हिमालयी पर्यावरण को बचाने के लिए समर्पित कर्मवीर

सुंदर लाल बहुगुणा।
सुंदर लाल बहुगुणा।

हिमालय और उससे लगता हिमालयी क्षेत्र, न सिर्फ भारत बल्कि पूर एशिया के पर्यावरण को प्रभावित करता है। इस क्षेत्र में कई ऐसे कर्मवीर हैं, जो एक अरसे से विश्व को पर्यावरण संरक्षण का संदेश दे रहे हैं। गौरा देवी का चिपको आंदोलन विश्व प्रख्यात रहा, तो सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे लोग चिपको आंदोलन से लेकर अब तक इस मुहिम में जुटे हुए हैं। एक दौर में पहाड़ में डाल्यूं का दगड्या आंदोलन प्रसिद्ध हुआ तो अब पाणी राखो, मैती अैर प्लास्टिक फ्री मसूरी-दून जैसे आंदोलन चल रहे हैं। कुछ एक्टिविस्ट तो अपने जीवन को ही पर्यावरण बचाने में ढाल चुके हैं। 

स्कूल काॅलेज गोइंग विद्यार्थी बन गए पर्यावरण मित्र

प्रमोद बमराड़ा ने पर्यावरण के क्षेत्र में कुछ करने की अपने दोस्तों के साथ शुरुआत की और पौधारोपण शुरू कर दिया। कारवां जुडता रहा, अब उनके साथ पांच सौ काॅलेज व स्कूल जाने वाले विद्यार्थी जुड़ गए हैं। अपने साथियों और स्टाॅप टीयर्स संस्था के जरिए प्रमोद बमराड़ा ने पौडी जिले के कांडा मंदिर के पास कांडा गांव में एक हजार रेशम के पौधे रोपे गए। जिनसे रोजगार की संभावनाओं के साथ हरियाली उगाना भी उद्देश्य था। युवाओं में पर्यावरण की अलख जगाने के लिए सैंकड़ों  पौधों के रोपण के साथ ही प्रमोद ने गढ़वाल के हर जिलों में भ्रमण कर पर्यावरण संरक्षण का प्रण लिया है। अब स्टाॅप टीयर्स के जरिए रुद्रप्रयाग जिले में डीएम के सामने नया प्रस्ताव रखा है। जिसमें कहा है कि जिले के हर स्कूल में विश्व पर्यावरण दिवस पर पौधा रोपण किया जाएगा। वर्षभर इन पौधों की पूरी निगररानी करके रिपोर्ट भी भेजी जाएगी और एक वर्ष बाद उन्हें सम्मानित किया जाएगा। उम्मीद है कि रुद्रप्रयाग में सफलता मिलने के बाद दूसरे जिलों में भी शुरुआत होगी तो पूरे प्रदेश में जितने स्कूल हैं, वहां बड़ी मात्रा में पौधारोपण हो जाएगा। 

सूखे इलाकों को बनाया हरा भरा

सच्चिदानंद भारती ने पाणी राखो आंदोलन की शुरुआत 1987 में की थी, दावा है कि उन्होंने 30 हजार छोटे पानी के खाल बना दिए हैं। पौड़ी जिले के उफरैखाल में सूखा पड़ा था, मेहनत की तो यहां के गधेरे में पानी आले लगा। कहते हैं कि चार दशकों से पानी का संकट खडा हो रहा है और पहले नहीं था। कहते है। कि नदी मां है, नदी की मां पानी की स्त्रोत, स्त्रोत की मां घने जंगल और उनकी मां चालखाल। इन सबसे लिए घने जंगलों की जरूरत है। अब वे बद्रीनाथ में मातामूर्ति के पास तालाब बनाने को काम करेंगे। 

