हिमालयी पर्यावरण एवं मात्स्यिकी (Himalayan Environment & Fisheries in Hindi)

संसाधन


हिमालय क्षेत्र में 19 प्रमुख नदियाँ हैं, जिनमें सिन्धु तथा ब्रह्मपुत्र सबसे बड़ी नदी प्रणाली हैं। शेष 17 नदियों में से 5 सिन्धु, 9 गंगा तथा 3 ब्रह्मपुत्र प्रणालियों के अंग हैं। इन नदी प्रणालियों के अतिरिक्त इस क्षेत्र में अनेक प्रकार की महत्त्वपूर्ण झीलें भी हैं जिनमें वूलर, डल, मानसबल, होकरसर, नारानबागसर, अहंसर, तिलवांसर, नीलनाग, शेषनाग, विशनसर, किशनसर, अल्पथर, जम्मू-कश्मीर में, रेणुका, खजिआर, चन्द्रताल, हिमाचल प्रदेश में तथा उत्तर प्रदेश में नैनीताल, सातताल, खुर्पाताल, भीमताल, नौकुचियाताल, देअरीताल, डोडीताल, वसुन्धराताल सहस्राताल, देवताल आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त हिमालय के ऊँचे क्षेत्रों में खारे पानी की झीलें लद्दाख क्षेत्र में त्सो-मोरारी व पेगोंग-त्सो हैं। मानव निर्मित झीलों में सलाल, (जम्मू कश्मीर) गोविन्द सागर व पोंग (हिमाचल प्रदेश) एवं उमेम (मेघालय) प्रमुख हैं।

शीत जलस्रोतों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है-

नदियाँ/धाराएँ

लम्बाई 10,000 कि.मी.

प्राकृतिक झीलें

20,000 हेक्टेयर

जलाशय

50,000 हेक्टेयर

खारे पानी की झीलें

2500 हेक्टेयर

मात्स्यिकी का स्तर एवं जैव विविधता


ठण्डे जल में पायी जाने वाली मत्स्य प्रजातियों की संख्या 258 हैं जिनमें 203 प्रजातियाँ हिमालय क्षेत्र में, 91 दक्षिण पर्वतीय क्षेत्र में पायी जाती हैं। अनियंत्रित व अत्यधिक मानव गतिविधियों के कारण इन जलस्रोतों में पाए जाने वाली मत्स्य जैव विविधता तथा इनका पारिस्थतिकी स्तर और मछलियों की उपलब्धता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इन कारणों से हिमालय क्षेत्र में अत्यधिक प्रभावित महासीर, भारतीय ट्राउट व विदेशी ट्राउट प्रजाति की मछलियाँ हैं। गहन अध्ययन व सूचनाओं पर आधारित जाँच से पता चला है कि 33 महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ फिर न उभरने के स्तर तक पहुँच चुकी हैं और ऐसी सम्भावना है कि वे अपना व्यावसायिक व आखेट स्वरूप खो सकती है। इनमें से 3 प्रजातियाँ (राइमस बोला, टिकोबारबस, कोनिरास्ट्रिस) लुप्तप्राय 8 असुरक्षित प्रजातियाँ (मुख्यतः शाइजोथोरैक्स, रिचार्डसोनी, टौर टौर, साइजोथोरेक्थीस प्रोजेस्टस) एवं सात प्रजातियों (डिप्टीकस मैकुलेटस, साइजहो पागोपसिस, स्टोलिजकी, साइजोथोरेक्थीस इसोसाइनस, ग्लिप्टोथोरैक्स रेटिकुलेटम) को ‘दुर्लभ’ समूह में रखा गया है।

