस्खलन रोकने में कारगर हो सकता है।

(ख) निष्क्रिय निवारक प्रणाली: हिम प्रवाह मार्ग को चिन्हित कर तथा इसमें दीवार, लोहे के गटर के बाडे़ और फेन्स का प्रयोग कर हिम मार्ग में निष्क्रिय अवरोध कर भी हिमस्खलन की विभिन्नता को कम किया जा सकता है। हिम-स्खलन मार्ग में पेड़ों का घनत्व उसकी ताकत या मारक क्षमता को कम करता है वृक्षारोपण और वृक्षों को संरक्षित करना भी हिमस्खलन की आपदा को कम करने में सहायक होता है।  

(ग) हिमस्खलन आपदा मानचित्रण: आपदा प्रबंघन के लिए आवश्यक है कि क्षेत्र में उनसे होने वाले जोखिम क्षेत्रों की पहचान, मानचित्रण कर तदनुसार उपचारात्मक निर्माणों का नियोजन किया जाय ताकि इनमें प्रभावों को कम किया जा सकेगा। आपदा पूर्व तैयारी, सुरक्षा तैयारी तथा सुरक्षात्मक उपचार कर हिमस्खलन आपदा को न्यून स्तर पर लाया जा सकता है। 

यूरोप में प्रचलित हिमस्खलन के जोखिम का पैमाना प्रयोग में लाया जाता है जो जोखिम स्तर का मानचित्र कर जोखिम मानचित्रण कर उसका नियोजन करने में सहायक होता है। (सारणी-1)

सारणी-1

जोखिम स्तर

हिम स्थायित्व

हिमस्खलन जोखिम विवरण

न्यून (Low)

हिम सामान्यतः स्थिर

हिमस्खलन की सम संभावनायें अधिक दबाव से, और खड़ी ढलान  पर सम्भावना संभव यद्यपि सामान्य रूप से सुरक्षित क्षेत्र।

सामान्य (Moderate)

खड़ी ढलानों पर हिम सामान्य रूप से स्थिर अन्य स्थानों पर भी स्थिर

अधिक दबाव से ही हिमस्खलन संभव, कुछ चिन्हित खडे़ पहाड़ पर सहज हिमस्खलन संभावित, सामान्यतः सुरक्षित स्थितियां।

महत्वपूर्ण  (Important)

कई खड़ी ढलानों पर कुछ हिम पिंड

कई ढलानों पर हिमस्खलन होने की संभावना केवल हल्के भार (दबाव) से हो सकती है।

अधिक (High)

अधिकतर खड़ी चट्टानों  में हिम/हिम स्लैब स्थिर नहीं

अनेकों ढलानों पर हिमस्खलन संभावित चाहे बहुत कम भार भी हो। कुछ क्षेत्रों में छोटे/बड़े

 हिमस्खलन भी संभावित

अत्यधिक (Severe)

हिम/हिम खंड हिम स्लैव अस्थिर

सामान्य ढलानों पर भी विशाल हिमस्खलन संभावित।

 

(घ) हिमस्खलन की पूर्व चेतावनी: ढलानों पर गिरी बर्फ अलग-अलग समय मौसम और समयावधि के कारण प्रत्येक परत में बर्फ संरचना आकार, घनत्व, आकृति, आकार आदि अलग से विकसित होते हैं। समय के साथ प्रत्येक परत कई भौतिक प्रक्रियाओं से गुजरती है। ऊर्जा विनियम और पुनः जमाव का क्रम चलता रहता है। ये सभी कारक बर्फ पैक के गुणों में बदलाव के लिए जिम्मेदार हैं और हिमपैक की स्थिरता का आभास देते हैं। अतः स्नोपैक का स्थायित्व एक गतिशील और लगातार चलात्मक प्रक्रिया है। हिमस्खलन के पूर्वानुमान हेतु ‘‘स्नो पैक‘‘ की प्रोफाइल के अध्ययन से ‘‘कमजोर सतह’’ की पहचान की जा सकती है जिस पर भविष्य में हिमस्खलन होने की अत्यधिक संभावना हो। कमजोर सतह पर तनाव का आकलन कर और अतिरिक्त तनाव की संभावनाओं का मूल्यांकन कर हिमस्खलन का पूर्वानुमान किया जाता है। यह एक जटिल और जोखिमपूर्ण कार्य है। यद्यपि इस प्रकार का विश्लेषण एक गुणात्मक प्रकृति का होता है किन्तु एक परिमाणिक संकेत अवश्य देता है। भूकंप के झटके हिमस्खलन पर सीधा असर डालते है। भूकम्पीय झटकों की बढ़ती प्रवृति को क्षेत्र में हिमस्खलन गतिविधियों का संकेतक भी माना जा सकता है।