बायोडावर्सिटी पर बसा दिया गांव

हैस्का संस्था के जरिए हिमालयी क्षेत्रों में लंबे समय से बायोडायवर्सिटी पर काम कर रहे पर्यावरणविद व पद्मश्री डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी लंबे वक्त से गांव गांव पहुंचकर पर्यावरण संरक्षण की अलख जगा रहे हैं। उन्हें कई अवार्ड मिल चुके हैं। वे पारंपरिक फसलों को बचाने के लिए ग्रामीणों को उन्नत किस्म के बीजों को उपलब्ध करवाने के साथ ही गोबर गैस के प्रति लोगों को जागरुक करने का भी प्रयास कर चुके है। हजारों की संख्या में पौधारोपण करने के साथ डाॅ. जोशी का कहना है कि बार बार अतिवृष्टि, ओलावृष्टि जैसे होने वाली घटनाएं संकेत दे रही हैं कि अब सजग होने की जरूरत है। ये संदेश व्यक्ति विशेष के अलावा सरकार का नहीं, बल्कि सामुहिक दोष है। वें आज के दौर में सकल पर्यावरण उत्पाद पर जोर देते हैं।

5000 किमी पैदल चले बहुगुणा

टिहरी में जन्में सुंदरलाल बहुगुणा ने 13 साल की उम्र में राजनीतिक करियर शुरू किया। 1960 के दशक में उन्होंने अपना ध्यान वन और पेड़ की सुरक्षा पर केंद्रित किया। पर्यावरण सुरक्षा के लिए 1970 में आंदोलन पूरे भारत में शुरू हुआ। चिपको आंदोलन उसी का एक हिस्सा था। गढ़वाल हिमालय में पेड़ों के काटने को लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन हुए। मार्च 1974 में चमोली जिले की ग्रामीण महिलाएं पेड़ काटने के लिए ठेकेदार के आदमियों के आते ही पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गईं। यह विरोध प्रदर्शन तुरंत पूरे देश में फैल गया। 1980 की  शुरुआत में बहुुगुणा ने हिमालय की 5 हजार किलोमीटर की या़त्रा की। उन्होंने यात्रा के दौरान गांवों का दौरा किया और लोगों के बीच पर्यावरण सुरक्षा का संदेश दिया। 

अंतः प्ररेणा से पर्यावरण संरक्षण

पर्यावरणविद और मैगसेसे पुरस्कार विजेता चंडी प्रसाद भट्ट ने वर्ष 1964 में गोपेश्वर में दशोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना की, जो कालांतर में चिपको आंदोलन की मातृ संस्था बनी। वे इस कार्य के लिये 1982 में रेमन मैगसेस पुरस्कार से सम्मानित हुए। वर्ष 2005 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया। भारत सरकार द्वारा साल 2013 में उन्हें गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1970 में अलकनंदा में आई बाढ़ ने उनका जीवन बदल कर रख दिया। तब से वें लगातार पौधारोपण के लिए सक्रिय रहे। भट्ट का कहना है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए अंतः प्रेरणा जरूरी है, इसके बिना कोई भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य नहीं कर सकता। 

पर्यावरणविद कल्याण सिंह रावत।पर्यावरणविद कल्याण सिंह रावत।

मायके की याद में पौधारोपण की परंपरा

पेशे से शिक्षक रहे पर्यावरणविद कल्याण सिंह रावत ने शादी के दौरान नव विवाहित जोड़ो से पौधारोण की शुरूआत की। 1995 में चमोली के ग्वालदम से शुरू हुए इस अभियान को मैती आंदोलन का नाम दिया गया। मैती का मतलब  मायका। दावा किया गया है कि इस आंदोलन के तहत अब तक करीब पांच लाख पौधों का रोपण किए जाने के साथ ही दुनियाभर के कुछ देशों में आंदोलन पैर पसार चुका है। मैती आंदोलन को प्रमुख कल्याण सिंह स्टेट के फेमस राजजात नंदा देवी राजजात यात्रा  के दौरान 13 जिलों की महिलाओं ने पेड़ लगाए और दस हजार बांज के पेड़ों का जंगल रूपधारण कर चुका है। कहते हैं कि अभियान में तेजी लाने के लिए स्कूल, काॅलेजों व महिलाओं के बीच पहुंचने की कोशिश की जाएगी। 