50 दशक के आस-पास मध्य हिमालय क्षेत्र के विभिन्न जलस्रोतों से बड़े आकार की महाशीर मछलियों को पकड़ना एक आम बात थी। भीमताल झील से 22 कि.ग्रा. की महाशीर, यमुना नदी से 15-17 किग्रा. की महाशीर तथा सरयू नदी से 30-35 किग्रा. की महाशीर का पकड़ा जाना इस मछली की बहुलता का द्योतक है। परन्तु समय के साथ इस मछली का आकार व भार घटता ही चला गया। वर्तमान में हिमालय क्षेत्रों से पकड़ी जाने वाली महाशीर मछली का औसत भार केवल 100-1500 ग्रा. ही होता है। कभी-कभी कोई दुर्लभ मछली 3 कि.ग्रा. तक पकड़ी गई है। इस मछली की संख्या में अति संवेदनशील सूचांक तक ह्रास होना इस बात का प्रमाण है कि सुनहरी मछली इन जलस्रोतों में लुप्त होने के कगार पर है। (तालिका देखें)

जलस्रोत

अवधि

उत्पादन (कुन्तल में)

भीमताल झील

1983-84

0.530

 

1990-91

0.245

सातताल झील

1983-84

0.050

 

1990-91

0.020

गोविंदसागर बाँध

1976-77

468.70

 

1989-90

31.4

पोंग बाँध

1982-83

101.49

 

1990-91

59.50

असेला प्रजाति की मात्स्यिकी का स्तर भी उत्साहवर्धक नहीं है विशेषकर उन झीलों में जिनमें कभी ये बहुलता से पायी जाती थी। उत्तर प्रदेश के हिमालय क्षेत्र की झीलों एवं कश्मीर राज्य के जलस्रोतों में तीव्रता से घटती हुई इन मछलियों की संख्या भी चिन्ता का विषय बनी हुयी है। विभिन्न जलस्रोतों से उत्पादित मात्स्यिकी का निरन्तर ह्रास होना नीचे दिए गए आंकड़ों से स्पष्ट हैः-

जलस्रोत

समय

स्नो ट्राउट उत्पादन

डल झील

1968-87

20.3

वूलर झील

1980-83

32.4

अचांर झील

1977-79

19.5

मानसबल झील

1977-71

27.8

नरानबाग झील

1980-82

20.7

भीमताल झील

1984-90

0.7

नौकुचियाताल झील

1984-90

0.3

इन प्राकृतिक जलस्रोतों से असेला जाति की मछली का औसत भार 80-1000 ग्राम के बीच होता है। परन्तु कभी-कभी नदियों या अन्य जल धाराओं से पकड़ी गई असेला मछली का भार 2 किग्रा. तक आंका गया है। प्राकृतिक नदियों में इसके स्तर में कुछ गिरावट तो आई है किन्तु संवेदनशील सूचांक तक इसका स्तर नहीं पहुँच पाया है। इसकी संख्या में 10-20 प्रतिशत तक गिरावट आंकी गयी है।

ब्राउन ट्राउट के संबंध में हिमाचल प्रदेश एवं कश्मीर के कई नदी नालों से पकड़ी गई ट्राउट मछलियों की संख्या में निश्चित रूप से गिरावट आयी है जो इस प्रकार हैः-
 

जलस्रोत

अवधि

(औसत भार ग्राम)

बृंगी (जम्मू कश्मीर)

1965

1400

 

1974

1810

इरीन (जम्मू कश्मीर)

1965

800

 

1974

480

लिडडर (जम्मू कश्मीर)

1969

275

 

1972

175

सिन्ध (जम्मू-कश्मीर)

1969

385

 

1972

210

व्यास (हिमाचल प्रदेश)

1965

260

 

1987

087

भारतीय ट्राउट (राइमस बोला) भी जिसका विस्तार पश्चिम से उत्तर पूर्वी हिमालय तक है ‘लुप्तप्राय’ प्रजाति है। सत्तर के दशक तक भरेली (आसाम) नदी में इस मछली का वजन 2 किग्रा. तक अंकित किया जा चुका है परन्तु अब 500 किग्रा. के लगभग आकार की मछली का मिलना भी दुर्लभ है। एक प्रकार से यह मछली ‘लुप्तप्राय’ हो गयी है।
 