हिमालय के दूरस्थ ऊँचे शिखरों पर हिम-पैक, हिमनद तथा हिमस्खलन होने के कारण परंपरागत सर्वेक्षण का कार्य करना मुश्किल होता है। अतः सैटेलाइट रिमोट सेंसिंग इन उद्देश्यों के लिए सबसे प्रभावी प्रणाली है, विशेषकर दूरूह हिमस्खलन प्रवण क्षेत्रों में। बर्फ के आवरण, उसमें समयकाल में परिवर्तन तथा बदलाव की जानकारी हेतु आप्टीकल (LISS-III) पैन कार्टोग्राफिक सैटेलाइट (Cortosat), माइक्रोवेव तथा रडार सेट इमेजरी का प्रयोग उपयोगी जानकारी उपलब्ध कराता है जिससे हिमस्खलन के पूर्वानुमान में सहायता मिलती है। ये प्रणाली मौसम की स्थिति जानने में भी उपयोगी होती है।

चित्र-7.5,(क) पर्वतीय क्षेत्र में हिमनद झील का टूटना।चित्र-7.5,(क) पर्वतीय क्षेत्र में हिमनद झील का टूटना।

चित्र-7.5,(ख) हिम-झील बनने की आदर्श प्रक्रिया, ।चित्र-7.5,(ख) हिम-झील बनने की आदर्श प्रक्रिया, ।

चित्र-7.5,(ग) ग्लेशियर (हिमनद) के पिघलने पर बनी झील व मोरेन बाँध के टूटने का एक साधरण रेखाचित्र।चित्र-7.5,(ग) ग्लेशियर (हिमनद) के पिघलने पर बनी झील व मोरेन बाँध के टूटने का एक साधरण रेखाचित्र।

4. हिमनद झीलों का टूटना व संबंधित आपदा -  हिमनद (ग्लेशियर) के निकट बनी प्राकृतिक झीलों के अचानक टूटने से बाद की  निचले भागों में स्थिति आपदायिक (चित्र-7.5) हो जाती है। इस प्रकार की घटनाओं को ‘‘ग्लेशियर लेक आउटब्रस्ट फ्लड’’ (GLOF) कहा जाता है। इस प्रकार की हिमनद झीलों का आयतन अलग-अलग होता है, कुछ झील विशाल होती है जिनमें पानी की मात्रा कई मिलियन घन मीटर तक होती है, जबकि कुछ झीलें छोटी होती है। इन झीलों में जलसंचय हिमनद के पिघलने से होता है। झीलों का निर्माण हिमनद के पश्चरण द्वारा होता है। झीलों का निर्माण हिमनद के जल प्रवाह के किसी जलोढ़ (Moraine) का स्खलन, हिम खडों से बाधित होने पर या सामान्य भूस्खलन द्वारा प्राकृतिक रूप से होता है। हिमनद जलोढ़ के निरन्तर क्षरण, अपदयन और भू-कटाव से तथा हिमनदों के पश्चरण जल द्वारा ये झीलें टूट जाती है और समस्त संचित जल बहकर बाढ़ आपदा का रूप ले लेता है। हिमालयी ऊँचे पर्वतीय भाग में इस प्रकार की आपदायिक घटनाएं प्रायः होती रहती हैं। ये झीलें, क्योंकि हिमनद जलोढ़, अवसाद अथवा बर्फ द्वारा ग्लेशियर से निकली नदी धरा को अवरूद्ध कर निर्मित होती हैं अतः इनके टूटने की संभावनायें अधिक होती हैं। प्राकृतिक बांध सामग्री में अति वर्षा एवं भू-कटान द्वारा क्षरण निरन्तर होता रहता है जिससे इन हिम झीलों के टूटने का जोखिम भी अधिक होता है। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार, जलवायु परिवर्तन से भी पिछले दशक में झीलों के टूटने की घटनाओं में अधिकता आयी है। नेपाल हिमालय में सबसे अधिक घटनाएं हुई है।

 

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(D) गंगोत्री हिमनद का आपदायिक पश्चरणः पावन गंगा का उद्गम - 

पावन गंगा और राष्ट्र नदी का उद्गम सुदूर हिमालय पर स्थित गंगोत्री हिमनद से है। प्राचीन काल में एक मान्यता के अनुसार गंगा का उद्गम तिब्बत के पठार पर एक बड़ी झील ‘मानसरोवर’ या इसके पश्चिम में ‘राक्षस ताल’ को समझा जाता रहा है। मान्यता के अनुसार इन झीलों से निकलकर गंगा हिमालय में छुपी कन्दराओं में विलुप्त होने के पश्चात पुनः गंगोत्री के निकट अवतरित होती हैं।

किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जेम्स बेली प्रफेजर ने हिमनद को ही गंगा का उद्गम स्थल माना। उसके पश्चात 1817 में कैप्टन हाॅजसन ने अपने ‘यात्रा वृतांत’ में ‘गोमुख’ का विस्तारपूर्वक वर्णन किया, उनके अनुसार गंगा नदी एक 300 फीट ऊँची बर्फ की दीवार में स्थिर गुफा से अवतरित होती है। उसके बाद हुये सर्वेक्षणों से पता चला कि गंगा का उद्गम गंगोत्री हिमनद से ही है। यह हिमनद समुद्र तट से लगभग 7138 मीटर की ऊँचाई पर गढ़वाल हिमालय शृंखला की चोटी पर स्थित है, जबकि गोमुख लगभग 4000 मीटर की ऊँचाई पर है। गंगा (भागीरथी) नदी गोमुख से निकलकर भागीरथी घाटी में बहती हुई देव प्रयाग में आकर अलकनंदा नदी में मिल जाती है। इस नदी संगम के उपरांत इसे ‘गंगा’ नदी कहा जाता है। 

गंगा के उद्गम स्थल की महत्ता को समझते हुए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के भूविज्ञानी ग्राइकवैक (1891) ने हिमनद के मुख भाग का एक रेखाचित्र बनाया, तत्पश्चात ऑडेन (1935) ने गोमुख और उसके आसपास क्षेत्र का पहली बार मानचित्र कर भविष्य में होने वाले सभी अध्ययनों के लिए एक मूलभूत ढाँचा तैयार किया। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने अनेकों पुर्नावृति सर्वेक्षण  गंगोत्री हिमनद क्षेत्र में कर सुझाया कि पिछले चार दशकों (1956-1996) में गंगोत्री हिमनद का लगभग 30 मीटर प्रति वर्ष की औसत दर से पश्चरण’  हो रहा है। गंगोत्री हिमनद की लम्बाई 30 किमी. के लगभग है और क्षेत्रफल 143 वर्ग किमी. है। अतः दूरगामी परिणाम चिंता का विषय हो सकता है। इसी क्रम में यह जानना भी आवश्यक है कि हिमालय पर्वत में अन्य हिमनदों में भी पश्चरण अलग-अलग गति से हो रहा है और विश्व भर में लगभग सभी हिमनदों का क्षरण भी किसी न किसी रूप में हो रहा है, अर्थात यह एक वैश्विक समस्या (चित्र-7.6) है।

इस प्रकार हिमनदों के विश्व स्तर पर और विशेषकर हिमालयी क्षेत्र में पिघलने का और उत्तरोत्तर संकुचन का एक दौर वर्तमान में चल रहा है। इसके कारण हिमनदों के आकार एवं मोटाई में कमी देखी जा रही है, यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। भूवैज्ञानिक समय सारणी के अनुसार भी, पृथ्वी के इतिहास में वैश्विक स्तर पर कम से कम चार चक्र ऐसे हुये है जिनमें हिमनदों का क्षरण हुआ और हिमयुग आने से पुनः हिमनदों के आयतन में वृद्धि हुई और यह चक्र चलता रहा। अतः वर्तमान में हम एक अंतर हिमनदीय युग में हैं जिसमें हिमनदों का क्षरण निरंतर वैश्विक स्तर पर हो रहा है। भारत के संदर्भ में, हिमालय क्षेत्र के हिमनदों का पिघलना भी इसी आलोक में देखा जा सकता है।

अतः आवश्यक है कि हिमनद क्षेत्रों विशेषकर गंगोत्री हिमनद क्षेत्र को पर्यावरणीय प्रदूषण, वृक्षों के कटान और कार्बन विस्तारण आदि से यथासंभव बचाया जाए, इसके दूरगामी सकारात्मक प्रभाव होगें।

चित्र-7.6,(क) गंगोत्राी (गोमुख) हिमनद, उत्तराखंड।चित्र-7.6,(क) गंगोत्राी (गोमुख) हिमनद, उत्तराखंड।

चित्र-7.6,(ख) गंगोत्राी हिमनद का निरंतर पश्चसरण का सेटेलाइट चित्र ।चित्र-7.6,(ख) गंगोत्राी हिमनद का निरंतर पश्चसरण का सेटेलाइट चित्र, ।

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  • 4. सिंह, र.कु. एवं सांगेवार/च.वि. 2006, ए भारतीय हिमालय के हिमनद, क्षेत्रीय वैज्ञानिक एवं तकनीकी कार्यशाला के संकलन, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, लखनऊ, पृ. 2
  • 5. वी.के. रैना एवं डी श्रीवास्तव, 2008, ग्लेशियर एटलस ऑफ इंडिया, ज्योलाजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, बैंगलोर पृ. 316
  • 6. सांगेवार, च.वि. एवं शुक्ला, एस.पी. (संपादक), 2009, इन्वेंटरी ऑफ हिमालयन ग्लेशियर, ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, स्पेशल पब्लिकेशन नं. 34
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