वृक्ष पुरुष पहनने लगा हरे रंग के कपड़े

चमोली के विकासखंड देवाल और ग्राम पूर्णा के रहने वाले त्रिलोक सोनी का पर्यावरण के प्रति ऐसा प्रेम बढा कि वे पूरी तरह हरे रंग के कपड़े पहनने लगे। पौधा लगाने की उनकी मुहिम इस कदर आगे बढ़ी कि वो भी प्रकृति के रंग में रंग गए। अब तक राज्यभर में 10 हजार पौधे लगाने वाले त्रिलोक सोनी खुद भी हरे कपड़े पहनते हैं। शादी समारोह हो या बर्थडे पार्टी, वह सभी को पौधे ही उपहार में देते हैं। त्रिलोक ने बताया कि बचपन में जब वो अपनी मां के साथ गाय-भैंय को चराने के लिए दूर-दराज भटकते थे, तब से उन्होंने मन में यह ठान लिया था कि वह प्रकृति को इतना हराभरा करेंगे कि किसी को भी इस तरह से भटकना नहीं पड़ेगा। बताया कि अब तक केंद्रीय मंत्रियों सहित आठ सौ लोगों को पौधे उपहार में दे चुके हैं। इसके लिए उन्हें जगह-जगह सम्मानित भी किया जा चुका है। 

पहाड़ों को प्लास्टिक मुक्त करने की मुहिम 

मल्टीनेशनल कंपनियों में कई देशों में सेवा करने के बाद अनूप नौटियाल कुछ करने के इरादे से उत्तराखंड लौटे। 2008 में राज्य सरकार के साथ मिलकर 108 इमरजेंसी सेवा की शुरुआत की और कुछ दिन इसके स्टेटे हेड रहे। बीच के कुछ समय राजनीति में रहे, लेकिन राजनीति रास नहीं आई। अब गति फाउंडेशन के माध्यम से पर्यावरण और शहरीकरण के मसलों पर कार्य कर रहे हैं। उनकी संस्था और मसूरी को प्लास्टिक मुक्त करने की दिशा में कार्य कर रहे हैं। कोठालगेट से कैंपटी फाॅल तक वे एक मल्टी नेशरनल कंपनी के साथ मिलकरर प्लास्टिक एक्सप्रेस वैन चला रहे हैं। जो सभी ढाबों और मैगी प्वाइंट्स से प्लास्टिक कूड़ा उठाती है। इससे पहले वे मसूरी में प्लास्टिक आडिट और दून में प्रदूषण मेज़रमेंट का कार्य कर चुके हैं।
 
इंडिया आकर बन गई गार्बेज गर्ल

ब्रिटेन में पली-बढ़ी जूडी अंडरहिल 2008 में भारत में एक विदेशी सैलानी  की तरह आई। यहां सुंदर पहाड़ों में बिखरे कचरे ने उन्हें निराश किया और जूड़ी अंडरहिल ने यहीं रहकर इस समस्या से लड़ने की ठान ली और तभी से ही भारत को स्वस्थ, स्वच्छ और सुंदर बनाने में जुट गई। अपने साथियों संग जूड़ी ने हाथों में दस्ताने पहने और कचरा उठाने के लिए बैग लेकर गंदगी भरे इलाकों में जाकर वेस्ट वाॅरियर बन गई। उसका यह जज्बा देखकर लोग उनसे जुड़ने लगे। आज उनकी संस्था वेस्ट वाॅरियर्स दुनियाभर में जाना पहचाना नाम हो चुकी है। जूड़ी अब भारत के पहाड़ी इलाकों को अपना ही घर मान चुकी हैं। उसे गार्बेज गर्ल के रूप में पहचान मिल  चुकी है। 

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