मत्स्य जैव विविधता में क्षति के कारक


शीतजल मत्स्य प्राणियों विशेष रूप से विदेशी ट्राउट महाशीर एवं स्नोट्राउट के पतन के मुख्य कारण निम्न हैं-

- प्राकृतिक मत्स्य आवासों का विनाश एवं बढ़ती जनसंख्या का दबाव।
- मत्स्य सम्पदा का अत्यधिक क्रूर तरीके से विनाश।
- जलस्रोतों से अन्य कार्यों के लिये अत्यधिक मात्रा में पानी की निकासी।
- नदियों पर बनने वाले बाँध एवं उनसे संबंधित परियोजनाएँ।
- जलस्रोतों में प्रजनन स्थलों का विनाश तथा प्राकृतिक नियोजन का न होना।
- विदेशी मछलियों का इन जलस्रोतों में प्रवेश।
- जलीय संसाधनों का प्रदूषण।

हिमालयी पर्यावरणपर्वतीय क्षेत्रों की मात्स्यिकी के प्रबन्धन तथा संरक्षण की योजनाओं तथा अभिकल्पनाओं के लिये आधारभूत आवश्यकताओं में पानी के स्रोतों सहित जल जैविकी का अनुश्रवण (monitoring) करना सम्मिलित है। चूँकि शीतजल मत्स्य प्रजाति जल के तापक्रम तथा उसकी गुणवत्ता दोनों के प्रति अति संवेदनशील है। अतएव वर्ष भर जल की गुणवत्ता में होने वाले परिवर्तनों के विभिन्न पारिस्थितिक तन्त्रों से भी इनकी संख्या प्रभावित हुई है। जम्मू कश्मीर राज्य में मत्स्य संसाधनों का मुख्य स्रोत डल झील के जल की गुणवत्ता में हुए परिवर्तनों को नीचे दी गयी सारणी के आकंड़े प्रतिबिम्बित करते हैं:-

पैरामीटर

1965-66

1980-81

1984-85

पी.एच.

7.9

8.6

8.8

चालकता माइक्रोमोस मौस

215

327

543

क्षारीयता मिग्रा/ली.

97

145

195

कैल्शियम मिग्रा/ली.

34

42

71

मैग्निशियम मिग्रा/ली.

7

17

उपलब्ध नहीं

फास्फेट-पी माइक्रो/ली.

20

93

115

नाइट्रेट-एन माइक्रो/ली.

105

556

780

अमोनिया-एन माइक्रो/ली.

250

730

850

संरक्षण नीति


- मत्स्य नियम एवं विनिमयन का कठोर प्रवर्तन।
- अवैधानिक तथा विध्वंसक आखेट पर प्रतिबन्ध।
- प्रजनन क्षेत्रों की सुरक्षा
- जलस्रोतों के आवाह क्षेत्रों का उचित विकास
- बड़े पैमानों पर कृत्रिम प्रजनन द्वारा लुप्तप्राय प्रजातियों का बीज उत्पादन तथा मत्स्य बीज संरक्षण।
- लुप्तप्राय प्रजातियों का निरन्तर पुर्नवास कार्यक्रम।

संस्थान द्वारा उठाए गए कदम


संस्थानों ने अभी तक पर्वतीय क्षेत्रों की महत्त्वपूर्ण स्थानीय प्रजातियों के कृत्रिम प्रजनन व उनके संरक्षण हेतु अनुसंधान कार्य को वरीयता के आधार पर किया है। संस्थान का यह मुख्य उद्देश्य भी है। सुनहरी महाशीर के सम्बन्ध में संस्थान अभी तक इस दिशा में सफलता प्राप्त कर चुका है।

वांछित परिणाम प्राप्त करने हेतु यह आवश्यक है कि इस क्षेत्र में कार्य करने वाली सभी इकाईयाँ एकजुट होकर सहभागिता के साथ मत्स्य अनुसंधान प्रबन्धन एवं संरक्षण तथा राष्ट्रीय कार्य समझ कर करें।

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